जहां से कोई खाली हाथ नही जाता -7 दिसंबर 2022 को लगेगा मेला- हिमालय का वो अदभूत अलौकिक स्थल
High Light #माँ अनुसुया अत्री मुनि की पत्नी थी मान्यता है की अनुसूया माँ का पति-भक्ति और सतीत्व इतना अधिक था की आकाश से जब भी कोई देव गुजरता था तो उन्हें माँ अनुसूया के तेज़ का अनुभव होने लगता था #माता अनुसूया के घर त्रिमुखी संतान का जन्म हुआ जिसे आज हम दत्तात्रेय भगवान के नाम से जानते हैं। #हिंदू पंचांग के अनुसार, हर साल मार्गशीर्ष माह की पूर्णिमा तिथि को भगवान दत्तात्रेय का जन्मोत्सव मनाया जाता है। इस साल दत्तात्रेय जयंती 7 दिसंबर 2022 को मनाई जा रही है। माना जाता है कि भगवान दत्तात्रेय त्रिदेव यानी भगवान विष्णु, ब्रह्मा और शिव जी का अंश हैं। भगवान दत्त की पूजा और हवन करने से ज्ञान में वृद्धि होती है
By Chandra Shekhar Joshi Chief Editor www.himalayauk.org (Leading Web & Print Media) Publish at Dehradun & Haridwar. Mail; himalayauk@gmail.com Mob. 9412932030
दत्तात्रेय जयंती 7 दिसंबर 2022 बुधवार दत्तात्रेय जयंती 7 दिसंबर 2022 बुधवार मनाई जाएगी. भगवान दत्तात्रेय एक समधर्मी देवता है और उन्हें त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश का अवतार माना जाता है. मान्यता है भगवान दत्तात्रेय के निमित्त व्रत करने और दर्शन-पूजन करने से मनुष्य की सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं श्रीमद्भागवत के अनुसार भगवान दत्तात्रेय का जन्म महर्षि अत्रि और माता अनुसूया के यहां हुआ था. दत्तात्रेय में तीनों देवों के रूप एवं गुरु दोनों ही समाहित हैं जिस कारण इन्हें श्री गुरुदेवदत्त और परब्रह्ममूर्ति सद्घुरु भी कहा जाता है. दत्तात्रेय के तीन सिर है जो सत,रज, तम का प्रतीक है. इनके छह हाथ यम नियंत्रण,नियम ,समानता,शक्ति और दया का प्रतिनिधित्व करते हैं.
प्रत्येक वर्ष यहाँ दत्तात्रेय जयन्ती पर अनसूया मेला लगता है, जो की मार्गशिष महीने की चतुर्दशी एवं पूर्णिमा को लगता है। मन्दिर के गर्भ गृह में अनसूइया की भव्य पाषाण मूर्ति विराजमान है, जिसके ऊपर चाँदी का छत्र रखा है। मन्दिर परिसर में शिव, पार्वती, भैरव, गणेश और वनदेवताओं की मूर्तियां विराजमान हैं। मन्दिर से कुछ ही दूरी पर अनसूइया पुत्र भगवान दत्तात्रेय की त्रिमुखी पाषाण मू्र्ति स्थापित है। अब यहां पर एक छोटा सा मन्दिर बनाया गया है।
भगवान दत्तात्रेय में शैव, वैष्णव और शाक्त, तंत्र, नाथ, दशनामी और इनसे जुड़े कई संप्रदाय का समावेश है. इनके प्रमुख तीन शिष्य थे दो यौद्धा जाति और एक असुर जाति से था. ये भगवान परशुराम के गुरु माने जाते हैं. शिव के ज्येष्ठ पुत्र भगवान कार्तिकेय को दत्तात्रेय ने विद्याएं प्रदान की है. भक्त प्रह्लाद को शिक्षा-दीक्षा देकर श्रेष्ठ राजा बनाने का श्रेय भी भगवान दत्तात्रेय को जाता है. नागार्जुन को रसायन विद्या भी इन्हीं से प्रदान की है.
भगवान दत्तात्रेय की आराधना से ही गुरु गोरखनाथ को आसन, प्राणायम, मुद्रा और समाधि-चतुरंग योग का ज्ञान प्राप्त हुआ.
