राजस्थान के मेवाड़ में हैं चार कृष्ण धाम- मोदी
राजस्थान के मेवाड़ में हैं चार कृष्ण धाम
BM W नरेंद्र दामोदर दास मोदी Apr 28, 2015
राजसमंद। मेवाड़ इतिहास में जहां वीरता के लिए जाना जाता है वहीं धार्मिक स्थलों के साथ भी इसकी एक विशिष्ठ पहचान है। वैसे तो मेवाड़ में कई देवी-देवताओं के मंदिर स्थापित है फिर भी कुछ ऎसे धार्मिक स्थल है जिन्होंने मेवाड़ को देशभर में ख्याती दिलाई है। राजस्थान में मेवाड़ एक ऎसा क्षेत्र है जहां पर देश के प्रसिद्ध चार कृष्ण धाम है। इनमें तीन राजसमन्द जिले में है तो एक चित्तौड़गढ़ जिले के मण्डफिया(भादसौड़ा) में स्थापित है। इनमें राजसमन्द के नाथद्वारा में प्रभु श्रीनाथजी, चारभुजा में श्रीचारभुजा गढ़बोर एवं कांकरोली में श्रीद्वारकाधीश मंदिर हैं। चित्तौड़गढ़ के मण्डफिया में श्रीसांवलिया सेठ का मंदिर प्रसिद्ध है। यहां पर दूर दराज से लोग दर्शन को आते है और पर्यटन के क्षेत्र में दिनों-दिन यह धाम अपनी पहचान को बढ़ा रहे है। नाथद्वारा एवं द्वारकाधीश मंदिर के साथ बड़ी-बड़ी गोशालाएं भी स्थापित है।
1. श्रीनाथजी नाथद्वारा (राजसमन्द)
राजसमन्द जिले से करीब 16 किलोमीटर दूर उदयपुर मार्ग पर श्रीनाथजी का मंदिर नाथद्वारा में स्थापित है जो जिसका इतिहास काफी निराला है। कहा जाता है कि 17वी शताब्दी में जब मुगल उत्तर भारत में धार्मिक स्थलों पर आक्रमण कर रहे थे उस समय प्रभु श्रीनाथजी को सुरक्षित स्थान की खोज शुरू की गई। बाल स्वरूप भगवान श्रीनाथजी को 1726 में मथुरा के जतीपुरा से यहां लाकर फाल्गुनवदी सप्तमी को यहां पर स्थापित किया गया। इससे पूर्व सुरक्षित स्थान के लिए बांसवाड़ा, कोटा बूंदी, उदयपुर, मारवाड़, शाहपुरा एवं उदयपुर में भी तलाश की गई। वर्तमान मंदिर का निर्माण महाराणा राजसिंह ने करवाया था। इससे पूर्व श्रीनाथजी को खमनोर में नदी के किनारे भी हरिरायजी मुखिया ने कुछ दिन विश्राम करवाया। जहां पर आज भी बैठक बनी हुई है। नाथद्वारा में विराजित श्रीनाथजी के आज भी हाथ दर्शन होते है। यह पीठ वल्लभसम्प्रदाय की पीठ मानी जाती है। पूजा एवं आरती आज भी उसी सम्प्रदाय के रिति-रिवाज के अनुसार होती है। काले मार्बल की इस मूर्ति आज भी लोगों को आकर्षित कर रही है। आंध्रप्रदेश के तिरूपति के बाद यह दूसरे सबसे धनी मंदिर के रूप में जाना जाता है। यहां पर वर्ष में दो महोत्सव होते है जिनमें अन्नकूट एवं जन्माष्टमी शामिल है। इन दोनों अवसरों पर हजारों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते है। मेवाड़ के अलावा मारवाड़, हाडौती एवं गुजरात से भी प्रतिदिन सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते है।
2. श्रीद्वारकाधीशजी कांकरोली (राजसमन्द)
राजसमन्द जिला मुख्यालय पर राजसमन्द झील के किनारे श्री द्वारकाधीश का मंदिर स्थापित है। इन्हें श्रीनाथजी के बड़े भाई के रूप में मान्यता मिली हुई है। इन्हें भी 17वीं शताब्दी में जब मुगल उत्तर भारत में धार्मिक स्थलों पर आक्रमण कर रहे थे उस समय यहां पर लाया गया। ईस्वीं 1722 में इन्हें मेवाड़ में स्थापित करने के बारे में विचार किया गया लेकिन उस समय मेवाड़ में भीषण अकाल की स्थिति होने से यहां नहीं लाया जा सका। बाद में 1726 में बृजभूषण लालजी इन्हें लेकर कांकरोली पहुंचे और देवल में स्थापित किया गया। बाद में अचानक हुए बाढ़ के हालात के कारण इन्हें आसोसिया में 1751 में मगरी पर स्थापित किया गया। बाद में 1776 में आमेट राव की हवेली का जीर्णाेद्वार करके गिरधरगढ़ बनाकर चेत्र कृष्णा नवमी के दिन वर्तमान मंदिर में स्थापित किया गया। द्वारकाधीश के वर्तमान मंदिर का निर्माण महाराणा राजसिंह ने करवाया था। पूजा एवं आरती आज भी वल्लभ सम्प्रदाय के रिति-रिवाज के अनुसार होती है। यहां पर वर्ष में तीन महोत्सव होते है जिनमें अन्नकूट, गोपाष्टमी एवं जन्माष्टमी शामिल है। इन दोनों अवसरों पर हजारों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते है। मेवाड़ के अलावा मारवाड़, हाडौती एवं गुजरात से भी प्रतिदिन सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते है।
