ज्वलंत सवाल-संघ के करीब कौन; मोदी या राहुल ?
आरएसएस राहुल गांधी को अपने कार्यक्रम ‘फ्यूचर ऑफ इंडिया’ में बुलाने जा रहा है। Top Execlusive Story; # बडा ही अटपटा सा ज्वलंत सवाल हिमालयायूके ने दाग दिया कि संघ के करीब कौन मोदी या राहुल ? पर इसी का नाम राजनीति है- जो दिखता है,वो होता नही है,और जो होता है वो दिखता नही है# कांग्रेस के प्रति संघ का यह नए किस्म का आकर्षण #आरएसएस के डीएनए में कितने ही कमजोर सही कांग्रेस के कुछ गुणसूत्र #संघ के मन में भी एक बात आती होगी कि आखिर क्या बात है कि सारी सत्ता स्वयंसेवकों के हाथ में होने के बावजूद उन्हें या उनके पुरखों को वह सम्मान नहीं मिल रहा है, जिसके वे अधिकारी हैं. चूंकि संघ की यह घोषित नीति है कि वह राष्ट्रनिर्माण के लिए स्वयंसेवक पैदा करके छोड़ देता है, उन्हें जो पार्टी इस उद्देश्य के सबसे करीब लगे, स्वयंसेवक उसमें जा सकते हैं. संयोग से ज्यादातर स्वयंसेवकों को पहले जनसंघ और अब भाजपा ही सिद्धांतों के करीब लगती है. ऐसे में अगर कांग्रेस या दूसरे विपक्षी दल भी संघ के संपर्क में आएं. उससे बातचीत करें. और भले ही उससे विरोध रखें लेकिन उसे अपने लिए अछूत न मानें तो संघ का राजनैतिक फलक बड़ा हो जाएगा. #
जनसंघ और भाजपा के सहयोग से नरेंद्र मोदी के रूप में चौथा प्रधानमंत्री बना हो, लेकिन संघ के पितृपुरुषों को सार्वजनिक जीवन में वैसा सम्मान नहीं मिला है, जिसकी कोई भी संगठन उम्मीद करता है. और खासकर ऐसा संगठन जो खुद को पूरे देश का सबसे बड़ा प्रतिनिध मानता हो.
# कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने आरएसएस पर तीखा हमला बोलते हुए उसकी तुलना अरब जगत के संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड से की थी. उससे पहले भी राहुल गांधी लगातार आरएसएस पर हमले करते रहे हैं. इसी कड़ी में राहुल गांधी के संघ विरोधी बयानों के बाद सूत्रों के मुताबिक आरएसएस ने संघ को समझने के लिए राहुल गांधी को आमंत्रित करने का फैसला किया है. 17-19 सितंबर के बीच संघ के कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए इनमें से किसी भी दिन राहुल गांधी को आमंत्रित किया जा सकता है. वैसे 17 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जन्मदिन है. इसलिए सूत्रों के मुताबिक इस बात की प्रबल संभावना है कि उनको उसी दिन बुलावे का आमंत्रण भेजा जा सकता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गद्दी संभालने के बाद अपने अलावा किसी दूसरे नेता का सबसे ज्यादा नाम लिया तो वह महात्मा गांधी ही बने रहे. जब वह शुरू की विदेश यात्राओं पर गए तो उन्होंने भारत को बुद्ध और गांधी का देश बताया. यह लाइन हूबहू पंडित नेहरू की लाइन थी. वहां जाकर उन्होंने गांधीवाद की चर्चा की, न कि हेडगेवार और गुरुजी के राष्ट्रवाद की. वहां उन्होंने वीर सावरकर के हिंदू राष्ट्र या दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानव वाद की चर्चा नहीं की. न तो वाजपेयी सरकार में और न ही मोदी सरकार में संघ के संस्थापकों के नाम से कोई बड़ी योजना चलाई गई. यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी के लालकिले के भाषणों में भी आरएसएस के राष्ट्रनिर्माण कार्यक्रम की चर्चा सुनने को नहीं मिली.
