श्रीराम और रावण की जन्म कुंडली में ग्रहों का प्रभाव
भगवान श्रीराम और असुर सम्राट रावण की जन्म कुंडली में काफी समानताएं होते हुए भी ग्रहों के शुभाशुभ प्रभाव ने दोनों में से एक को मर्यादा पुरूषोत्तम बनाया, जबकि दूसरा [रावण] आसुरी प्रवृत्तियों का पर्याय बनकर बुराई का प्रतीक बन गया।
भगवान राम व असुर सम्राट रावण का जन्म लग्न चर राशि का है। श्रीराम की कुंडली में चारों केंद्रों में उच्च के ग्रह होकर पंच महापुरूष योग का निर्माण कर रहे हैं। बृहस्पति से हंस योग, शनि से शश योग, मंगल से रूचक योग का निर्माण हो रहा है। रावण की कुंडली में भी पंच महापुरूष बन रहे हैं। श्रीराम के पांच ग्रह उच्च के हैं, तो रावण की कुंडली में भी पांच ग्रह उच्च के हैं।
1- भगवान श्री रामचंद्र जी की जन्मकुंडली
श्रीराम की जन्मकुंडली एवं जीवन चक्र राम का जन्म कर्क लग्न में हुआ था। कर्क लग्न व्यक्ति के सत्कर्मी, निष्कलंक और यशस्वी होने का परिचायक है। कर्क लग्न के साथ-साथ यदि लग्नेश चंद्र भी लग्न में हो, तो जातक समृद्ध, सुसंस्कृत, न्यायप्रिय, सत्यनिष्ठ, क्षमाशील और विद्वान होता है। वह भाग्यशाली तथा जीवन में उच्च स्थान को प्राप्त करने वाला होता है। उसे देश-विदेश में सम्मान की प्राप्ति होती है। कर्क लग्न में चंद्र के साथ गुरु भी इसी भाव में स्थित हो, तो व्यक्ति सत्यनिष्ठ व न्यायप्रिय है और उसका व्यवहार मृदु होता है। कर्क राशि में गुरु के उच्चस्थ होने के कारण जातक जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए कोई भी बलिदान कर सकता है। ऐसा व्यक्ति ऐसी अदृश्य ढाल से युक्त होता है जिसे खरौंच तक भी नहीं लगती। वह आत्म सम्मान को विश्व की सकल संपदा से भी अधिक समझता है। इसी कर्क लग्न में अवतरित भगवान राम में ये सारे गुण विद्यमान थे। इसीलिए वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम कहलाए। भगवान राम की कुंडली में मंगल के सप्तम भाव में उच्चस्थ होने के कारण उनका विवाह माता सीता जैसी दिव्य कन्या से हुआ। कुंडली में मंगल स्थित राशि मकर का स्वामी शनि भी उच्चस्थ है तथा शनि स्थित राशि का स्वामी शुक्र भी उच्चस्थ है। शुक्र पत्नी का प्रतिनिधि ग्रह है। अतः भगवान राम का माता सीता जैसी दिव्य कन्या से विवाह होना स्वाभाविक है। भगवान राम की जन्म कुंडली में मंगल सप्तम भाव में होने से मंगलीक है। किंतु उसके उच्च राशिस्थ होने से उसका दोष निष्प्रभावी तो रहा किंतु सप्तम् भाव एवं उसके कारकेश शुक्र पर राहु की दृष्टि और केतु की स्थिति तथा सप्तम् भाव में विध्वंसक मंगल की स्थिति के कारण पत्नी वियोग का दुख झेलना पड़ा। शनि, मंगल व राहु की दशम् भाव एवं सूर्य पर दृष्टि पिता की मृत्यु का कारण बनी। शनि की चतुर्थ भाव में स्थिति और चंद्र एवं चंद्र राशि कर्क पर दृष्टि के कारण माताओं को वैधव्य देखना पड़ा। छोटे भाई का प्रतिनिधि