कोरोना महामारी की दूसरी लहर को केंद्रीय चुनाव आयोग ज़िम्मेदार-हत्या का मुक़दमा चले- हाई कोर्ट
26 April 2021: High Light: मद्रास हाई कोर्ट ने चुनाव आयोग को फटकार लगाते हुए कहा कि देश के लोगों का स्वास्थ्य सर्वोपरि है। अदालत ने कहा कि चिंता की बात यह है कि अदालत को यह याद दिलाना पड़ रहा है और इस वक्त हालात ऐसे हो गए हैं कि जिंदा रहने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। www.himalayauk.org (Newsportal)
मद्रास हाई कोर्ट ने कोरोना महामारी की दूसरी लहर का कारण पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों को मानते हुए इसके लिए केंद्रीय चुनाव आयोग को ज़िम्मेदार ठहराया है। अदालत ने एक याचिका पर सुनवाई के दौरान बहुत ही कड़े शब्दों में टिप्पणी करते हुए कहा कि केंद्रीय चुनाव आयोग के अफ़सरों पर हत्या का आरोप लगाया जाना चाहिए क्योंकि वे चुनाव प्रचार के दौरान कोरोना नियमों का पालन कराने में नाकाम रहे। अदालत ने निर्देश दिया है कि आयोग मतगणना के दिन कोरोना नियमों को सख्ती से लागू करवाए वर्ना मतगणना स्थगित कर दे।
मद्रास हाई कोर्ट ने बेहद तल्ख़ टिप्पणी करते हुए कहा, आपकी संस्था कोरोना की दूसरी लहर के लिए पूरी तरह ज़िम्मेदार है। संवभत: आपके अफ़सरों परहत्या का मुक़दमा चलाया जाना चाहिए।
चुनाव आयोग की यह टिप्पणी ऐसे समय आई है जब रोज़ाना कोरोना के नए मामले साढ़े तीन लाख के ऊपर पहुँच गए हैं, पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है और देश के कई राज्यों से लोगों के मरने की ख़बरें आ रही हैं। बता दें कि चुनाव की प्रक्रिया अभी भी चल ही रही है। आज यानी सोमवार को पश्चिम बंगाल में मतदान का सातवाँ चरण चल रहा है, इतना ही नहीं, अभी एक चरण बाकी है।
अदालत में सुनवाई के दौरान केंद्रीय चुनाव आयोग ने तर्क दिया कि उसने कोरोना प्रोटोकॉल जारी किया था और मतदान के दिन उसे सख्ती से लागू किया था। इस पर बिफर कर जज ने पूछा कि चुनाव प्रचार के समय क्या चुनाव आयोग दूसरे ग्रह पर था।
अदालत ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि 2 मई को वोटों की गिनती के दिन कोरोना नियमों का सख़्ती से पालन करवाए और ऐसा न हो सके तो मतगणना रोक दे।
मुख्य न्यायाधीश संजीव भट्टाचार्य ने कहा, चुनाव प्रचार के दौरान चुनाव आयोग मास्क लगाने, सैनिटाइजर का इस्तेमाल करने और सोशल डिस्टैंसिंग को लागू कराने में नाकाम रहा। हालांकि इसके पहले कोर्ट ने इससे जुड़ा आदेश दिया था। पर चुनाव आयोग ने उसे लागू नहीं करवाया।
मद्रास हाई कोर्ट ने चुनाव आयोग को फटकार लगाते हुए कहा कि देश के लोगों का स्वास्थ्य सर्वोपरि है। अदालत ने कहा कि चिंता की बात यह है कि अदालत को यह याद दिलाना पड़ रहा है और इस वक्त हालात ऐसे हो गए हैं कि जिंदा रहने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
मद्रास हाई कोर्ट के इस खंडपीठ में मुख्य न्यायाधीश के अलावा जस्टिस सेंथिलकुमार राममूर्ति भी थे। बेंच ने केंद्रीय चुनाव आयोग को निर्देश दिया है कि वह तमिलनाडु के मुख्य चुनाव अधिकारी और राज्य के स्वास्थ्य सचिव के साथ मिल कर मतगणना के दिन कोरोना नियमों को लागू करने की योजना बनाएं। यदि वे ऐसा नहीं कर सकते तो मतगणना रोक दें।
अस्पतालों में मरीज़ों के इलाज के लिए बिस्तर तो हैं ही नहीं, अब अंतिम संस्कार के लिए शवदाह गृहों में भी स्थान नहीं बचा है।