भगवान दत्तात्रेय के 24 गुरु— पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चंद्रमा, सूर्य, बालक, कुमारी, मीन, पिंगला, कुररपक्षी, कपोत, भृंगी, पतंग, भ्रमर, मधुमक्खी, गज, मृग, , सर्प, शरकृत, मकड़ी और अजगर, सिंधु. भगवान दत्तात्रेय का मानना था कि जहां से शिक्षा मिले उसे ग्रहण कर लेना चाहिए. यही वजह है कि इस 24 गुरु से उन्होंने कई गुण प्राप्त किए.
माता अनुसूया के घर त्रिमुखी संतान का जन्म हुआ जिसे आज हम दत्तात्रेय भगवान के नाम से जानते हैं
प्राचीन समय में यहाँ ऋषि अत्रि का आश्रम था जिनकी पत्नी का नाम अनुसूया था। माता अनुसूया अपने पतिव्रता धर्म के लिए प्रसिद्ध थी जिस कारण माँ पार्वती, लक्ष्मी व सरस्वती को उनसे ईर्ष्या हुई। इसके लिए उन्होंने अपने पतियों को माता अनुसूया की परीक्षा लेने के लिए भेजा। इसके बाद भगवान शिव, विष्णु व ब्रह्मा ऋषि के भेष में माता अनुसूया के आश्रम में गए और उनसे भिक्षा मांगी। उस समय माता अनुसूया स्नान कर रही थी तब त्रिदेव ने उन्हें उसी अवस्था में बाहर आकर भिक्षा देने को कहा। यह देखकर माता अनुसूया ने अपने तप से त्रिदेव को शिशुओं में बदल दिया और उन्हें दूध पिलाया। कई दिन बीत जाने के बाद भी जब त्रिदेव अपने लोक को नही लौटे तो तीनों माताओं ने आकर माता अनुसूया से क्षमा याचना की। इसके बाद माता अनुसूया ने त्रिदेव को मुक्त कर दिया। इसके कुछ दिनों बाद माता अनुसूया के घर त्रिमुखी संतान का जन्म हुआ जिसे आज हम दत्तात्रेय भगवान के नाम से जानते हैं।
सती मां अनसूया के मंदिर में किया गया तप फलदाई होता है और संबंधित दंपत्ति की संतान कामना की प्राप्ति होती है।
माँ अनुसूया देवी में हर वर्ष दिसम्बर में दत्तात्रेय जयन्ती पर मेला लगता है मेले की ख़ास बात यह है की मेला दिसम्बर में लगता है और यह स्थान अत्यधिक उच्चाई पर होने के कारण यहाँ अत्यधिक ठंड होती है सती माता अनसूइया मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के चमोली जिले के मण्डल नामक स्थान में स्थित है। नगरीय कोलाहल से दूर प्रकृति के बीच हिमालय के उत्तुंग शिखरों पर स्थित इन स्थानों तक पहुँचने में आस्था की वास्तविक परीक्षा तो होती ही है, साथ ही आम पर्यटकों के लिए भी ये यात्रा किसी रोमांच से कम नहीं होती। यह मन्दिर हिमालय की ऊँची दुर्गम पहडियो पर स्थित है इसलिये यहाँ तक पहुँचने के लिये पैदल चढाई करनी पड़ती है। माँ अनुसूया देवी मेले का आयोजन बड़े स्तर पर किया जाता है और मान्यता है की वे दम्पति जो सन्तान सुख से वंचित हैं यहाँ सन्तान प्राप्ति की मन्नत लेकर आतें हैं और माँ अनुसूया देवी के दर से कोई भी खली हाथ नही जाता |
यहाँ पर पूरी रात जगकर दम्पति माँ की पूजा अर्चना करते हैं और सन्तान प्राप्ति के लिए मन्नत मांगते हैं इस दौरान दंपत्ति हाथ में दिया लेकर बैठे रहते हैं जब तक की दम्पत्ति को सपना नही आता और कहा जाता है की दंपत्ति सपने के बारे में किसी को नही बताते और सपना आने के बाद मन्नत पूरी अवश्य होती है |
