कुर्मांचल का प्रसिद्व लोकपर्व सातों- आठो 29 से- माता पार्वती को दीदी व भोलेनाथ को जमाई राजा के रूप में सम्मान – सीएम के पर्वतीय क्षेत्र का प्रसिद्व पर्व
ऐसा माना जाता है कि भगवान भोलेनाथ का निवास स्थान व उनकी ससुराल इसी उत्तराखंड की देवभूमि में है ।इसीलिए यह लोकपर्व देवभूमि भगवान भोलेनाथ को समर्पित है। इस पर्व के दौरान माता पार्वती को बड़ी दीदी व भगवान भोलेनाथ को जमाई राजा के रूप में सम्मान
कुर्मांचल (उत्तराखंड) का प्रसिद्व लोकपर्व सातों- आठो 29 अगस्त से धूमधाम से मनाया जाएगा ; चंद्रशेखर जोशी केंद्रीय महासचिब कुर्मांचल परिषद देहरादून।
भगवान व प्रकृति से इंसान का नाता उतना ही पुराना है जितना इंसान का इंसान से। पूरी दुनिया में भगवान व प्रकृति को विभिन्न रूपों में पूजा जाता है। व समय-समय पर उनसे संबंधित अनेक पर्व व त्यौहार मनाए जाते हैं।
लेकिन उत्तराखंड की देवभूमि में एक ऐसा अनोखा पर्व (जिसे सातों व आठों का पर्व भी कहते हैं) मनाया जाता है। जिसमें इंसान भगवान को भी एक मानवीय रिश्ते (बड़ी दीदी और जीजाजी के रूप में)में बड़ी आस्था व विश्वास के साथ बांध देता है।
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प्रतिवर्ष मनाए जाने वाले इस त्यौहार की शुरुआत भाद्रपद मास (अगस्त-सितंबर) की पंचमी तिथि से होती है। इसे बिरूड पंचमी भी कहते हैं ।इस दिन हर घर में तांबे के एक बर्तन में पांच अनाजों (मक्का ,गेहूं ,गहत ,ग्रूस (गुरुस) व कलू ) को भिगोकर मंदिर के समीप रखा जाता है। इन अनाजों को सामान्य भाषा में बिरूडे या बिरूडा भी बोला जाता है।क्योंकि ये अनाज औषधीय गुणों से भी भरपूर होते हैं। व स्वास्थ्य के लिए भी अति लाभप्रद होते हैं। इस मौसम में इन अनाजों को खाना अति उत्तम माना जाता है।इसीलिए इस मौके पर इन्हीं अनाजों को प्रसाद के रूप में बांटा एवं खाया जाता है।
चंद्रशेखर जोशी केंद्रीय महासचिब कुर्मांचल परिषद देहरादून ने बताया कि कूर्माचल परिषद की केन्द्रीय सां0 सचिव बबीता शाह लोहनी द्वारा इस आयोजन की तैयारी शुरूकर दी गयी है, बिलासपुर कांडली की सचिव मंजू देउपा ने कहा कि सप्ताह भर तक इस लोकपर्व को धूमधाम से मनाया जायेगा-
हिमालयायुके न्यूस्पोर्टल एवम प्रिंट मीडिया के लिये चंद्रशेखर जोशी की प्रस्तुति
ऐसा माना जाता है कि भगवान भोलेनाथ का निवास स्थान व उनकी ससुराल इसी उत्तराखंड की देवभूमि में है ।इसीलिए यह देवभूमि भगवान भोलेनाथ को समर्पित है। इस पर्व के दौरान माता पार्वती को बड़ी दीदी व भगवान भोलेनाथ को जमाई राजा के रूप में सम्मान दिया जाता है। व उनकी पूजा आराधना की जाती है।
जैसे किसी परिवार की बेटी शादी के बाद जब अपने पति के साथ पहली बार मायके आती है।तो उस वक्त परिवार के लोगों के मन में जो उत्साह और उमंग रहता है ।और जमाई राजा को जो स्नेह और सम्मान दिया जाता है ।उसी प्रकार का आदर, सम्मान व स्नेह भोलेनाथ को भी दिया जाता है। और उनको अपने परिवार का एक सदस्य ही माना जाता है।
उत्तराखंड में सातों-आठों बहुत महत्व का त्यौहार माना जाता है. इन दो दिनों में गाँव की सभी युवतियां और महिलाएं गौरा और महेश (शिव और पार्वती) को पूजती हैं. गौरा और महेश की जिन आकृतियों की पूजा की जाती है उन्हें गमार या गवांर कहा जाता है, ये गवांरे खेतों में बोई गयी फसलों – सूं, धान, तिल, मक्का, मडुवा, भट आदि – से बनायीं गयी मानव आकृतियां होते हैं. गौरा को सजाया जाता है, उनको साड़ी, पिछौड़ा, चूडियाँ, बिंदी और वह पूरा श्रृंगार कराया जाता है जो एक शादीशुदा महिला करती है. महेश को भी पुरुषों का परिधान पहनाया जाता है, कुर्ता, पजामा और ऊपर से शॉल. दोनों को मुकुट भी पहनाये जाते हैं, ये मुकुट उन दम्पतियों के होते हैं जिनकी गाँव में सबसे नई शादी होती है.
