मध्य प्रदेश: राज्य में 24 सीटों पर उपचुनाव- सत्ता में वापसी कर पायेगी? कमल और शिव की भिडंत
मध्य प्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार गिर गई. सुप्रीम कोर्ट द्वारा कमलनाथ सरकार को अगले दिन यानी शुक्रवार शाम पांच बजे तक फ्लोर टेस्ट के माध्यम से विधानसभा में बहुमत साबित करने का अल्टीमेटम दिया गया था. लेकिन फ्लोर टेस्ट से पहले ही मुख्यमंत्री कमलनाथ ने राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंप दिया था. नई सरकार बनाने वाली भाजपा ने मुख्यमंत्री के तौर पर शिवराज सिंह चौहान को चौथा मौका दिया है.
तब से ही एक सवाल हर तरफ तैर रहा है कि बागी विधायकों के इस्तीफे के बाद अब राज्य में उन सीटों पर उपचुनाव की नौबत आएगी तो क्या कांग्रेस उन सीटों पर जीत दर्ज करके फिर से सत्ता में वापसी कर सकती है? इस सवाल को बल कमलनाथ के इस्तीफे वाले दिन ही मध्य प्रदेश कांग्रेस के ट्विटर हैंडल द्वारा किए गए उस ट्वीट से मिला जहां लिखा गया था कि यह अल्प विराम है और आने वाले स्वतंत्रता दिवस पर कमलनाथ ही मुख्यमंत्री के तौर पर झंडा फहराएंगे.
विधानसभा के वर्तमान गणित को समझना होगा. राज्य में 230 सदस्यीय विधानसभा है. छह महीने के अंदर होने वाले उपचुनाव से पहले अंचल में नया नेतृत्व खड़ा करना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा.
मध्य प्रदेश में कांग्रेस के बुरे दिन भले ही शुरू हो गए हैं। मध्य प्रदेश में कांग्रेस की इस बुरी गत के लिए कुछ कांग्रेसी नेता भी दबी जुबान से मानते हैं कि इसके लिए कहीं न कहीं दिग्विजय सिंह भी जिम्मेदार हैं। दिग्विजय सिंह को तो अब कांग्रेसी भी मानने लगे हैं कि कांग्रेस में वे भारतीय जनता पार्टी के एजेंट हैं। मध्य प्रदेश कांग्रेस की दिक्कत यह है कि उसके पास पूरी पार्टी को एकजुट रखने वाला कोई नेता ही नहीं है। कमलनाथ पर आरोप है कि वे छिंदवाड़ा से बाहर कुछ नहीं सोचते। इतना ही नहीं, कुछ लोगों का मानना है कि कमलनाथ पार्टी विधायकों को तवज्जो देने की बजाय अपने ओएसडी प्रवीण कक्कड़ और अपने सहयोगी राजेंद्र मिगलानी के जरिए शासन चला रहे हैं।
वैसे दिग्विजय सिंह जहां अपनी विरासत अपने बेटे जयवर्धन सिंह को देने की तैयारी में हैं, वहीं कमलनाथ अपने बेटे नकुलनाथ को आगे बढ़ा रहे हैं। इसके बावजूद दोनों ही मध्य प्रदेश की राजनीति में अपनी मजबूत पकड़ बना नहीं पा रहे हैं। जबकि उनकी तुलना में युवा ज्योतिरादित्य कहीं ज्यादा प्रभावशाली रहे हैं। दिग्विजय और कमलनाथ को पता था कि जब तक ज्योतिरादित्य कांग्रेस में रहेंगे, उनके घर के चिरागों को जलने के पर्याप्त राजनीतिक ऑक्सीजन नहीं मिल पाएगा।
मध्य प्रदेश कांग्रेस से जुड़े सूत्र मानते हैं कि इसलिए भी दिग्विजय और कमलनाथ ने मिलकर ज्योतिरादित्य को किनारे लगाया। लेकिन अब माना जा रहा है कि ज्योतिरादित्य के कांग्रेस से बाहर जाने के बाद कांग्रेस का युवा आधार का दरकना तय है। ज्योतिरादित्य युवाओं के बीच लोकप्रिय हैं। चूंकि ज्योतिरादित्य अब अपनी दादी और बुआ की पार्टी के साथ आ गए हैं, लिहाजा चंबल प्रभाग में भाजपा का मजबूत होना तय है। जिसका असर कांग्रेस पर पड़ना लाजिमी है। राजनीति ऐसा कर्म है, जिसमें प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की भूमिका अहम होती है। सोशल मीडिया और संचार साधनों के दौर में कार्यकर्ता अब पहले की तरह नहीं रहा। वह भी तथ्यों को समझने लगा है। उसे भी पता है कि दिग्विजय सिंह, कमलनाथ या फिर दूसरे नेता क्या कर रहे हैं? उसे यह भी पता है कि ज्योतिरादित्य के साथ क्या हुआ है? ऐसे में अगर कांग्रेस का आधार दरकने लगे तो हैरत नहीं होनी चाहिए।
