‘जी रे जाग रे’ ; उत्तराखंड में हरेला त्योहार
हरेला भी वैशाखी और होली की तरह ही कृषि प्रधान त्योहार है। इसमें जो बीज डाले जाते हैं वो सीजन में होने वाले अन्न के प्रतिक हैं। इन बीजों को धन-धान्य और समृद्धि के प्रतिक के तौर पर देखा जाता है। ‘जी रे जाग रे’ के रूप में जो भी कामनाएं की जाती हैं वो आज की अपेक्षाओं के समान बाजारवाद में रची-बसी नहीं होती। उत्तराखण्ड में श्रावण मास में पड़ने वाले हरेला को ही अधिक महत्व दिया जाता है! क्योंकि श्रावण मास शंकर भगवान जी को विशेष प्रिय है। यह तो सर्वविदित ही है कि उत्तराखण्ड एक पहाड़ी प्रदेश है और पहाड़ों पर ही भगवान शंकर का वास माना जाता है। इसलिए भी उत्तराखण्ड में श्रावण मास में पड़ने वाले हरेला का अधिक महत्व है। हरेला उत्तराखण्ड के परिवेश और खेती के साथ जुड़ा हुआ पर्व है। हरेला पर्व वैसे तो वर्ष में तीन बार आता है- हरेला श्रावण माह में मनाया जाता है। हरेला का मतलब होता है हरियाली का दिन, यह पर्व मूलत: हरियाली व खेती से जुड़ा है इसलिए यह किसानों द्वारा मनाया जाता है। इस पर्व पर किसान भगवान से अच्छी फसल की प्रार्थना करते हैं।
Chandra Shekhar Joshi: Editor; HIMALAYA GAURAV UTTRAKHAND;
हरेला पर्व (16 जुलाई) पर ततकालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने सार्वजनिक अवकाश घोषित किया था
चैत्र मास में – प्रथम दिन बोया जाता है तथा नवमी को काटा जाता है। 2- श्रावण मास में – सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है। 3- आश्विन मास में – आश्विन मास में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरा के दिन काटा जाता है। सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में हरेला बोने के लिए किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी का चयन किया जाता है। इसमें मिट्टी डालकर गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि 5 या 7 प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह को पानी छिड़कते रहते हैं। दसवें दिन इसे काटा जाता है। 4 से 6 इंच लम्बे इन पौधों को ही हरेला कहा जाता है। घर के सदस्य इन्हें बहुत आदर के साथ अपने शीश पर रखते हैं। घर में सुख-समृद्धि के प्रतीक के रूप में हरेला बोया व काटा जाता है! इसके मूल में यह मान्यता निहित है कि हरेला जितना बड़ा होगा उतनी ही फसल बढ़िया होगी! साथ ही प्रभू से फसल अच्छी होने की कामना भी की जाती है।
उत्तराखंड में मनाये जाने वाले त्यौहारों में एक प्रमुख त्यौहार है हरेला यह कर्क संक्रांति को मनाया जाता है। वैसे यह त्यौहार हर वर्ष सोलह जुलाई को होता है।