देहरादून में झण्डा साहिब का उत्सव
देहरादून के संस्थापक श्रीगुरु रामराय जी की पुण्य स्मृति में झण्डा साहिब का उत्सव# जीवन का अधिकांश समय बाबा जी ने यहीं पर व्यतीत किया। बाबा जी की देह विसर्जन की तिथि भाद्र सुदी ८ संवत १७४४ (१६८७ ई०) मानी जाती है। बाबा जी अनेक प्रकार की ऋषि-सिद्धी व चमत्कारित शक्तियों से युक्त थे। इन शक्तियों के होते हुए बाबा जी का स्वभाव अत्यंत निर्मल व मृदु था। बाबा जी परम योगी थे तथा समाधिस्थ अवस्था पसंद करते थे।
– सम्पादक चन्द्रशेखर जोशी की रिपोर्ट-
झण्डा मेले का आयोजन प्रत्येक वर्ष होली के बाद पांचवे दिन देहरादून में ऐतिहासिक गुरु रामराय दरबार में गुरु की पवित्र स्मृति में लगता है। मेले का प्रारम्भ ऐतिहासिक परिसर के अहाते में स्थित डण्डे पर नया झण्डा लगाकर किया जाता है। देहरादून के संस्थापक की पुण्य स्मृति में प्रति वर्ष झण्डा साहिब का उत्सव उनके जन्मदिन चैतवदी पंचमी से आरम्भ होता है। विभिन्न प्रांतों के अनुयायी श्रद्धा के साथ आकर अपने ईष्ट गुरु बाबा रामराय जी का जन्म दिन मनाते हुए श्री दरबार साहिब का दर्शन करते हैं।
देहरादून नगर के संस्थापक और उदासीन परम्परा के गुरु रामराय जी ने सन् १६९९ में धामावाला में झण्डा दरबार की स्थापना की थी। तत्कालीन मुगल शैली की वास्तुकला का अनूठा यह भवन सन् १७०७ में उनकी पत्नी माता पंजाब कौर द्वारा भव्य रुप में निर्मित किया गया। गुरु दरबार में प्रथम महन्त गुरु रामराय के बाद १६९९-२००३ के बीच श्री महन्त औद्दास जी, श्री महन्त हर प्रसाद जी, श्री महन्त हरसेवक जी, श्री महन्त स्वरुप दास जी, श्री महन्त प्रीतम दास जी, श्री महन्त इन्द्रेश चरण दास जी व वर्तमान में श्री महन्त देवेन्द्र दास जी ने गुरु परम्परा को आगे बढाया।
एटकिन्सन गजेटियर के अनुसार १७वीं शताब्दी में जब श्री महन्त गुरु रामराय जी अपने पिता की गद्दी पाने में सफल नहीं हुए तो वे अपने भक्तों के साथ टोंस नदी के बायें तरफ अवस्थित कांडली गांव में रहे, बाद में उन्होंने खुडबुडा में डेरा डाला। उन्होंने मुगल सम्राट औरंगजेब का संस्तुति पत्र तत्कालीन गढवाल के राजा फतेह शाह को दिया। उनके आगमन से अनेक भक्त प्रभावित हुए। सन् १६७६ में सिख गुरु रामराय के आगमन तथा उनके सम्मान में उत्सव मनाया गया जब से हर वर्ष उनकी स्मृति में चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की षष्ठी में झण्डा चढाया जाता है जिसमें उत्तर भारत के तीर्थयात्री भारी संख्या में भाग लेते हैं।
यह मेला पारम्परिक, आध्यात्मिक भाव को समाहित किये हुए मनाया जाता है। मेले में पंजाब से गुरु रामराय जी के भक्त पैदल चल कर देहरादून आते हैं। लाखों की संख्या में विभिन्न प्रान्तों से भक्त जन मेले में शिरकत करते हैं। गुरु रामराय दरबार के श्री महन्त पारम्परिक वेशभूषा में जुलूस की अगुवाई करते हुए शहर की परिक्रमा करते हैं। झण्डे की पूजा अर्चना के बाद पुराने झण्डे को उतारा जाता है तथा काफी लम्बे ध्वज दण्ड में बंधे पुराने कपडे, आवरण, दुपट्टे आदि हटाये जाते हैं। ध्वज दण्ड को ढका जाता है और बाद में ध्वज को मखमल के गहरे रंग का आवरण पहनाया जाता है। पवित्र जल छिडका जाता है तथा भक्त जनों द्वारा ध्वज दण्ड में रंगीन रुमाल, दुपट्टे आदि बांधे जाते हैं। बाद में झण्डा साहब को भक्त जनों द्वारा रस्सी व हाथों से चढाया जाता है।