माँ अनुसुया अत्री मुनि की पत्नी थी मान्यता है की अनुसूया माँ का पति-भक्ति और सतीत्व इतना अधिक था की आकाश से जब भी कोई देव गुजरता था तो उन्हें माँ अनुसूया के तेज़ का अनुभव होने लगता था
मान्यता के अनुसार माँ अनुसुया देवहुति और प्रजापति कदर्म की नौ कन्याओ में से एक थी माँ अनुसुया अत्री मुनि की पत्नी थी मान्यता है की अनुसूया माँ का पति-भक्ति और सतीत्व इतना अधिक था की आकाश से जब भी कोई देव गुजरता था तो उन्हें माँ अनुसूया के तेज़ का अनुभव होने लगता था जिसे देख त्रिदेवो की पत्नी में इर्ष्या का भाव उत्पन्न हो गया |
तीनो देवियों (पारवती,लक्ष्मी और सरस्वती) ने माँ अनुसूया की परीक्षा लेने के लिए त्रिदेवो को पृथ्वी पर अत्री ऋषि के आश्रम भेज दिया जहाँ त्रिदेव ऋषि रूप धरकर पहुचे और माँ अनुसूया द्वारा ऋषियों का आदर सत्कार किया जिसके बाद अनुसूया माँ द्वारा तीनो ऋषियों को भोजन परोशा गया परन्तु तीनो ऋषियों ने भोजन लेने से मना कर दिया | और शर्त रखी की वे भोजन एक ही शर्त पर ग्रहण करेंगे यदि वे निर्वस्त्र होकर उन्हें भोजन परोसेंगी यह सुनकर माँ अनुसूया सोच में पढ़ गयी परन्तु इसी बीच जब उन्होंने सोचने के लिए आंखें बंद कि की उन्हें दिव्यदृष्टि से ज्ञात हो गया की यह कोई सामन्य ऋषि नही बल्कि त्रिदेव हैं जो साधू वेश बनाये हैं | यह जान माँ अनुसूया देवी मान गयी और उन ऋषियों के सामने अपनी भी शर्त रख दि :- वे निर्वस्त्र होकर भोजन करायेंगी परन्तु इसके लिए ऋषियों को उनके पुत्र रूप लेकर उनका पुत्र बनना होगा जिसे सुन तीनो ऋषि पुत्र रूप ले लेतें हैं और माँ अनुसूया द्वारा तीनो ऋषियों को भोजन कराया जाता है | इसके बाद तीनो देव यहीं रहने लगते हैं और काफी समय बाद भी देवलोक नही पहुचते और त्रिदेवो की पत्नियों द्को विवश होकर माँ अनुसूया के पास आकर माफ़ी मांगनी पढ़ती है जिसके बाद तीनो देवियों को माँ अनुसूया देवी द्वारा छमा कर त्रिदेवो को ले जाने की अनुमति मिल जाती है |
कहा जाता है माँ अनुसूया द्वारा सीता ,राम व लक्ष्मण का अपने आश्रम में सत्कार और सीता माता को सौन्दर्य औषधि भी प्रदान की गयी थी |
प्राचीन कथा के कारण, यहाँ पर हर वर्ष हजारों-लाखों की संख्या में दंपत्ति व नव-विवाहित जोड़े संतान प्राप्ति की इच्छा से मत्था टेकने आते हैं। जिन लोगों को कई वर्षों से संतान नही हो रही हैं या जो स्वस्थ संतान प्राप्ति की इच्छा रखते हैं, उनका यहाँ मुख्य रूप से आना होता हैं। मान्यता है कि जो दंपत्ति यहाँ आकर माता अनुसूया का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं उन्हें जल्द ही एक सुंदर व स्वस्थ संतान की प्राप्ति हो जाती हैं।
