21 जनवरी, माता शाकंभरी की जयंती

21 जनवरी, सोमवार पौष मास की पूर्णिमा है। धर्म ग्रंथों के अनुसार, इस दिन माता शाकंभरी की जयंती मनाई जाती है। माता शाकंभरी को देवी दुर्गा की ही रूप माना जाता है। 
देशभर में मां शाकंभरी के तीन शक्तिपीठ हैं। पहला प्रमुख राजस्थान से सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय माताजी के नाम से स्थित है। दूसरा स्थान राजस्थान में ही सांभर जिले के समीप शाकंभर के नाम से स्थित है और तीसरा स्थान उत्तरप्रदेश के मेरठ के पास सहारनपुर में 40 किलोमीटर की दूर पर स्थित है।
उत्तर प्रदेश के जिला सहारनपुर से करीब 40 कि.मी. की दूरी पर शिवालिक की पर्वतमालाओं में स्थित आदिशक्ति विश्वकल्याणी मां शाकम्भरी देवी के प्राचीन सिद्धपीठ की छटा ही निराली है।
मां शाकंभरी का तीसरा स्थान उत्तरप्रदेश के मेरठ के पास सहारनपुर में 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस सिद्धपीठ में माता शाकंभरी देवी, भीमा देवी, भ्रामरी देवी व शताक्षी देवी भी प्रतिष्ठित हैं। कस्बा बेहट से शाकंभरी देवी का मंदिर 15 किलोमीटर दूरी पर है। यहां पर माता शाकंभरी कल-कल बहती नदी की जल धारा, ऊंचे पहाड़ और जंगलों के बीच विराजती हैं।

शाकंभरी देवी दुर्गा के अवतारों में एक हैं। दुर्गा के सभी अवतारों में से रक्तदंतिका, भीमा, भ्रामरी, शताक्षी तथा शाकंभरी प्रसिद्ध हैं।  मां शाकंभरी की पौराणिक ग्रंथों में वर्णित कथा के अनुसार, एक समय जब पृथ्‍वी पर दुर्गम नामक दैत्य ने आतंक का माहौल पैदा किया। इस तरह करीब सौ वर्ष तक वर्षा न होने के कारण अन्न-जल के अभाव में भयंकर सूखा पड़ा, जिससे लोग मर रहे थे। जीवन खत्म हो रहा था। उस दैत्य ने ब्रह्माजी से चारों वेद चुरा लिए थे। > तब आदिशक्ति मां दुर्गा का रूप मां शाकंभरी देवी में अवतरित हुई, जिनके सौ नेत्र थे। उन्होंने रोना शुरू किया, रोने पर आंसू निकले और इस तरह पूरी धरती में जल का प्रवाह हो गया। अंत में मां शाकंभरी दुर्गम दैत्य का अंत कर दिया।

माँ देवी शाकम्भरी दुर्गा माँ के अवतारों में से एक है। धार्मिक मान्यताओ के अनुसार माँ शाकम्भरी मानव जगत के कल्याण हेतु पृथ्वी लोक पर आई थी। माँ शाकम्भरी की महिमा का वर्णन वेदो में इस तरह उल्लेखित है । 
’शारणागत दीनात् परित्राण परायणे,
सर्वस्यर्ति हरे देवी नारायणी नामोस्तुते।’

माँ शाकम्भरी नवरात्रि का शुभारम्भ पौष माह में शुक्ल पक्ष की सप्तमी को होती है और माँ शाकम्भरी नवरात्रि का समापन पौष पूर्णिमा के दिन होती है। वेदो, पुराणो और शास्त्रो के अनुसार पौष माह की पूर्णिमा के दिन माँ शाकम्भरी का प्रादुर्भाव हुआ था। अतः पौष पूर्णिमा के दिन माँ शाकम्भरी जयंती महोत्सव मनाई जाती है। Shakambhari jayanti ki kat

धर्म ग्रंथों के अनुसार देवी शाकंभरी आदिशक्ति दुर्गा के अवतारों में एक हैं। दुर्गा के सभी अवतारों में से रक्तदंतिका, भीमा, भ्रामरी, शाकंभरी प्रसिद्ध हैं। दुर्गा सप्तशती के मूर्ति रहस्य में देवी शाकंभरी के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है-