ग्रह मंगल सप्तम् भाव में उच्च का है और उस पर गुरु की दृष्टि है, जिसके फलस्वरूप छोटे भाइयों ने भगवान राम की पत्नी अर्थात माता सीता को माता का आदर दिया। उच्च के ग्रह से हंस योग, शनि से शश योग, मंगल से रुचक योग और चंद्र के लग्न में होने के फलस्वरूप गजकेसरी योग है। गुरु और चंद्र के प्रबल होने के कारण यह गजकेसरी योग अत्यंत प्रबल है। पुनर्वसु के अंतिम चरण में होने से चंद्र स्वक्षेत्री है। अतः भगवान श्री राम के सामने जो भी कठिनाइयां आईं उनका उन्होंने सफलतापूर्वक सामना किया। पांच ग्रहों के उच्च के होने के कारण भगवान अवतारी पुरुष हुए। चंद्र और लग्न के बली गुरु से प्रभावित होने के कारण भगवान ने मर्यादाओं का पालन किया। महर्षि वाल्मीकी के भगवान राम के जन्मचक्र के वर्णन में राहु, केतु एवं बुध की स्थिति का ज्ञान नहीं होता। किंतु भगवान राम के जीवन चरित्र के अनुसार अनुमान लगाया जा सकता है कि ये ग्रह किस भाव एवं किस राशि में होंगे। भगवान राम अत्यंत प्रतापी हुए। इससे पता चलता है कि उनकी जन्मकुंडली में राहु की स्थिति तृतीय भाव कन्या राशि में होगी क्योंकि तृतीय भाव का राहु जातक को पराक्रमी एवं प्रतापी बनाता हैं। इसके अनुसार केतु नवम् भाव में उच्च के शुक्र से युत है। इसी शुक्र के कारण भगवान राम के पराक्रमी एवं प्रतापी बनने में उनकी पत्नी माता सीता माध्यम एवं कारण बनीं। पंचमेश मंगल के पंचम से तीसरे स्थान पर होने के कारण भगवान राम के पुत्र भी अत्यंत पराक्रमी हुए। बुध एवं शुक्र कभी भी सूर्य से 28 अंश से अधिक दूरी पर नहीं जाते इसलिए दोनों को सूर्य के साथ अथवा इर्द-गिर्द ही माना जाएगा। भगवान राम के जीवन चरित्र के अनुसार शुक्र को नवम् भाव के मीन राशि में होना उपयुक्त माना जाएगा। बुध निर्बल ग्रह है। किंतु बृषभ राशि में होने पर वह निर्बल नहीं रह जाता क्योंकि बृषभ राशि का स्वामी शुक्र बुध का मित्र है जो उच्च राशिस्थ है और जिस राशि में वह है उसका स्वामी गुरु भी लग्न में उच्च राशिस्थ है। यहीं पर ग्रहों की शृंखला समाप्त होती है। इसके अलावा बुध द्वादश भाव का स्वामी है और द्वादश भाव से द्वादश होने के कारण अति बली है। अत्यंत बली बुध की राशि कन्या में राहु की स्थिति ने ही भगवान राम को पराक्रमी बनाया। लग्नेश भाग्येश का योग और उन पर पंचमेश, सप्तमेश और दशमेश की दृष्टि से प्रबल राजयोग बना। उच्च का सुखेश शुक्र भाग्य स्थान में है और उस पर भाग्येश गुरु की दृष्टि है। इन्हीं योगों के कारण भगवान चक्रवर्ती सम्राट बने। चतुर्थेश शुक्र के उच्च होने के कारण भगवान राम सांसारिक हुए। चतुर्थ भाव से शनि की दृष्टि लग्न स्थित गुरु पर होने के कारण वह वैरागी हुए अर्थात् सत्ता के अधिकारी होते हुए भी वह वैरागी राजा सिद्ध हुए। चंद्रमा पुनर्वसु नक्षत्र के चतुर्थ चरण में है जिसके कारण उनका जन्म गुरु की 16 वर्षों की महादशा