श्री रामकृष्ण ने इन्हें वाराणसी के “सचल विश्वनाथ” (चलते फिरते शिव) की उपाधि दी- आयु लगभग 300 वर्ष रही
DT 19 FEB 2023 HIGH LIGHT # त्रैलंग स्वामी की आध्यात्मिक शक्तियां #भगवान शिव के एक जीवित अवतार #त्रिलंगा स्वामी, जिन्हें तैलंग स्वामी या तेलंग स्वामी या त्रैलंग स्वामी के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने सिद्ध किया कि मनुष्य ईश्वर-चैतन्य के द्वारा ही जीवित रहता है# स्वामी जी का चरण स्पर्श करने मात्र से वे अत्यन्त कष्टदायक जीर्ण रोग से मुक्ति पा गये।
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रॉबर्ट अर्नेट लिखते हैं कि “उनके चमत्कार अच्छी तरह से प्रलेखित थे और उनकी चमत्कारिक शक्तियां ऐसी थी जिन्हें मिथक के रूप में खारिज भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनके द्वारा किए गए चमत्कार, जीवित लोगों के द्वारा सुने और देखे गए थे। त्रिलंगा के विषय में यह तक कहा जाता है कि उनकी आयु 300 वर्ष के आसपास थी और उनका वजन 140 किलोग्राम से भी अधिक था। हालांकि इस बात के तथ्य भी मौजूद हैं कि शायद ही उन्होंने कभी कुछ खाया हो। लोगों का कहना रहा है कि वह लोगों के दिमाग को किताबों की भांति पढ़ लेते थे। हजारों लोगों ने कथित तौर पर उसे गंगा नदी की सतह पर बैठे रहने की स्थिति में देखा था। वह भी लंबे समय तक लहरों के नीचे गायब हो जाया करते थे शिवानंद सरस्वती ने अपने कुछ चमत्कारों का श्रेय, सिद्धि या योगिक शक्ति भुतज्य को दिया – पांच तत्वों पर विजय: उनकाा कहना था “अग्नि ऐसे योगी को नहीं जलाएगी। जल उसे नहीं डुबोएगा।” अनेक लोगो ने उन्हे गंगा के जल में उतरते देखा था। कई दिनो तक वे गंगा में जल के ऊपर बैठे रहते थे अथवा लम्बे समय तक जल के नीचे छिपे रहते थे। वे गर्मी के दिनो भी मध्यान्त समय मणिकर्णिका घाट के धूप से गर्म शिलाओं पर निश्चल बैठे रहते थे। इन चमत्कारो के द्वारा वे यह सिद्ध करना चाहते थे कि मनुष्य ईश्वर-चैतन्य के द्वारा ही जीवित रहता है। मृत्यु उनका स्पर्श नहीं कर सकती थी। आध्यात्मिक क्षेत्र में तो त्रैलंग स्वामी तीव्रगति वाले थे ही उनका शरीर भी बहुत विशाल था किन्तु वे भोजन यदा कदा ही करते थे।
(जन्म – 1607 – मृत्यु 1887) , इनका मठवासी नाम स्वामी गणपति सरस्वती था। वह एक हिंदू योगी थे और अपनी रहस्यवादी आध्यात्मिक शक्तियों के लिए प्रसिद्ध थे। जीवन के उत्तरार्ध में इन्होंने वाराणसी में निवास किया। इनकी पश्चिम बंगाल में भी बड़ी मान्यता है, जहां यह अपनी यौगिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों तथा लंबी आयु के लिए प्रसिद्ध रहे। कुछ लेखों के अनुसार त्रिलंगा स्वामी की आयु लगभग 300 वर्ष रही। जिसमें इन्होंने वाराणसी में लगभग (1737 – 1887), 150 वर्ष का समय व्यतीत किया। कुछ लोग इन्हें भगवान शिव का अवतार भी मानते थे। श्री रामकृष्ण ने इन्हें वाराणसी के “सचल विश्वनाथ” (चलते फिरते शिव) की उपाधि भी दी थी।