माता गौरी भगवान भोलेनाथ से रूठ कर अपने मायके चली आती हैं
कूर्माचल परिषद की केन्द्रीय सां0 सचिव बबीता शाह लोहनी ने हिमालयायूके सम्पादक को बताया कि ऐसा माना जाता है कि माता गौरी भगवान भोलेनाथ से रूठ कर अपने मायके चली आती हैं इसीलिए अगले दिन अष्टमी को भगवान भोलेनाथ माता पार्वती को मनाने उनके मायके चले आते हैं। इसीलिए अगले दिन महिलाएं फिर से सज धज कर धान के हरे भरे खेतों में पहुंचती हैं ।और वहां से सौं और धान के कुछ पौधे उखाड़ कर उनको एक पुरुष की आकृति में ढाल दिया जाता है ।उन्हें महेश्वर बोला जाता है।फिर महेश्वर को भी एक डलिया में रखकर उनको भी नए वस्त्र आभूषण पहनाए जाते हैं। और उस डलिया को भी सिर पर रखकर नाचते गाते हुए गांव की तरफ लाते हैं और फिर उनको माता पार्वती के समीप ही पंडित जी के मंत्रोपचार के बाद स्थापित कर दिया जाता है। माता पार्वती व भगवान भोलेनाथ को गमरा दीदी व महेश्वर भीना (जीजाजी) के रूप में पूजा जाता है ।साथ ही उनको फल व पकवान भी अर्पित किए जाते हैं।इस अवसर पर घर की बुजुर्ग महिलाएं घर के सभी सदस्यों के सिर पर इन विरूडों को रखकर उनको ढेर सारा आशीर्वाद देती हैं तथा उनकी लंबी आयु व सफल जीवन की मनोकामना करती हुई उनको दुआएं देती हैं।फिर अगले तीन-चार दिन तक गांव में प्रत्येक शाम को खेल लगाए जाते हैं।जिसमें अनेक तरह के लोकगीत जैसे झोड़े , झुमटा, चांचरी, छपेली आदि गाए जाते हैं। तथा महिलाएं और पुरुष गोल घेरे में एक दूसरे का हाथ पकड़कर नाचते-गाते हुए इस त्यौहार का आनंद उठाते हैं। और अपने जीवन के लिए व पूरे गांव की सुख समृद्धि व खुशहाली की कामना करते हुए भगवान भोलेनाथ से प्रार्थना करते हैं कि वह सदैव उनकी रक्षा करें वह उनकी मनोकामनाओं को पूर्ण करें
इस त्यौहार की शुरुआत पंचमी से हो जाती है जिसे बिरुड़ पंचमी कहते हैं. बिरुड़ पंचमी इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस दिन बिरुड़े भिगाए जाते हैं जिनकी सातों और आठों (सप्तमी और अष्टमी) को पूजा की जाती है. बिरुड़े पांच प्रकार के अनाज होते हैं जिन्हें एक तौले (एक प्रकार का तांबे का बर्तन) में पंचमी को ही भिगो दिया जाता है, उस बर्तन के बाहर पांच जगह थोड़ी-थोड़ी मात्र में गाय का गोबर लगाया जाता है जिसमें दूब घास और टीका लगाया जाता है, इसके साथ साथ इस बर्तन में एक पोटली में गेहूं भी बांधकर रखे जाते हैं
सप्तमी के दिन जिसको यहाँ सातों कहा जाता है दोपहर को महिलाएं नौले या धारे (पानी के श्रोत) पर पंचमी को भिगाए गए बिरुडों को धोती हैं, धोने से पहले नौले या धारे पर पांच जगह टीका लगाया जाता है और शुभ गीत भी गाये जाते हैं. बिरुड़े धोकर वापस भिगोकर रख दिये जाते हैं और उसमें से गेहूं की पोटली निकालकर गमरा की पूजा के लिए लेकर जाते हैं. पोटली वाले गेहूं के साथ-साथ फूल, कुछ फल और अन्य पूजा कि सामग्री भी रखी जाती है. सभी महिलाएं गमारों का श्रृंगार करती हैं और फिर पंडित जी आकर पूजा करवाते हैं. पूजा के बाद महिलाएं गाने गाती हैं और नृत्य भी करती हैं.