मंत्र
शाकंभरी नीलवर्णानीलोत्पलविलोचना।
मुष्टिंशिलीमुखापूर्णकमलंकमलालया।।

अर्थात- देवी शाकंभरी का वर्ण नीला है, नील कमल के सदृश ही इनके नेत्र हैं। ये पद्मासना हैं अर्थात् कमल पुष्प पर ही विराजती हैं। इनकी एक मुट्‌ठी में कमल का फूल रहता है और दूसरी मुट्‌ठी बाणों से भरी रहती है।

दानवों के उत्पात से त्रस्त भक्तों ने कई वर्षों तक सूखा एवं अकाल से ग्रस्त होकर देवी दुर्गा से प्रार्थना की। तब देवी इस अवतार में प्रकट हुईं, उनकी हजारों आखें थीं। 
– अपने भक्तों को इस हाल में देखकर देवी की इन हजारों आंखों से नौ दिनों तक लगातार आंसुओं की बारिश हुई, जिससे पूरी पृथ्वी पर हरियाली छा गई। 
– यही देवी शताक्षी के नाम से भी प्रसिद्ध हुई एवं इन्ही देवी ने कृपा करके अपने अंगों से कई प्रकार की शाक, फल एवं वनस्पतियों को प्रकट किया। इसलिए उनका नाम शाकंभरी प्रसिद्ध हुआ। 
– पौष मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से शाकंभरी नवरात्र का आरंभ होता है, जो पौष पूर्णिमा पर समाप्त होता है। इस दिन शाकंभरी जयंती का पर्व मनाया जाता है।
– मान्यता के अनुसार इस दिन असहायों को अन्न, शाक (कच्ची सब्जी), फल व जल का दान करने से अत्यधिक पुण्य की प्राप्ति होती हैं व देवी दुर्गा प्रसन्न होती हैं।

मां शाकम्भरी की महिमा के बाबत सत्य ही वर्णित है—

’शारणागत दीनात् परित्राण परायणे, सर्वस्यर्ति हरे देवी नारायणी नामोस्तुते।’

शाकम्भरी नवरात्री पौष माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी से पूर्णिमा तक होती हैं। पौष माह की पूर्णिमा को ही पूराणों के अनुसार शाकम्भरी माताजी का प्रार्दुभाव हुआ था अतः पूर्णिमा के दिन शाकम्भरी जयन्ती (जन्मोत्सव) महोत्सव मनाया जाता हैं।
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माँ शाकम्भरी देवी मन्दिर—भक्तों की श्रद्धा, आस्था एवं विश्वास का केन्द्र—-

प्राचीन समय की बात है – दुर्गम नाम का एक महान्‌ दैत्य था। उस दुष्टात्मा दानव के पिता राजारूरू थे। ‘देवताओं का बल देव है। वेदों के लुप्त हो जाने पर देवता भी नहीं रहेंगे, इसमें कोई संशय नहीं है। अतः पहले वेदों को ही नष्ट कद देना चाहिये’। यह सोचकर वह दैत्य तपस्या करने के विचार से हिमालय पर्वत पर गया। मन में ब्रह्मा जी का ध्यान करके उसने आसन जमा लिया। वह केवल वायु पीकर रहता था। उसने एक हजार वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की। उसके तेज से देवताओं और दानवों सहित सम्पूर्ण प्राणी सन्तप्त हो उठे। तब विकसित कमल के सामन सुन्दर मुख की शोभा वाले चतुर्मुख भगवान ब्रह्मा प्रसन्नतापूर्वक हंस पर बेडकर वर देने के लिये दुर्गम के सम्मुख प्रकट हो गये और बोले – ‘तुम्हारा कल्याण हो ! तुम्हारे मन में जो वर पाने की इच्छा हो, मांग लो। आज तुम्हारी तपस्या से सन्तुष्ट होकर मैं यहाँ आया हूँ।’ ब्रह्माजी के मुख से यह वाणी सुनकर दुर्गम ने कहा – सुरे, र! मुझे सम्पूर्ण वेद प्रदान करने की कृपा कीजिये। साथ ही मुझे वह बल दीजिये, जिससे मैं देवताओं को परास्त कर सकूँ।

दुर्गम की यह बात सुनकर चारों वेदों के परम अधिष्ठाता ब्रह्माजी ‘ऐसा ही हो’ कहते हुए सत्यलोक की ओर चले गये। ब्रह्माजी को समस्त वेद विस्मृत हो गये।

