इस महापीठ के दर्शन से इंसान की सारी परेशानियां दूर हो जाती है, देवी का पादपद मंदिर और बड़े बड़े साधु संतों की समाधियां है- यही मुख्य जगह ; जहा मनोकामना के लिए ध्यान करते है और उनकी मनोकामना पूर्ण होती हैं
RELIGIOUS STORY # 17 Nov. 2022 # तारापीठ राजा दशरथ के कुलपुरोहित वशिष्ठ मुनि का सिद्धासन भी है। बताया जाता है कि प्राचीन काल में महर्षि वशिष्ठ यहाँ माँ तारा की आराधना करके सिद्धियाँ प्राप्त की थी। उस समय उन्होंने मंदिर का निर्माण करवाया था लेकिन कालांतर में वो मंदिर जमीन के नीचे धंस गया। बाद में ‘जयव्रत’ नामक एक व्यापारी ने इसे फिर से बनवाया। #मान्यता है कि महाश्मशान में पंचमुंडी के आसन पर बैठकर एकाग्र मन से तारा मां का तीन लाख बार जप करने से किसी भी साधक को सिद्धि की प्राप्ति हो जाती है। इस महापीठ के दर्शन से इंसान की सारी परेशानियां दूर हो जाती है।
साधक साधना की प्राप्ति के लिए प्राय: दो मार्ग को चुनता है. प्रथम मंत्र द्वारा साधना, द्वितीय तंत्र (यंत्र) द्वारा साधना. सतयुग एवं त्रेता युग में मंत्र की प्रधानता थी. प्राय: मंत्रों की सिद्धि साधक को हो जाती थी. हालांकि द्वापर से अब तक साधना का सर्वोत्तम स्वरूप तंत्र को माना जाने लगा है. तंत्र साधना के लिए नवरात्रि में तारापीठ आकर मां तारा को श्रद्धा से प्रणाम करके तांत्रिक साधना प्रारंभ होता है. इसके लिए आवश्यक है कि साधक अपनी साधना योग्य गुरु के संरक्षण में ही शुरू करें.
By Chandra Shekhar Joshi Chief Editor www.himalayauk.org (Leading Web & Print Media) Publish at Dehradun & Haridwar. Mail; himalayauk@gmail.com Mob. 9412932030
जिस प्रकार रामकृष्ण परमहंस को माँ काली ने दर्शन दिया था, ठीक उसी प्रकार तारापीठ के सिद्धसंत वामाखेपा को देवी ने दिव्यज्ञान दिया था। माँ महाकाली ने इन्हें शमशान में दर्शन देकर कृतार्थ किया था, लिहाजा तारापीठ तांत्रिकों के लिए भी विशेष स्थान माना जाता है। तारापीठ जो कि महानगर कोलकाता से लगभग 222 कि.मी. की दूरी पर अवस्थित है। महाशमशान में ही यहाँ तारा देवी का पादपद मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि जो भी यहाँ आकर मनोकामना के लिए ध्यान करते हैं, उनकी मनोकामना ज़रूर पूरी होती है। यहाँ पर वामाखेपा सहित कई संतों की समाधियाँ हैं। इसके साथ ही आप यहाँ मुंडमालनी भी ज़रूर देखें। कहा जाता है कि काली माँ अपने गले की मुंडमाला यहीं रखकर द्वारका नदी में स्नान करने जाती हैं। यह भी एक शमशान स्थल ही है।
पश्चिम बंगाल के प्रमुख पर्यटन स्थलों में एक है सिद्ध तारापीठ. इस स्थान का महत्व असम में स्थित कामख्या और राजगीर में स्थित छिन्नमस्तिका के समान ही है. तंत्र साधना में विश्वास रखने वालों के लिए यह परम पूज्य स्थल है. यहां पर तंत्र साधक श्रद्धा एवं विश्वास के साथ साधना करते हैं. तंत्र साधकों के अलावा भी लोग मुराद मांगने देवी तारा के मंदिर में आते हैं. यह मंदिर महाश्मशान के बीच में है.