ज्योतिरादित्य के हाथ का साथ छोड़ने के बाद सवाल उठना लाजिमी है कि क्या मध्य प्रदेश में कांग्रेस इस झटके से उबर पाएगी? फिलहाल इन सवालों का जवाब हां में ही दिखने लगा है। कांग्रेस के 22 विधायकों ने पार्टी छोड़ दी थी। इनमें से छह कमलनाथ सरकार में मंत्री रहे।
जौरा और आगर-मालवा सीट पिछले कुछ महीनों से खाली हैं क्योंकि इन सीटों के निर्वाचित विधायकों का बीते दिनों निधन हो गया था. जिसके चलते इस महीने की शुरुआत में विधानसभा में मौजूदा सदस्यों की संख्या 228 थी, जिनमें से सिंधिया खेमे के 22 विधायकों के इस्तीफे के बाद सदन में सदस्यों की संख्या 206 पर ठहर जाती है. वहीं, बागी 22 विधायकों के इस्तीफे के बाद कांग्रेस के पास 92 विधायक बचे हैं. इसके अलावा सदन में 4 विधायक निर्दलीय हैं, 2 बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और एक समाजवादी पार्टी (सपा) से है. भविष्य में इन खाली 25 सीटों पर उपचुनाव के बाद सदन संख्या फिर से 230 हो जाएगी और बहुमत का आंकड़ा होगा 116 सदस्य. कांग्रेस के पास 92 सदस्य हैं. सभी सपा-बसपा और निर्दलीय विधायकों के सहयोग से सरकार चलाने वाली कांग्रेस का साथ अब ये विधायक भी नहीं दे रहे हैं. सरकार बदलते ही इन विधायकों के सुर भी बदल गये हैं.
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कांग्रेस को उम्मीद थी कि मराठा रियासत का यह चश्म-ओ-चिराग देश की सबसे पुरानी पार्टी के साथ गुजरे लंबे वक्त का शायद लिहाज रख ले और अपना मन बदल ले, लेकिन ऐसा हो नहीं सका। कांग्रेस के साथ अठारह साल की अपनी यात्रा को रंगों के दिन ज्योतिरादित्य ने खत्म कर दिया।
2018 के नवंबर महीने में मध्य प्रदेश में कांग्रेस को जीत मिली तो यह मानने वालों की कमी नहीं थी कि अब राष्ट्रीय राजनीति से भारतीय जनता पार्टी का सूरज डूबने जा रहा है। क्योंकि इसी के साथ राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी भाजपा को अपनी सरकारें खोनी पड़ी थीं। इन तीनों राज्यों में भारतीय जनता पार्टी को सबसे ज्यादा मजबूत मध्य प्रदेश में ही माना जा रहा था।
शिवराज सिंह चौहान की अगुआई में मध्य प्रदेश की कृषि विकास दर लगातार दस फीसदी से ज्यादा रही। किसान ज्यादा खुशहाल माने जा रहे थे। फिर शिवराज की छवि जमीनी नेता की रही। चुनाव नतीजों ने भारतीय जनता पार्टी को चौंकने के लिए मजबूर कर दिया। दिलचस्प यह रहा कि राज्य में कांग्रेस के मुकाबले भारतीय जनता पार्टी को 47 हजार 827 ज्यादा वोट मिले, लेकिन उसे सीटें कम यानी 107 मिलीं, जबकि कांग्रेस को कम वोट मिले, लेकिन उसे 114 सीटें मिलीं। चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक बीजेपी को 41 प्रतिशत वोट मिले, जबकि कांग्रेस को 40.9 प्रतिशत। यानी दोनों के वोटों के बीच सिर्फ0.1 प्रतिशत का अंतर रहा। बेशक कांग्रेस की यह जीत बहुत प्रभावशाली नहीं रही, लेकिन एक अर्थ में वह प्रभावशाली इसलिए भी थी, क्योंकि पूरे पंद्रह साल बाद कांग्रेस भाजपा को हराने में कामयाब रही।