अष्टमी को भी सभी महिलायें इकठ्ठा होती हैं और पूजा करती हैं, पंडित जी द्वारा पूजा कराये जाने के बाद इस दिन कोई एक महिला सातों-आठों कि कथा (कहानी) सुनाती है
अष्टमी (आठों) के दिन पूजा में रखी गेहूं की पोटली को खोलते हैं गौरा महेश को चढ़ाने के साथ-साथ उसको वहाँ उपस्थित महिलाएं एक दूसरे के सिर में भी चढ़ाती हैं और फिर घर भी लेकर आती हैं, घर में भी सभी परिवार के सदस्यों को ये बिरुड़े चढ़ाये जाते हैं . और बाकी भिगाए हुए जो बिरुड़े होते हैं उनको पकाकर खाया जाता है और आस- पड़ोस के परिवार भी एक दूसरे को बिरुड़े बांटते हैं .
पूजा के दौरान ही महिलाएं गले में दूर बांधती हैं, कहा जाता है कि बच्चे ने अपनी मां के गले कि जो डोर पकड़ ली थी उसके बाद से ही सातों और आठों में पूजा करने वाली महिलाएं गले और हाथ में वह डोर बांधती हैं.
आठों के दिन कई इलाकों में मेले भी होते हैं जिनमें विभिन्न प्रकार की दुकानें तो लगती ही हैं साथ ही उत्तराखंड के लोकगीत भी गाये जाते हैं.
आठों के बाद गौरा और महेश्वर कुछ दिन तक उसी घर में रहते हैं जहाँ इनकी पूजा की जाती है, फिर सभी गाँव वाले मिलकर कोई एक दिन तय करते हैं और गाने -बाजे के साथ धूमधाम से नजदीक के मंदिर में उनको पहुचाकर आते हैं, इसे गंवार सिवाना कहा जाता है. मंदिर में भी नाच – गाने होते हैं और इस तरह अगले साल फिर गौरा महेश्वर के वापस लौटने कि कामना की जाती है.
कथा कुछ इस प्रकार है –
किसी गाँव में एक बुजुर्ग दंपत्ति रहते थे जिनके सात पुत्र थे और सभी की पत्नियाँ भी परन्तु किसी भी बेटे को कोई संतान नहीं थी जिससे सास –ससुर बहुत दुखी थे. एक दिन ससुर कहीं से घर आ रहा था तो उसे रास्ते में पानी की मटमैली धारा बहती दिखाई दी. उस समय बरसात का भी मौसम नही था तो वो सोचने लगा कि यह पानी कहाँ से आ रहा है और उस धारा के साथ- साथ चलते हुए एक नौले पर पहुच गया जहाँ कुछ महिलायें बिरुड़े धो रही थीं. मटमैला पानी उन बिरुडों का ही था.
उसने पूछा – “ये आप सभी क्या कर रही हैं”.
महिलाओं ने जवाब दिया “हम नहा-धोकर बिरुड़े धो रहे हैं और फिर गौरा महेश की पूजा करेंगे ”
उसने फिर पूछा “ये क्या होते हैं और इस पूजा को करने से क्या होता है, इस पूजा की विधि भी हमें बताइए?”
महिलाओं ने कहा “पांच अनाजों को भिगोया जाता है, भिगाने से पहले नहा-धोकर घर की लिपाई –पुताई की जाती है. घर के पांच कोनों में दीया जलाया जाता है, टीका लगाकर फिर बिरुड़े भिगाते हैं लेकिन भिगाते समय उसको चखना नहीं चाहिए इससे पूजा सफल नहीं मानी जाती. और इस पूजा को करने से जिनके घर में अन्न नहीं होता अन्न आता है, जिसके घर में धन नहीं होता धन आता है और जिसके घर में संतान नहीं होती संतान आती है.”