तारापीठ की कथा इस प्रकार है. दक्ष प्रजापति के यज्ञ की अग्निकुण्ड में कूद कर सती द्वारा आत्म बलिदान करने के बाद शिव विचलित हो उठे और सती के शव को अपने कंधे पर लेकर आकाश मार्ग से चल दिये. उस समय देवताओं के अनुनय पर भगवान विष्णु ने अपने चक्र से सती के शव के खंडित कर दिया. जिन स्थान पर देवी सती के अंग पृथ्वी पर गिरे वह शक्तिपीठ के नाम से विख्यात हुआ. तारापीठ भी उन्हीं में से एक है. माना जाता है कि इस स्थान पर देवी सती के नेत्र गिरे थे. प्राचीन काल में महर्षि वशिष्ठ ने इस स्थान पर देवी तारा की उपासना करके सिद्धियां प्राप्त की थी. उन्होंने इस स्थान पर एक मंदिर भी बनवाया था जो अब धरती में समा गया है.
वर्तमान तारापीठ मंदिर का निर्माण जयव्रत नामक एक व्यापारी ने करवाया था. तारापीठ मंदिर निर्माण की कथा है कि एक बार जयब्रत नामक व्यापारी व्यापार के सिलसिले में तारापीठ के पास के गॉव में पहुंचा वहां रात्रि के अंतिम प्रहर में देवी तारा उसके सपने में आई और व्यापारी से कहा कि महाश्माशान के बीच में एक ब्रह्मशिला है उसे उखाड़कर विधिवत स्थापित करो. व्यापारी ने देवी के आदेश के अनुसार उस स्थान की खुदाई करवाकर ब्रह्मशिला को स्थापित किया. इसी स्थान पर जयब्रत ने देवी तारा का मंदिर बनवाया जिसमें देवी तारा की एक भव्यमूर्ति भी स्थापित करवाई. इस मूर्ति में देवी तारा की गोद में बाल रूप में भगवान शिव हैं जिस मॉ स्तनपान करा रही हैं.
तारापीठ मंदिर का प्रांगण महाश्मशान में है फिर भी यहां किसी प्रकार का भय नहीं होता है. इस महाश्मशान की चिता कभी बुझती नहीं है. यह स्थान द्वारका नामक नदी घिरा हुआ है. यह भारतवर्ष की एक मात्र नदी है जो दक्षिण से उत्तर दिशा में यहां प्रवाहित होती है. 19 एवं 20 सदी के मध्य में यहां वामखेपा नामक एक भक्त ने देवी तारा की साधना करके उनसे सिद्धियां हासिल की थी. यह रामकृष्ण परमहंस के समान ही देवी के परम भक्तों में से एक थे.
तारापीठ में देवी सती के नेत्र गिरे थे अत: इस स्थान को देवी तारा को नयन तारा भी कहा जाता है. तारापीठ का महात्म्य है कि यहां श्रद्धा-भक्ति के साथ देवी का ध्यान करके जो मुराद मांगा जाता है वह पूर्ण होता है. देवी तारा की सेवा आराधना से रोग से मुक्ति मिलती है. इस स्थान पर सकाम और निष्काम दोनों प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती है.
