देवात्मा हिमालय के अलौकिक साधक – हिमालय दिवस पर अदभूत, अलौकिक आलेख

m_himalayaदेवात्मा हिमालय के अलौकिक साधक – हिमालय दिवस पर स्‍वयं मेरे द्वारा प्रस्‍तुत आलेख- मेरी 20 सालों से भी ज्‍यादा की कमाई है, जो मैं हिमालय की अदभूत व अलौकिक जानकारियों को संकलनबद्व कर रहा हूं, जो मुझे समय समय अलौकिक संत, महात्‍मा मुझे देते हैं – सम्‍पादक चन्द्रशेखर जोशी द्वारा प्रस्तुत आलेख में हिमालय के ऐसे साधको के बारे में जानकारी देने का प्रयास किया गया है जिन्होंने पूरे विश्व को प्रभावित किया तथा जो साक्षात कुदरत के करीब थे। CS JOSHI- EDITOR; www.himalayauk.org (UK Leading Digital Newsportal & Daily Newspaper) Mob. 9412932030 Mail; csjoshi_editor@yahoo.in & himalayauk@gmail.com (इस आलेख पर आपकी बहुमूल्य राय के इंतजार में- )

हम हिमालय के जितने अंदर जाएंगे, उतनी हमें नई जानकारियां उपलब्ध होती जाएंगी। देवात्मा हिमालय का वर्णन अवर्णनीय है। कहते हैं हिमालय में बडे-बडे आश्रम हैं। जहां पर आज भी सैकडों साधक अपनी-अपनी साधना में लगे हुए हैं। हिमालय की हसीन वादियों में छुपा है एक गहरा राज़.. राज़ उन अनजाने चेहरों का जो इस दुनिया में कहीं नहीं दिखाई देते, राज़ उन अनजाने लोगों को जिन्हें इस दुनिया का नहीं कहा जा सकता. ये रहस्य करीब 250 साल पुराना है और इसे जानने के लिए हिमालय की बर्फीली घाटियों में तांत्रिक कर रहे हैं अब तक की सबसे बड़ी साधना; कहते हैं हिमालय में बडे-बडे आश्रम हैं। जहां पर आज भी सैकडों साधक अपनी-अपनी साधना में लगे हुए हैं। ऐसे ही इस हिमाच्छादित प्रदेश में अनंत रहस्यों से भरा है एक मठ जिसका नाम है ज्ञानगंज। वैसे तो इस आश्रम की स्थापना एक हजार पांच सौ वर्ष पूर्व हुई थी परन्तु इसको प्रकट करने का श्रेय जाता है बनारस के मायावी या गंधबाबा के नाम से प्रसिद्ध स्वामी श्री विशुद्धानंद परमहंस को। हम हिमालय के जितने अंदर जाएंगे, उतनी हमें नई जानकारियां उपलब्ध होती जाएंगी। देवात्मा हिमालय का वर्णन अवर्णनीय है। महर्षि महातपा की उम्र है लगभग १४०० वर्ष जो अधिकतर निराहार ही रहते हैं। श्री भृगराम परमहंस देव जी लगभग ४५० वर्ष के हैं। इसके अलावा पायलट बाबा का भी कहना है कि वह हिमालय में छह-छह माह निराहार रहते है। हिमालय के रहस्यमय व दिव्य स्वरुप के बारे में उनकी दो पुस्तकें बेजोड हैं।

हिमालय आदि काल से रहस्यमय रहा है जैसे-जैसे रहस्य की परतें हटती गई, वैसे-वैसे रहस्य और गहराता गया। सदियों से यह प्राणी मात्र को अपनी ओर आकर्षित करता आया है चाहे इसका कारण वहां पाई जाने वाली दिव्य वानस्पतिक संपदाएं हो या हजारों सालों से तपस्यारत साधुाअें की तपस्या स्थली या फिर देवताओं का मनोरम स्थल। गंगा और सिंधु जैसी पवित्र नदियों का उद्गम स्थल भी तो हिमालय ही है। कहते हैं वहां बडे-बडे आश्रम हैं जहां पर आज भी सैकडों साधक अपनी साधना में लगे हुए हैं।


