औषधीय गुणों से भरपूर भमोरा (Cornus Capitata) उत्तराखण्डी फल
HIGH LIGHT# Himalayauk Newsportal Bureau # भमोरा (Cornus Capitata) एक पहाडी फल- मिलेगा बरसात में .# औषधीय गुणों से भरपूर जंगली फलों का लाजवाब जायका हर किसी को इनका दीवाना बना देता है # पहाडी फलों की ऐसी सौ से ज्यादा प्रजातियां हैं, जो पहाड़ को प्राकृतिक रूप में संपन्नता प्रदान करती हैं। इन जंगली फलों में विटामिन्स और एंटी ऑक्सीडेंट भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं # रसिक जीजा साली को पके भमोरों का ही प्रलोभन देता है –:*Presents by Himalayauk Newsportal & Daily Newspaper, publish at Dehradun & Haridwar: Mob 9412932030 Mail; himalayauk@gmail.com
मौर (गढ़वाली में भमोरा) को भालू का गुलाब जामुन भी कहते हैं. और भालू ही क्यों गढ़वाल में जीजाओं का भी प्रिय फल है. असूज के महीने जब कौथिक नहीं होते तो रसिक जीजा साली को पके भमोरों का ही प्रलोभन देता है –
तै देवर डांडा भमोरा पक्यां लो चल दों मेरी स्याली भमोरा खयोला
दूरदर्शन निदेशक देहरादून डा0 सुभाष थलेडी ने हिमालयायूके सम्पादक चन्द्रशेखर जोशी के साथ भमोरा फल के अध्ययन के लिए विस्तार से एक टूर योजना बनाई है, डा0 थलेडी ने हिमालयायूके को बताया कि हिमालय क्षेत्रों में भमोरा सितम्बर से नवम्बर के मध्य पकता है तथा पकने के बाद इसका फल स्ट्रॉबेरी की तरह लाल हो जाता है जो पौष्टिक तथा औषधीय गुणों से भरपूर होने के साथ.साथ स्वादिष्ट भी होता है। भमोरा का सबसे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक पहलू यह है कि इसकी छाल तथा पत्तियॉ टेनिन निष्कर्षण के लिए प्रयुक्त होती है, जिसका फार्मास्यूटिकल उद्योग में औषधीय निर्माण हेतु अत्यधिक महत्व होता है। कारनस जीनस ही अपने आप में पॉली फिनॉलिक तत्वों जैसे टेनिन की मौजूदगी के लिए प्रसिद्ध है जिसमें मुख्यतः भ्लकतवसल्रंइसम टेनिन पाया जाता है।
उत्तराखण्ड हिमालय तथा संपूर्ण हिमालय क्षेत्र अपनी नैसर्गिक जैव विविधता के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। इस हिमालय क्षेत्र में असंख्य औषधीय तथा आर्थिक क्षमता वाले असंख्य पौधे पाये जाते है। हिमालय क्षेत्रों में पाये जाने वाले 8000 पुष्पीय पौधों की प्रजातियों में से लगभग 4000 प्रजातियां केवल गढवाल हिमालय क्षेत्रों में आंकी गयी है जिनमें से एक महत्वपूर्ण पौधा भमोरा है जिसका वैज्ञानिक नाम Cornus Capitata
पहाड़ का महत्वपूर्ण फल भमोरा के बारे में दूरदर्शन निदेशक डा0 सुभाष थलेडी ने हिमालयायूके से इस फल के बारे में पूछा तो हैरानी की बात यह रही कि पर्वतीय समाज तक इस फल के बारे में बताने में असफल रहा- इस पर डा0 थलेडी ने लिखा कि जोशी जी बडी निराशा होती है कि इस महत्वपूर्ण फल के बारे में हमारा पर्वतीय समाज अनजान है इस पर हिमालयायूके सम्पादक ने डा0 थलेडी के साथ जुलाई आखिर माह में उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रो का एक विहंगम भमण की योजना प्लान की जिसे डा0 थलेडी ने सहर्ष स्वीकार किया-
यह Cornaceae कुल से संबंध रखता है। वैसे तो भमोरे का फल विरल ही खाने को मिलता है परंतु चारावाहो द्वारा आज भी जंगलों में इसके फल को खाया जाता है। यह हिमालयी क्षेत्रों में पाये जाने वाला अत्यन्त महत्वपूर्ण पौधा है। इसी वजह से इसे हिमालयन स्ट्राबेरी का नाम दिया गया है। वैसे तो भमोरा संपूर्ण हिमालय क्षेत्रों यथा-भारत, चीन, नेपाल, आस्ट्रेलिया आदि में पाया जाता है परंतु इसका उद्भव भारत के उत्तरी हिमालय तथा चीन में ही माना जाता है। सामान्यतः यह 1000 से 3000 मी0 ऊॅचाई तक पाया जाता है। हिमालय क्षेत्रों में भमोरा सितम्बर से नवम्बर के मध्य पकता है तथा पकने के बाद इसका फल स्ट्रॉबेरी की तरह लाल हो जाता है जो पौष्टिक तथा औषधीय गुणों से भरपूर होने के साथ-साथ स्वादिष्ट भी होता है।
