मर्म चिकित्सा के जरिए दर्द चुटकी में खत्म
इस स्रष्टि के निर्माण काल से ही पंचभूतात्मक सत्ता का अस्तित्व रहा है| पृथ्वी, जल तेज, वायु और आकाश के सम्मिश्रण से त्रिदोषात्मक मनुष्य-शरीर की उत्पत्ति हुई है| मनुष्य के उदभव-काल से ही मनुष्य शरीर रोगाक्रांत होता रहा है| तभी से मनुष्य स्वस्थ्य संवर्धन, रोग प्रतिरक्षक एवं रोगनिवारण के लिए अनेक उपाय करता आया है| मनुष्य की समस्त शरीर क्रियाओं का नियमन त्रिदोष(वाट, पित्त और कफ) के द्वारा किया जाता है| वैकारिक अवस्था में यह तीनों दोष विभिन्न रोगों का कारण बन जाते है| सामान्य और वैकारिक दोनों अवस्थाओं में दोषों का विभिन्न सिराओं के माध्यम से शरीर में परिवहन किया जाता है| यह कहना पूर्णतया उचित नही है की दोष किसी विशेष सिरा के माध्यम से ले जाया जाता है| परन्तु दोषों की प्रधानता के कारण सिराओं को वातवाही, पित्तवाही, कफवाही सिरा की संज्ञा दी जाती है| इन्ही स्थान विशेष की विशिष्ट सिराओं के वेधन से शोथ, विद्रधि, त्वकरोग आदि अनेक रोगों में आश्चर्यजनक लाभ होता है|
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मर्म चिकित्सा दरअसल अपने अंदर की शक्ति को पहचानने जैसा है। दरअसल, शरीर की स्वचिकित्सा शक्ति (सेल्फ हीलिंग पॉवर) ही मर्म चिकित्सा है। मर्म चिकित्सा से सबसे पहले शांति व आत्म नियंत्रण आता है और सुख का अहसास होता है। शरीर में 107 मर्म स्थान हैं, जिनसे मेडिकल के छात्रों को उपचार व सर्जरी के दौरान बचाने की सीख दी जाती है। 37 बिंदु शरीर में गले से ऊपर के हिस्से में होते हैं और उनसे लापरवाही भरी कोई छेड़छाड़ जानलेवा भी साबित हो सकती है, इसलिए उनके साथ केवल चिकित्सकों को ही उपचार की अनुमति है, लेकिन अन्य बिंदुओं की जानकारी होने पर आम लोग भी अपने या परिजनों, मित्रों या किसी भी रोगी का इलाज कर सकते हैं।शरीर के हर हिस्से व अंग के लिए शरीर में अलग-अलग हिस्सों में मर्म स्थान नियत हैं। किसी भी अंग में होने वाली परेशानी के लिए उससे संबंधित मर्म स्थान को 0.8 सैकेंड की दर से बार-बार दबाकर स्टिमुलेट करने से फौरन राहत मिलती है।
गर्दन, पीठ, कमर व पैर दर्द में तो मर्म चिकित्सा के जरिए चुटकी में खत्म हो सकता है।
भारतवर्ष में शल्य तंत्र की एतिहासिक प्रष्ठभूमि पर द्रष्टिपात करने पर इसका सम्बन्ध वेदों से मिलता है| शिरोसंधान, टांग का काटना और लौह निर्मित टांग का प्रत्यारोपण, देवचिकित्सक अश्विनीद्वय द्वारा किए गए शल्य कर्मों के कुछ उल्लेखनीय उदहारण है| जैसा की सर्वविदित है की महर्षि सुश्रुत द्वारा प्रतिपादित सुश्रुत संहिता, शल्य तंत्र का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है, जिसको ईसा से 300 से 3000 वर्ष पूर्व का माना जाता है| वास्तव में आज जितना भी हम भारतीय शल्यतंत्र के विषय में जानते है वह सिर्फ सुश्रुत संहिता के माध्यम से ही संभव हो चुका है इसके आभाव में शल्यतंत्र में उल्लिखित किसी भी शल्यकर्म (आपरेशन) के विषय में जानना असंभव है| सुश्रुत संहिता न केवल हजारों वर्ष पूर्व विकसित शल्य तंत्र के स्तर का ज्ञान होता है, वरन आधुनिक शल्य तंत्र की नींव भी सुश्रुतोक्त विज्ञान में समाहित दिखाई देती है| आज सम्पूर्ण चिकित्सा जगत इस सत्य को स्वीकार करने लगा है|
मर्म चिकित्सा के परिणामों का सप्रमाण प्रस्तुतिकरण एवं प्रदर्शन इस पद्धति की विश्वसनीयता प्रदशिर्त करने में सहायक सिद्ध होता है। मर्म चिकित्सा के परिणाम इतने सद्य: फलदायी एवं आश्चर्य चकित करने वाले होते है कि प्रथम दृष्ट्या इन पर विश्वास करना सम्भव ही नहीं है और यदि कोई इन्हें देखता या अनुभव करता है तो इसका चमत्कार की श्रेणी में आकलन करता है जबकि यह सद्य:कार्यकारी पद्धति पूर्णतया वैज्ञानिक है तथा प्रकृति के मूल-भूत सिद्वान्तों पर ही कार्य करती है। इसको पाखण्ड, जादू और चमत्कार कहना ईश्वरीय स्वरोग निवारण क्षमता का अपमान करना है।