संघ प्रचार प्रमुख अरुण कुमार ने कहा कि न्योता सभी पार्टियों को जाएगा। आरएसएस देशभर के बड़े नेताओं को अपने कार्यक्रम में बुला रहा है जिसमें कांग्रेस के नेता और पूर्व राष्ट्रपति प्रबण मुखर्जी भी इस कार्यक्रम में भाग लेंगे। तो अब बड़ा सवाल ये है क्या राहुल गांधी पूर्व राष्ट्रपति और कांग्रेस नेता प्रणब मुखर्जी की राह पर चलेंगे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) 17 से 19 सितंबर तक चलने वाले अपने कार्यक्रम के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को दावतनामा भेज सकता है. इसके पहले आरएसएस पूर्व राष्ट्रपति और कांग्रेस के नेता प्रणब मुखर्जी को सफलतापूर्वक नागपुर के अपने मुख्यालय में न सिर्फ बुला चुका है, बल्कि उनका बढ़िया भाषण भी करा चुका है. हाल के समय में कांग्रेस के प्रति संघ का यह नए किस्म का आकर्षण है. वैसे अतीत में महात्मा गांधी और राष्ट्रपति बनने से पहले सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी संघ के कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं. गांधी जी जब आरएसएस के कार्यक्रम में गए थे तो संघ की तुलना नाजी और फासिस्टों से की थी, वहीं राधाकृष्णन ने संघ के अनुशासन की तारीफ की थी और उनसे राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल होने का आग्रह किया था. राधाकृष्णन के इस कदम के लिए जवाहरलाल नेहरू ने उनकी आलोचना की थी.
नेहरू इस मामले में काफी सख्त थे और महात्मा गांधी की हत्या के बाद जब आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, तब सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर गुरुजी ने नेहरू से मिलकर अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए वक्त मांगा था. जवाब में नेहरू ने कहा था कि एक तो वह काम में बहुत व्यस्त हैं, दूसरे उन्हें नहीं लगता कि गोलवलकर से मुलाकात से कोई फायदा होगा. नेहरू जी का मानना था कि संघ से बातचीत का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि आरएसएस जो बातें सार्वजनिक रूप से करता है, वह उसके असली कार्यक्रम से बहुत उलट हैं. जब उनके वचन का महत्व ही नहीं है तो उनसे क्या बात की जाए.
लेकिन ये तो हो गईं अतीत की बातें. और उस जमाने की बातें जब कांग्रेस ही देश थी और कांग्रेस ही राजनीति थी और कांग्रेस ही सत्ता थी. यह इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि आरसएस के संस्थापक डॉ केशवराव बलिराम हेडगेवार भी आरएसएस की स्थापना से पहले कांग्रेस के आजादी के आंदोलन के प्रभाव में थे. भाजपा के मातृ संगठन जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष और हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहे डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी शुरू में कांग्रेसी ही थे. जनसंघ और बाकी दलों का विलय कर जब पहली गैर कांग्रेसी सरकार देश में बनी तो उसके प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई भी पुराने कांग्रेसी थे. यानी कांग्रेस की कोख से निकले ज्यादातर लोगों ने एक जमाने में आरएसएस और जनसंघ में अपना योगदान दिया. इस लिहाज से आरएसएस के डीएनए में कितने ही कमजोर सही कांग्रेस के कुछ गुणसूत्र तो हैं ही.
राहुल के अलावा और भी कई दलों के प्रमुखों को बुलावा भेजा जाएगा। सीता राम येचुरी समेत और भी लेफ्ट के नेताओं को न्योता भेजा जा सकता है। बताते चलें कि इससे पहले पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और टाटा ग्रुप के रतन टाटा को भी संघ अपने कार्यक्रम में आने का न्योता दे चुका है। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और उद्योगपति रतन टाटा भी पहले आरएसएस के कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रणब मुखर्जी के इस दौरे की उनकी पार्टी के कई नेताओं समेत कई अन्य लोगों ने आलोचना की थी।
आज की कांग्रेस महज तीन राज्यों की सत्ता तक सिमटी छोटी सी ताकत है. लोकसभा में उसके पास इतने सांसद तक नहीं हैं कि उसे विपक्ष के नेता का पद मिल सके. और सबसे बढ़कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बराबर कह रहे हैं कि वह कांग्रेसमुक्त भारत का निर्माण करना चाहते हैं. प्रधानमंत्री खुद संघ के स्वयंसेवक हैं और उनके मंत्रिमंडल में स्वयंसेवकों की भरमार है. और अगर राहुल गांधी के आरोप मानें तो सरकार में लगातार संघ के लोग भरे जा रहे हैं. तो ऐसे समय में जब संघ के स्वयंसेवकों से बनी पार्टी भारत को कांग्रेस मुक्त करना चाहती है तो आरएसएस कांग्रेस के नेताओं को इतना भाव क्यों दे रहा है.