तैलंग स्वामी का जन्म आंध्र प्रदेश के विजयनगरम जिले में कुंभिलपुरम (जिसे अब पुसतिरेगा तहसील की कुमिली के नाम से जाना जाता है) नामक स्थान में हुआ था। इनके माता-पिता दोनों बहुत बड़े शिव भक्त थे, जिसके कारण इन के बचपन का नाम शिवराम था। इनकी जीवनी लिखने वालों तथा इनके शिष्यों के मध्य, इनकी जन्मतिथि और इनकी लंबी उम्र की अवधि पर मतभेद है। एक शिष्य जीवनीकार के अनुसार शिवराम का जन्म 1529 में हुआ था, जबकि अन्य जीवनी लेखक के अनुसार इनका जन्म 1607 में हुआ था। इनकी जीवनी, बिरुदराजू रामाराजू ने अपने छः खंड प्रोजेक्ट के अंतर्गत एक खंड में “आंद्रा योगुलू” शीर्षक के अंतर्गत लिखी है।
त्रैलंग स्वामी द्वारा काली माँ की साधना
शिवराम (त्रैलंगा स्वामी) के पिता का नाम नरसिंह राव और माता का नाम विद्यावती देवी था, दोनों ही भगवान शिव के भक्त थे। 1647 में जब इनकी आयु 40 वर्ष थी, इनके पिता की मृत्यु हो गई। जिसके उपरांत इन्होंने अपने सौतेले भाई श्रीधर को धन और पारिवारिक जिम्मेदारियां सौंपी थी। उस समय इनकी मां ने इनके साथ एक तथ्य को साझा किया कि मृत्यु के समय उनके पिता ने पुनः जन्म लेने की इच्छा व्यक्त की थी, जिससे वह मानव जाति के हित के लिए काली मां की साधना जारी रख सकें। इनकी मां ने शिवराम से कहा कि वह मानती हैं कि वह उनके पिता (उनके अपने दादा) थे और उनका पुनर्जन्म हुआ था और इसी कारण उन्हें भी मां काली की साधना करनी चाहिए। अपनी मां से काली मंत्र की दीक्षा लेकर शिवराम ने पुण्य क्षेत्र के पास स्थित काली मंदिर में काली मां की साधना शुरू की। हालांकि यह अपनी मां से दूर कभी नहीं गए। 1669 में इनकी मां की मृत्यु के बाद, इन्होंने उनका अंतिम संस्कार होने के पश्चात उनकी राख (चिता भस्म) बचाकर रख ली और वह उनकी चिता भस्म को प्रतिदिन लगाया करते थे और काली मां की साधना को और अधिक तल्लीनता के साथ दिन रात जारी रखा।
त्रैलंगा स्वामी द्वारा भारत के तीर्थों का भ्रमण
उस दौरान, शिवराम (त्रैलंगा स्वामी) ने अपने सौतेले भाई द्वारा, श्मशान घाट के पास बनाई गई एक झोपड़ी में एक वैरागी का जीवन व्यतीत करना प्रारंभ कर दिया था। 20 साल की आध्यात्मिक साधना के बाद, फिर संयोगवश, पंजाब से आए इनके पूर्व स्वामी भागीरथानंद सरस्वती से इनकी भेंट हुई और उनके साथ इन्होंने सदा के लिए होलिया गाँव का परित्याग कर दिया। अनेक प्रदेशों का पर्यटन करते हुए ये दोनों प्रसिद्ध पुष्कर तीर्थ पहुँचे। वहीं लगभग ७८ वर्ष की अवस्था में शिवराम ने भगीरथ स्वामी से संन्यास की दीक्षा ली और उनका नया नामकरण हुआ- ‘गणपति सरस्वती’। दीक्षा ग्रहण करने के बाद ये गंभीर साधना में निमग्न हो गये। भागीरथानंद सरस्वती का पुष्कर तीर्थ में ही देहांत हो गया। इस पवित्र क्षेत्र में लगभग दस वर्षों तक कठोर साधना करने के बाद ये भारत के प्रसिद्ध तीर्थों की परिक्रमा के लिए निकले। तब उनकी आयु लगभग ८८ वर्ष की थी। इस उम्र में भी उनका शरीर पूरी तरह सुगठित था और बुढ़ापा का कोई चिह्न नहीं था। 1737 में बनारस में बसने के पहले यह 1733 में प्रयाग पहुंचे।