जिला मुख्यालय गोपेश्वर से 14 किमी दूर चोपता मोटर मार्ग पर मां अनुसूइया का मंदिर स्थित है। यहां पहुंचने के लिए चार किमी की दूरी पैदल तय करनी पड़ती है। इस मंदिर की खास बात यह है कि वर्ष में एक बार यहां दतात्रेय जयंती पर महिलाएं संतान प्राप्ति के लिए तप करती हैं। मान्यता है कि मुनि अत्रि की पत्नी मां सती अनुसूइया के सतीत्व की परीक्षा लेने के लिए जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने निर्वस्त्र होकर भोजन करने की इच्छा जताई तो मां अनुसूइया ने उन्हें बालक रूप देकर अपने आश्रम में भोजन कराया। इसी संतान दायिनी रूप में उन्हें यहां पूजा जाता है। महिलाएं संतान प्राप्ति के लिए आज भी मंदिर में तप करती हैं। परंपरा के अनुसार महिलाओं को रात्रि में मां अनुसूइया के आगे तप करने बैठना पड़ता है। स्वप्न होने पर वह सुबह स्नान करने के बाद ही घर लौटती हैं। संतान प्राप्ति के बाद दंपत्ती को यहां पूजा के लिए आना पड़ता है।
निसंतान महिला को मंदिर में रात्रि के समय होने वाले अनुष्ठान में हिस्सा लेना होता है। मान्यता है कि अनुष्ठान के बाद महिला को स्वप्न में फल दिखाई देता है, जिसका अर्थ है कि महिला को जल्द संतान प्राप्ति होगी। स्वप्न के बाद महिला अपने पति के साथ मंदिर के पास स्थित धारे से स्नान कर लौट आती है। कहते हैं यहां आने वाले निसंतान दंपति निराश होकर नहीं लौटते। हर वर्ष मार्गशीर्ष माह की चतुर्दशी व पूर्णिमा के दिन दत्तात्रेय भगवान की जयंती बनाई जाती है। इस अवसर पर अनुसूया देवी मंदिर में भी भव्य मेले का आयोजन किया जाता है
मां सती अनुसूइया आश्रम से दो किमी दूरी पर अमृत गंगा नदी बहती है। पहाड़ी से गिरने वाली इसी जल धारा की यहां परिक्रमा होती है। यह पहली गंगा है, जिसकी परिक्रमा भक्त कर सकते हैं। इसके लिए पहाड़ी को काटकर रास्ता बनाया गया है। परिक्रमा के दौरान भक्तों पर जलधारा पडऩे से स्वत: ही स्नान हो जाता है। हालांकि, यह परिक्रमा खतरनाक भी है।
यात्री जब मन्दिर के करीब पहुँचता है, तो सबसे पहले उसे गणेश जी की भव्य मूर्ति के दर्शन होते हैं, जो एक शिला पर बनी है। कहा जाता है कि यह शिला यहां पर प्राकृतिक रूप से है। इसे देखकर लगता है जैसे गणेश जी यहां पर आराम की मुद्रा में दायीं ओर झुककर बैठे हों। यहां पर अनसूइया नामक एक छोटा सा गांव है, जहां पर भव्य मन्दिर है। मन्दिर नागर शैली में बना है।
हर वर्ष दिसंबर के महीने में अनसूइया पुत्र भगवान दत्तात्रेय के जन्म अवसर पर यहाँ दत्तात्रेय जयंती (मेले) का आयोजन किया जाता है, जो कि मार्गशिष (हिंदी पंचांग) (सामान्य रूप से दिसम्बर) के महीने की चतुर्दशी और पूर्णिमा को लगता है। मेले में आसपास के गांव के लोग अपनी-अपनी डोली लेकर पहुँचते हैं। वैसे पूरे वर्षभर यहां की यात्रा की जाती है।
मन्दिर तक पहुँचने के लिए चमोली के मण्डल नामक स्थान तक मोटर मार्ग
मन्दिर तक पहुँचने के लिए चमोली के मण्डल नामक स्थान तक मोटर मार्ग है। ऋषिकेश तक आप रेल या बस से पहुँच सकते हैं। उसके बाद श्रीनगर और गोपेश्वर होते हुए मण्डल पहुँचा जा सकता है। मण्डल से माता के मन्दिर तक पांच किलोमीटर की खडी चढाई है जिस पर श्रद्धालुओं को पैदल ही जाना होता है। मन्दिर तक जाने वाले रास्ते के आरंभ में पडने वाला मण्डल गांव फलदार पेडों से भरा हुआ है। यहां पर पहाडी फल संतरा बहुतायत में होता है। गाँव के पास बहती कल-कल छल-छल करती नदी अमृत गंगा पदयात्री को पर्वत शिखर तक पहुँचने को उत्साहित करती रहती है। अनसूइया मन्दिर तक पहुँचने के रास्ते में बांज, बुरांस और देवदार के वन मुग्ध कर देते हैं। मार्ग में उचित दूरियों पर विश्राम स्थल और पीने के पानी की पर्याप्त उपलब्धता है जो यात्री की थकान मिटाने के लिए काफी हैं।