इस प्रकार सारे संसार में घोर अनर्थ उत्पन्न करने वाली अत्यन्त भयंकर स्थिति हो गयी। इस प्रकार का भीषण अनिष्टप्रद समय उपस्थित होने पर कल्याणस्वरूपिणी भगवती जगदम्बा की उपासना करने के विचार से ब्राह्मण लोग हिमालय पर्वत पर चले गये। समाधि, ध्यान और पूजा के द्वारा उन्होंने देवी की स्तुति की। वे निराहार रहते थे। उनका मन एकमात्र भगवती में लगा था। वे बोले – ‘सबके भीतर निवास करने वाली देवेश्वरी ! तुम्हारी प्रेरणा के अनुसार ही यह दुष्ट दैत्यसब कुछ करता है। तुम बारम्बार क्या देख रही हो ? तुम जैसा चाहो वैसा ही करने में पूर्ण समर्थ हो। कल्याणी! जगदम्बिके प्रसन्न हो जाओ, प्रसन्न हो जाओ, प्रसन्न हो जाओ! हम तुम्हें प्रणाम करते हैं।’

‘इस प्रकार ब्राह्मणों के प्रार्थना करने पर भगवती पार्वती, जो ‘भुवनेश्वरी’ एवं महेश्वरी’ के नाम से विखयात हैं।, साक्षात्‌ प्रकट हो गई। उनका यह विग्रह कज्जल के पर्वत की तुलना कर रहा था। आँखें ऐसी थी, मानों विकसित नील कमल हो। कमल के पुष्प पल्लव और मूल सुशोभित थे। सम्पूर्ण सुन्दरता का सारभूत भगवती का यह स्वरूप बड़ा ही कमनीय था। करोडो सूर्यों के समान चमकने वाला यह विग्रह करूण रस का अथाह समुद्र था। ऐसी झांकी सामने उपस्थित करने के पश्चात्‌ जगत्‌ की रक्षा में तत्पर रहने वाली करूण हृदया भगवती अपनी अनन्त आँखों से सहस्रों जलधारायें गिराने लगी। उनके नेत्रों से निकले हुए जल के द्वारा नौ रात तक त्रिलोकी पर महान्‌ वृष्टि होती रही। वे देवता व ब्राह्मण सब एक साथ मिलकर भगवती का स्तवन करने लगे।

देवी ! तुम्हें नमस्कार है। देवी ! तुमने हमारा संकट दूर करने के लिये सहस्रों नेत्रों से सम्पन्न अनुपम रूप धारण किया है। हे मात ! भूख से अत्यन्त पीडि त होने के कारण तुम्हारी विशेष स्तुति करने में हम असमर्थ हैं। अम्बे ! महेशानी ! तुम दुर्गम नामक दैत्य से वेदों को छुड़ा लाने की कृपा करो।

व्यास जी कहते हैं – राजन ! ब्राह्मणों और देवताओं का यह वचन सुनकर भगवती शिवा ने अनेक प्रकार के शाक तथा स्वादिष्ट फल अपने हाथ से उन्हें खाने के लिये दिये। भाँति-भाँति के अन्न सामने उपस्थित कर दिये। पशुओं के खाने योग्य कोमल एवं अनेक रस से सम्पन्न नवीन तृण भी उन्हें देने की कृपा की। राजन ! उसी दिन से भगवती का नाम ”शाकम्भरी” पड गया।

जगत में कोलाहल मच जाने पर दूत के कहने पर दुर्गम नामक स्थान दैत्य स्थिति को समझ गया। उसने अपनी सेना सजायी और अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर वह युद्ध के लिये चल पड़ा। उसके पास एक अक्षोहिणी सेना थी। तदनन्तर भगवती शिवा ने उससे रक्षा के लिये चारों ओर तेजोमय चक्रखड़ा कर दिया। तदनन्तर देवी और दैत्य-दोनों की लड़ाई ठन गयी। धनुष की प्रचण्ड टंकार से दिशाएँ गूँज उठी।

भगवती की माया से प्रेरित शक्तियों ने दानवों की बहुत बड़ी सेना नष्ट कर दी। तब सेनाध्यक्ष दुर्गम स्वयं शक्तियों के सामने उपस्थित होकर उनसे युद्ध करने लगा। दस दिनों में राक्षस की सम्पूर्ण अक्षोहिणी सेनाएँ देवी का द्वारा वध कर कदी गयी।

अब भगवती जगदम्बा और दुर्गम दैत्य इन दोनों में भीषण युद्ध होने लगा। जगदम्बा के पाँच बाण दुर्गम की छाती में जाकर घुस गये। फिर तो रूधिर वमन करता हुआ वह दैत्य भगवती परमेश्वरी के सामने प्राणहीन होकर गिर पड़ा।