त्रैलंगा स्वामी का स्वभाव
दशनामी के एक सदस्य के आदेश पर शिवराम, बनारस में मठवासी का जीवन व्यतीत करते समय त्रिलंगा स्वामी के नाम से जाने जाने लगे। 1887 में अपनी मृत्यु तक वाराणसी में, वे अस्सी घाट, हनुमान घाट में ऋषि वेदव्यास के आश्रम, दशाश्वमेध घाट सहित विभिन्न स्थानों पर रहे। वे अक्सर सड़कों या घाटों पर नग्न अवस्था में एक बच्चे की भांति निश्चिंत अवस्था में घूमा करते थे। उन्हें कथित तौर पर गंगा नदी के घाटों में तैरते देखा जाता था। वह बहुत कम और कई बार बिल्कुल ही नहीं, बोला करते थे। बहुत सारे लोग उनसे अपने कष्टों को दूर करने के लिए, उनकी योगिक शक्तियों के विषय में सुनकर, उनकी तरफ आकर्षित हुए। वाराणसी में रहने के दौरान संतों के रूप में उन्होंने कई समकालीन बंगाली लोगों से मुलाकात की और उन्होंने उनका वर्णन भी किया। जिसमें लोकनाथ ब्रह्मचारी, बेनीमाधव ब्रह्मचारी, भगवान गांगुली, रामकृष्ण, विवेकानंद, महेंद्रनाथ गुप्त, लाहिड़ी महाशय, स्वामी अभेदानंद, भास्करानंद, विशुद्धानंद और विजयकृष्ण तथा साधक बामाखेपा प्रमुख रूप से रहे हैं।
त्रैलंगा स्वामी के बारे में श्री रामकृष्ण परमहंस के विचार
त्रिलंगा को देखने के बाद, रामकृष्ण परमहंस ने कहा, “मैंने देखा कि सार्वभौमिक भगवान स्वयं अपने शरीर को अभिव्यक्ति के लिए एक वाहन के रूप में उपयोग कर रहे थे। वह ज्ञान की एक विस्तृत स्थिति में थे। उनके शरीर में कोई चेतना नहीं थी। रेत वहां बहुत गर्म थी, सूरज की गर्मी के कारण कोई भी उस रेत पर पैर नहीं रख सकता था परंतु स्वामी गणपति सरस्वती उस रेत के ऊपर आराम से लेटे हुए थे।” रामकृष्ण ने यह भी कहा कि त्रिलंगा एक वास्तविक परमहंस थे (“सर्वोच्च हंस”, एक आध्यात्मिक शिक्षक के लिए एक सम्मान के रूप में इस्तेमाल किया जाता है) और यह भी कि “संपूर्ण बनारस उनके वहां रहने से रोशन था।
त्रिलंगा स्वामी द्वारा अजगर की मुद्रा लेना
त्रैलंग ने बिना मांगे (अयाचका ) का व्रत लिया हुआ था — जो कुछ भी उन्हें मिला वह उसमें ही संतुष्ट थे। अपने जीवन के बाद के चरण में, जैसे-जैसे उनकी प्रसिद्धि फैलने लगी तीर्थ यात्रियों की भीड़ बढ़ने लगी. अंतिम दिनों मैं उन्होंने एक अजगर की भांति रहना शुरू कर दिया था, जिसमें वे बिना किसी हलचल के बैठे रहते थे, और उनके भक्तों ने उन पर सुबह से दोपहर तक पानी डालकर उनका अभिषेक किया और उन्हें भगवान शिव के एक जीवित अवतार के रूप में देखा।
त्रिलंगा स्वामी का देहत्याग