यह पूर्णतया सत्य है कि मर्म विज्ञान विश्व की सबसे प्राचीनतम चिकित्सा पद्धति है। जहां अन्य चिकित्सा पद्धतियों का इतिहास कुछ सौ वर्षों से लेकर हजारों वर्ष तक का माना जाता है वहीं मर्म चिकित्सा पद्धति को काल खण्ड में नहीं बांधा जा सकता है। मर्म चिकित्सा द्वारा क्रियाशील किए जाने वाले तंत्र (१०७ मर्म स्थान) इस मनुष्य व्शरीर में मनुष्य के विकास क्रम से ही उपलब्ध हैं। समस्त चिकित्सा पद्धतियां मनुष्य द्वारा विकसित की गई हैं परन्तु मर्म चिकित्सा प्रकृति/ईश्वर प्रदत्त चिकित्सा पद्धति है। अत: इसके परिणामों की तुलना अन्य चिकित्सा पद्धतियों से नहीं की जा सकती है। अन्य किसी भी पद्धति से असाध्य अनेक रोगों को मर्म चिकित्सा द्वारा आसानी से उपचारित किया जा सकता हैं।
ईश्वर स्त्री सत्तात्मक है अथवा पुरुष सत्तात्मक यह कहना सम्भव नहीं है परन्तु ईश्वर हम सभी से माता-पिता के समान प्रेम करता है। ईश्वर ने वह सभी वस्तुए हमें प्रदान की हैं जो कि हमारे अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं। ईश्वर ने हमें असीमित क्षमताएं प्रदान की हैं जिससे हम अनेक भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों को प्राप्त कर सकते हैं। स्व-रोग निवारण क्षमता इन्हीं व्शक्तियों में से एक है जिसके द्वारा प्रत्येक मनुष्य शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ रह सकता है।
विज्ञान के द्वारा भौतिक जगत के रहस्यों को ही समझा जा सकता है जबकि दर्शन के द्वारा भौतिक जगत के वास्तविक रहस्य के साथ-साथ उसके आध्यात्मिक पक्ष को समझने में भी सहायता मिलती है। वैदिक चिकित्सा पद्धति, विज्ञान और दर्शन के मिले-जुले स्वरूप से अधिक बढ़कर है। ईश्वर ने अपनी इच्छा की प्रतिपूर्ति के लिए इस संसार की उत्पत्ति की है तथा उसने ही अपनी अपरिमित आकांक्षा के वशीभूत मनुष्य को असीम क्षमताआें से सुसम्पन्न कर पैदा किया है। दु:ख एवं कष्ट रहित स्वस्थ जीवन इस क्षमता का परिणाम है। मनुष्य शरीर में स्थित ईश्वर-प्रदत्त स्वरोग निवारण क्षमता हमारी व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है वरन् मनुष्य शरीर में ईश्वरीय गुणों की उपस्थिति का ही द्योतक है। सार रूप में यह जानना अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि ईश्वर का पुत्र होने के कारण मनुष्य समस्त ईश्वरीय गुणों और क्षमताओं से सुसम्पन्न है। वैज्ञानिक विवेचना और धार्मिक आध्यात्मिक अभ्यास के समन्वय एवं व्यक्तिगत अनुभवों को समवेत रूप में प्रस्तुत कर मर्म विज्ञान का अध्ययन एवं वैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सकता है।
सुश्रुत के अनुसार वातवह, पित्तवह, कफवह और रक्तवह सभी सिराओं का उदगम स्थल नाभि है, जो की महत्वपूर्ण मर्म स्थान है| नाभि से यह सिरायें ऊधर्व, अध% एवं तिर्यक दिशाओं की ओर फैलती है| नाभि में प्राण का विशेष स्थान है| पंचभूतात्मक स्रष्टि में जीव प्राणाधान से ही सजीव और उसके अभाव में निर्जीव होता है| गर्भावस्था में गर्भस्थ शिशु का पोषण माता के गर्भनाल से होता है| गर्भनाल गर्भस्थ शिशु की नाभि से संलग्न होती है| जीवन के प्रारंभिक काल में नाभि का महत्वपूर्ण कार्य होता है, परन्तु बाद के जीवन में भी नाभि को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है| सात सौ सिराओं में दस सिरायें महत्वपूर्ण होती है| वातज या vatवातवह सिराओं की संख्या एक सौ पिचहत्तर होती है| पित्तज या पित्तवह सिराओं की संख्या एक सौ पिचहत्तर होती है| कफज या कफवह सिराओं की संख्या एक सौ पिचहत्तर होती है| रक्त के स्थानों/आशयों, विशेष रूप से यकृत और प्लीहा से सम्बंधित सिराओं की संख्या भी एक सौ पिचहत्तर बताई गई है|
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