ब्रह्मांड के सर्वश्रेष्ठ क्षेत्र विंध्यक्षेत्र को परम-पावन क्षेत्र के रूप में मान्यता प्राप्त है. यह क्षेत्र अनादिकाल से आध्यात्मिक साधना का केंद्र रहा है. यहां अनेक साधकों ने स्थान के महत्व को समझ कर सर्वे भवन्ति सुखिन: की भावना से साधना कर सिद्धि प्राप्त की. वामपंथी साधना की अधिष्ठात्री देवी मां तारा है. मां तारा देवी लोक जीवन में आने वाली विपत्तियों, आकर्षण, विकर्षण और उच्चाटन से मानव को मुक्ति प्रदान करती है. मां तारा की साधना पूर्ण रूपेण अघोरी साधना है. इस साधना से मनुष्य को लौकिक सुख, शांति और समृद्धि प्राप्त होती है. तंत्रशास्त्र को हिंदू धर्म के विश्वकोष के रूप में मान्यता प्राप्त है. यह तंत्र ग्रंथ सम्वाद के रूप में प्रसिद्ध है, जिसमें वक्ता भोले बाबा शिव जी, श्रोता स्वयं जगदम्बा मां पार्वती जी हैं. भगवान शिव को इसमें आगम कहकर और मां पार्वती को निगम कहकर पुकारा गया है. महानिर्वाण तंत्र में भगवान शिव ने पार्वती जी से कहा कि कलिदोश के कारण द्विज लोग वैदिक कृत्यों के द्वारा युक्ति लाभ करने में समर्थ्य नहीं होंगे. वैदिक कर्म और मंत्र निर्विश सर्प की तरह शक्तिहीन हो जाएगी, तब मानव तंत्रशास्त्र द्वारा कल्याण का मार्ग ढूंढेगा. तंत्र धर्म एक प्राचीन धर्म है. श्रीमद्भागवत के 11वें तीसरे, स्कंद पुराण के चौथे अध्याय, बह्यपुराण, वाराह पुराण आदि में उल्लेखित है कि देवोपासना तांत्रिक विधि से करनी चाहिए. महाभारत के शांतिपूर्ण, अध्याय 259 तथा अध्याय 284 श्लोक 74वां, 120, 122, 124, में इस बात की चर्चा है. शंकर संहिता, स्कंद पुराण के एक भाग एवं रामायण में भी तांत्रिक उपासना का उल्लेख है. शिव के अहंकार को मिटाने के लिए माता पार्वती ने उन्हें दशों दिशाओं में काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, बगंलामुखी, भैरवी, कमला, धूमावती, मातंगी, छिन्नमस्तका के रूप में दर्शन दिया. इस तरह दश विद्याओं द्वारा शक्ति का अवतरण शिव का अहंकार नाश करने वाला हुआ. मां तारा दश विद्या की अधिष्ठात्री देवी है.
तंत्र साधना का स्थल तारापीठ भारत के अनेक क्षेत्रों में स्थापित है, जहां वामपंथ की साधना की जाती है. यह पीठ विशेष स्थान माया नगरी (बंगाल) और असम (मोहनगरी) में भी है. आद्यशक्ति के महापीठ विंध्याचल में स्थित तारापीठ का अपना अलग ही महत्व है. विंध्य क्षेत्र स्थित तारापीठ मां गंगा के पावन तट पर श्मशान के समीप है. श्मसान में जलने वाले शव का धुआं मंदिर के गर्भगृह तक पहुंचने के कारण इस पीठ का विशेष महत्व है. इस पीठ में तांत्रिकों को शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है, ऐसा साधकों की मान्यता है. इस मंदिर के समीप एक प्रेत-शिला है, जहां लोग पितृ पक्ष में अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए पिंड दान करते हैं. इसी स्थल पर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने भी अपने पिता का तर्पण, पिंडदान किया था. यह विंध्याचल के शिवपुर के राम गया घाट पर स्थित है. यहां स्थित मां तारा आद्यशक्ति मां विंध्यवासिनी के आदेशों पर जगत कल्याण करती है. इस देवी को मां विंध्याचल की प्रबल सहायिका एवं धाम की प्रखर प्रहरी की भी मान्यता प्राप्त है. देवीपुराण के अनुसार, मां तारा देवी जगदम्बा विंध्यवासिनी की आज्ञा के अनुसार विंध्य के आध्यात्मिक क्षेत्र में सजग प्रहरी की तरह मां के भक्तों की रक्षा करती रहती है.