यह सुनकर वह व्यक्ति चला गया और घर पहुंचकर अपनी पत्नी को इसके बारे में बताया. पत्नी ने अपनी एक बहू को बुलाया जो उसको सबसे लाडली थी और उसको बिरुड़े भिगाने को कहा, उसने भिगोते समय एक दाना चख लिया, सास ने उससे कहा बहू तुमने इसे चखकर इस विधान को खंडित कर दिया. फिर अपनी दूसरी बहू को बुलाया जो भी उसकी लाडली थी पर पहली वाली से कम, उसने भी बिरुड़े भिगोने से पहले चख लिए, ऐसे करते –करते सास ने 6 बहुओं को बोला और सभी ने भिगोने से पहले बिरुड़े चख लिए. अब एक ही बहू बची थी जो सास को पसंद नहीं थी, उससे बाहर के सारे मुश्किल काम कराये जाते थे और उसके साथ ठीक से व्यवहार भी नहीं किया जाता था, इसलिए सबसे आखिरी में उसे कहा गया कि तुम बिरुड़ भिगाओ. बहू ने नहाया, दीया जलाया और बिरुड़े भिगा दिए, उसका पति भी घर पर ही था. कुछ महीनों में ही बहू गर्भवती हो गयी, दूसरी सातों-आठों आने से पहले उसका पुत्र भी हो गया.
अब घर में एक संतान तो थी पर वो उस बहू की थी जिसको सास पसंद नहीं करती थी, सास ने अपने पति से कहा कि बड़ी मुश्किलों के बाद घर में संतान आई है तो पंडित से इसका विचार तो करना पड़ेगा, पति ने कहा ठीक है मैं पंडित जी के पास जाऊंगा. इस बीच सास खुद पंडित को जाकर पैसे दे आई और बोली कि जब मेरा पति आपसे बच्चे के बारे में बात करने आएगा तो आप बोलना यह संतान अन्न, धन और परिवार की सुख समृद्धि के लिए ठीक नहीं है, पंडित भी मान गया.
कुछ दिन बाद फिर सातों-आठों आने वाली थी, सास ने बहू को कहा कि बहू मुझे खबर मिली है कि तेरे पिता कि मृत्यु हो गयी है, तेरी मां शोक में है, तुझे वहां जाना चाहिए, बच्चे कि फिक्र मत कर मैं इसका ध्यान रखूँगी. बहू रोती – बिलखती अपने मायके पहुची, जिस दिन वह पहुंची उस दिन आठों थी और मायके में पूजा चल रही थी, उसको देखकर उसकी मां ने पूछा बेटी तेरा कुछ ही दिन पहले पुत्र हुआ है और आज पर्व का भी दिन है पर तू यहाँ क्या कर रही है? बेटी ने मां को पूरी कहानी बताई, मां ने कहा बेटी मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा, तेरे पुत्र को कुछ हो सकता है तू वापस जा. मां ने बेटी को सरसों दिया और कहा कि तू रास्ते में ये सरसों फेंकते हुए जाना, अगर ये सरसों जमकर हरे हो गये तो समझना तेरा पुत्र जिन्दा है. इसी बीच सास अपने पति को पंडित के पास जाने को कहती है और पंडित वही सब बातें उसे बोलता है जो सास ने बोलने को कही थी, हताश ससुर घर लौटता है और बताता है कि इस घर में एक ही संतान है और वो भी अपशगुनी, सास मौके का फायदा उठाकर बोलने लगती है कि ये सब किस्मत की बात है, अब हमारे पास एक ही रास्ता है, इस बच्चे को मारने का, वह बच्चे को ले जाकर पास ही के पानी से भरे नौले में गिरा आती है.
बच्चे की मां रोती हुयी पीछे सरसों फेंकती हुयी आ रही थी जैसा कि उसकी मां ने उसे कहा था और सरसों भी हरा होता जा रहा था, चलते –चलते वह उसी नौले पर पहुची जहाँ उसका बेटा फेंका गया था. वह नौले पर रुकी और दूध में सनी अपनी छाती को धोने लगी तो बच्चे ने मां के गले में पहनी डोर पकड़ ली और फिर मां ने उसको बाहर निकला. वह बच्चे को लेकर घर गयी, सास ने देखकर पुछा बहू ये बच्चा तो मैंने मरने के लिए फेंक दिया था तुझे कहाँ से मिला, बहू बोली सासू मां आपकी करनी का फल आपको और मेरी करनी का मुझे. मैं हमेशा लोगों की भलाई करती हूँ, किसी का बच्चा रोता है तो उसे चुप कराती हूँ, किसी के जानवर खुल जाते हैं तो उन्हें बांध देती हूँ और किसी का अनाज भीग रहा होता है तो उसे भीगने से बचाती हूँ इसलिए आज मेरे कर्मों का फल मुझे मिला है. सास बोलती है सही कहा बहू मैंने कभी किसी का भला नहीं किया, किसी का बच्चा रोता था तो मैं उसको और दो थप्पड़ मार देती थी, किसी के जानवर बंधे होते थे तो मैं उन्हें खोल देती थी, अनाज सूख रहा होता था तो मैं उसमें पानी डाल देती थी.
इस प्रकार यह कथा समाप्त होती है.
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