अयोध्याकांड; पर्वतीय रामलीला देहरादून में 5 अक्टूबर
अयोध्याकांड में श्रीराम वनगमन से लेकर श्रीराम-भरत मिलाप तक के घटनाक्रम आते हैं। पर्वतीय रामलीला कमेटी धर्मपुर देहरादून द्वारा आयोजित श्रीरामलीला में 5 अक्टूबर को मंथरा कैकयी संवाद, दशरथ कैकयी संवाद, कौशल्या भवन में राम, लक्ष्मण व सीता संवाद एवंं वन गमन का भव्य मंचन होगा-
चन्द्रशेखर जोशी -सम्पादक हिमालयायूके न्यूज पोर्टल द्वारा प्रस्तुत वर्णन-
रामचरित मानस के पूर्ण विवरण के अनुसार-
मंगलाचरण- राम राज्याभिषेक की तैयारी, देवताओं की व्याकुलता तथा सरस्वती से उनकी प्रार्थना – सरस्वती का मन्थरा की बुद्धि फेरना, कैकेयी-मन्थरा संवाद, प्रजा में खुशी – कैकेयी का कोपभवन में जाना – दशरथ-कैकेयी संवाद और दशरथ शोक, सुमन्त्र का महल में जाना और वहाँ से लौटकर श्री रामजी को महल में भेजना – श्री राम-कैकेयी संवाद – श्री राम-दशरथ संवाद, अवधवासियों का विषाद, कैकेयी को समझाना – श्री राम-कौसल्या संवाद – श्री सीता-राम संवाद – श्री राम-कौसल्या-सीता संवाद – श्री राम-लक्ष्मण संवाद – श्री लक्ष्मण-सुमित्रा संवाद – श्री रामजी, लक्ष्मणजी, सीताजी का महाराज दशरथ के पास विदा माँगने जाना, दशरथजी का सीताजी को समझाना
श्री राम-सीता-लक्ष्मण का वन गमन और नगर निवासियों को सोए छोडकर आगे बढना – श्री राम का श्रश्ंगवेरपुर पहुँचना, निषाद के द्वारा सेवा – लक्ष्मण-निषाद संवाद, श्री राम-सीता से सुमन्त्र का संवाद, सुमंत्र का लौटना – केवट का प्रेम और गंगा पार जाना
प्रयाग पहुँचना, भरद्वाज संवाद, यमुनातीर निवासियों का प्रेम – तापस प्रकरण – यमुना को प्रणाम, वनवासियों का प्रेम
श्री राम-वाल्मीकि संवाद – चित्रकूट में निवास, कोल-भीलों के द्वारा सेवा – सुमन्त्र का अयोध्या को लौटना और सर्वत्र शोक देखना
दशरथ-सुमन्त्र संवाद, दशरथ मरण – मुनि वशिष्ठ का भरतजी को बुलाने के लिए दूत भेजना श्री भरत-शत्रुघ्न का आगमन और शोक भरत-कौसल्या संवाद और दशरथजी की अन्त्येष्टि क्रिया वशिष्ठ-भरत संवाद, श्री रामजी को लाने के लिए चित्रकूट जाने की तैयारी
इससे पूर्व के पूर्ण विवरण के अनुसार-
राजा जनक के निमंत्रण पर श्रीराम व लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ धनुष यज्ञ (सीता स्वयंवर) में गए। उस सभा में अनेक वीर और पराक्रमी राजा-महाराजा पहले से ही उपस्थित थे। जैसे ही श्रीराम ने सभा में प्रवेश किया, सभी उनकी ओर एकटक देखते ही रह गए। जो राक्षस राजा का वेष बनाकर उस सभा में बैठे थे, उन्हें श्रीराम के रूप में अपना काल नजर आया। राजा जनक ने उचित समय देखकर अपनी पुत्री सीता को भी वहां बुलवा लिया। सभा में आते ही सीता की नजर सबसे पहले श्रीराम पर पड़ी।
सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा।।
मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई।।
अर्थात- सीताजी चकित चित्त से श्रीराम को देखने लगीं, तब सब राजा लोग मोह के वश हो गए। सीताजी ने मुनि के पास दोनों भाइयों को देखा तो उनके नेत्र अपना खजाना पाकर ललचाकर वहीं (श्रीराम में) जा लगे।
