कर्नाटक चुनावों में डिजिटल करेंसी नहीं दिखी

कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बीएस येदियुरप्पा ने वोटिंग खत्म होने के बाद आज कहा कि भाजपा को 125-130 से अधिक सीटें मिलेगी, कांग्रेस 70 सीटों पर सिमट जाएही और जेडीएस 24-25 सीटों से ज्यादा नहीं जीत पाएगी। येदियुरप्पा ने कहा कि हमें 100 प्रतिशत निश्चित है कि 17 मई को कर्नाटक में भाजपा की सरकार बनेगी। शनिवार को हुए मतदान में 70 प्रतिशत वोटि हुई। सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी सरकार बनाने की दावा कर रहे हैं।

पहले जमाना सोशल इंजीनियरिंग का था. मगर आज का दौर सोशल मीडिया इंजीनियरिंग का है. कर्नाटक के चुनावों ने भारतीय राजनीति को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है.

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कर्नाटक के बेहद कड़े मुकाबले में पैसा बुरी तरह से सड़ांध पैदा कर रहा था. यहां तक कि जब देश के कई हिस्सों में एटीएम में पैसे की किल्लत हो गई, तो इसके लिए कर्नाटक चुनावों को जिम्मेदार बताया गया था. बेहद अफसोस की बात है कि राज्य की सबसे अहम सियासी घटनाक्रम को काला धन बदबूदार बना रहा था. इस चुनाव में डिजिटल करेंसी नहीं दिखी और पूरे चुनाव प्रचार में वोटर के लिए अहमियत रखने वाले सारे के सारे मुद्दे हाशिए पर धकेल दिए गए और अब अगले साल के बड़े मुकाबले की तैयारी में जुट गए होंगे.
भारत में अभी भी आबादी का एक बड़ा हिस्सा इंटरनेट और सोशल मीडिया की पहुंच के दायरे से बाहर है. लेकिन वो बड़ी तेजी से लोगों को अपने दायरे में समेट रहा है. और अब एक ऊंचे दर्जे की तकनीक से प्रचार का ऐसा जाल बिछाया जा सकता है, जिसमें किसी चुनाव में हार-जीत कुछ हजार वोटों से तय हो.
भोले-भाले वोटर पर हो रहे दोतरफा हमले का दूसरा पहलू है, पैसा. यह कहा जा सकता है कि कर्नाटक का चुनाव भारत का अब तक का सबसे महंगा चुनाव था. पहले जहां पैसे के साथ-साथ दबंगई सियासी मैदान मारने के लिए जरूरी और कारगर मानी जाती थी. वहीं आज पैसे के साथ आंकड़े की जरूरत पड़ती है. कम से कम हमारी देसी सिलीकॉन वैली यानी बेंगलुरु के बारे में तो यह बात जरूर ही कही जा सकती है.

‘वॉर रूम’ यह वो ठिकाना है जहां किसी भी पार्टी के सियासी रणनीतिकार और कार्यकर्ता इकट्ठा होकर अपने काम की रणनीति बनाते हैं. उनका काम होता है कि वो पार्टी और उसके उम्मीदवारों को ज्यादा से ज्यादा वोट हासिल करने में मदद करें. कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान पूरे राज्य में होटलों से लेकर आलीशान मकानों में ‘वॉर रूम’ बनाए गए थे.
कर्नाटक का चुनाव कोई भी जीते, लेकिन इस चुनाव ने राजनीति में एक नए चलन को जन्म दिया है. अब सियासी दल मतदाताओं को रोबोट की शक्ल में देखते हैं, जो एक सॉफ्टवेयर प्रोग्राम के हिसाब से रिमोट कंट्रोल से चलता है. इन हालात में हम वोटर को इतना समझदार नहीं मान सकते, जो यह तय कर सके कि किसे वोट देना है. वो तो कठपुतली बना दिए गए हैं, जिनकी डोर दूसरों के हाथ में है. उन लोगों के पास ढेर सारे आंकड़े हैं, जिनकी मदद से तकनीक के जानकार यह तय करते हैं कि किसी भी वोटर के बर्ताव को कैसे अपने हिसाब से ढालना है.

बीजेपी के बड़े नेता उत्तर-पश्चिम बेंगलुरु के अमीरों वाले इलाके मल्लेश्वरम स्थित ‘वॉर रूम’ में मिला करते थे. वहीं, सत्ताधारी कांग्रेस के बड़े नेता कनिंघम रोड स्थित ऐसे ही ठिकाने पर बैठकें करते थे. इन ‘वॉर रूम’ में युवा पेशेवर, जिनमें आईटी और एमबीए की पढ़ाई किए हुए युवाओं की टोली होती थी, वो अपने तमाम गैजेट्स और दूसरे ताम-झाम के साथ लैपटॉप और बड़े-बड़े मोबाइलों में एक्सेल शीट और पॉवर प्वाइंट प्रेजेंटेशन पर निगाह गड़ाए दिखते थे. वहीं, हॉल के दूसरे कोने पर, पुराने सियासी धुरंधर, पुराने तरीके से जुटाए गए मतदाताओं के फीडबैक यानी उनसे रूबरू की गई बातचीत का विश्लेषण कर रहे होते थे. आज की तारीख में बड़े-बड़े आंकड़ों का सियासत से पक्का गठजोड़ हो चुका है. ऐसे में भारत में आईटी के गढ़ बेंगलुरु में ऐसा हो रहा था, तो इसमें अचरज कैसा? इससे पहले भी देश में ऐसे कई चुनाव हुए हैं, जिनमें साइबर तकनीक, खास तौर से सोशल मीडिया ने अहम रोल निभाया है, जैसे कि 2014 के लोकसभा चुनाव. लेकिन, कर्नाटक में ताजा-ताजा खत्म हुए विधानसभा चुनाव में पहली बार हमने देखा कि इतने बड़े पैमाने पर आला दर्जे की तकनीक और आईटी का चुनावी हथियार के तौर पर इस्तेमाल हुआ.