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर हमेशा हमलाबार रहते है राहुल गांधी ने लंदन से हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना सुन्नी इस्लामवादी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ की थी। अब वही संघ राहुल गांधी को अपने कार्यक्रम में बुलाने जा रहा है। आरएसएस के कार्यक्रम में राहुल गांधी को शामिल होने के लिए न्योता भेजा जाएगा। ये कार्यक्रम दिल्ली में 17 से 19 सितंबर को आयोजित होगा।
इसकी वजहें हैं. और सबसे बड़ी वजह यह है कि भले ही जनसंघ और भाजपा के सहयोग से नरेंद्र मोदी के रूप में चौथा प्रधानमंत्री बना हो, लेकिन संघ के पितृपुरुषों को सार्वजनिक जीवन में वैसा सम्मान नहीं मिला है, जिसकी कोई भी संगठन उम्मीद करता है. और खासकर ऐसा संगठन जो खुद को पूरे देश का सबसे बड़ा प्रतिनिध मानता हो.
गौर से देखें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गद्दी संभालने के बाद अपने अलावा किसी दूसरे नेता का सबसे ज्यादा नाम लिया तो वह महात्मा गांधी ही बने रहे. जब वह शुरू की विदेश यात्राओं पर गए तो उन्होंने भारत को बुद्ध और गांधी का देश बताया. यह लाइन हूबहू पंडित नेहरू की लाइन थी. वहां जाकर उन्होंने गांधीवाद की चर्चा की, न कि हेडगेवार और गुरुजी के राष्ट्रवाद की. वहां उन्होंने वीर सावरकर के हिंदू राष्ट्र या दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानव वाद की चर्चा नहीं की. न तो वाजपेयी सरकार में और न ही मोदी सरकार में संघ के संस्थापकों के नाम से कोई बड़ी योजना चलाई गई. यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी के लालकिले के भाषणों में भी आरएसएस के राष्ट्रनिर्माण कार्यक्रम की चर्चा सुनने को नहीं मिली.
इन सब बातों से कहीं न कहीं संघ के मन में भी एक बात आती होगी कि आखिर क्या बात है कि सारी सत्ता स्वयंसेवकों के हाथ में होने के बावजूद उन्हें या उनके पुरखों को वह सम्मान नहीं मिल रहा है, जिसके वे अधिकारी हैं. चूंकि संघ की यह घोषित नीति है कि वह राष्ट्रनिर्माण के लिए स्वयंसेवक पैदा करके छोड़ देता है, उन्हें जो पार्टी इस उद्देश्य के सबसे करीब लगे, स्वयंसेवक उसमें जा सकते हैं. संयोग से ज्यादातर स्वयंसेवकों को पहले जनसंघ और अब भाजपा ही सिद्धांतों के करीब लगती है. ऐसे में अगर कांग्रेस या दूसरे विपक्षी दल भी संघ के संपर्क में आएं. उससे बातचीत करें. और भले ही उससे विरोध रखें लेकिन उसे अपने लिए अछूत न मानें तो संघ का राजनैतिक फलक बड़ा हो जाएगा.
दूसरी बात यह कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आज भी भारत का नाम गांधी और नेहरू से जुड़ा है. ठीक वैसे ही जैसे हमारी स्मृतियों में अमेरिका, अब्राहम लिंकन, तुर्की, कमाल अतातुर्क, चीन, माउत्से तुंग और रूस, लेनिन का देश बना हुआ है. यह प्रतीक-पुरुष इतने गहराई से जुड़े हुए हैं कि अगर इन देशों के लोग भारत आकर कहें कि वे अपने देश के इन नेताओं को नहीं मानते तो हम इन लोगों को शक की निगाह से देखेंगे या पूछेंगे कि क्या वे अपने इतिहास से अजनबी हैं.
एक बार कांग्रेस के लोग संघ से संवाद शुरू कर दें तो संघ को इन पुराने नेताओं को अपना बताने में ज्यादा दिक्कत नहीं आएगी और धीरे से वह अपने नेताओं को भी भारत के इन नेताओं के समकक्ष खड़ा कर देगा. इस घुलनशीलता में संघ का कोई मुकाबला नहीं है.
ऐतिहासिक संदर्भ में देखें तो खुद को वामपंथी कहने वाले सरदार भगत सिंह और नेताजी सुभाष चंद्र बोस, गांधी के पक्के चेले सरदार वल्लभ भाई पटेल, यूपी कांग्रेस कमेटी के प्रदेश अध्यक्ष पद पर रहते हुए दंगों में मारे गए गणेश शंकर विद्यार्थी, नेहरू के पट्ट शिष्य और भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जैसे बड़े नेताओं की छवि को संघ खुद में मिला चुका है.
लेखक पीयूष बबेले
तथा हिमालयायूके ब्यूरो