में हुआ। पुनर्वसु नक्षत्र के चतुर्थ चरण में जन्म होन के कारण गुरु की महादशा शेष अधिक से अधिक चार वर्ष रही होगी। तत्पश्चात् शनि की महादशा 19 वर्ष की आई जो 23 वर्ष की आयु तक चली। पुराणों के अनुसार भगवान श्री राम का विवाह 18 वर्ष की आयु में हुआ। उस समय सप्तमेश शनि की महादशा और अंतर्दशा स्वामी गोचर का गुरु सप्तम् स्थान में था। पुराणों के अनुसार 27 वर्ष की आयु में भगवान को चैदह वर्षों का बनवास हुआ और उनके वियोग में उनके पिता महाराज दशरथ का स्वर्गवास हुआ। उस समय भगवान श्री राम बुध की महादशा के प्रभाव में थे। बुध तृतीयेश एवं व्ययेश होने के कारण कष्टकारक था। गोचर में सिंह का शनि दूसरे भाव में था। यह साढ़े साती का अंतिम चरण था। गुरु चंद्रमा से चैथी राशि तुला में था। यह बुध तृतीयेश षष्ठेश पिता के भाव से होकर दूसरे भाव में था। अतः पिता के लिए मारक था और भगवान राम तथा कुटुंब के लिए कष्टकारक था। बुध की दशा में ही सीताहरण हुआ। व्ययेश की दशा में शय्या सुख का नाश होता है और कष्टकारक यात्रा होती है। केतु के नवम् भाव में स्वक्षेत्री होने के कारण लंका विजय करके पुनः अयोध्या के सम्राट बने। जैमिनि ज्योतिष के अनुसार लग्नेश और अष्टमेश यदि चर राशि के होते हैं तो जातक दीर्घायु होता है। भगवान श्री राम का लग्नेश चंद्र चर राशि का है तथा अष्टमेश शनि भी तुला राशि में चर राशि का है। लग्न में गुरु व चंद्र के बली होने के फलस्वरूप भगवान ने अमित आयु प्राप्त की और इसका सदुपयोग भी किया। इस प्रकार ग्रहों की शुभाशुभ स्थिति के फलस्वरूप मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अनेक कष्ट झेले, रावण जैसे शत्रु पर विजय प्राप्त की और राम राज्य की स्थापना की।
2- लंकापति रावण की जन्मकुंडली
लंकापति रावण की जन्मकुंडली का विश्लेषण – लकापति रावण की कुंडली का विवेचन इस प्रकार है। रावण की जन्म कुंडली में लग्नेश सूर्य के लग्न में स्थित होने तथा नैसर्गिक शुभ ग्रह गुरु के भी लग्न में होने के कारण लग्न अति बलवान था। लग्न बलवान हो, तो व्यक्ति सुखी और समृद्ध होता है। उसका आत्मबल भी उच्च कोटि का था। लग्नस्थ सूर्य पर क्रूर ग्रह मंगल की दृष्टि होने के कारण वह अहंकारी और तानाशाह प्रवत्ति का था। कुंडली के द्वितीय भाव में लाभेश और धनेश बुध की उसकी अपनी ही स्वयं की राशि में स्थिति के कारण धनयोग का निर्माण हो रहा है। इस कारण वह अतुलित धन सम्पत्ति का स्वामी था। तृतीय भाव का स्वामी शुक्र दशम भाव में है, और यहां उसकी राशि तुला में केतु और स्त्री भाव का स्वामी शनि बैठे हैं। इसी कारण वह बहुत विलासप्रिय रहा होगा। भ्रातृ भाव त्रत्तीय स्थान प्रथकतावादी ग्रह उच्च का शनि केतु के साथ स्थित है। एक अन्य पृथकतावादी ग्रह है और दूसरा विच्छेदात्मक ग्रह राहु की दृष्टि भ्रातृ भाव पर है। इस कारण रावण को अपने ही भाई विभीषण के विरोध