देवगण बोले- परिवर्तनशील जगत की एकमात्र कारण भगवती परमेश्वरी! शाकम्भरी! शतलोचने! तुम्ळें शतशः नमस्कार है। सम्पूर्ण उपनिषदों से प्रशंसित तथा दुर्गम नामक दैत्य की संहारिणी एवं पंचकोश में रहने वाली कल्याण-स्वरूपिणी भगवती महेश्वर! तुम्हें नमस्कार है।

व्यासजी कहते हैं – राजन! ब्रह्मा, विष्णु आदि आदरणीय देवताओं के इस प्रकार स्तवन एवं विविध द्रव्यों के पूजन करने पर भगवती जगदम्बा तुरन्त संतुष्ट हो गयीं। कोयल के समान मधुरभाषिणी उस देवी ने प्रसन्नतापूर्वक उस राक्षस से वेदों को त्राण दिलाकर देवताओं को सौंप दिया। वे बोलीं कि मेरे इस उत्तम महात्म्य का निरन्तर पाठ करना चाहिए। मैं उससे प्रसन्न होकर सदैव तुम्हारे समस्त संकट दूर करती रहूँगी।

व्यासजी कहते हैं – राजन ! जो भक्ति परायण बड भागी स्त्री पुरूष निरन्तर इस अध्याय का श्रवण करते हैं, उनकी सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं और अन्त में वे देवी के परमधाम को प्राप्त हो जाते हैं।

इस मन्दिर के महन्त श्री महन्त दयानाथ जी ब्रह्मचारी हैं।

यह मन्दिर उदयपुर खाटी (राजस्थान), जिला सीकर के निकट है तथा प्रकृति की अनुपम छटा लिये हुए सुन्दर मनोहर घाटी पर विद्यमान है जहाँ आज भी गंगा बहती है।

प्राकृतिक सौंदर्य व हरीतिमा से परिपूर्ण यह क्षेत्र उपासक का मन मोह लेता है तथा बरबस ही मस्तक उस जगतजननी के समक्ष श्रद्धा से झुक जाता है जो दस महाविद्याओं के विभिन्न स्वरूपों में एक सौ आठ नाम से वंदनीय हैं व दिव्य ज्योति रूप बनकर भौतिक जगत को प्रकाशित करती हैं। मां शाकम्भरी की महिमा से ही प्रकृति सुरक्षित है। वे न केवल प्राणियों की क्षुधा शांत करती हैं बल्कि प्रण-प्राण से रक्षा भी करती हैं। देवीपुराण के अनुसार शताक्षी, शाकम्भरी व दुर्गा एक ही देवी के नाम हैं।
नवरात्रि तथा दुर्गा अष्टमी के अलावा विभिन्न पुनीत अवसरों पर मां शाकम्भरी पीठ पर उपासकों का तांता लगा रहता है। हालांकि वर्षा ऋतु के दौरान यहां उपासकों को बाढ़ की सी स्थिति का सामना करना पड़ता है लेकिन भक्ति में शक्ति होने के कारण यहां सदैव भक्तों का जमावड़ा बना रहता है।

पुराण में वर्णित है कि इसी पवित्र स्थल पर मां जगदम्बा ने रक्तबीज का संहार किया था तथा सती का सिर भी इसी स्थल पर गिरा था। जनश्रुति है कि जगतजननी मां शाकम्भरी देवी की कृपा से उपासक के यहां खाद्य सामग्री की कमी नहीं रहती। शाक की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण वे शाकम्भरी देवी के नाम से लोको में जानी जाती हैं। श्री दुर्गा सप्तशती में वर्णित रूप के अनुसार मां शाकम्भरी देवी नीलवर्ण, नयन नीलकमल की भांति, नीची नाभि एवं त्रिवली हैं। कमल पर विराजमान रहने वाली मां शाकम्भरी देवी धनुष धारणी हैं। देवी पुराण में उनकी महिमा का वर्णन करते हुये उल्लेख किया गया है कि वे ही देवी शाकम्भरी हैं, शताक्षी हैं व दुर्गा नाम से जानी जाती हैं। यह भी सत्य है कि वे ही अनंत रूपों में विभक्त महाशक्ति हैं।