कैम्ब्रिज एनालिटिका का विवाद सामने आने के बाद भारत में हुआ यह पहला बड़ा चुनाव था. लंदन स्थित कैम्ब्रिज एनालिटिका कंपनी खुद को सियासी सलाहकार कंपनी कहती थी, जिसकी टैगलाइन थी कि ‘आप जो भी करते हैं, उसके पीछे आंकड़े होते हैं.’ कैम्ब्रिज एनालिटिका पर आरोप लगा कि उसने गैर-कानूनी तरीके से फेसबुक पर एक गेम के जरिए लोगों की इजाजत के बगैर उनकी निजी जानकारियां हासिल कीं. फिर उसने इनका इस्तेमाल सियासी मकसद के लिए किया.

भारत में अभी भी आबादी का एक बड़ा हिस्सा इंटरनेट और सोशल मीडिया की पहुंच के दायरे से बाहर है. लेकिन वो बड़ी तेजी से लोगों को अपने दायरे में समेट रहा है. और अब एक ऊंचे दर्जे की तकनीक से प्रचार का ऐसा जाल बिछाया जा सकता है, जिसमें किसी चुनाव में हार-जीत कुछ हजार वोटों से तय हो. कैम्ब्रिज एनालिटिका के विवाद ने पूरी दुनिया में जांच एजेंसियों के लिए खतरे की घंटी बजा दी. लेकिन इसने भारत में नए दौर के सियासी सलाहकारों के लिए प्रेरणा का काम किया है. भारत के अधकचरे और कमजोर निजता और डेटा से जुड़े कानून इस काम में उनके लिए काफी मददगार साबित हो रहे हैं.

आज सियासी दलों के ‘वॉर रूम’ किसी स्टार्ट अप कंपनी के दफ्तर जैसे दिखते हैं, तो इसमें कोई चौंकाने वाली बात नहीं है कि इनमें से कई ‘वॉर रूम’ बेंगलुरु, दिल्ली और पुणे की स्टार्ट अप कंपनियां और इनके कर्मचारी चलाते हैं. उनके तकनीकी जानकार और मार्केटिंग के एक्सपर्ट को पता है कि कैसे वो चुटकी बजाते ही, ज्यादा से ज्यादा वोटरों से जुड़ी जरूरी जानकारी जुटा सकते हैं. उन्हें यह भी पता है कि कैसे ऐप के जरिए किसी भी मतदाता के विचार में आई मामूली तब्दीली का भी पता लगाया जा सकता है, खास तौर से तब, जब वोटिंग का दिन करीब हो. आज मतदाताओं के फोन नंबर और उनकी वोटर आईडी के आंकड़े भी जुटा लिए गए हैं. जरूरी नहीं कि ऐसा हमेशा वाजिब और कानूनी तरीके से किया गया हो. आज की तारीख में ऐसी कई एजेंसियां हैं, जो एक तयशुदा रकम पर किसी भी उम्मीदवार के लिए ऐसी बारीक से बारीक योजना तैयार कर सकती हैं.

भोले-भाले वोटर पर हो रहे दोतरफा हमले का दूसरा पहलू है, पैसा. यह कहा जा सकता है कि कर्नाटक का चुनाव भारत का अब तक का सबसे महंगा चुनाव था. पहले जहां पैसे के साथ-साथ दबंगई सियासी मैदान मारने के लिए जरूरी और कारगर मानी जाती थी. वहीं आज पैसे के साथ आंकड़े की जरूरत पड़ती है. कम से कम हमारी देसी सिलीकॉन वैली यानी बेंगलुरु के बारे में तो यह बात जरूर ही कही जा सकती है.
पहले जमाना सोशल इंजीनियरिंग का था. मगर आज का दौर सोशल मीडिया इंजीनियरिंग का है. कर्नाटक के चुनावों ने भारतीय राजनीति को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है. यह बदलाव उन लोगों की नजरों में नहीं आया होगा, जिनकी नजर दिन-रात प्रचार में जुटे नेताओं पर रही. जो लगातार चुनावी रैलियां कर रहे थे और ज्यादा से ज्यादा घरों में जाकर लोगों से मिल रहे थे. हाथ जोड़कर उनके वोट मांग रहे थे.
  एक मिसाल सुनिए: एक उम्मीदवार अपनी पार्टी के ‘वॉर रूम’ में घुसता है, और 30 करोड़ रुपए की मांग करता है, ताकि वो अपने विरोधी के तीखे प्रचार को मात दे सके. इस बात पर यकीन न करने की कोई वजह नहीं है, कि, उस उम्मीदवार की मांग पूरी कर दी गई. इसका यह मतलब है कि जिस सीट से वो नेता उम्मीदवार था, उस सीट पर यकीनन 60 करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम चुनाव प्रचार में खर्च की गई होगी. और यह अंदाजा भी बहुत कम ही है.एक और मिसाल  : एक राष्ट्रीय पार्टी के उम्मीदवार ने अपने समर्थकों को बताया कि उसने विधानसभा चुनाव में प्रचार के लिए 50 करोड़ रुपए की रकम अलग से रखी हुई है. कहने का मतलब यह कि वो उम्मीदवार हर वोटर को 7 से 10 हजार रुपए देने की बात कर रहा था.

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