ऐसा कहा जाता है जब अत्रि मुनि यहां से कुछ ही दूरी पर तपस्या कर रहे थे तो उनकी पत्नी अनसूइया ने पतिव्रत धर्म का पालन करते हुए इस स्थान पर अपना निवास बनाया था।कविंदती है कि, देवी अनसूइया की महिमा जब तीनों लोकों में गाए जाने लगी तो अनसूइया के पतिव्रत धर्म की परीक्षा लेने के लिए पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश को विवश कर दिया। पौराणिक कथा के अनुसार तब ये त्रिदेव देवी अनसूइया की परीक्षा लेने साधुवेश में उनके आश्रम पहुँचें और उन्होंने भोजन की इच्छा प्रकट की। लेकिन उन्होंने अनुसूइया के सामने पण (शर्त) रखा कि वह उन्हें गोद में बैठाकर ऊपर से निर्वस्त्र होकर आलिंगन के साथ भोजन कराएंगी। इस पर अनसूइया संशय में पड गई। उन्होंने आंखें बंद अपने पति का स्मरण किया तो सामने खडे साधुओं के रूप में उन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश खडे दिखलाई दिए। अनुसूइया ने मन ही मन अपने पति का स्मरण किया और ये त्रिदेव छह महीने के शिशु बन गए। तब माता अनसूइया ने त्रिदेवों को उनके पण के अनुरूप ही भोजन कराया। इस प्रकार त्रिदेव बाल्यरूप का आनंद लेने लगे। उधर तीनों देवियां पतियों के वियोग में दुखी हो गई। तब नारद मुनि के कहने पर वे अनसूइया के समक्ष अपने पतियों को मूल रूप में लाने की प्रार्थना करने लगीं। अपने सतीत्व के बल पर अनसूइया ने तीनों देवों को फिर से पूर्व रूप में ला दिया। तभी से वह मां सती अनसूइया के नाम से प्रसिद्ध हुई।
अनुसूया मंदिर से लगभग 2 किलोमीटर आगे अत्रि मुनि का आश्रम है जो कि एक गुफा में स्थित है। इसे अत्रि मुनि की गुफा (Atri Gufa Uttarakhand) भी कह देते है। इस गुफा में अत्रि मुनि की पत्थर से बनी मूर्ति स्थापित है। गुफा के अंदर जाकर आपको सकारात्मक ऊर्जा का संचार अपने अंदर देखने को मिलेगा। यहाँ की शांति व पवित्रता को देखकर भक्तगण बहुत हल्का महसूस करते हैं। साथ ही इस गुफा के बाहर अमृत गंगा का जल प्रपात भी गिरता हैं जिसको बिना लांघे परिक्रमा की जाती है। यह भी अपने आप में एक अद्भुत व सैलानियों का मन मोह लेने वाला दृश्य होता है।
अत्रि (वैदिक ऋषि) ब्रम्हा जी के मानस पुत्रों में से एक थे। चन्द्रमा, दत्तात्रेय और दुर्वासा ये तीन पुत्र थे। इन्हें अग्नि, इन्द्र और सनातन संस्कृति के अन्य वैदिक देवताओं के लिए बड़ी संख्या में भजन लिखने का श्रेय दिया जाता है। अत्रि सनातन परंम्परा में सप्तर्षि (सात महान वैदिक ऋषियों) में से एक है, और सबसे अधिक ऋग्वेद में इनका उल्लेख है।अयोध्या नरेश श्रीराम अपने वनवास काल मे भार्या सीता तथा बन्धु लक्ष्मण के संग अत्रि ऋषि के चित्रकूट आश्रम मे आए थे। अत्रि ऋषि सती अनुसुईया के पति थे। सती अनुसुईया सोलह सतियों में से एक थीं। जिन्होंने अपने तपोबल से ब्रम्हा, विष्णु एवं महेश को बालक रूप में परिवर्तित कर दिया था।