श्रवण गर्ग लिखते है कि सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़, कोरोना से होने वाली मौतों में हम ब्राज़ील के बाद दूसरे क्रम पर हैं। शवों का जिस तरह से अंतिम संस्कार हो रहा है, सच्चाई कुछ और भी हो सकती है। अस्पतालों में मरीज़ों के इलाज के लिए बिस्तर तो हैं ही नहीं, अब अंतिम संस्कार के लिए शवदाह गृहों में भी स्थान नहीं बचा है।
बात कोरोना महामारी को लेकर है। शुरुआत गुजरात से की जानी चाहिए। गुजरात के कथित ‘विकास मॉडल’ को ही अपने मीडिया प्रचार की सीढ़ी बनाकर नरेंद्र मोदी सात साल पहले एक मुख्यमंत्री से देश के प्रधानमंत्री बने थे। गुजरात उच्च न्यायालय ने हाल में कोरोना के इलाज की बदहाली पर एक स्व-प्रेरित याचिका को आधार बनाकर पहले तो यह टिप्पणी की कि राज्य ‘स्वास्थ्य आपातकाल’ की ओर बढ़ रहा है और बाद में उसने प्रदेश सरकार के इस दावे को भी ख़ारिज कर दिया कि स्थिति नियंत्रण में है। बात इसी महीने की है।
गुजरात उच्च न्यायालय ने ठीक एक साल पहले भी कोरोना के इलाज को लेकर ऐसी ही एक स्व-प्रेरित जनहित याचिका पर संज्ञान लेते हुए टिप्पणी की थी कि राज्य की हालत एक डूबते हुए टाइटेनिक जहाज़ जैसी हो गई है। तब उच्च न्यायालय ने अपने 143 पेज के आदेश में राज्य के सबसे बड़े अहमदाबाद स्थित सिविल अस्पताल की हालत को एक काल कोठरी या उससे भी बदतर स्थान निरूपित किया था।
इसके बहाने देश के अन्य स्थानों पर कोरोना के इलाज की मौजूदा स्थिति का भी अंदाज लगाया जा सकता है। हालांकि देश की मौजूदा हालत के बारे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गुजरात उच्च न्यायालय के जैसा कोई संज्ञान लिया जाना अभी शेष है। बताया जाता है कि प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में संक्रमण की दर मुंबई और दिल्ली से भी अधिक है।
कोरोना महामारी का प्रकोप शुरू होने के साल भर बाद भी देश उसी जगह और बदतर हालत में खड़ा कर दिया गया है जहां से आगे बढ़ते हुए महाभारत की तरह इस युद्ध पर तीन सप्ताहों में ही जीत हासिल कर लेने का दम्भ भरा गया था।
गर्व के साथ गिनाया गया था कि हमारे यहाँ महामारी से प्रभावित होने वालों और मरने वालों की संख्या दुनिया के दूसरे मुल्कों के मुक़ाबले कितनी कम है! हाल-फिलहाल उन आँकड़ों की बात न भी करें जो कि कथित तौर पर बताए नहीं जा रहे हैं तो भी संक्रमित होने वाले नए मरीज़ों की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध संख्या में भारत विश्व में इस समय सबसे आगे बताया गया है।
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़, कोरोना से होने वाली मौतों में हम ब्राज़ील के बाद दूसरे क्रम पर हैं। शवों का जिस तरह से अंतिम संस्कार हो रहा है, सच्चाई कुछ और भी हो सकती है।
पिछली बार जब लाखों प्रवासी मज़दूर अपने घरों को लौट रहे थे तब उनके झुंड के झुंड सड़कों पर पैदल चलते हुए नज़र आ जाते थे। इस समय सड़कें ख़ाली हैं, मज़दूर अपने घरों को लौट भी रहे हैं पर देश को नज़र कुछ भी नहीं आ रहा है।
अमेरिका के प्रसिद्ध अख़बार ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने एक संस्था ‘कैसर फ़ैमिली फ़ाउंडेशन’ के साथ मिलकर हाल ही में वहाँ के राज्यों के उन 1300 अग्रिम पंक्ति स्वास्थ्य कर्मियों (फ़्रंट लाइन हेल्थ वर्कर्स) से बातचीत की जो इस समय कोरोना मरीज़ों की चिकित्सा सेवा में जुटे हुए हैं। बातचीत चौंकाने वाली सिर्फ़ इसलिए मानी जा सकती है कि जो उजागर हुआ है वह न सिर्फ़ हमारे यहाँ के अग्रिम पंक्ति के कोरोना स्वास्थ्यकर्मियों बल्कि आम नागरिकों के संदर्भ में भी उतना ही सही और परेशान करने वाला है।