इस जीत के लिए मीडिया और राजनीतिक समीक्षकों ने कांग्रेस की एकता की बजाय ज्योतिरादित्य सिंधिया की मेहनत को दिया। चुनाव प्रचार अभियान के दौरान ज्योतिरादित्य ने पूरा जोर लगा दिया था। फिर वे तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नजदीकी भी रहे। राहुल से उनकी नजदीकी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब ज्योतिरादित्य ने कांग्रेस का दामन छोड़ा तो राहुल ने कहा कि ज्योतिरादित्य से उनका रिश्ता ऐसा रहा है कि वे कभी-भी उनके घर आ सकते थे। वैसे ज्योतिरादित्य के पिता माधव राव सिंधिया पहले राहुल गांधी की दादी इंदिरा गांधी और उनके चाचा संजय गांधी के नजदीकी रहे। दोनों के देहांत के बाद वे राजीव गांधी और सोनिया गांधी के करीबी रहे।
शायद रिश्तों की यह डोर ही थी कि ज्योतिरादित्य को उम्मीद थी कि अगर मध्य प्रदेश में कांग्रेस को जीत मिली तो उन्हें राज्य की सत्ता की कमान दी जा सकती है, लेकिन वे भूल गए कि जिस मध्य प्रदेश से वे आते हैं, वहीं से कांग्रेस में ही दिग्विजय सिंह और कमलनाथ जैसे घाघ नेता भी हैं। कांग्रेस को जब सत्ता मिली तो दिग्विजय सिंह ने ज्योतिरादित्य को नौसिखिया बताते हुए ऐसा दांव चला कि सत्ता कमलनाथ के हाथ चली गई। तर्क यह दिया गया कि घाघ नौकरशाही को ज्योतिरादित्य संभाल नहीं पाएंगे।
कमलनाथ सरकार में खनिज मंत्री निर्दलीय विधायक प्रदीप जायसवाल कहते हैं कि पहले कांग्रेस सरकार में थी तो उसके साथ थे, अब क्षेत्र के विकास के लिए भाजपा के साथ काम करेंगे. वहीं, एक अन्य निर्दलीय विधायक सुरेंद्र सिंह शेरा ने कमलनाथ के इस्तीफे के बाद कह दिया था कि क्षेत्र की जनता से चर्चा करके भाजपा के साथ जाने और न जाने का फैसला लेंगे. सिंधिया के बागी होने से पहले जब मार्च माह के शुरुआत में दिग्विजय सिंह ने सरकार में शामिल जिन दस विधायकों के लापता होने और भाजपा से सौदेबाजी में शामिल होने की बात कही थी, उनमें प्रदीप जायसवाल को छोड़कर उक्त बाकी विधायक भी शामिल थे. वहीं, मुख्यमंत्री पद की शपथ के बाद जब शिवराज ने 24 तारीख को सदन में विश्वास मत पेश किया था तब कांग्रेसी विधायकों ने तो सदन की कार्रवाई से वॉक आउट किया था. लेकिन उक्त सात में से पांच विधायक भाजपा के पक्ष में सदन में मौजूद रहे. उनमें सपा विधायक राजेश शुक्ला, बसपा विधायक रामबाई और संजीव कुशवाह तथा निर्दलीय विधायक सुरेंद्र सिंह शेरा और विक्रम सिंह राणा शामिल थे. इसलिए ऐसी संभावना भी नहीं कि विपक्ष में बैठने जा रही कांग्रेस के साथ सपा-बसपा और निर्दलीय विधायकों का साथ बना रहेगा. तय है कि वे भी सत्ता के साथ ही सुर मिलाना चाहेंगे. इन हालातों में भाजपा और मजबूत होगी और उसकी वर्तमान सदस्य संख्या 113 पहुंच जाएगी, जो कि 230 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत की संख्या 116 से महज तीन कम होगी. इस तरह सपा-बसपा और निर्दलीय विधायकों के भी पाला बदलने से कांग्रेस का 2023 के पूर्णावधि चुनावों से पहले सत्ता वापसी का रास्ता मुश्किल नजर आता है.