पुराणों में वर्णित है कि इन्हीं तीनों देवों ने माता अनुसुईया से वरदान प्राप्त किया था, कि हम आपके पुत्र रूप में आपके गर्भ से जन्म लेंगे । यही तीनों चन्द्रमा (ब्रम्हा) दत्तात्रेय (विष्णु) और दुर्वासा (शिव) के अवतार हैं। यह भी धारणा है कि ऋषि अत्रि ने अंजुली में जल भरकर सागर को सोख लिया था फिर सागर ने याचना की कि हे! ऋषिवर् मुझमें निवास करने वाले समस्त जीव-जन्तु एवं पशु-पक्षी जल के बिना प्यास से मारे जाएंगे अतः मैं आपसे यह विनम्र निवेदन करता हूं कि मुझे जलाजल कर दें। तब ऋषि अत्रि प्रसन्न हुए और उन्होंने मूत्रमार्ग से सागर को मुक्त कर दिया । माना जाता है तब से ही सागर का जल खारा हो गया ।
मन्दिर से कुछ ही दूर लगभग 3 किमी. उत्तर की ओर महर्षि अत्रि की गुफा और अमृत गंगा नामक जल प्रपात का विहंगम दृश्य श्रदलुओं और साहसिक पर्यटन के शौकीनों के लिए आकर्षण का केंद्र है क्योंकि गुफा तक पहुँचने के लिए सांकल पकडकर रॉक क्लाइम्बिंग भी करनी पडती है। गुफा में महर्षि अत्रि की पाषाण मूर्ति है। गुफा के बाहर अमृत गंगा और जल प्रपात का दृश्य मन मोह लेता है। यहां का जलप्रपात शायद देश का अकेला ऐसा जल प्रपात है जिसकी परिक्रमा की जाती है। साथ ही अमृत गंगा को बिना लांघे ही उसकी परिक्रमा की जाती है।
अनुसूया मंदिर चमोली चमोली जिला मुख्यालय से दस किमी दूर चोपता मोटर मार्ग पर मंडल के पास से अनुसूइया मंदिर के लिए पैदल रास्ता जाता है। गोपेश्वर और फिर मंडल गाँव पहुँचना पड़ेगा। मंडल गाँव में भी रुक सकते हैं जहाँ आपको छोटे होटल, धर्मशाला या लोगों के घरों में होमस्टे की सुविधा मिल जाएगी। या फिर आप वापस गोपेश्वर जा सकते हैं जहाँ सरकारी विश्राम गृह, बड़े होटल, हॉस्टल, लॉज इत्यादि सभी प्रकार की सुविधाएँ आसानी से उपलब्ध हैं। चढ़ाई करने के लिए जूते पहने व एक छड़ी भी साथ में रखे। इससे पहाड़ों पर चढ़ने में आसानी होगी। अनुसूया मंदिर के साथ-साथ अत्रि मुनि की गुफा भी अवश्य होकर आये।
ठहरने के लिए यहां पर अनेक छोटे छोटे लॉज उपलब्ध है। आधुनिक पर्यटन की चकाचौंध से दूर यह इलाका इको-फ्रैंडली पर्यटन का अद्वितिय उदाहरण भी है। यहां भवन पारंपरिक पत्थर और लकडियों के बने हैं। इसी स्थान से पंच केदारों में से एक तुंगनाथ रुद्रनाथ के लिए भी रास्ता जाता है। यहां से रुद्रनाथ मन्दिर की दूरी लगभग ७-८ किलोमीटर है। प्रकृति के बीच शांत और भक्तिमय माहौल में श्रद्धालु और पर्यटक अपनी सुधबुध खो बैठता है। माँ अनुसूया मंदिर उत्तराखण्ड के चमोली में स्थित है जहाँ चोपता (रुद्रप्रयाग) और गोपेश्वर से आसानी से पहुंचा जा सकता है | मंदिर तक सड़क से पांच किमी. पैदल रास्ता चलकर पहुंचा जा सकता है खाने के लिए कुछ दिक्कत का सामना करना पढ़ सकता है इसलिए नीचे से ही सामान ले लें यहां पहुँचने के लिए आपको सबसे पहले देश के किसी भी कोने से ऋषिकेश पहुँचना होगा। ऋषिकेश तक आप बस या ट्रेन से पहुँच सकते हैं। २१७ किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद गोपेश्वर पहुँचा जाता है गोपेश्वर से १३ किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद मण्डल नामक स्थान आता है। बस या टैक्सी से आप सुगमता से मण्डल पहुँच सकते हैं और मण्डल से लगभग ५-६ किलोमीटर की खडी चढाई चढने के बाद आप अनसूइया देवी मन्दिर मे पहुँच सकते हैं।