साधक साधना की प्राप्ति के लिए प्राय: दो मार्ग को चुनता है. प्रथम मंत्र द्वारा साधना, द्वितीय तंत्र (यंत्र) द्वारा साधना. सतयुग एवं त्रेता युग में मंत्र की प्रधानता थी. प्राय: मंत्रों की सिद्धि साधक को हो जाती थी. हालांकि द्वापर से अब तक साधना का सर्वोत्तम स्वरूप तंत्र को माना जाने लगा है. तंत्र साधना के लिए नवरात्रि में तारापीठ आकर मां तारा को श्रद्धा से प्रणाम करके तांत्रिक साधना प्रारंभ होता है. इसके लिए आवश्यक है कि साधक अपनी साधना योग्य गुरु के संरक्षण में ही शुरू करें.
इस वाममार्ग में सर्वोत्तम यंत्र श्रीयंत्र राज ही माना जाता है. श्रीयंत्र की साधना के लिए पंच मकार की प्रधानता बताई गई है, जैसे -मत्स्य, मदिरा, मांस, मैथुन और मज्जा. साधक पंचमकार के चार वस्तुओं से श्रीयंत्र को सुनियोजित करता है तथा भैरवी का चुनाव करता है, जिस पर तंत्र की सिद्धि की जाती है. भैरवी के चुनाव की प्रक्रिया भी कठिन है. यह चुनाव सामान्य स्त्रियों में से नहीं होता, वही स्त्री भैरवी के रूप में प्रयोग की जाती है, जिसका भग सुडौल एवं सुंदर हो, या तो वह ब्रह्यचारिणी हो अथवा एक पति भोग्या हो. रात्रि के द्वितीय पहर में साधक श्रीयंत्र की पूजा करके इस पूजा की वस्तु मत्स्य, मांस, मज्जा एवं मदिरा भैरवी को खिलाता है. जब भैरवी मत्स्य, मांस, मज्जा और मदिरा का पान करके मस्त हो जाती है, तब श्रीयंत्र पर इसे आसीन करके तारा मंत्र का जाप किया जाता है. यह जाप रात्रि के तृतीय पहर तक चलता है. इस मंत्र के पूरा होते ही भैरवी के शरीर के रोएं खड़े हो जाते हैं और वह रौद्र रूप में खड़ी हो जाती है. उसके मुख से ज़ोर-ज़ोर से कुछ अस्पष्ट शब्द निकलने लगते हैं. ऐसी स्थिति में साधक के लिए यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वह भयभीत न हो. उस समय साधक को अपने प्रिय गुरुके शरणागत होकर उनको स्मरण करना चाहिए तथा पावन श्मशान की भस्म को अपने शरीर पर मलना चाहिए. इन दोनों क्रियाओं के करने पर भैरवी प्रसन्न होकर अट्ठहास करने लगती है.
तत्काल साधक को अपने गुरु की सच्ची शपथ लेकर इस महाभैरवी को विश्वास दिलाना चाहिए कि वह इस (भैरवी) द्वारा प्राप्त सिद्धि का किसी अकल्याण के लिए प्रयोग नहीं करेगा. वह किसी भी स्थिति में उच्चाटन, मारण तथा आकर्षण-विकर्षण की क्रिया नहीं करेगा. फिर भी साधक इस भैरवी से उच्चाटन या मारण का काम लेता है, तो ऐसे में वह सिद्धि एक-दो बार ही इस साधक के आदेश पालन करेगी. इसे पेशेवर के रूप में साधक द्वारा प्रयोग करने पर यह स्वयं उसी के लिए आत्मघाती हो सकती है, जिसका दुष्परिणाम यह हो सकता है कि साधक विक्षिप्त या पागल हो सकता है. ऐसा प्राय: देखने को मिला है. कभी-कभी निरंकुश साधक को अपने प्राण से भी हाथ धोना पड़ा है. भैरवी से कार्य लेने के उपरांत साधक को लाल या काले फूलों से भैरवी की पूजा करनी चाहिए. पुन: रात्रि के चतुर्थ प्रहर में पशु के मांस एवं रक्त से तारा को आवाहित कर उनके मंत्र का जाप करना चाहिए, जैसा दुर्गा सप्तशती के बैकृतिक रहस्य के श्लोक 27 में रूधिरा रक्तेन, वलिनां मां तेन का उल्लेख मिलता है.
