चुनावी आँकड़ों के अनुसार बीजेपी पर खतरे के बादल
सत्ता से सवाल के इस एपिसोड में वरिष्ठ पत्रकार निखिल वागले ने 2014 के लोक सभा चुनाव नतीजों से तुलना करते हुए बीजेपी की 2019 लोक सभा चुनाव में क्या स्थिति रहेगी इसका आंकलन किया। साभार
सत्ता से सवाल के इस एपिसोड में वरिष्ठ पत्रकार निखिल वागले ने 2014 के लोक सभा चुनाव नतीजों से तुलना करते हुए बीजेपी की 2019 लोक सभा चुनाव में क्या स्थिति रहेगी इसका आंकलन किया। 2014 लोक सभा चुनाव में बीजेपी ने उत्तर भारत के जिन राज्यों में अच्छा प्रदर्शन किया था इस बार उन राज्यों में गठबंधन के चलते बीजेपी की चुनावी स्थिति उतनी बेहतर नज़र नहीं आ रही है। आइए देखते हैं इस लोकसभा चुनाव में बीजेपी की स्थिति का आंकलन।
वही दूसरी ओर मीडिया रिपोर्ट के अनुसार
तेलंगाना में एक स्वर में मोदी और भाजपा की नीतियों के खिलाफ लोगों के स्वर उठे हैं। बड़ी संख्या में लोगों का मानना है कि अगर मोदी दोबारा आए तो यह देश के लिए हानिकारक होगा। लोग खाने की आजादी चाहते है, जिंदा रहने की आजादी चाहते हैं, जो मोदी सरकार में खतरे में है। हालांकि राज्य में के. चंद्रशेखर राव की पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस ) की गिरफ्त बहुत मजबूत है, लेकिन किसानों और युवाओं की नाराजगी की पूरी तरह से अनदेखी की है, इससे उनमें आक्रोश बढ़ा है।
पश्चिमी यूपी; आंकड़ों का विश्लेषण : गठबंधन को बड़ा फायदासमाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) का गठबंधन इस क्षेत्र में निश्चित रूप से बीजेपी पर कड़ा दबाव बनाए हुए है, और इस तरह का दबाव बाक़ी पूरे राज्य में एक लहर पैदा कर सकता है जिसमें लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं।
न्यूज़क्लिक द्वारा इकट्ठा किए गए चुनाव आयोग के आंकड़े जो 2017 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान जारी हुए थे, ये दर्शाते हैं कि तीनों विपक्षी पार्टियों को मिलने वाले वोट बीजेपी की आठ संसदीय सीटों में पांच के परिणाम को उलट सकते हैं। इन सीटों पर 11अप्रैल को मतदान हो रहा है। ये सीटे हैं ग़ाज़ियाबाद, गौतम बुद्ध नगर, सहारनपुर, कैराना, मुज़फ़्फ़रनगर, बिजनौर, मेरठ और बागपत। बता दिया जाए कि 2014 में बीजेपी ने ये आठों सीटें जीती थीं।
समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) का गठबंधन इस क्षेत्र में निश्चित रूप से बीजेपी पर कड़ा दबाव बनाए हुए है, और इस तरह का दबाव बाक़ी पूरे राज्य में एक लहर पैदा कर सकता है जिसमें लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं।
विभिन्न सामाजिक वर्गों का नेतृत्व करने के अलावा आम जनता में केंद्र की मोदी सरकार और राज्य की योगी सरकार के ख़िलाफ़ बढ़ती हुई नाराज़गी ने इस गठबंधन को और मज़बूत किया है। बढ़ती बेरोज़गारी, फसल की कम होती कीमत, गन्ना किसानों का बढ़ता क़र्ज़,दलित समुदाय की नाराज़गी और बीजेपी की बाँटने वाली राजनीति ने उत्तर प्रदेश की कृषि-प्रधान भूमि की जनता को बीजेपी से दूर ले जाने का काम किया है।
एक और न भुलाया जाने वाला सुबूत हमारे सामने कैराना में 2018 के उपचुनाव से आता है, जब रालोद के प्रत्याशी ने बीजेपी को कड़ी हार का सामना कराया था। तब इस गठबंधन का प्रयोग चल रहा था, और रालोद के प्रत्याशी को सपा और बसपा ने अपना समर्थन दिया था। बता दिया जाये कि 2014 के चुनावों में ये सीट बीजेपी पूरी शान से जीती थी।
सिर्फ़ गणित ही नहीं, केमिस्ट्री भी
कई राजनीतिक विशेषज्ञों और फ़ील्ड रिपोर्टरों का मानना है कि सिर्फ़ गणित ही नहीं, केमिस्ट्री भी बीजेपी के विरोध में नज़र आ रही है। सरल शब्दों में कहें तो जनता की इस बढ़ती नाराज़गी की वजह से बीजेपी के वोटर इस दफ़ा गठबंधन के साथ आ जाएंगे, जिसे हराना वैसे भी मुश्किल लग रहा है।
अगर हम ये अनुमान लगाएँ, कि बीजेपी के हिस्से से 2.5 प्रतिशत वोट गठबंधन के हिस्से में आ जाएँ, तो सत्ताधारी पार्टी इस क्षेत्र में महज़ दो सीटों पर सिमट कर रह जाएगी। ये दो सीटें- ग़ाज़ियाबाद और नोएडा (गौतम बुद्ध नगर) विशिष्ट रूप से शहरी इलाक़े हैं, जहाँ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अभी भी क़ायम है भले ही थोड़ी धुंधली क्यों ना हो। वास्तव में यहाँ पर भी कई स्थानीय निवासियों,ख़ास तौर पर ग्रामीण निवासियों का कहना है कि बीजेपी को यहाँ भी हार का सामना करना पड़ेगा। जेवर एयरपोर्ट और अन्य योजनाओं के लिए हुए भूमि अधिग्रहण और इन औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूरों की असंतुष्टि को ग़ाज़ियाबाद और नोएडा में बीजेपी की बढ़ती गिरावट की बड़ी वजह माना जा रहा है।
हाल ही में इन क्षेत्रों में हुई दोनों दलों की रैलियाँ भी मोदी की मौजूदगी के बावजूद बीजेपी के दुर्बल भाग्य को दर्शाती हैं। मोदी की रैलियाँ2014 के मुक़ाबले में काफ़ी छोटी और कम उत्साह वाली थीं। वहीं दूसरी तरफ़, बसपा की मायावती, सपा के अखिलेश यादव और रालोद के अजित सिंह की साझा रैलियों में भारी संख्या में जनता शामिल हुई है।