3. श्री चारभुजा गढ़बोर, चाभुजा (राजसमन्द)
राजसमन्द जिले के चारभुजा में स्थापित श्री कृष्ण स्वरूप चारभुजा गढ़बोर का मंदिर चारभुजा में स्थापित है। जिला मुख्यालय से करीब 37 किलोमीटर दूरी पर गोमती नदी के तट पर बसे चारभुजा गढ़बोर का मंदिर करीब 5200 वर्ष पुराना है। इसकी ख्याती भी दूर-दूर तक है। इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि द्वापर युग में पांडवों ने अपने वनवास के दौरान चारभुजा में गोमती नदी के तट पर चारभुजा वाली प्रतिमा की पूजा किया करते थे। इसके बाद इस प्रतिमा को पाण्डवों ने ही जलमगA कर दिया और वो यहां से चले गए। इसके बाद यह प्रतिमा गंगदेव क्षत्रिय को मिली तो उसने भी इस प्रतिमा की पूजा की और कुछ वर्षो बाद इसे पुन: जलमग्न कर दिया। बाद में सूरागुर्जर को स्वप्न में मूर्ति के पानी में होने की बात कही। इस पर सूराजी गुर्जर ने इस मंदिर को पुन: स्थापित कर इसकी पूजा अर्चना शुरू की। प्राचीन मंदिर में होने के कारण आज भी यह एक प्राचीन मंदिर के नाम से देश विदेश में विख्यात है। इसकी पूजा सेवा गुर्जर समुदाय के पास है। जलझूलनी एकादशी इस मंदिर का सबसे बड़ा महोत्सव है। इस दिन भगवान चारभुजा नाथ को मंदिर के बाहर लाकर तलाई पर स्त्रान कराने लाया जाता है और गुलाल अबीर उड़ाते हुए श्रद्धालु भगवान को कंधों पर तलाई तक ले जाते है। वहां पर हजारों की संख्या में उपस्थित श्रद्धालुओं की साक्षी में भगवान को स्त्रान कराया जाता है। यहां पर पांच आरती होती है और चावल, मिश्री, नारियल व कसार का भोग लगता है।
4. श्रीसांवलिया सेठ मण्डफिया (चित्तौड़गढ़)
चित्तौड़गढ़ जिले से करीब 40 किलोमीटर दूर उदयपुर मार्ग पर श्रीसांवलिया सेठ का मंदिर स्थापित है जो जिसका इतिहास काफी निराला है। कहा जाता है कि जब मुगल मेवाड़ पर आक्रमण कर रहे थे उस समय यहां पर साधुओं की जमात चल रही थी। उस जमात में एक साधु के पास कृष्ण की तीन मूर्तियां थी जो उसने भादसौड़ा चौराहे पर मुगलों के भय से प्रतिमाएं जमीन में गाड दी थी। करीब 175 वर्ष पूर्व भादसौड़ा में पशु चराने वाले बोली बडाना नामक व्यक्ति को स्वप्न में स्वयं भगवान ने दर्शन देकर अपनी प्रतिमाएं भादसौड़ा चौराहे पर होने के संकेत दिए। इसके बाद बोली बागुण्ड, भादसौड़ा एवं मण्डफिया के ग्रामीणो को एकत्र किया और उनकी उपस्थिति में स्वप्न में बताए गए स्थान पर खुदाई करवाई तो वहां पर कृष्ण स्वरूप की तीन प्रतिमाएं निकली। इनमें से एक को प्रकाटय स्थल भादसौड़ा चौराहा पर, दूसरी को भादसौड़ा ग्राम एवं तीसरी को मण्डफिया में श्री सांवलिया धाम के नाम से स्थापित किया गया। मण्डफिया में स्थापित प्रतिमा के लिए कहा जाता है कि जब वह साधुओं के पास थी तब भी एक सोने की अशअरफी प्रतिदिन साुधु को देती थी। जैसे ही प्रतिमा स्थापित हुई तो उसका भंडारा भी तेजी से बढ़ने लगा। लोगों की मनमानी मुरादें पूरी होने लगी। इसलिए धीरे-धीरे इस धाम को सांवरिया सेठ की उपाधी से जाने जाना लगा। इस मंदिर के लिए कहा जाता है कि यह मंदिर साझेदारी में श्रद्धालु की मन्नत पूरी करते है। यहां पर हाड़ौती, मेवाड़, मालवा, जयपुर एवं गुजरात के पर्यटक आते है। वर्तमान में इस मंदिर का गुजरात गांधीनगर के अक्षरधाम की तर्ज पर निर्माण हो चुका है । यहां पर करीब एक माह तक हरियाली अमावस्या से मेला चलता है जिसमें लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते है। जलझूलनी एकादशी पर यहां पर भगवान की शोभायात्रा निकाली जाती है। जिसमें हजारों लोग एकत्र होते है। वहीं जन्माष्टमी पर रात साढ़ेग्यारह बजे आरती शुरू होती है जो करीब एक घंटे तक चलती है। इस मौके पर कृष्ण की बाल लीलाओं की झांकियां भी सजाई जाती है।
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