By Chandra Shekhar Joshi मुख्य सेवक श्री बगुला मुखी- पितांबरा महामाई मंदिर स्थान नंदा देवी एनक्लेव बंजारावाला देहरादून उत्तराखंड मोबाइल9412932030
विधि विधान से प्राण प्रतिष्ठा होने से उस स्थान मे भगवान साक्षात निवास करते है, प्राण प्रतिष्ठा एक असाधारण और अद्भुत कार्य है कोई-कोई ही हजारों वर्षों में जन्म लेता है , जो मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा कर सकने में समर्थ होता है। हजारों साल पहले बारह ज्योतिर्लिंग किसी महापुरुष ने प्राणप्रतिष्ठित कर दिए और वह अभी तक चले आ रहे हैं– अदभुत पुण्य के भागीदार होते है वह धार्मिक जन जो प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में सहभागी बनते हैं”अस्य श्री प्राण प्रतिष्ठा मंत्रस्य ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वराः ऋषय: ऋग्यजु सामानि छन्दांसि, क्रियामय वपु: प्राणाख्या देवता. आं बीजं ह्रीं शक्तिः क्रौं कीलकम् अस्मिन श्री बगुला मुखी पीतांबरा यंत्रे प्राण प्रतिष्ठापने विनियोग– “चंद्रशेखर जोशी मुख्य सेवक
भारतीय धर्मों में, जब किसी मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा की जाती है तब मंत्र द्वारा उस देवी या देवता का आवाहन किया जाता है कि वे उस मूर्ति में प्रतिष्ठित हों। इसी समय पहली बार मूर्ति की आँखें खोली जाती हैंप्राण-प्रतिष्ठा के बिना कोई भी मूर्ति मंदिर में स्थापित नहीं होती है। प्राण-प्रतिष्ठा के जरिए देवी या देवता का आवाहन किया जाता है, जिससे कि वो मूर्ति में विराजमान होते हैं और इसके बाद वो मूर्ति भगवान रूप में मंदिर में स्थापित होती है और इसी के बाद मूर्ति की आंखें खोली जाती हैं। भारतीय धर्म में प्राण-प्रतिष्ठा का खास महत्व है। कहा जाता है कि प्राण-प्रतिष्ठा तो वो शक्ति है, जिसकी वजह से एक पत्थर भी ईश्वर का रूप धारण कर सकता है।प्रतिमा में जान डालने की विधि को ही प्राण प्रतिष्ठा कहते हैं। यह मूर्ति को जीवंत करती है जिससे की यह व्यक्ति की विनती को स्वीकार कर सके। जब भी लोग किसी देवमूर्ति को घर के मंदिर में लाते हैं तो पूरे विधि विधान से इसकी पूजा की जाती है। इस प्रतिमा में जान डालने की विधि को ही प्राण प्रतिष्ठा कहते हैं।यहां प्राण प्रतिष्ठा से आशय केवल इतना ही है कि एक न एक दिन हमें अपने इस पंच महाभूतों से बने देह मंदिर में उस परमात्मा का जो इसमें पहले से ही उपस्थित है, साक्षात्कार कर प्रतिष्ठित करना है। मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा का उपक्रम करना इसी बात का स्मरण मात्र है।