का सामना करना पड़ा और वह उसका शत्रु बन गया। पंचमेश गुरु के पंचम से नवम् भाव में और जन्मकुंडली के लग्न स्थान में स्थित होने तथा लग्न से अपने ही भाव,विद्या , बुद्धि, संतान को पूर्ण दृष्टि से देखने के कारण वह अनेक पुत्रों वाला, विद्यावान, बुद्धिमान और शास्त्रज्ञ था। लग्न में लग्नेश सूर्य और पंचमेश की युति गुरु ने रावण को प्रख्यात ज्योतिषाचार्य बनाया। गुरु की दूसरी राशि अष्टम में होने के कारण तथा अष्टमेश गुरु अष्टम स्थान से षष्ठ स्थान में स्थित है और पंचम भाव पर शनि की दृष्टि है। यह सारी स्थिति अंत में रावण की विद्या-बुद्धि के विनाश कारण बनी। अतः विनाशकाल के समय उसकी बुद्धि विपरीत हो गई थी। भाग्य भाव नवम स्थान में राहु की उपस्थिति के कारण रावण का भाग्य बलवान था। मंगल की राशि मेष में स्थित राहु पर उच्च के शनि की पूर्ण दृष्टि है। इस कारण वह सफल राजनीतिज्ञ व कूटनीतिज्ञ बना तथा इसी योग के कारण उसमें नेतृत्व करने की अपूर्व क्षमता भी थी। नवम् भाव का कारक गुरु है। यह भाव धर्म भाव भी कहलाता है। ऐसे स्थान में पापग्रह राहु के स्थित होने से रावण भगवान् राम का विरोधी था। राज्येश शुक्र के राज्य भाव दसम स्थान में होने के कारण रावण का शासन पक्ष बहुत मजबूत था। इसलिए दीर्घकाल तक उसने विशाल राज्य का पूर्ण सुख भोगा। लग्नेश और पंचमेश का युति संबंध भी राज योग का निर्माण करता है। रावण के जन्म चक्र में ग्रहों का राजा सूर्य लग्नेश होकर स्वयं लग्न में पंचमेश गुरु के साथ बैठा है। राशि मकर थी। यह वैश्य राशि है और इसका स्वामी शनि शूद्र वर्ण का ग्रह है। अतः रावण सत्गुणी ब्राह्मण नहीं था। वह रजोगुण प्रधान था। आयु भाव का स्वामी (अष्टमेश) गुरु लग्नेश सूर्य के साथ देह भाव में स्थित है मारकेश बुध मारक भाव में स्थित है। सप्तमेश शनि के पराक्रम भाव में और गुरु के केंद्र स्थान में होने से कक्षा वृद्धि हो रही है। रावण की जन्मकुंडली के लग्न में स्थिर राशि और अष्टम में द्विस्वभाव राशी होने से दीर्घ आयु योग है। कक्ष्या वृद्धि होने के कारण यह परम आयु योग बन गया है। इस योग के कारण ही रावण लगभग 10,000 वर्ष तक जीवित रहा।त्रेतायुग में मनुष्य की अधिकतम आयु दस हजार वर्ष ही थी रावण के पतन का कारण षष्ठ भाव में चंद्र और मंगल की युति है। षष्ठ भाव को शत्रु स्थान भी कहा जाता है। यहां व्ययेश चंद्र के साथ मंगल स्थित है। सिंह लग्न के लिए मंगल जिस भाव में स्थित होता है, उसकी वृद्धि करता है। चंद्र स्त्री ग्रह है और रावण की कुंडली में व्ययेश भी है, इसलिए एक स्त्री अर्थात सीताजी उसके साम्राज्य के पतन और उसकी मृत्यु का कारण बनीं। शत्रु भाव में मंगल की उच्च राशि मकर तथा अष्टम भाव में गुरु की राशि होने के कारण मर्यादा पुरुषोŸाम भगवान श्रीराम के हाथों रावण की मृत्यु हुई। एक प्रकार से यह ब्रह्म सामीप्य मुक्ति है। राम ने रावण