बाबा रामराय जी का, गुरु हरराय साहिब के ज्येष्ठ पुत्र थे। चैतवदी पंचमी संवत १७०३ विक्रमी के दिन माता सुलक्खिणी के गर्भ से कीरतपुर जिला रूपड, पंजाब में इनका जन्म हुआ था। प्रतिवर्ष इसी तिथि को श्री दरबार साहिब के बाहरी प्रांगण में झण्डा चढाने की परिपाटी सम्पन्न की जाती है। इसी झण्डे के कारण यह उत्सव मेला झण्डा साहिब के नाम से विख्यात है। इसी परिपाटी के साथ झण्डे का उत्सव दस दिन तक चलता है। दूर-दूर से आये श्रद्धालुओं के लिए अनवरत भण्डारे तथा विश्रामालय का उचित प्रबन्ध किया जाता है।
बाबा रामराय जीः
बाबा रामराय जी को प्राचीन ग्रन्थों में ”कर्त्ता पुरुष प्रभु दयालु, रामराजा अर्न्तयामी, समर्थ“ आदि नामों से सम्बोधित किया गया है। मुगल बादशाीह औरगंजेब भी बाबा जी को हिन्दू पीर कहकर आदर देता था। बाबा जी का जीवन काल संवत १७०३ विक्रमी तद्नुसार सन् १६४६ ई० से संवत १७४४ विक्रमी तद्नुसार १६८७ ई० तक है। इस काल में बाबा जी द्वारा अनेक महान कार्य किये गये जिससे आज ३०० वर्ष उपरांत भी श्रद्धालुओं की संख्या में लगातार वृद्धि होती जा रही है।
बाबा रामराय जी की शिक्षा दीक्षा
बाबा रामराय जी का अधिकांश जीवन कीरतपुर में व्यतीत हुआ। यहां पर दीवान दुर्गामल के निर्देशन में आपने संस्कृत, गुरुमुखी तथा फारसी भाषाओं की शिक्षा ली। दीवान साहिब गुरु हरराय जी के दरबार में शिरोमणि विद्वान थे। बाबा जी प्रतिदिन नियमानुसार गुरु ग्रन्थ साहिब का पाठ करते थे तथा कई वाणियां आपको कंठस्थ हो गयी थी। शस्त्र-शास्त्र विद्या में भी आप पूर्ण निर्पुण थे। अपने पूज्य पिता गुरु हरराय जी से ज्ञान ध्यान की विद्या उन्होंने अर्जित की। परमब्रह्मा परमेश्वर का ध्यान समाधिस्थ अवस्था में आप काफी समय तक किया करते थे।
१५ वर्ष की अल्पायु से ही आप परम योगी की सिद्धि अवस्था को प्राप्त कर चुके थे। बाबा जी के अनेक चमत्कारों का वर्णन प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। बाबा जी के चमत्कारों ने बादशाह औरगंजेब को भी नतमस्तक कर दिया। इस तथ्य का प्रभाव श्री दरबार साहिब देहरादून की चारदीवारी में एक शिलालेख के रुप में आज भी फारसी कविता में सुरक्षित है।
महिमा प्रकाश में वर्णन है, बादशाह औरंगजेब ने जब बाबा जी का दर्शन किया तो अत्यधिक प्रभावित हुआ और रामराय जी से इस प्रकार प्रश्न कियाः
”हे साहिब, तुम फकीर हो पाक, बडे बली साहिब करामात, वली अहदि लाएक टिक्के के, गुरु हरकिशन जी बेटे छुटके।
गुरु आई अपनी इनको दीन, वह उल्टी रीति कुछ जाय न चीना।“ (महिमा प्रकाश में इसका वर्णन है)
बाबा रामराय जी ने इसका उत्तर दियाः
“श्री रामराय जी कहा समझाए, श्री संत गुरु साहिब बेपरवाह, कर कृपा जिनह गुरिआई दीना, हम इनके सेवक सब अधीना करामात जाहर हम कीना, ईह ईतराज भए प्रभु परवीना, ईह कारण हमको तिलक न दिया, सो कारण सफल जु सत कीया।”
बाबा रामराय जी ने गुरु हरकिशन जी का अंतिम संस्कार दिल्ली में किया था और उनके फूल लेकर सेवकों समेत हरिद्वार श्रीगंगा जी अर्पण हेतु पधारे थे। उस समय उनके साथ उनकी माता सुलक्खिणी जी, दीवान दुर्गामल और कुछ सेवक थे। इस तथ्य की पुष्टि हरिद्वार निवासी भवानी दास मिश्र पण्डे के बही से होती है।