पारम्परिक रूप से भी भमोरा की कुछ प्रजातियां
पारम्परिक चाईनीज तथा कोरियन औषधीयों में जैसे. खांसी, फ्लू, मुत्र रोग, अतिसार रोगों के निवारण के
साथ.साथ लीवर तथा किडनी के बेहतर कार्यप्रणाली के लिए भी प्रयुक्त होता है। जहॉ तक
भमोरे के फल का पोष्टिक गुणवता की बात की जाय तो इसमें प्रोटीन.2.58 प्रतिशत, फाइबर.10.43 प्रतिशत, वसा.2.50 प्रतिशत, पोटेशियम 0.46 मि0ग्रा0 तथा फासफोरस.0.07 मि0ग्रा0 प्रति 100 ग्राम तक पाये जाते है।
उत्तराखण्ड में पाये
जाने वाले भमोरा तथा कई अन्य पोष्टिक एवं औषधीय रूप से महत्वपूर्ण जंगली उत्पादों
का यदि विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन कर इनकी आर्थिक क्षमता का आंकलन किया जाय तो यह
प्रदेश के जंगली उत्पादों को विश्वभर में एक नई पहचान दिलाने में सक्षम है। सिर्फ
मेहनत लगेगी पैसे की जरूरत नहीं होगी। उत्तराखंड में सेकड़ों फल ऐसे ही जंगलों में
उगते हैं, लेकिन पर्याप्त जानकारी
और मार्किट के ना होने की वजह से वो जंगल में ही बर्बाद हो जाते हैं, ऐसी वनस्पतियों को यदि रोजगार
से जोड़े तो शायद इसमें मेहनत भी कम हो सकती है क्योंकि यह स्वतः ही पैदा हो जाने
वाली जंगली वनस्पति है। वही लोगों तथा सरकार द्वारा इनके आर्थिक महत्व पर ज्यादा
ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यदि इन वहुउद्ेशीय पादपों के आर्थिक महत्व पर गहनता से
कार्य किया जाता है तो पहाड़ो से पलायन जैसी समस्या से काफी हद तक निजात पाया जा
सकता है
भमोरा का सबसे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक पहलू यह है कि इसकी छाल तथा पत्तियॉ टेनिन निष्कर्षण के लिए प्रयुक्त होती है जिसका फार्मास्यूटिकल उद्योग में औषधीय निर्माण हेतु अत्यधिक महत्व होता है। कारनस जीनस ही अपने आप में पॉली फिनॉलिक तत्वों जैसे टेनिन की मौजूदगी के लिए प्रसिद्ध है जिसमें मुख्यतः Hydrolyzable टेनिन पाया जाता है। कई वैज्ञानिक अध्ययनों में भमोरा की जडों से पॉली फिनॉल का निष्कर्षण किया गया है। सिद्ध एवं ठाकुर वर्ष 2015 ’अन्तर्राष्ट्रीय जनरल ऑफ फार्मटेक रिसर्च’ में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार भमोरा में मधुनाशी गुण भी पाये जाते है। इसके फल में एक महत्वपूर्ण अव्यव एन्थोसाइनिन
इसमें मौजूद टेनिन जो एक एस्ट्रीजेन्ट के रूप में दर्द तथा बुखार के निवारण हेतु प्रयुक्त होता है भी पाया जाता है। कई वैज्ञानिक अध्ययनों में यह भी बताया गया कि भमोरा में मौजूद टेनिन कुनैन के विकल्प के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। पारम्परिक रूप से भी भमोरा की कुछ प्रजातियां पारम्परिक चाईनीज तथा कोरियन औषधीयों में जैसे- खांसी, फ्लू, मुत्र रोग, अतिसार रोगों के निवारण के साथ-साथ लीवर तथा किडनी के बेहतर कार्यप्रणाली के लिए भी प्रयुक्त होता है। जहॉ तक भमोरे के फल का पोष्टिक गुणवता की बात की जाय तो इसमें प्रोटीन-2.58 प्रतिशत, फाइबर-10.43 प्रतिशत, वसा-2.50 प्रतिशत, पोटेशियम 0.46 मि0ग्रा0 तथा फासफोरस-0.07 मि0ग्रा0 प्रति 100 ग्राम तक पाये जाते है।
उत्तराखण्ड में पाये जाने वाले भमोरा तथा कई अन्य पोष्टिक एवं औषधीय रूप से महत्वपूर्ण जंगली उत्पादों का यदि विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन कर इनकी आर्थिक क्षमता का आंकलन किया जाय तो यह प्रदेश के जंगली उत्पादों को विश्वभर में एक नई पहचान दिलाने में सक्षम है।
