योग और तप बल -सिद्धि के बलपर १४०० वर्ष जीए संत ज्ञानेश्वर
High Light #महान संत ज्ञानेश्वर महराज की, जिन्होंने योग के बल पर सैकड़ो साल जीने वाले चांगदेव का अभिमान भंग किया था। चांगदेव महाराज सिद्धि के बलपर १४०० वर्ष जीए थे।उन्होंने मृत्यु को ४२ बार लौटा दिया था । उन्हें प्रतिष्ठा का बडा मोह था # महज 21 साल की अल्पायु में 1296 ईसवी में भारत के महान संत एवं प्रसिद्ध मराठी कवि संत ज्ञानेश्वर जी ने संसारिक मोह-माया को त्याग कर समाधि ग्रहण कर ली। उनकी समाधि अलंदी में सिध्देश्वर मंदिर परिसर में स्थित #Execlusive Report by www.himalayauk.org###
महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में पैठण के पास आपेगांव में संत ज्ञानेश्वर का जन्म ई. सन् 1275 में भाद्रपद के कृष्ण अष्टमी को हुआ। उनके पिता विट्ठल पंत एवं माता रुक्मिणी बाई थीं। बहुत छोटी आयु में ज्ञानेश्वरजी को जाति से बहिष्कृत हो नानाविध संकटों का सामना करना पड़ा। उनके पास रहने को ठीक से झोपड़ी भी नहीं थी। संन्यासी के बच्चे कहकर सारे संसार ने उनका तिरस्कार किया। लोगों ने उन्हें सर्वविध कष्ट दिए, पर उन्होंने अखिल जगत पर अमृत सिंचन किया। वर्षानुवर्ष ये बाल भागीरथ कठोर तपस्या करते रहे। उनकी साहित्य गंगा से राख होकर पड़े हुए सागर पुत्रों और तत्कालीन समाज बांधवों का उद्धार हुआ। भावार्थ दीपिका की ज्योति जलाई। वह ज्योति ऐसी अद्भुत है कि उनकी आंच किसी को नहीं लगती, प्रकाश सबको मिलता है। ज्ञानेश्वरजी के प्रचंड साहित्य में कहीं भी, किसी के विरुद्ध परिवाद नहीं है। क्रोध, रोष, ईर्ष्या, मत्सर का कहीं लेशमात्र भी नहीं है। समग्र ज्ञानेश्वरी क्षमाशीलता का विराट प्रवचन है।
संत ज्ञानेश्वर जी भारत के महान संत और प्रसिद्ध मराठी कवि थे, उनका जन्म 1275 ईसवी में भाद्रपद के कृष्ण अष्टमी को हुआ था। महान संत ज्ञानेश्वर जी ने संपूर्ण महाराष्ट्र राज्य का भ्रमण कर लोगों को ज्ञान भक्ति से परिचित कराया एवं समता, समभाव का उपदेश दिया। 13वीं सदी के महान संत होने के साथ-साथ वे महाराष्ट्र-संस्कृति के आद्य प्रवर्तकों में से भी एक माने जाते थे।
महान संत ज्ञानेश्वर महराज की, जिन्होंने योग के बल पर सैकड़ो साल जीने वाले चांगदेव का अभिमान भंग किया था। चांगदेव महाराज सिद्धि के बलपर १४०० वर्ष जीए थे।उन्होंने मृत्यु को ४२ बार लौटा दिया था । उन्हें प्रतिष्ठा का बडा मोह था ।
उन्हों ने सन्त ज्ञानेश्वर की कीर्ति सुनी; उन्हें सर्वत्र सम्मान मिल रहा था । चांगदेव से यह सब सहा न गया, वे ज्ञानेश्वर से जलने लगे । चांगदेव को लगा, ज्ञानेश्वरजी को पत्र लिखूं । परन्तु उन्हें समझ नहीं रहा था कि पत्र का आरम्भ कैंसे करें । क्योंकि, उस समय ज्ञानेश्वर की आयु केवल सोलह वर्ष थी । अतः, उन्हें पूज्य कैंसे लिखा जाए ? चिरंजीव कैंसे लिखा जाए; क्योंकि वे महात्मा हैं । क्या लिखेंं, उन्हें कुछ समझ नहीं रहा था । इसलिए, कोरा ही पत्र भेज दिया ।
सन्तों की भाषा सन्त ही जानते हैं । मुक्ताबाई ने पत्र का उत्तर दिया – आपकी अवस्था १४०० वर्ष है। फिर भी, आप इस पत्र की भांति कोरे हैं !