मां तारा की पूजा पूरी तरह से वाम मार्गिक साधना है. इस वामपंथ की साधना की एक यह कहानी है कि जब जन्मेजय के नागयज्ञ को विशेष परिस्थिति में अधूरा छोड़ दिया गया, तो कुपित अग्निदेव ने श्राप दिया कि भविष्य में तुम्हारे यज्ञ सफल नहीं होंगे. तब भगवान शिव ने माता पार्वती को तंत्र साधना के गूढ़ रहस्य के बारे में बताया, जो मानव के लिए शीघ्र फलदायी है. इस साधना की सिद्धि में त्रुटि क्षम्य नहीं है. विंध्यक्षेत्र में तारापीठ के साथ भैरव कुंड, महाकाली का खोह भी साधना के लिए उपयुक्त स्थल है, जहां नवरात्रि में अष्टमी के रात्रि में साधकों की भारी भीड़ जुटती है, पूरा विंध्य पर्वत साधकों से सज उठता है. विंध्य क्षेत्र में आज भी तांत्रिकों की अधिष्ठात्री देवी मां तारा अपने अनन्य सहयोगी महाभैरव (काल भैरव और लाल भैरव) एवं अपनी सहेली महाकाली के साथ विंध्य क्षेत्र में स्थित श्रीयंत्र राज की रक्षा करती रहती है. यह विश्व कीउत्पत्ति एवं संहार का प्रतिबिम्ब है, जिस पर त्रिपुरसुंदरी मां महालक्ष्मी स्वरूपा जगदम्बा विंध्यवासिनी आसीन होकर देव-दानव सहित संपूर्ण प्राणी मात्र का कल्याण किया करती है !
वामाखेपा एक अघोरी तांत्रिक और सिद्ध पुरूष
वामाखेपा एक अघोरी तांत्रिक और सिद्ध पुरूष है। तारापीठ से 2 किमी दूर स्थित आटला गांव में सन् 1244 के फाल्गुन महिने में शिव चतुर्दशी के दिन वामाखेपा का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम सर्वानंद चट्टोपाध्याय था तथा माता जी का नाम राजकुमारी था। इनका बचपन का नाम वामाचरण था। और छोटे भाई का नाम रामचरण था। चार बहने थी और एख बहन का लड़का भी इनके पास ही रहता था। इस तरह परिवार में नौ सदस्य थे। घर में खाने पीने की चीजों का सदा अभाव रहता था। माता पिता बहुत धार्मिक थे, और भजन कीर्तन करते रहते थे। 5 वर्ष की आयु में ही वामाचरण ने माँ तारा की बहुत सुंदर मूर्ति बनाकर उसमें चार हाथ, गले में मुंडमाला और अपने बाल उखाड़ कर तारा माँ के बाल लगाए थे। पास में एक जामुन का पेड़ था। जामुन से ही माँ तारा का प्रसाद लगाते थे और कहते थेकि माँ तारा जामुन खा लो। अगर तुम नहीं खाओगी तो में कैसे खाऊँगा? वामचरण धीरे धीरे बड़े होने लगे, जब वह 11 वर्ष के थे और उनका भाई केवल 5 वर्ष का था। तब उनके ऊपर बड़ी भारी मुसीबत आई उनके पिता सर्वानंद जी बहुत बीमार हो गये ओर माँ काली, माँ तारा कहते हुए स्वर्ग सिधार गए। वामचरण ने पिता की देह को तारापीठ के श्मशान में लेजाकर उनका अंतिम संस्कार किया। विधवा मांं ने किसी तरह से मांग कर श्राद्ध का काम पूरा किया। घर की हालत खराब सुनकर वामाचरण के मामा आकर दोनों भाईयों को अपने घर नवग्राम में ले गए। वामाचरण गाय चराने लगे और रामचरण गाय के लिए घास काटकर लाते और आधा पेट झूठा भात खाकर