तभी सेवकों ने राजा जनक के कहने पर भरी सभा में घोषणा की कि यहां जो शिवजी का धनुष रखा है, वह भारी और कठोर है। जो राजपुरुष इस धनुष को तोड़ेगा, वही जनककुमारी सीता का वरण करेगा।
घोषणा सुनने के बाद अनेक वीर पराक्रमी राजाओं ने उस शिव धनुष को उठाने का प्रयास किया, लेकिन वे सफल नहीं हो पाए। यह देखकर राजा जनक के मन में शोक छा गया और वे बोले- लगता है पूरी पृथ्वी वीरों से शून्य हो गई है। राजा ऋषि विश्वामित्र के कहने पर श्रीराम उस शिव धनुष को तोडऩे के लिए चले। यह देख सीता भी श्रीराम के सफल होने की प्रार्थना करने लगी। श्रीराम ने मन ही मन गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया।
लेते चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुं न लखा देख सबु ठाड़ें।।
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।
अर्थात- लेते चढ़ाते और जोर से खींचते हुए किसी ने नहीं देखा (ये काम इतनी फुर्ती से हुए)। सबने श्रीराम को खड़े देखा। उसी क्षण श्रीराम ने धनुष को बीच से तोड़ डाला। कठोर ध्वनि से सभी लोक भर गए।
यह देख राजा जनक, उनकी रानी व सीता के मन में हर्ष छा गया। मंगल गीत गाए जाने लगे। ढोल, मृदंग, शहनाई आदि बजने लगे। सीता ने सकुचाते हुए वरमाला श्रीराम के गले में डाल दी। यह दृश्य देख देवता भी प्रसन्न होकर फूल बरसाने लगे। श्रीराम व सीता की जोड़ी ऐसी लग रही थी मानो सुंदरता व श्रंगार रस एकत्रित हो गए हों।
सीता को श्रीराम का वरण करते देख कुछ दुष्ट राजा बोले कि इन दोनों राजकुमारों को बंदी बना लो और सीता को अपने साथ ले चलो। ऐसी बात सुनकर लक्ष्मण क्रोधित हो गए। उसी समय वहां परशुराम आ गए। उन्हें देखकर वहां उपस्थित सभी राजा भयभीत हो गए। जब उन्होंने अपने आराध्य देव शिव का धनुष टूटा देखा तो वे बहुत क्रोधित हो गए और राजा जनक ने पूछा कि ये कार्य किसने किया है मगर भय के कारण राजा जनक कुछ बोल नहीं पाए।
नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।
आयसु काह कहिन किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।
अर्थात- परशुराम के वचन सुनकर श्रीराम बोले- हे नाथ। शिवजी के धनुष को तोडऩे वाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते।
श्रीराम की बात सुनकर परशुराम बोले कि जिसने भी यह धनुष तोड़ा है, वह मेरा शत्रु है। परशुराम का क्रोध देखकर लक्ष्मण उनका उपहास करने लगे। बात बढ़ती देख श्रीराम ने कुछ ऐसी रहस्यपूर्ण बातें परशुराम से कही, जिसे सुन उनकी बुद्धि के परदे खुल गए।
परशुराम ने जब श्रीराम के रूप में भगवान विष्णु की छवि देखी तो अपने मन का संदेह मिटाने के लिए उन्होंने अपना विष्णु धनुष श्रीराम को देकर उसे खींचने के लिए कहा। तभी परशुराम ने देखा कि वह धनुष स्वयं श्रीराम के हाथों में चला गया। यह देख कर उनके मन का संदेह दूर हो गया और वे तप के लिए वन में चले गए।
यह देख राजा जनक के मन में संतोष हुआ। तब उन्होंने ऋषि विश्वामित्र के कहने पर राजा दशरथ को बुलावा भेजा और विवाह की तैयारियां करने लगे। सूचना मिलते ही राजा दशरथ भरत, शत्रुघ्न व अपने मंत्रियों के साथ जनकपुरी आ गए। अयोध्यावासी भी खुशी मनाने लगे।
भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुवीर बिआहू।।
सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं संवारन लागे।।
अर्थात- चौदहों लोकों में उत्साह भर गया कि जानकी और श्रीराम का विवाह होगा। यह सुनकर लोग प्रेममग्न हो गए और रास्ते, घर तथा गलियां सजाने लगे।
उस समय हेमंत ऋतु थी और अगहन का महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र योग आदि देखकर ब्रह्माजी ने उस पर विचार किया और वह लग्न पत्रिका नारदजी के हाथों राजा जनक को पहुंचाई। शुभ मुहूर्त में श्रीराम की बारात आ गई। राजा जनक ने सभी बारातियों का समधी दशरथ के समान ही सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन किया और सब किसी को उचित आसन दिए।
सुखमूल दूलहु देखि संपति पुलक तन हुलस्यो हियो।
करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो।।
अर्थात- दोनों कुलों के गुरु वर और कन्या की हथेलियों को मिलाकर मंत्रोच्चार करने लगे। पाणिग्रहण हुआ देखकर ब्रह्मादि देवता, मनुष्य और मुनि आनंद में भर गए। राजाओं के अंलकार स्वरूप महाराज जनक न लोक और वेद की रीति के अनुसार कन्यादान किया।
श्रीराम व सीता का विवाह संपन्न होने पर राजा जनक और दशरथ बहुत प्रसन्न हुए। ऋषि वसिष्ठ के कहने पर दूल्हा व दुल्हन को एक आसन पर बैठाया गया।
श्रीराम व सीता का विवाह संपन्न होने के बाद ऋषि वसिष्ठ ने राजा जनक व उनके छोटे भाई कुशध्वज की पुत्रियों मांडवी, श्रुतकीर्ति व उर्मिला को बुलाया। जनक ने राजा दशरथ की सहमति से मांडवी का विवाह भरत से, उर्मिला का विवाह लक्ष्मण व श्रुतकीर्ति का विवाह शत्रुघ्न से कर दिया। अपने सभी पुत्रों का विवाह होते देख राजा दशरथ बहुत आनंदित हुए।
मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।
जनु पाए महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि।।
अर्थात- सब पुत्रों को बहुओं सहित देखकर अवधनरेश दशरथजी ऐसे आनंदित हैं, मानो वे राजाओं के शिरोमणि क्रियाओं सहित चारों फल (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) पा गए हों।
राजा जनक ने राजा दशरथ के साथ आए सभी अतिथियों का बहुत मान-सम्मान किया। जब भी राजा दशरथ अयोध्या जाने के लिए कहते तो जनक उन्हें प्रेमपूर्वक रोक लेते। इस प्रकार कई दिन बीत गए। तब ऋषि विश्वामित्र ने राजा जनक से कहा कि अब राजा दशरथ व अपनी पुत्रियों को स्नेहपूर्वक विदा कीजिए। राजा जनक ने ऐसा ही किया।
सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मंगल रासी।।
भूसुर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुंचावन राजा
अर्थात- सीताजी के चलते समय जनकपुरवासी व्याकुल हो गए। मंगल की राशि शुभ शकुन हो रहे हैं। ब्राह्मण और मंत्रियों के समाज सहित राजा जनकजी उन्हें पहुंचाने के लिए साथ चले।
बहुत दूर तक आ जाने पर राजा दशरथ के कहने से जनक अपने नगर लौट गए। बारात जब अयोध्या पहुंची तो नगरवासियों ने पूरे नगर को सजा दिया। कौशल्या, सुमित्रा और कैकयी अपने पुत्रों का साथ बहुओं को देखकर बहुत प्रसन्न हुईं। नगर में भव्य उत्सव मनाया गया। राजा दशरथ ने याचकों को भरपूर धन देकर संतुष्ट कर दिया।