की नाभि में स्थित अमृत में अग्निबाण मारा था। चंद्र अमृत और मंगल अग्नि बाण का प्रतीक है। धनेश के प्रबल त्रिषडायेश होकर कुटुंब भावस्थ होने के कारण धन, कुटुंब, पुत्रादि की हुई। रावण ब्राह्मण था। किंतु ज्योतिष शास्त्र इसे स्वीकार्य नहीं करता क्योंकि सिंह लग्न वाला व्यक्ति रजोगुणी होता है। इस लग्न का स्वामी सूर्य क्षत्रिय वर्ण का है। यदि हम चंद्र राशि के आधार पर देखें तो रावण की राशि मकर थी। यह वैश्य राशि है और इसका स्वामी शनि शूद्र वर्ण का ग्रह है। अतः रावण सत्गुणी ब्राह्मण नहीं था। वह रजोगुण प्रधान था। कब हुआ था रावण का वध गहन अनुसंधान और गणना के अनुसार आज से लगभग 1 करोड़ 81लाख वर्ष पूर्व 24वें महायुग के त्रेता में भगवान श्रीराम ने लंकापति रावण का वध किया था। इस दिन दस सिर वाले दशानन रावण का वध हुआ था इसलिए इसका नाम दशहरा पड़ा। इस दिन भगवान राम ने भगवती विजया (अपराजिता देवी) का विधिवत् पूजन करके लंका पर विजय प्राप्त की थी। इसलिए इस पर्व का नाम विजयादशमी पड़ा। विजयादशमी के दिन विजया देवी की पूजा होती है। विजया दशमी के दिन जब रामचंद्र जी लंका पर चढ़ाई करने जा रहे थे उस समय शमी वृक्ष ने उनकी विजय का उद्घोष किया था। समुद्र का पानी मीठा नहीं कर सका लंकेश्वर श्री वाल्मीकि रामायण कालीन पौराणिक इतिहास के अनुसार रावण लगभग दस हजार वर्षों तक जीवित रहा। उसमें अनंत शक्ति, शौर्य, प्रतिभा और ज्ञान था। किंतु उसने इतने दीर्घ जीवनकाल में अपनी असीमित शक्तियों का दुरुपयोग ही किया, मानव कल्याण हेतु उनका कभी सदुपयोग नहीं किया। मरते समय उसे इस बात का बहुत पश्चाताप और दुःख था। मरणासन्न अवस्था में उसने लक्ष्मण जी से कहा था कि वह स्वर्ग जाने हेतु सीढ़ियों का निर्माण करना, स्वर्ण जैसी बहुमूल्य धातु में सुगंध भरना तथा समुद्र के पानी का खारापन दूर करके उसे पीने योग्य बनाना चाहता था। किंतु उसने समय का सदुपयोग नहीं किया इसलिए मेरी ये इच्छाएं अधूरी रह गईं। मध्यप्रदेश के मंदसौर नगर में रावण की ससुराल थी। उसकी पटरानी मन्दोदरी मन्दसौर के राजा की पुत्री थी। इस कारण आज भी मन्दसौर जिले में रावण दहन नहीं किया जाता है। कुछ लोग यहां रावण की पूजा भी करते हैं। रावण ब्राह्मण होने के साथ-साथ शास्त्रों का ज्ञाता भी था। इसके बावजूद उसे हिन्दू धर्म में आदर्श पुरुष नहीं माना गया है। राम का शत्रु होने के कारण वह अपनी ही आत्मा का हनन करने वाला आत्मशत्रु भी था। श्रुति के अनुसार ऐसे व्यक्ति को ‘ब्रह्मसायुज्य’ मुक्ति नहीं मिलती है।
Himalaya Gaurav Uttrakhand (www.himalayauk.org) Leading Digital Newsportal & Daily Newspaper. publish at Dehradun & Haridwar; CS JOSHI- EDITOR, Mob. 9412932030; Mail; himalayauk@gmail.com, csjoshi_editor@yahoo.in
Avaible in; FB, Twitter, Whatsup Broadcasting Groups & All Social Media;