भगवान शंकर की क्रीडास्थली- उत्तराखण्डः-
एक कथा के अनुसार एक बार आकाशवाणी हुई- ”संसार में कोई जगह नहीं है जहां शिवलिंग नहीं है। इसीलिए ऋषियों! आश्चर्य मत करों। यदि शिवलिंग दुनियां को ढक ले।“ तब ब्रह्मा, विष्णु, एवं महेश, इन्द्र, सूर्य व चन्द्रमा तथा देवता गण जो जागेश्वर में स्तुति कर रहे थे, अपना-अपना अंश छोडकर चले गये। पृथ्वी लिंग के भार से दबने लगी और उसने शिव से अर्चना की कि वह इस भार से मुक्त की जाये। तब देवताओं ने लिंग का आदि-अंत जानना चाह। पृथ्वी ने ब्रह्मा से पूछा- लिंग कहां तक है। ब्रह्मा के झूठ बोलने पर पृथ्वी ने ब्रह्मा को शाप दिया- तुमने एक बडे देवता होकर झूठ बोला है। इसलिए तुम्हारी पूजा संसार में नहीं होगी। ब्रह्मा ने भी पृथ्वी को शॉप दिया- तुम भी कलयुग के अंत में क्लेशों से भर जाओगी। परन्तु लिंग का प्रभाव रोके रखने की समस्या का अभी समाधान नहीं हुआ था। अतः देवता विष्णु के पास गये और विष्णु शिव के पास गये और उनसे अनुनय-विनय के बाद यह बाद तय हुई कि विष्णु सुदर्शन चक्र से लिंग को काटे और तमाम खण्डों में उसे बांट दें। अतः जागेश्वर में लिंग काटा गया और वह नौ खण्डों में विभक्त किया गया। जिसके नाम इस प्रकार हैंः- (१) हिमाद्रि खण्ड (२) मानस खण्ड (३) केदार खण्ड (४) पाताल खण्ड जहां नाग लोक लिंग पूजा करते हैं (५) कैलाश खण्ड जहां शिव स्वयं विराजते हैं (६) काशी खण्ड जहां विश्वनाथ है (७) रेवा खण्ड- जहां रेवा नदी है जिसके पत्थरों की पूजा नर्वदेश्वर के रुप में होती है। यहां के शिवलिंग का नाम रामेश्वर है। (८) ब्रह्मा खण्ड जहां गोकणेंश्वर महादेव है (९) नगर खण्ड जिसमें उज्जैन नगरी है।
उत्तराखण्ड के अलौकिक संतः-
जग्दगुरु आदिशंकराचार्य जी अलौकिक योगी, अप्रतिम आचार्य, अभूतपूर्व संगठनकर्ता, असाधारण क्रांतिकारी महापुरुष थे। आचार्य शंकर के जन्मकाल के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। किन्तु अधिकांश विद्वान इनका जन्म ६८४ ई० एवं विरोधान ७१६ ई० को हुआ मानते हैं। उनके जीवन पर विभिन्न भाषाओं में सैकडों ग्रंथ लिखे गये हैं केवल संस्कृत भाषा में ही लगभग बत्तीस प्राचीन ग्रन्थ मिलते हैं जिनमें उनके अलौकिक व्यक्तित्व की विविध सामग्री संकलित है। आचार्य शंकर का जन्म केरल प्रदेश के कालडी नामक ग्राम में हुआ था। इनके माता पिता नम्बूदरी ब्राह्मण थ। नम्बूदरी ब्राह्मण निष्ठावान, सदाचारी और वैदिक परम्परा के अनुयायी होते हैं। आचार्य शंकर के पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम सती था। माता-पिता शिवजी के अनन्य उपासक थे। इनके कोई संतान नहीं थी। शिवजती ने इनकी उपासना और भक्ति से प्रसन्न होकर वरदान दिया था कि यदि सर्वगुणसम्पन्न पुत्र चाहते हो तो वह दीर्घायु नहीं होगा। यदि दीर्घायु पुत्र चाहते हो तो वह सर्वज्ञ नहीं होगा। आचार्य शंकर के पिता ने कहा मुझे सर्वज्ञ पुत्र ही दीजिए भगवान। दीर्घायु किन्तु मूर्ख पुत्र को लेकर मैं क्या करुंगा। भगवान शंकर का वरदान पूर्ण रुप से सार्थक हुआ। आचार्य शंकर का जन्म वैशाख शुक्ल पंचम तिथि को हुआ था। यद्यपि वे केवल ३२ वर्ष की आयु में ही शरीर त्याग कर गये थे लेकिन उनकी गणना संसार के सर्वोच्च आचार्यो, दार्शनिको, कवियों और संतों में होती है।
आचार्य शंकर ने बद्रीनाथ धाम से थोडी दूर जोशीमठ की स्थापना की। फिर व्यास गुफा में रहकर ग्रंथ लेखन का कार्य प्रारम्भ किया। इसी गुफा म रहकर वेदव्यास महाराज ने महाभारत की रचना की थी। आचार्य शंकर यहां केवल लेखन कार्य नहीं करते थे बल्कि कुछ चुने हुए शिष्यों को पढाते भी थे तथा योग साधना की शिक्षा भी देते थे। एक दिन एक ब्राह्मण यहां आया। उसने शिष्यों से पूछा- ये कौन हैं और यहां क्या पढाते हैं। शिष्यों ने कहा- ये हमारे महान गुरु आचार्य शंकर है। उपनिषदों और ब्रह्मसूत्रों के महान मर्मज्ञ हैं। ब्रह्मसूत्रों पर इन्होंने भाष्य लिखा है- वह ब्राह्मण आश्चर्य प्रकट करते हुए बोल उठा- भला इस कलियुग में कौन ऐसा व्यक्ति है जो ब्रह्मसूत्रों का मर्म समझता हो। मैं तो ऐसे व्यक्ति की खोज में हूं। यदि तुम्हारे गुरु मेरे एक संदेह का निवारण कर सकें तो मुझे बडी प्रसन्नता होगी। शिष्यों ने इस ब्राह्मण को आचार्य शंकर से मिलाया। उन्हने उस ब्राह्मण के प्रश्न का उत्तर विस्तारपूर्वक दिया। यह शास्त्रार्थ सात दिन तक चला। वह ब्राह्मण स्वयं वेदव्यास जी थे। शंकर की आयु तब केवल १६ वर्ष की थी। वेदव्यास जी ने उनको सोलह वर्ष की और आयु प्रदान कर दी।
हनुमान के परम भक्त नीब करौरी वाले बाबाः-
एक सिद्ध पुरुष थे नीब करौरी वाले चमत्कारी बाबा। कहा जाता है कि उनको हनुमान जी की सिद्धि प्राप्त थी। बाबा के कई आश्रम है जिसमें कैंची नैनीताल और वृन्दावन मुख्य हैं। बाबा के जन्म स्थान, जन्म तिथि व वास्तविक नाम के संबंध में भिन्न-भिन्न बातें कहीं और सुनी जाती हैं। कुछ उनका नाम लक्ष्मी नारायण तो कुछ लक्ष्मणदास और अब वे नीब करौरी बाबा के नाम से विख्यात हैं। बाबा राम भक्त हनुमान जी के परम भक्त थे। उन्होंने देश में दर्जनों हनुमान जी के मंदिरों का निर्माण कराया जिसमें नैनीताल से १४ मील दूर कैंची नामक स्थान तथा वृन्दावन के अपने आश्रम में हनुमान जी का भव्य मंदिर मुख्य है। बाबा हनुमान जी के भक्त थे। लोग उनके पास आते और अपने दुखडे कहते। बाबा सीधा-सादा उपचार बताते- हनुमान जी पर प्रसाद चढा देना, भूखे को रोटी खिला देना, बंदरों को चने लड्डू खिला देना। यदि भाग्य में हुआ तो सब ठीक हो जायेगा। बाबा के भक्तजनों के अनुसार देहावसान से पूर्व बाबा कैंची -नैनीताल- स्थित अपने आश्रम से आगरा आये जहां वे अपने एक प्रिय भक्त श्री जगमोहनलाल शर्मा के यहां ठहरे तथा उनको अपने महाप्रस्थान का पूर्वाभ्यास दे दिया। उसी दिन अपना क्षौर कर्म भी कराया।