सरकार बनाने के लिए उसेअब उपचुनावों वाली 25 में से 24 सीटों पर जीत दर्ज करनी होगी. जो कि कांग्रेस के केंद्रीय और प्रादेशिक संगठन की वर्तमान हालात देखते हुए असंभव जान पड़ता है. जबकि भाजपा को उपचुनाव वाली 25 सीटों में से अकेले दम पर बहुमत पाने के लिए दस सीटें और गठबंधन के साथ बहुमत पाने के लिए 25 में से केवल 3 सीटें जीतनी होंगी. वहीं, सत्ता परिवर्तन के बाद से ऐसे भी कयास लगाए जा रहे हैं कि कांग्रेस के एक और वरिष्ठ विधायक अपना इस्तीफा सौंपकर भाजपा में शामिल हो सकते हैं. केपी सिंह पिछोर से विधायक हैं और कमलनाथ सरकार के दौरान वरिष्ठ होने के बावजूद मंत्री न बनाए जाने के चलते लगातार खफा रहे थे. अगर उनका भी इस्तीफा होता है तो सदन संख्या 204 पर ठहर जाएगी और 26 सीटों पर उपचुनाव की नौबत आएगी. इस स्थिति में सदन में कांग्रेस के विधायक 91 रह जाएंगे और उसे बहुमत हासिल करने के लिए उपचुनाव में 26 में से 25 सीटें जीतनी होंगी.
यहां एक संभावना और बनती है कि यदि शरद कौल यह साबित करने में कामयाब हो गए कि उनका इस्तीफा जबरन लिखवाया गया था, तो उस स्थिति में 24 सीटों पर उपचुनाव होगा. कांग्रेस सभी 24 सीटें जीतनी होंगी. कांग्रेस के लिए चिंता की बात ये है कि इन 24 सीटों में से 16 सीटें तो ग्वालियर-चंबल अंचल की हैं. सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने के बाद यहां पार्टी अनाथ सी होने की स्थिति में आ गई है. क्योंकि कांग्रेस की सभी नीतियों का निर्धारण यहां सिंधिया ही करते थे. छह महीने के अंदर होने वाले उपचुनाव से पहले अंचल में नया नेतृत्व खड़ा करना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा.
जबकि अंचल में भाजपा के पास ज्योतिरादित्य सिंधिया, जो इस क्षेत्र में कांग्रेस को अपने दम पर जिताते आए थे, के साथ-साथ केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और नरोत्तम मिश्रा जैसे नाम हैं. भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा भी इसी अंचल से हैं. इसलिए 2023 के अगले पूर्णावधि चुनाव से पहले प्रदेश में कांग्रेस की वापसी के दूर-दूर तक कोई आसार दिखाई नहीं दे रहे हैं.
संभावना सिर्फ तभी बनती है जब कांग्रेस भी भाजपा की तरह कोई बड़ा जोड़-तोड़ करे. लेकिन कांग्रेस ऐसा करने की स्थिति में भी नजर नहीं आती.