रहते। एक दिन रामचरण के हंसिये से घास काटते हुए वामाचरण की उंगली कट गई, और गाय खेत में जाकर फसल खाने लगी। खेत के मालिक ने मामा को शिकायत कर दी। मामा ने वामाखेपा को छडी लेकर बहुत मारा। तत्पश्चात वामाचरण भागकर अपनी माँ के पास आटला गांव आ गए। उधर रामचरण को एक साधु गाना सिखाने के लिए अपने साथ ले गये। वामाचरण ने घर आकर निश्चय किया कि वे अब श्मशान मे रहेंगे। उस दिन पूर्णमासी थी वहां पर कई आदमी बैठे थे। वामाचरण उनके पैर दबाते दबाते सो गए। एक बार वामाचरण ने एक बैरागी से गांजा पीकर उसकी आग असावधानी से फेंक दी। उस से भयंकर आग लग गई, और कई घर जल गये। सभी लोग वामाचरण को पकड़ने लगे। वामाखेपा उस आग में कूद गये और जब वे आग से बाहर निकले तो उनका शरीर सोने की तरह चमक रहा था। माँ तारा ने अपने पुत्र की अग्नि से रक्षा की थी। यह देखकर सभी आवाक रह गये। तत्पश्चात वामाखेपा का साधक जीवन आरंभ हुआ। मोक्षदानंद बाबा व साई बाबा आदि ने उन्हें महाश्मशान महाश्मशान में आश्रय दिया। कैलाशपति बाबा उन्हें बहुत प्यार करते थे। एक दिन कैलाशपति बाबा ने रात में वामाचरण को गांजा तैयार करने के लिए बुलाया। उस रात वामाखेपा को बहुत डर लगा। असंख्य दैत्याकार आकृतियां उनके चारों ओर खड़ी थी।वामाखेपा ने जयगुरू, जय तारा माँ पुकारा और वे सब आकृतियां लुप्त हो गई। और वामाचरण ने बाबा कैलाशपति के आश्रम में जाकर गांजा तैयार किया। काली पूजा की रात में वामाखेपा का अभिषेक हुआ, सिद्ध बीज मंत्र पाकर वामाचरण का सब उलट पुलट हो गया और सैमल वृक्ष के नीचें जपतप करने लगें। शिव चौदस के दिन वामाखेपा ने सिद्ध बीज मंत्र जपना शुरू किया, सुबह से शाम तक ध्यान मग्न होकर तारा माँ के ध्यान में लगे रहे। खाना पीना भूल गये। रात में दो बजे उनका शरीर कांपने लगा सारा श्मशान अचानक फूलो की महक से महक उठा। नीले आकाश से ज्योति फूट पड़ी और चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश फैल गया। उसी प्रकाश में वामाचरण को माँ तारा के दर्शन हुए। बाघ की खाल पहने हुए एक हाथ में तलवार, एक हाथ में कंकाल की खोपड़ी, एक हाथ में कमल फूल और एक हाथ में अस्त्र लिए हुए, आलता लगे पैरो में पायल पहने, खुले हुए केश, जीभ बाहर निकली हुई, गले में जावा फूल की माला पहने, मंद मंद मुसकाती माँ तारा, वामाखेपा के सामने खड़ी थी। वामाखेपा उस भव्य और सुंदर देवी को देखकर खुशी से भर गए। 