सिद्धपीठ मां शाकम्भरी देवी में मुख्य प्रतिमा मां शाकम्भरी के दाई ओर भीमादेवी व भ्रामरी तथा बायीं ओर शीताक्षी देवी प्रतिष्ठित हैं। मंदिर प्रांगण में ही भैरव आदि देवों के लघु मंदिर स्थापित हैं। सिद्धपीठ के समीप ही दस महाविधाओं में से एक मां छिन्न-मस्ता का प्राचीन मंदिर है। पुराण के अनुसार जब राक्षसों के अत्याचारों से पीडि़त देवतागण शिवालिक पर्वतमालाओं में छिप गये तथा उनके द्वारा जगदम्बा की स्तुति करने पर मातेश्वरी ने इसी स्थल पर प्रकट होकर उन्हें भयमुक्त किया व उनकी क्षुधा मिटाने हेतु साग व फलादि का प्रबंध किया। इसी कारण वह शाकम्भरी नाम से प्रसिद्ध हुईं। तत्पश्चात् वह शुम्भ-निशुम्भ राक्षसों को रिझाने के लिये सुंदर रूप धारण कर शिवालिक पहाड़ी पर आसन लगाकर बैठ गयीं। इसी स्थल पर मां जगदम्बा ने शुम्भ-निशुम्भ, रक्तबीज व महिषासुर आदि दैत्यों का संहार किया व भक्त भूरेदेव को आशीर्वाद दिया। सिद्धपीठ के समीपस्थ स्थित भूरेदेव के मंदिर से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। मां की असीम अनुकम्पा से वर्तमान में भी सर्वप्रथम उपासक भूरेदेव के दर्शन करते हैं तत्पश्चात पथरीले रास्ते से गुजरते हुये मां शाकम्भरी देवी के दर्शन हेतु जाते हैं। जिस स्थल पर माता ने रक्तबीज नामक राक्षस का वध किया था, वर्तमान में उसी स्थल पर मां शाकम्भरी का सिद्धपीठ गौरव से मस्तक ऊंचा किये खड़ा है।

माँ शाकम्भरी की कथा  Shakambhari jayanti ki katha 

एक समय की बात है जब दुर्गम नाम का एक महान दैत्य रहता था जिसके पिता का नाम राजरुरु था। एक बार दुर्गम दैत्य के मन में विचार आया की शायद देवताओं का बल वेद है क्यों ना वेद को ही नष्ट कर दिया जाए। यदि वेद लुप्त हो जाएगा तो देवता लोग भी लुप्त हो जाएंगे। यह सोच कर दुर्गम दैत्य तपस्या करने के विचार से हिमालय पर्वत पर गया। Shakambhari jayanti ki katha 

ॐ ब्रह्मणे नमः का जाप करते हुए उसने हिमालय पर अपना आसान टिका लिया। दुर्गम दैत्य ने हजार वर्षो तक भगवान ब्रह्मा जी की कठिन तपस्या की। देवता गण दुर्गम की तप को देखकर संतप्त हो उठे।

दुर्गम की कठिन तपस्या से भगवान ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए और हंस पर सवार होकर दुर्गम के पास आकर बोले, आँखे खोलो वत्स। आज तुम्हारा तप पूर्ण हुआ। मन में जो वर की अभिलाषा है, उसे मांगो वत्स। भगवान ब्रह्मा जी की वाणी सुन दुर्गम ने अपने आँखे खोली। उनका अभिवादन करते हुए बोला, हे प्रभु मुझे सम्पूर्ण वेद प्रदान करें और इतनी शक्ति प्रदान करें कि मैं देवताओ को युद्ध क्षेत्र में पराजित कर संकू। दुर्गम की भक्ति और तप के समक्ष भगवान ब्रह्मा जी विवश हो गए और अंततः “ऐसा ही हो ” कहते हुए ब्रह्मा जी ब्रह्मलोक चले गए। Shakambhari jayanti ki katha 

दुर्गम को वरदान देने के कारण भगवान ब्रह्मा जी को समस्त वेदो का ज्ञान शून्य हो गया। समस्त ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया तब देवता और ब्राह्मण गण कल्याणस्वरूपिणी भगवती जगदम्बा की उपासना करने के विचार से हिमालय पर्वत पर गये। सभी देवता और ब्राह्मण गण ने स्तुति और ध्यान कर माँ भगवती को इस विघ्न से अवगत कराया। उन्होंने माँ की स्तुति करते हुए कहा हे माँ, प्रसन्न हो जाओ। हम सब आपको बार-बार प्रणाम करते है। आप जो चाहो वो हो जाए फिर क्यों समस्त मानव जगत के प्राणी को दुःख में देख रही है। Shakambhari jayanti ki katha 