गुरु हरकिशन जी के अन्तिम शब्द थे ”बाबा वकाले“। जिसका तात्पर्य उनके उस उत्तराधिकारी से था जो उस समय ग्राम वकाले अमृतसर में रहते थे। एवं परिवार में सबसे बडे होने के कारण बाबा तेगबहादुर कहलाते थे। जब गुरु तेग बहादुर को गुरुआई का तिलक लगा दिया तो समय समय बाबा रामराय जी भी दीवान में सुशोभित थे। इसके बाद रामराय जी जगत के सब नश्वर पदार्थो को त्याग कर दून घाटी में घने जंगल में आ विराजे। इस स्थान पर बाबा जी डेरा लगाकर परब्रह्मा परमेश्वर की स्मृति में जीवन व्यतीत करने लगे। यहां दूर-दूर से चलकर अनगिनत श्रद्धालु आने लगे।
इसी समय आलमगीर औरगंजेब की आज्ञा से गढवाल के राजा फतेहशाह बाबा जी के लिए अमूल्य वस्तुएं भेट लेकर स्वयं उपस्थित हुए। बाबा जी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर राजा फतेहशाह ने बाबा जी से सदैव इसी स्थान पर निवास करने की प्रार्थना की तथा समीप के सात गांव जिसमें खुरबदी, धतमावाला, चापासारी, धरतीबली, पंडितवाडी, मियांवाला, राजपुर की जागीर आपको भेंट कर दी। राजा की प्रार्थना को स्वीकार कर बाबा जी ने डेरा स्थापित किया। इस स्थान के निकट ही नगर आबाद हो गया जो कालान्तर में बाबा राम राय जी की पवित्र भूमि में पहले डेरादून और बाद में देहरादून कहलाने लगा।
जीवन का अधिकांश समय बाबा जी ने यहीं पर व्यतीत किया। बाबा जी की देह विसर्जन की तिथि भाद्र सुदी ८ संवत १७४४ (१६८७ ई०) मानी जाती है। बाबा जी अनेक प्रकार की ऋषि-सिद्धी व चमत्कारित शक्तियों से युक्त थे। इन शक्तियों के होते हुए बाबा जी का स्वभाव अत्यंत निर्मल व मृदु था। बाबा जी परम योगी थे तथा समाधिस्थ अवस्था पसंद करते थे।
गुरु महाराज जी २२ वर्षो तक देहरादून में तपस्या में लीन रहने के पश्चात १६८७ में ज्योति-ज्योत समा गए। उनके पश्चात ५२ वर्षो तक दरबार का कामकाज उनकी रानी माता पंजाब कौर ने देखा उसके पश्चात महन्त परम्परा का प्रारम्भ हुआ। पहले महन्त हुए औद दास जी २- महन्त हरप्रसाद जी ३- महन्त हरसेवक जी, ४- महन्त स्वरुप दास जी, ५- महन्त प्रीतम दास जी ६- महन्त नारायण दास जी ७- महन्त प्रयाग दास जी ८- महन्त लक्ष्मण दास जी ९-महन्त इन्दिरेश चरण दास जी १०- वर्तंमान में महन्त देवेन्द्र दास जी गद्दीनशीन हैं। पूजनीय महन्त देवेन्द्र दास जी बडा जी सादा और सात्विक जीवन व्यतीत करते हुंए जनसाधारण की सेवा में रत रहते हैं। दरबार साहिब के नाम से विख्यात आज श्री गुरुरामराय एजूकेशन मिशन के ११५ स्कूल सफलतापूर्वक चल रहे हैं। महन्त जी के प्रयासों से दरबार साहिब ज्ञान का वट वृक्ष बन चुका है।
दरबार साहिब उदासीन सम्प्रदाय का धर्मस्थल है। उदासीन सम्प्रदाय अति प्राचीन है जिसका वर्णन श्री रामचरितमानस में भी मिलता है। इस सम्प्रदाय के आधुनिक प्रवतर्कक प्रथम सिख गुरु श्री गुरुनानक जी के ज्येष्ठ पुत्र बाबा श्रीचन्द्र जी हैं जो उदासीन संयासी बन गये थे। फिर सातवे पातशाह गुरु हरराय साहिब के ज्येष्ठ पुत्र गुरु रामराय जी भी इस सम्प्रदाय में सम्मिलित हो गये। अतः दरबार साहिब में बाबा श्रीचन्द्र व गुरु रामराय जी की पूजा की जलात है। दरबार के महन्त की गद्दी उदासीनों की गद्दी है। उदासीन सम्प्रदाय के डेरे भारत व पाक में हैं।
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