पर कभी कभी इसमें एक दिन का अंतर हो जाता है। इस पर्व के लिये आठ दस दिन पहले घरों में पूजा स्थान में किसी जगह या छोटी डलियों में मिट्टी बिछा कर सात प्रकार के बीज जैसे- गेंहूँ, जौ, मूँग, उरद, भुट्टा, गहत, सरसों आदि बोते हैं और नौ दिनों तक उसमें जल आदि डालते हैं। बीज अंकुरित हो बढ़ने लगते हैं। हर दिन सांकेतिक रूप से इनकी गुड़ाई भी की जाती है हरेले के दिन कटाई। यह सब घर के बड़े बुज़ुर्ग या पंडित करते हैं। पूजा नैवेद्य आरती का विधान भी होता है। कई तरह के पकवान बनते हैं। इन हरे-पीले रंग के तिनकों को देवताओं को अर्पित करने के बाद घर के सभी लोगों के सर पर या कान के ऊपर रखा जाता है घर के दरवाजों के दोनों ओर या ऊपर भी गोबर से इन तिनकों को सजाया जाता है। कुँवारी बेटियां बड़े लोगो को पिठ्या (रोली) अक्षत से टीका करती हैं और भेंट स्वरुप कुछ रुपये पाती हैं। बड़े लोग अपने से छोटे लोगों को इस प्रकार आशीर्वाद देते हैं।
जी रया जागि रया
आकाश जस उच्च, धरती जस चाकव है जया
स्यावै क जस बुद्धि, सूरज जस तराण है जौ
सिल पिसी भात खाया जाँठि टेकि भैर जया
दूब जस फैलि जया…
दीर्घायु, बुद्धिमान और शक्तिमान होने का आशीर्वाद और शुभकामना से ओतप्रोत इस गीत का अर्थ है- जीते रहो जागृत रहो। आकाश जैसी ऊँचाई, धरती जैसा विस्तार, सियार की सी बुद्धि, सूर्य जैसी शक्ति प्राप्त करो। आयु इतनी दीर्घ हो कि चावल भी सिल में पीस के खाएँ और बाहर जाने को लाठी का सहारा लो,दूब की तरह फैलो. हरेले के दिन पंडित भी अपने यजमानों के घरों में पूजा आदि करते हैं और सभी लोगो के सर पर हरेले के तिनकों को रखकर आशीर्वाद देते हैं। लोग परिवार के उन लोगों को जो दूर गए हैं या रोज़गार के कारण दूरस्थ हो गए हैं उन्हें भी पत्रद्वारा हरेले का आशीष भेजते हैं.
ललित फुलारा
हरेला सिर्फ एक त्योहार न होकर उत्तराखंड की जीवनशैली का प्रतिबिंब है। यह प्रकृति के साथ संतुलन साधने वाला त्योहार है। प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन हमेशा से पहाड़ की परंपरा का अहम हिस्सा रहा है। हरियाली इंसान को खुशी प्रदान करती है। हरियाली देखकर इंसान का तन-मन प्रफुल्लित हो उठता है। इस बार हरेला 17 जुलाई को है। इस दिन पहाड़ी राज्य उत्तराखंड और वहां के मूल निवासी चाहे वो किसी भी शहर में बसे हो हरेले के त्योहार को मनाएंगे।
हरेले के त्योहार में व्यक्तिवादी मूल्यों के स्थान पर समाजवादी मूल्यों की वरियता दिखती है। क्योंकि, इस त्योहार में हम अपने घर का हरेला (समृद्धि) अपने तक ही सीमित न रखकर उसे दूसरे को भी बांटते हैं। यह विशुद्ध रूप से सामाजिक भलमनसाहत की अवधारणा है। हरेले के त्योहार में भौतिकवादी चीज़ों की जगह मानवीय गुणों को वरियता दी गई है। मानवीय गुण हमेशा इंसान के साथ रहते हैं जबकि भौतिकवादी चीज़ें नष्ट हो जाती हैं। जहां आज प्रकृति और मानव को परस्पर विरोधी के तौर पर देखा जाता है वहीं, हरेले का त्योहार मानव को प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने की सीख देता है।