18 वर्ष की अल्पायु में विश्वास के बल पर वामाखेपा को सिद्धि प्राप्त हुई और वे संसार में पूज्य हुए। जिस प्रकार परमहंस रामा कृष्णा को दक्षिणेश्वर में माँ काली के दर्शन हुए थे। उसी प्रकार वामाखेपा को भी तारापीठ के महाश्मशान में माँ तारा के दर्शन हुए थे। वामाखेपा की माता का स्वर्गवास हो गया। उस समय द्वारका नदी में बाढ़ आयी हुई थी। किन्तु वामाखेपा तारा माँ कहते हुए नदी में कूद गये, और नदी के दूसरे किनारे पर पहुंच कर अपनी माता के मृत शरीर को अपनी पीठ पर रखकर फिर पानी में कूद पड़े। और महाश्मशान में लाकर अपनी माता का अंतिम संस्कार किया। माँ के श्राद्ध के दिन खाली जमीन साफ साफ कराकर सब गांव वालों को निमंत्रण भेज दिया। अपने आप अनेक प्रकार के स्वादिष्ट पकवान वामाखेपा के घर में आने लगे। सारे गांव के अतिथिगण राजाओं के खाने योग्य जैसे छत्तीस प्रकार के पकवान खाने लगे। तभी आकाश में घने बादल छा गए। वामाखेपा ने माँ तारा को याद करके लकडी लेकर उससे चारों तरफ एक घेरा बना दिया। मूसलाधार वर्षा हुई, परंतु घेरे के अंदर एक बूंद पानी नही गिरा। और अतिथियों ने आनंद पूर्वक भोजन किया। जब अतिथिगण भोजन करके जाने लगे तो वामाखेपा ने माँ तारा को याद करके बादलों को साफ कर दिया और बारिश रूक गई। वामाखेपा को देखने से लगता था कि वह बडे कठोर है। लेकिन उनका ह्रदय बड़ा पवित्र और कोमल था। वे अपने भक्तों के अनुरोध पर कई असाध्य रोगों को ठीक कर दिया करते थे। धीरे धीरे वामाखेपा की उम्र बढ़ती गई। और वे 72 साल के हो गए। कृष्णाष्टमी का दिन था, वामाखेपा तारा माँ का प्रसाद खा रहे थे। अचानक कुत्ते बड़ी जोर जोर से चिल्लाने लगे। फिर एक कंकाल की तरह के चेहरे वाला एक सन्यासी आया और फिकी सी हंसी हंसते हुए बोला अब क्या बाबा चलो तुमको अपने साथ ही ले चलूंगा। उस दिन भक्त लोग उनको घेरे बैठे रहे। बाबा की सांस जोर जोर से चल रही थी। अचानक उनकी नाक का अग्र भाग लाल हो उठा सभी लोग माँ तारा, माँ तारा पुकारने लगे। माँ तारा, माँ तारा सुनाई पडने के साथ ही वामाखेपा का शरीर स्थिर हो गया, और एक महायोगी योगमाया में लीन हो गया। चारों ओर वामाखेपा के स्वर्ग सधारने की खबर फैल गई। दूर दूर से लोग इस सिद्ध पुरूष के दर्शन के लिए उमड़ पड़े। महाश्मशान के पास ही एक नीम के पेड़ के नीचे उनको समाधि दी गई। और माँ तारा का सबसे योग्य पुत्र माँ तारा में ही समा गया। महाश्मशान में तारा देवी का पादपद मंदिर है। तारापीठ की यही मुख्य जगह है। यहाँ पर आकर यात्री लोग मनोकामना के लिए ध्यान करते है। और उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाती हैं। इस मंदिर के पास ही वामाखेपा का समाधि मंदिर है। श्मशान मे बड़े बड़े साधु संतों की समाधियां भी है। साथ में कई समाधि मंदिर भी है। अभी भी बहुत साधु कुटी बनाकर श्मशान में रहते है। यहां पर मुर्दे भी जलाये जाते है। तारापीठ में एक ओर जगह देखने योग्य है। उसका नाम है मुंडमारनीलता। वहां पर भी माँ तारा की मूर्ति है। सुना है कि काली माँ अपने गले की मुंडमाला वहां रखकर द्वारका नदी में स्नान करके माला पहन लेती है। इसलिए इस स्थान का नाम मुंंडमालनी है। यहां पर भी एक श्मशान है।