उत्तराखंड के पहाड़ों में 1500 से 2300 मीटर की ऊंचाई पर उगने वाला एक फल होता है – बमौर. पका हुआ लीची का फल यदि गोल होता तो देखने में थोड़ा-थोड़ा बमौर जैसा लगता. इसकी छाल अलबत्ता लीची से बिलकुल अलग और मुलायम होती है. Rare Uttarakhand Fruit Bamor
इसी तरह नरेन्द्र सिंह नेगी के एक गीत में ग्वाले एक लड़की को ये कहकर छेड़ते हैं –
ग्वेर छोरों न् गोरू चरैनी त्वैन डाल्युं मा बैठी भमोरा बुकैनी
किलै तू छोरी छैलु बैठीं रै आयो लछि घौर रुमुक पड़ीग्य
उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल के पारंपरिक खानपान में जितनी विविधता एवं विशिष्टता है, उतनी ही यहां के फल-फूलों में भी। खासकर जंगली फलों का तो यहां समृद्ध संसार है। यह फल कभी मुसाफिरों और चरवाहों की क्षुधा शांत किया करते थे, लेकिन धीरे-धीरे लोगों को इनका महत्व समझ में आया तो लोक जीवन का हिस्सा बन गए। औषधीय गुणों से भरपूर जंगली फलों का लाजवाब जायका हर किसी को इनका दीवाना बना देता है।
उत्तराखंड में जंगली फल न केवल स्वाद, बल्कि सेहत की दृष्टि से भी बेहद अहमियत रखते हैं। बेडू, तिमला, मेलू (मेहल), काफल, अमेस, दाड़िम, करौंदा, बेर, जंगली आंवला, खुबानी, हिंसर, किनगोड़, खैणु, तूंग, खड़ीक, भीमल, आमड़ा, कीमू, गूलर, भमोरा, भिनु समेत पहाडी फलों की ऐसी सौ से ज्यादा प्रजातियां हैं, जो पहाड़ को प्राकृतिक रूप में संपन्नता प्रदान करती हैं। इन जंगली फलों में विटामिन्स और एंटी ऑक्सीडेंट भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। आइए! कुछ प्रमुख जंगली फलों की खूबियों से हम भी परिचित हो लें।
औषधीय गुणों से भरपूर जंगली फलों का लाजवाब जायका हर किसी को इनका दीवाना बना देता है। जंगली फल न केवल स्वाद, बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बेहद अहमियत रखते हैं। बेडू, तिमला, मेलू या मेहल, काफल, अमेस, दाड़िम, करौंदा, बेर, जंगली आंवला, खुबानी, हिंसर, किनगोड़, खैणु, तूंग, खड़ीक, भीमल, आमड़ा, कीमू, गूलर, भमोरा, भिनु समेत जंगली फलों की ऐसी सौ से ज्यादा प्रजातियां हैं, जो पहाड़ को प्राकृतिक रूप में संपन्नता प्रदान करती हैं। इन जंगली फलों में विटामिन्स व एंटी ऑक्सीडेंट भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं।
वही इसके अलावा आप गर्मियों में उत्तराखंड आए और काफल (मिरिका एस्कुलेंटा) का स्वाद नहीं लिया तो समझिए यात्रा अधूरी रह गई। समुद्रतल से 1300 से 2100 मीटर की ऊंचाई पर मध्य हिमालय के जंगलों में अपने आप उगने वाला काफल एंटी-ऑक्सीडेंट गुणों के कारण हमारे शरीर के लिए बेहद लाभकारी है। इसका छोटा-सा गुठलीयुक्त बेरी जैसा फल गुच्छों में आता है और पकने पर बेहद लाल हो जाता है। तभी इसे खाया जाता है। इसका खट्ठा-मीठा स्वाद मनभावन और उदर-विकारों में अत्यंत लाभकारी होता है। काफल अनेक औषधीय गुणों से भरपूर है। इसकी छाल का उपयोग जहां चर्मशोधन (टैनिंग) में किया जाता है, वहीं इसे भूख और मधुमेह की अचूक दवा भी माना गया है। फलों में एंटी-ऑक्सीडेंट गुण होने के कारण कैंसर व स्ट्रोक के होने की आशंका भी कम हो जाती है। काफल ज्यादा देर तक नहीं रखा जा सकता। यही वजह है उत्तराखंड के अन्य फल जहां आसानी से दूसरे राज्यों में भेजे जाते हैं, वहीं काफल खाने के लिए लोगों को देवभूमि ही आना पड़ता है। काफल के पेड़ काफी बड़े और ठंडे छायादार स्थानों में होते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में मजबूत अर्थतंत्र दे सकने की क्षमता रखने वाले काफल को आयुर्वेद में ‘कायफल’ नाम से जाना जाता है। इसकी छाल में मायरीसीटीन, माइरीसीट्रिन व ग्लाइकोसाइड पाया जाता है। इसके फलों में पाए जाने वाले फाइटोकेमिकल पॉलीफेनोल सूजन कम करने सहित जीवाणु एवं विषाणुरोधी प्रभाव के लिए जाने जाते हैं।
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