किसी भी मंदिर के निर्माण के बाद सबसे पहले उनमें स्थापित होने वाले देवी देवताओं की मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है। पूरे नियम अनुसार इसे किया जाता है। प्राण प्रतिष्ठा करने में 3 से 5 दिन लगते हैं। ऐसा माना जाता है कि प्राण-प्रतिष्ठा का अनुष्ठान प्रतिमाओं को जागृत करने के लिए किया जाता है। कहा जाता है कि प्राण-प्रतिष्ठा से पत्थर की मूर्तियों में प्राण तो नहीं आते, लेकिन उसके जागृत होने, सिद्ध होने का अनुभव किया जा सकता है। इस प्रक्रिया को कई विद्वानों, पंडितों द्वारा किया जाता है।जिस स्थान पर मूर्ती को स्थापित किया जाता है वहां पर ज़मीन में सोना, चांदी, मुद्रा, अन्न आदि को रख कर मूर्ती के लिए एक पाट बनाया जाता है। प्राण प्रतिष्ठा किए जाने वाले स्थान पर वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है और ध्वनियों का नाद किया जाता है। इस दौरान भगवान की मूर्तियों का कई प्रकार से अभिषेक किया जाता है। कहा जाता है कि जब मूर्तियों में मंत्रों की शक्ति से प्राण प्रतिष्ठा होती है तो उनमें देवता वास करते हैं जो भक्तों के लिए बहुत फलदायी होता है| यह वास्तु आधारित भी होता है। मूर्ती की स्थापना जिस स्थान पर की जाती है, मंत्रों से उस स्थान से नकारात्मक प्रभाव खत्म हो जाता है और सकारात्मक प्रभाव जागृत होता है। सकारात्मक ऊर्जा से वह जगह पवित्र हो जाती है। मंदिर में जिस शांति का अनुभव होता है, कहा जाता है वह वैदिक मंत्रों द्वारा ही होता है। जब भी लोग किसी देवमूर्ति को घर के मंदिर में लाते हैं तो पूरे विधि विधान से इसकी पूजा की जाती है। इस प्रतिमा में जान डालने की विधि को ही प्राण प्रतिष्ठा कहते हैं। यह मूर्ति को जीवंत करती है जिससे की यह व्यक्ति की विनती को स्वीकार कर सके। प्राण-प्रतिष्ठा की यह परंपरा हमारी सांस्कृतिक मान्यता जुड़ी है कि पूजा मूर्ति की नहीं की जाती, दिव्य सत्ता की, महत् चेतना की, की जाती है। सनातन धर्म में प्रारंभ से ही देव मूर्तियां ईश्वर प्राप्ति के साधनों में एक अति महत्वपूर्ण साधन की भूमिका निभाती रही हैं। अपने इष्टदेव की सुंदर सजीली प्रतिमा में भक्त प्रभु का दर्शन करके परमानंद का अनुभव करता है और शनै: शनै: ईश्वरोन्मुख हो जाता है। देवप्रतिमा की पूजा से पहले उनमें प्राण-प्रतिष्ठा करने की पीछे मात्र परंपरा नहीं, परिपूर्ण तत्त्वदर्शन सन्निहित है। माहों में चैत्र, फाल्गुन, ज्येष्ठ, वैशाख और माघ समस्त देवताओं को प्रतिष्ठा के लिए उपयुक्त रहते हैं तिथियों में द्वादशी तिथि भगवान विष्णु, चतुर्थी गणेश तथा नवमी तिथि दुर्गा की प्रतिष्ठा के लिए विशेष रूप से निर्धारित की गई है। वारों के लिए कहा गया है कि-तेजस्विनी क्षेमकृदग्रिहाद विधायिनी स्याद्वनदा दृढा च।आनंदनकृत कल्पविनाशिनी च सूर्यदिवारेषु भवेत्प्रतिष्ठा।।अर्थात रविवार को की गई प्रतिष्ठा तेजस्विनी, सोमवार को कल्याण कारिणी, मंगलवार को अग्रिदाह कारिणी, बुधवार को धन दायिनी, वीरवार को बलप्रदायिनी, शुक्रवार को आनंददायिनी, शनिवार को सामर्थ्य विनाशिनी होती है। धर्म ग्रंथों में स्पष्ट कहा गया है