बातचीत में बताया गया है कि ये चिकित्साकर्मी इस समय तरह-तरह की चिंताओं और काम की थकान से भरे हुए हैं। चौबीसों घंटे डर सताता रहता है कि या तो वे स्वयं संक्रमित हो जाएँगे या फिर उनके कारण परिवार के अन्य लोग अथवा मरीज़ प्रभावित हो जाएँगे।
पूरे समय पीपीई (पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विप्मेंट) पहने रहने से ज़िंदगी में सब कुछ बदल गया है। चेहरे पर लगे रहने वाले मास्क ने इतनी निष्ठुरता उत्पन्न कर दी है कि ख़ुशी के क्षणों में मरीज़ों के चेहरों की मुस्कान और पीड़ा के दौरान उनके चेहरों पर दर्द के भाव नहीं पढ़ पाते हैं। बुरी से बुरी ख़बर भी अपने चेहरों को मास्क के पीछे छुपाकर उन्हें देनी पड़ रही है।
क्या आश्चर्यजनक नहीं लगता कि इस समय हमारे शासक अपने ही नागरिकों से हरेक चीज़ या तो छुपा रहे हैं या फिर ‘अर्ध सत्य’ बाँट रहे हैं। धोखे में रखा जा रहा है कि किसी भी चीज़ की कोई कमी नहीं है। वैक्सीन, ऑक्सिजन, रेमडेसिविर इंजेक्शन, अस्पतालों में बेड्स, डाक्टर्स आदि का कोई अभाव नहीं है। फिर भी लोग मारे जा रहे हैं।
थोड़े दिनों में कहा जाएगा कि देश में शवदाह गृहों की कोई कमी नहीं है। राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति के लिए हज़ारों-लाखों लोगों की चुनावी रैलियाँ और रोड शो कर रहे हैं, धर्मप्राण जनता पवित्र स्नानों में जुटी है और बाक़ी देश को महामारी से लड़ने के लिए आत्म-निर्भर कर दिया गया है। आगे चलकर कह दिया जाएगा कि कोरोना का संक्रमण इलाज की व्यवस्था में कमियों, चुनावी रैलियों और लाखों के पुण्य स्नानों से नहीं बल्कि लोगों के द्वारा आपस में आवश्यक दूरी बनाए रखने और मास्क लगाकर रखने के अनुशासन का ठीक से पालन नहीं करने से फैल रहा है।
चुनावी रैलियों और धार्मिक जमावड़ों पर किसी भी तरह की रोक इसलिए नहीं लगाई जा सकती कि लोगों को उनकी धार्मिक आस्थाओं के आधार पर आपस में बाँटकर आबादी के एक बड़े समूह को सत्ता-प्राप्ति का साधन बना दिया गया है। इस समूह को नाराज़ करके सत्ता में टिके नहीं रहा जा सकता। इसीलिए पीड़ित जनता चुपचाप देख रही है कि जो लोग कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई का नेतृत्व कर रहे हैं वे ही किस तरह से उसके संक्रमण को बढ़ावा भी दे रहे हैं।
जैसे जनता के पैसों से वेंटिलेटरों के नाम पर अनुपयोगी चिकित्सा उपकरण सफलतापूर्वक ख़रीद लिए गए वैसा ही कुछ विकास के मॉडल के साथ भी हुआ लगता है। स्थिति ऐसे ही बिगड़ती रही तो हो सकता है किसी दिन सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़े कि देश एक स्वास्थ्य आपातकाल की ओर बढ़ रहा है और उसकी हालत एक डूबते हुए टाइटेनिक जहाज़ जैसी हो गई है।
वही दूसरी ओर शायद आपको याद हो किवाराणसी की जनता से बात करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ये बात कही थी
“महाभारत का युद्ध 18 दिन में जीता गया था. आज कोरोना के ख़िलाफ़ जो युद्ध पूरा देश लड़ रहा है, हमारा प्रयास है कि इसे 21 दिन में जीत लिया जाए. महाभारत के युद्ध के समय भगवान कृष्ण महारथी थे, सारथी थे. आज 130 करोड़ महारथियों के बलबूते हमें कोरोना के ख़िलाफ़ इस लड़ाई को जीतना है.”
निश्चित तौर पर कोरोना के ख़िलाफ़ महाभारत की लड़ाई में जनता के योगदान को कोई नकार नहीं सकता. लेकिन लड़ाई के महारथी और सारथी का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है. जंग जीतने की ज़िम्मेदारी योद्धाओं के साथ नेतृत्व पर भी होती है. आखिर कौन हैं इस युद्ध के मुख्य चेहरे;यह तो पता चले-
शासक अभी चुनावी पानी के अंदर ही हैं और उनका शाही स्नान ख़त्म होना बाक़ी है। अब मौतों की इस ‘तांडव’ सीरीज पर रोक की माँग कौन करेगा?