हमलोगों को इस महान दैत्य से मुक्ति प्रदान करें। इस प्रकार देवताओ और ब्राह्मणो की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए माँ भगवती शाकम्भरी के रूप में प्रकट हुई। देवी माँ आपको नमस्कार हो, समस्त मानव जाति के कल्याण हेतु आप प्रकट हुई अतः समस्त मानव जाति का नमस्कार स्वीकार हो। हे माँ, हमलोग भूख से अत्यंत पीड़ित होने के कारण आपकी विशेष स्तुति करने में असमर्थ है। Shakambhari jayanti ki katha 

हे अम्बे, जगदम्बे, आप दुर्गम नामक दैत्य से वेद छुड़ा लेन की कृपा करें जिससे समस्त ब्रह्माण्ड का कल्याण हो। देवताओ और ब्राह्मणो की याचना सुन माँ शाकम्भरी ने अनेक प्रकार के शाक तथा स्वादिष्ट फल उन्हें खाने के लिए दिये और भांति-भांति के अन्न और पशुओ को खाने के लिए भी नवीन तृण प्रदान की। इस दिन से ही माँ शाकम्भरी के नाम से जानी गयी। जगत में माँ शाकम्भरी के प्रादुर्भाव का जय-जयकार होने लगा। Shakambhari jayanti ki katha 

इस बात की सुचना पाते ही दुर्गम नामक दैत्य ने अपनी सेना को सजाया और अश्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर माँ शाकम्भरी को युद्ध हेतु ललकारने लगा। तदुपरांत, माँ शाकम्भरी चक्र, गदा, धनुष-बाण, त्रिशूल आदि धारण कर रणभूमि में दुर्गम का वध करने आ गयी। माँ शाकम्भरी अति क्रोधित थी सारा ब्रह्माण्ड थर-थर काँप रहा था।

रण में देवताओ और राक्षसो के बीच भयंकर युद्ध हुआ। माँ शाकम्भरी की शक्ति से प्रेरित माया ने दुर्गम के विशाल राक्षसी सेना को पल में नष्ट कर दिया तब दैत्य दुर्गम स्वंय माँ शाकम्भरी के सामने प्रकट हुआ और माँ से युद्ध करने लगा। माँ शाकम्भरी के बाण दैत्य दुर्गम के छाती में जाकर अटकी तब रुधिर दैत्य दुर्गम माँ भगवती के सामने प्राणहीन हो गया। Shakambhari jayanti ki katha 

दैत्य दुर्गम के वध होने के पश्चात तीनो लोको में माँ भगवती की जय-जयकार होने लगा। देवता और ब्राह्मण गण माँ शाकम्भरी की वंदना करने लगे शतलोचने, माँ शाकम्भरी आपको शत शत नमस्कार है। कल्याण-स्वरूपिणी भगवती माँ शाकम्भरी तुम्हे बारम्बार नमस्कार है। Shakambhari jayanti ki katha 

माता शाकम्भरी की पूजा विधि Shakambhari jayanti ki katha 

पौष माह, शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन से पौष पूर्णिमा तक माँ शाकम्भरी नवरात्रि मनाई जाती है। पौष माह की पूर्णिमा को ही माँ शाकम्भरी का प्रादुर्भाव हुआ था। अतः भक्त गणो को पौष माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी से माँ शाकम्भरी की पूजा-अर्चना शारदीय नवरात्र की तरह करना चाहिए। Shakambhari jayanti ki katha b

मासिक दुर्गाष्टमी की कथा एवं इतिहास

प्रतिदिन स्नानादि से निवृत होकर माँ की पूजा-अर्चना एवम आरती करना चाहिए। दुर्गा चालीसा का पाठ प्रतिदिन करें और माँ भगवती की स्तुति करे। विधि पूर्वक माँ शाकम्भरी की पौष माह के सप्तमी से पूर्णिमा तक 9 दिन पूजा-अर्चना, स्तुति, आराधना और आरती करने से माँ अति प्रसन्न होती है और समस्त दुखों और कष्टों को दूर कर मनोवांछित फल देती है। इस प्रकार माँ शाकम्भरी की कथा सम्पन्न हुई । भक्त गण प्रेम से बोलिए माँ भगवती के रूप माँ शाकम्भरी की जय। 

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