हरेला पर्व हरियाली और जीवन को बचाने का संदेश देता है। हरियाली बचने से जीवन भी बचा रहेगा। इस प्रकार यह पर्व प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन को खासा अहमियत देता है। इसके अलावा, यह पारिवारिक एकजुटता का पर्व है। संयुक्त परिवार चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो उसमें हरेला एक ही जगह बोया जाता है। आस-पड़ोस और रिश्तेदारों के साथ ही परिवार के हर सदस्य चाहे वह घर से कितना भी दूर क्यों न हो ‘हरेला’ भेजा जाता है। यह त्योहार संयुक्त परिवार की व्यवस्था पर जोर देता है। संपत्ति के बंटवारे और विभाजन के बाद ही एक घर में दो भाई अलग-अलग हरेला बो सकते हैं।
हरेला का पर्व ऋतु परिवर्तन का सूचक है। सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक महत्व के इस पर्व को दसवें दिन काटा जाता है। वैशाखी और होली की तरह ही यह एक कृषि प्रधान त्योहार है। हरेले से नौ दिन पहले घर में स्थित पूजास्थली पर छोटी-छोटी डलिया में मिट्टी डालकर सात बीजों को बोया जाता है। इसमें- गेंहू, जौ और मक्के के दाने प्रमुख हैं। हर दिन जल डालकर इन बीजों को सींचा जाता है ताकि यह नौ दिन में लहलहा उठे। घर की महिलाएं या बड़े बुजुर्ग सांकेतिक रूप से इसकी गुड़ाई भी करती हैं।
इसके बाद इसे काटकर विधिवत पूजा-अर्चना कर देवताओं को चढ़ाया जाता है और फिर परिवार के सभी लोग हरेले के पत्तों को सिर और कान पर रखते हैं। हरेले के पत्तों को सिर और कान पर रखने के दौरान घर के बड़े बुजुर्ग, आकाश के समान ऊंचा, धरती के समान विशाल और दूब के समान विस्तार करने का आर्शीवाद देते हैं। इस दौरान- ‘जी रया जागि रया, आकाश जस उच्च, धरती जस चाकव है जया, स्यावै क जस बुद्धि, सूरज जस तराण है जौ..’ कहा जाता है।
हरेला भी वैशाखी और होली की तरह ही कृषि प्रधान त्योहार है। इसमें जो बीज डाले जाते हैं वो सीजन में होने वाले अन्न के प्रतिक हैं। इन बीजों को धन-धान्य और समृद्धि के प्रतिक के तौर पर देखा जाता है। ‘जी रे जाग रे’ के रूप में जो भी कामनाएं की जाती हैं वो आज की अपेक्षाओं के समान बाजारवाद में रची-बसी नहीं होती। आकाश के समान ऊंचा, धरती के समान विशाल और दूब के समान विस्तार का आर्शिवाद हमें सीधे तौर पर प्रकृति के साथ जोड़ता है। हरेले का त्योहार प्रकृति से सीखने और उसके जैसे बनने के लिए प्रेरित करता है। जहां आज बाजारवाद और पूंजीवादी संस्कृति मानव को प्रकृति के विरुद्ध खड़ा कर रही है। प्रकृति को जंगली, बर्बर और असभ्य माना जाने लगा है। वहीं, हरेला प्रकृति और मानव के बीच के संबंधों को दर्शाता है। सच में अगर हम इस त्योहार से यह सीख ले तो मानव जाति को अलग से सीखने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
वैसे तो सभी भारतीय तीज एवं व्रतों का सम्बन्ध कहीं न कहीं मौसम तथा फैसलों से ही रहा है। जिस वजह से इनका वैज्ञानिक आधार भी है और सांस्कृतिक महत्व भी। हरेला भी इसी तरह धन-धान्य तथा कृषि से जुड़ी पर्वतीय आंचल की एक परंपरा है। इसे प्राकृति के सम्मान और प्रकृति के उत्सव के रूप में मनाया जाता है जो कि हमारी पहचान रही है। मगर आज हम लोग अपनी पहचान नाटकीय ढंग, पश्चिमी परिवेश की नकल तथा सोशल साइट्स पर कुछ लाइक पा जाने में खोज रहे हैं। पर्वतीय समाज भी इस अंधी दौड़ में कहीं पीछे नहीं है।
संतोष जोशी~अल्मोड़ा
एमएलएल एल. डब्लयू.