महर्षि महेश योगीः- १९२१ई०- महर्षि महेश योगी आधुनिक संसार मे विशेष बहुचर्चित व्यक्तित्व हैं। महर्षि जी महान सिद्व पुरुष, असाधारण संगठनकर्ता, अपराजेय प्रचारक और मौलिक तत्व चिन्तक हैं। उनके व्यतिक्तत्व में दिव्य शक्ति युक्त सम्मोहन हैं। महर्षि महेश योगी का जन्म सन् १९२१ में जबलपुर में हुआ था। उनके गुरु स्वामी ब्रह्मानंद जी १९५३ में ब्रह्मलीन हो गये और महेश जी हिमालय के उत्तरकाशी क्षेत्र में एकान्तवास करते हुए तपस्या में लीन हो गये।
हिमालय में तपस्या करते हुए महेश जी को भावातीत ध्यान की प्रविधि उद्घाटित हुई। आपको यह बोध प्राप्त हुआ कि भावातीत ध्यान के द्वारा आज का अशान्त मानव सुख और शांति प्राप्त कर सकता है। अतः इस प्रविधि के प्रचार- प्रसार के लिए उन्होंने भारत का भ्रमण प्रारम्भ कर दिया। सैकडों लोगों ने उनकी इस नई प्रविधि को सीखा तथा इसकी मौलिकता, सहजता और उपादेयता से विशेष प्रभावित हुए। सन् १९५८ में महर्षि योगी ने कलकत्ता से विश्व भ्रमण के लिए प्रस्थान किया और रंगून, क्वालालम्पुर, हॉगकॉग, हवाई द्वीप होते हुए अमेरिका पहुंचे। तीन वर्ष की अवधि में महर्षि जी ने यूरोप और अमेरिका के समस्त महत्वपूर्ण स्थानों म भारतीय योग विद्या का संदेश पहुंचाया। सहस्रों लोगों को भावातीत ध्यान योग में दीक्षित किया और सैकडों योग केन्द्र स्थापित किये। १९६१ में ऋषिकेश में मणिकूट पर्वत पर शंकराचार्य स्वामी शांतानंद सरस्वती जी महाराज द्वारा शंकराचार्य नगर तथा ध्यान विद्यापीठ का शिलान्यास हुआ। इस अवसर पर चारों धामों की शक्तियों का आह्वान हुआ। उपस्थित तपस्वियों, महात्माओं, वैदिक पण्डितों ने दैवी शक्ति के अवतरण का अनुभव किया। साधारण जनता को भी दैवी शक्तियों के अवतरण का प्रत्यक्ष प्रमाण मिला। उस समय निर्मल आकाश में सूर्य चमक रहा था फिर भी यज्ञ मण्डप पर कुछ मिनट वर्षा हुई।
महर्षि जी के कार्य का पश्चिम में विस्तार हुआ। १९७१ में महर्षि इण्टरनेशनल यूनिवर्सिटी की अमेरिका में स्थापना हुई जिसका प्रशासकीय प्रधान कार्यालय लॉस एंजेल्स में है। यहां ध्यान योग के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य हुआ।
महर्षि जी ने अपने भावातीत ध्यान योग के संबंध में अपनी पुस्तकों में प्रकाश डाला। जिसमें मेडीटेशन, दि साइंस आफ बोइंग एण्ड आर्ट आफ लिविंग, ए रिडिस्कवरी, टू फुलफिल, दि नीड ऑफ अवर टाइम तथा संसार के समस्त प्रमुख पत्रों में प्रकाशित लेख और भाषण हैं।