यह पत्र पढकर चांगदेव को लगा कि ऐसे ज्ञानी पुरुष से मिलना चाहिए । चांगदेव को सिद्धि का गर्व था । इसलिए, वे बाघपर बैठकर और उस बाघ को सर्प की लगाम लगाकर ज्ञानेश्वरजी से मिलने के लिए निकले ।
जब ज्ञानेश्वरजी को ज्ञात हुआ कि चांगदेव मिलने आ रहे हैं, तब उन्हें लगा कि आगे बढकर उनका स्वागत-सत्कार करना चाहिए । उस समय सन्त ज्ञानेश्वर जिस भीत पर (चबूतरा) बैठे थे, उस भीत को उन्होंने चलने का आदेश दिया । भीत चलने लगी । जब चांगदेव ने भीत को चलते देखा, तो उन्हें विश्वास हो गया कि ज्ञानेश्वर मुझसे श्रेष्ठ हैं । क्योंकि, उनका निर्जीव वस्तुओंपर भी अधिकार है । मेरा तो केवल प्राणियोंपर अधिकार है । उसी पल चांगदेव ज्ञानेश्वरजी के शिष्य बन गए
कहने का आशय यह है कि मनुष्य योग और तप के बल से उम्र बढ़ाने की सिद्धि प्राप्त कर सकता है
संत ज्ञानेश्वर जी का शुरुआती जीवन काफी कष्टों से गुजरा, उन्हें अपने शुरुआती जीवन में तमाम मुसीबतों का सामना करना पड़ा था। जब वे बेहद छोटे थे, तभी उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया गया, यहां तक की उनके पास रहने को झोपड़ी तक नहीं थी, संयासी के बच्चे कहकर उनका अपमान किया गया। वहीं ज्ञानेश्वर जी के माता-पिता ने भी समाज का अपमान सहने के बाद अपने प्राण त्याग दिए थे। जिसके बाद ज्ञानेश्वर जी अनाथ हो गए लेकिन फिर भी वे घबराए नहीं और बड़ी समझदारी और हिम्मत से अपने जीवन का निर्वाह किया। जब वे महज 15 साल के थे, तब उन्होंने खुद को भगवान कृष्ण की भक्ति में खुद को पूरी तरह लीन कर लिया था और वे एक साध्य योगी बन चुके थे। उन्होंने अपने नाम के ”ज्ञानेश्वरी” नामक ग्रंथ की रचना की। उनका यह ग्रंथ मराठी भाषा का सबसे अधिक पसंद किए जाने वाला अद्धितीय ग्रंथ माना जाता है, उन्होंने अपने इस ग्रंथ में करीब 10 हजार पद्यों की रचना की है।
भारत के महान संत ज्ञानेश्वर जी 1275 ईसवी में महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले में पैठण के पास गोदावरी नदी के किनारे बसे आपेगांव में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन विट्ठल पंत और रुक्मिणी बाई के घर पैदा हुए थे। इनके पिता एक ब्राह्मण थे। उनके पिता ने शादी के कई सालों बाद कोई संतान पैदा नहीं होने पर अपनी पत्नी रुक्मिणी बाई की सहमति से संसारिक मोह-माया को त्याग कर वे काशी चले गए और उन्होंने संयासी जीवन ग्रहण कर लिया। इस दौरान उनके पिता विट्ठल पंत ने स्वामी रामानंद जी को अपना गुरु बना लिया था। वहीं कुछ समय बाद जब संत ज्ञानेश्वर जी के गुरु स्वामी रामानंद जी अपनी भारत यात्रा के दौरान आलंदी गांव पहुंचे, तब विट्ठल पंत की पत्नी से मिले और स्वामी जी ने उन्हें संतान प्राप्ति का आशीर्वाद दे दिया। जिसके बाद रुक्मिणी बाई ने स्वामी रामानंद जी को उनके पति विट्ठल पंत की संयासी जीवन ग्रहण करने की बात बताई, जिसके बाद स्वामी रामानंद जी ने विट्ठल पंत को फिर से ग्रहस्थ जीवन अपनाने का आदेश दिया। इसके बाद उन्हें संत ज्ञानेश्वर समेत निवृत्तिनाथ, सोपानदेव और 1 बेटी मुक्ताबाई पैदा हुई। संयासी जीवन छोड़कर ग्रहस्थ जीवन फिर से अपनाने की वजह से ज्ञानेश्वर जी के पिता विट्ठल पंत का समाज से बहिष्कृत कर दिया था, और इनका बड़ा अपमान किया। जिसके बाद ज्ञानेश्वर के माता-पिता इस अपमान के बोझ को सह न सके और उन्होंने त्रिवेणी में डूबकर प्राण त्याग कर दिए। माता-पिता की मौत के बाद संत ज्ञानेश्वर और उनके सभी भाई-बहन अनाथ हो गए। वहीं लोगों ने उन्हें गांव के अपने घर में तक नहीं रहने दिया, जिसके बाद अपना पेट पालने के लिए संत ज्ञानेश्वर को बचपन में भीख मांगने तक को मजबूर होना पड़ा था।
