मिशन 2019 ; भाजपा में लगातार मंथन; टिकट बदलने का फैसला?
HIGH LIGHT ; भाजपा को 2014 के नतीजे दोहराने के लिए अपने वोट बढ़ाने के साथ-साथ गैर-भाजपा मतों के ध्रुवीकरण को रोकने की रणनीति भी बनानी पड़ेगी। अगर गैर-भाजपा मतों का ध्रुवीकरण ‘आप’ के पक्ष में हो गया या कांग्रेस अल्पसंख्यक मतों को अपने साथ जोड़ ले या फिर ‘आप’ और कांग्रेस में सीटों का तालमेल हो जाए तो भाजपा के लिए जीत की राह कठिन हो सकती है।
हिमालयायूके न्यूFज पोर्टल ब्यूरो
मिशन 2019 के तहत लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सभी सात सीटें जीतने के लिए भाजपा में लगातार मंथन चल रहा है। पार्टी प्रमुख अमित शाह ने लोकसभा चुनाव की तैयारी की समीक्षा के लिए 21 जून को बैठक भी की थी। पार्टी के दिल्ली प्रभारी श्याम जाजू ने बताया कि उम्मीदवार के चयन के लिए पार्टी आंतरिक सर्वेक्षण करा रही है, लेकिन यह तय नहीं है कि पिछले चुनाव के सभी उम्मीदवार दोबारा चुनाव लड़ें। पार्टी ने एक महासचिव अरुण सिंह को लोकसभा चुनाव के लिए दिल्ली का अतिरिक्त प्रभारी बनाया है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 46 फीसद से ज्यादा वोट पाकर दिल्ली की सातों सीटें जीती थीं। दूसरे नंबर पर आम आदमी पार्टी (आप) के उम्मीदवार रहे थे, जिन्हें करीब 33 फीसद वोट मिले थे। वहीं 2009 के चुनाव में सातों सीटें जीतने वाली कांग्रेस को महज 15 फीसद वोट मिले थे। इस बार भी दिल्ली के राजनीतिक हालात में ज्यादा बदलाव नहीं दिख रहा है।
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का अलग अंदाज है और उन्होंने तमाम विरोधों के बावजूद 2017 के निगम चुनाव में सभी निगम पार्षदों के टिकट बदलने का फैसला किया था। निगम में लगातार तीसरी बार भाजपा की जीत का एक अहम कारण इस फैसले को भी माना जा सकता है।
माना जाता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्मा ज्यादा असरदार था। पिछली बार दिल्ली के सातों उम्मीदवार पहली बार सांसद बने थे, लेकिन इस बार के चुनाव में उनका कामकाज भी देखा जाएगा। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का अलग अंदाज है और उन्होंने तमाम विरोधों के बावजूद 2017 के निगम चुनाव में सभी निगम पार्षदों के टिकट बदलने का फैसला किया था। निगम में लगातार तीसरी बार भाजपा की जीत का एक अहम कारण इस फैसले को भी माना जा सकता है। बिहारी मूल के लोकप्रिय गायक मनोज तिवारी को दिल्ली भाजपा का अध्यक्ष बनाने का फायदा भी पार्टी को मिला और वोट औसत न बढ़ने के बावजूद भाजपा चुनाव जीत गई। उत्तर-पश्चिमी दिल्ली से सांसद बने उदित राज चुनाव से ठीक पहले पार्टी में शामिल हुए। हालांकि वे चार साल में पार्टी के पुराने लोगों से तालमेल नहीं बैठा पाए, लेकिन वे केवल दिल्ली के एक क्षेत्र के दलित नेता नहीं हैं, उनका संगठन दलित सरकारी कर्मचारियों का देशभर का सबसे बड़ा संगठन है।
पार्टी में दलितों की हिस्सेदारी घटने के कारण शायद ही उदित राज का टिकट कट पाएगा। गिरी पर गिर सकती है गाज इसी तरह श्री श्री रविशंकर के शिष्य और पूर्वी दिल्ली के सांसद महेश गिरी भी पार्टी के सचिव रहने के बावजूद भाजपा और आरएसएस के लोगों में अपनी पैठ बनाने में कामयाब नहीं रहे। कहा गया था कि श्री श्री ने ही उन्हें पिछली बार टिकट दिलवाया था और अगर वे दोबारा पैरवी करें तभी उनका टिकट बच पाएगा वरना उस इलाके के रहने वाले और पूर्वी दिल्ली की विधानसभा सीट कृष्ण नगर से पांच बार विधायक रहे डॉ हर्षवर्धन इस सीट से भाजपा उम्मीदवार बन सकते हैं। अभी वे चांदनी चौक से सांसद हैं। ऐसा होने पर मुमकिन है कि राजस्थान से राज्यसभा सदस्य और दिल्ली भाजपा के पूर्व अध्यक्ष विजय गोयल चांदनी चौक से उम्मीदवार बन सकते हैं। वे प्रदेश अध्यक्ष भी रहे हैं लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाने के बजाए राजस्थान से राज्यसभा में लाया गया। वे अभी भी दिल्ली, खासकर चांदनी चौक की राजनीति में सक्रिय हैं।
उत्तर-पूर्वी दिल्ली के सांसद प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी हैं। जो हालात हैं उनमें भाजपा पूर्वांचल के लोगों के समर्थन को किसी भी तरह से खोना नहीं चाहेगी। इसलिए लगता नहीं कि मनोज तिवारी के टिकट में बदलाव हो। नई दिल्ली से लोकसभा सांसद मीनाक्षी लेखी ने पार्टी में तो अपना असर बढ़ाया है लेकिन आम लोगों में उनके अनुकूल माहौल नहीं है। उन्हें पीएन लेखी की बहू होने के नाते टिकट मिला था। पश्चिमी दिल्ली के सांसद प्रवेश वर्मा भी इन चार सालों में अपने दिवंगत पिता दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह से अलग पहचान नहीं बना पाए। आज भी उनकी पहचान साहिब सिंह के बेटे के नाते ही है। संभव है उनके बजाए पंजाबी नेतृत्व को अहमियत देने के लिए पार्टी किसी पंजाबी मूल के नेता को उम्मीदवार बनाए। दक्षिणी दिल्ली सीट पर पिछले चुनाव में ‘आप’ और कांग्रेस ने जाट उम्मीदवार खड़े किए, लेकिन इस सीट से जीते रमेश बिधूड़ी का अपना जनाधार है और पार्टी में उनकी पैठ ज्यादा है, इसलिए उनका टिकट कटना कठिन माना जा रहा है। भाजपा को 2014 के नतीजे दोहराने के लिए अपने वोट बढ़ाने के साथ-साथ गैर-भाजपा मतों के ध्रुवीकरण को रोकने की रणनीति भी बनानी पड़ेगी। अगर गैर-भाजपा मतों का ध्रुवीकरण ‘आप’ के पक्ष में हो गया या कांग्रेस अल्पसंख्यक मतों को अपने साथ जोड़ ले या फिर ‘आप’ और कांग्रेस में सीटों का तालमेल हो जाए तो भाजपा के लिए जीत की राह कठिन हो सकती है।
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