श्री हैडयाखानः
हल्द्वानी से १३ मील दूर कैलाश पर्वत के पृष्ठभाग म गौतम गंगा के तट पर अवस्थित हैडाखान नामक गॉव है। यहां पर हरे नाम की औषधि बहुत पैदा होती है। इसलिए इस स्थान को हैडाखान क्षेत्र के नाम से सम्बोधित किया जाता है। यहां पर निवास करने वाले परम पूज्य साम्ब सदाशिव को हैडयाखान नाम से जाना जाता है। यहीं पर उस अनामी या अनन्तवासी संत ने शिवालय का निर्माण करवाया।
एक बार एक स्थानीय रईस व्यक्ति घोडे पर बैठकर कहीं जा रहे थे। मार्ग में श्री हैडयाखान एक शिला पर बैठे हंस रहे थे। उस व्यक्ति ने यह सोचकर कि यह साधु मुझे देखकर हंस रहा है, उनसे इस प्रकार हंसने का कारण पूछा, श्री महाराज ने कहा कि भाई हम तुम्हें देखकर नहीं हंस रहे हैं। श्री बद्रीनाथ मंदिर का घण्टा गिर गया है। उसे कई लोग मिलकर उठा रहे हैं किन्तु वह उठ नहीं रहा है। इसीलिए मुझे हंसी आ रही है। उस व्यक्ति ने इस घटना की जांच की और सदा के लिए शरणागत हो गया।
एक समय श्री हैडयाखानी महाराज बद्रीनाथ जी के मंदिर में जाकर मंदिर से बाहर एक चबूतरे पर बैठ गये। मंदिर का पुजारी आपको प्रसाद देने आया परन्तु आप नेत्र बंद करके बैठे रहे और प्रसाद ग्रहण नहीं किया। इस प्रसाद के लिए भक्त गण तरसा करते हैं। तब श्री लक्ष्मी जी स्वयं थाल में भोजन लेकर आफ पास आई। तभी आपने प्रसाद पाया। केवल कुछ भाग्यशाली सिद्ध पुरुषों ने ही इस दृश्य को देखा।
श्री हैडयाखान महाराज जहां कहीं जाते थे, वहां के मंदिर के पट अपने आप खुल जाते थे और मंदिर में विराजमान देव आपको अपना साक्षात दर्शन देते थे। श्री हैडयाखान महाराज के परम भक्तों में एक श्री ठाकुर गुमान सिंह नौला थे। उन्हें गुमामी भक्त के नाम से पुकारा जाता था। श्री गुमानी हल्द्वानी से लगभग ढाई मील की दूरी पर स्थित घोला नामक ग्राम में रहते थे। एक दिन गुमानी को श्री हैडयाखानी के दर्शन हुए जहां श्री हैडयाखानी ने उन्हें साक्षात शिव रुप में दर्शन दिये। (CS JOSHI-EDITOR; www.himalayauk.org) Newsportal; Dehradun 

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