संत ज्ञानेश्वरजी की शुद्धिपत्र की प्राप्ति: काफी कष्टों और संघर्षों के बाद संत ज्ञानेश्वर जी के बड़े भाई निवृत्तिनाथ जी को गुरु गैनीनाथ से मुलाकात हुई। वे उनके पिता विट्ठल पंत जी के गुरु रह चुके थे, उन्होंने निवृत्तिनाथ जी को योगमार्ग की दीक्षा और कृष्ण की आराधना करने का उपदेश दिया, इसके बाद निवृत्तिनाथ जी ने अपने छोटे भाई ज्ञानेश्वर को भी दीक्षित किया। इसके बाद संत ज्ञानेश्वर अपने भाई के साथ बड़े-बड़े विद्धानों और पंडितों से शुद्दिपत्र लेने के उद्देश्य से वे अपने पैतृक गांव पैठण पहुंचे। वहीं इस गांव में वे दोनों कई दिनों तक रहें, उन दोनों की इस गांव में रहने के दिनों की कई चमत्कारिक कथाएं भी प्रचलित हैं। बाद में संत ज्ञानेश्वर जी की चमत्कारिक शक्तियों को देखकर गांव के लोग उनका आदर करने लगे और पंडितों ने भी उन्हें शुद्धिपत्र दे दिया।
संत ज्ञानेश्वर जी की प्रसिद्ध रचनाएं – Sant Dnyaneshwar Books; संत ज्ञाने्श्वर जी जब महज 15 साल के थे, तभी वे भगवान श्री कृषण के बहुत बड़े उपासक और योगी बन चुके थे। उन्होंने अपने बड़े भाई से दीक्षा लेकर महज 1 साल के अंदर भी हिन्दू धर्म के सबसे बड़े महाकाव्यों में से एक भगवतगीता पर टीका लिखी, उनके नाम पर ”ज्ञानेश्वरी” नामक यह ग्रंथ उनका सबसे अधिक प्रसिद्ध ग्रंथ कहलाया। “ज्ञानेश्वरी” ग्रंथ मराठी भाषा में लिखित अप्रितम ग्रंथ माना जाता है। आपको बता दें कि संत ज्ञानेश्वर जी ने अपने इस प्रसिद्ध ग्रंथ में करीब 10 हजार पद्यों में लिखा गया है। इसके अलावा संत ज्ञानेश्वर जी ने ‘हरिपाठ’ नामक किताब की रचना की है, जो कि भागवतमत से प्रभावित है। इसके अलावा संत ज्ञानेश्वर जी द्धारा रचित अन्य प्रमुख ग्रंथों में योगवसिष्ठ टीका, चांगदेवपासष्टी, अमृतानुभव आदि है।
संत ज्ञानेश्वर जी की मृत्यु – Sant Dnyaneshwar Death; महज 21 साल की अल्पायु में 1296 ईसवी में भारत के महान संत एवं प्रसिद्ध मराठी कवि संत ज्ञानेश्वर जी ने संसारिक मोह-माया को त्याग कर समाधि ग्रहण कर ली। उनकी समाधि अलंदी में सिध्देश्वर मंदिर परिसर में स्थित है। वहीं उनके उपदेशों और उनके द्धारा रचित महान ग्रंथों के लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है।
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Pasaydan – “पसायदान” मराठी
आता विश्वात्मकें देवें। येणे वाग्यज्ञें तोषावें।
तोषोनिं मज द्यावे। पसायदान हें॥
जें खळांची व्यंकटी सांडो।
तया सत्कर्मी- रती वाढो।
भूतां परस्परे पडो। मैत्र जिवाचें॥
दुरितांचे तिमिर जावो।
विश्व स्वधर्म सूर्यें पाहो।
जो जे वांच्छिल तो तें लाहो। प्राणिजात॥
वर्षत सकळ मंगळी।
ईश्वरनिष्ठांची मांदियाळी।
अनवरत भूमंडळी। भेटतु भूतां॥
चलां कल्पतरूंचे आरव।
चेतना चिंतामणींचें गाव।
बोलते जे अर्णव। पीयूषाचे॥
चंद्रमे जे अलांछन।
मार्तंड जे तापहीन।
ते सर्वांही सदा सज्जन। सोयरे होतु॥
किंबहुना सर्व सुखी। पूर्ण होऊनि तिन्हीं लोकी।