त्रैलंग स्वामी की मृत्यु सोमवार की शाम, 26 दिसंबर, 1887 को हुई थी। उन्होंने पौष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि (सन् १८८७) को इन्होंने नश्वर शरीर छोड़ा। उनके शरीर को गंगा में सलिलसमाधि दिया गया था, घाटों पर खड़े भक्तों की शोक सभा में दशनामी संप्रदाय के भिक्षुओं के अंतिम संस्कार के नियमानुसार ही उनका अंतिम संस्कार किया गया था।
त्रैलंग स्वामी की आध्यात्मिक शक्तियां
एक बार परमहंस योगानन्द के मामा ने उन्हे बनारस के घाट पर भक्तो की भीड़ के बीच बैठे देखा। वे किसी प्रकार मार्ग बनाकर स्वामी जी के निकट पहुंच गये और भक्तिपूर्ण उनका चरण स्पर्श किया। उन्हे यह जानकर महान आश्चर्य हुआ कि स्वामी जी का चरण स्पर्श करने मात्र से वे अत्यन्त कष्टदायक जीर्ण रोग से मुक्ति पा गये।
काशी में त्रैलंग स्वामी एक बार लाहिड़ी महाशय का सार्वजनिक अभिनन्दन करना चाहते थे जिसके लिये उन्हे अपना मौन तोड़ना पड़ा। जब त्रैलंग स्वामी के एक शिष्य ने कहा कि आप एक त्यागी संन्यासी है। अत: एक ग्रहस्थ के प्रति इतना आदर क्यों व्यक्त करना चाहते है? उनर रूप में त्रैलंग स्वामी ने कहा था मेरे बच्चे लाहिड़ी महाशय जगत जननी के दिव्य बालक है। मां उन्हे जहां रख देती है, वही वे रहते है। सांसारिक मनुष्य के रूप में कर्तव्य का पालन करते हुए भी उन्होने मनुष्य के रूप में वह पूर्ण आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है जिसे प्राप्त करने के लिये मुझे सब कुछ का परित्याग कर देना पड़ा। यहां तक कि लंगोटी का भी।
इस बात का भी प्रमाण मिलता है कि कई बार त्रिलंगा को घातक जहर दिया गया था जिसे उन्होंने बड़े ही साधारण रूप में ग्रहण कर लिया और उस घातक जहर ने उन पर कोई प्रभाव नहीं डाला। जिसका एक किस्सा सुनने में आता है जिसके अनुसार एक बार एक संदेहवादी व्यक्ति उन्हें धोखाधड़ी के रूप में उजागर करना चाहता था, जिसके लिए उसने एक बाल्टी चूना घोलकर स्वामी जी के सामने रख दिया और उसे गाढ़ा दही बताया। स्वामी जी ने तो उसे पी लिया किन्तु कुछ ही देर बाद वह व्यक्ति पीड़ा ने छटपटाने लगा और स्वामी जी से अपने प्राणो की रक्षा की भीख मांगने लगा। त्रैलंग स्वामी ने अपना मौन भंग करते हुए कहा कि तुमने मुझे विष पीने के लिये दिया, तब तुमने नहीं जाना कि तुम्हारा जीवन मेरे जीवन के साथ एकाकार है। यदि मैं यह नहीं जानता होता कि मेरे पेट में उसी तरह ईश्वर विराजमान है, जिस तरह वह विश्व के अणु-परमाणु में है, तब तो चूने के घोल ने मुझे मार ही डाला होता। अब तो तुमने कर्म का अर्थ समझ लिया है, अत: फिर कभी किसी के साथ चालाकी करने की कोशिश मत करना। त्रैलंग स्वामी के इन शब्दो के साथ ही वह व्यक्ति कष्ट मुक्त हो गया।
त्रिलंगा अक्सर बिना किसी कपड़े, (आकाश धारण किए ), नग्न अवस्था में घूमा करते थे। उनके इस व्यवहार से वाराणसी पुलिस तिलमिला गई और उन्हें जेल की कोठरी में बंद कर दिया। परंतु जल्द ही जेल की छत पर दिखाई दिए। पुलिस ने उन्हें वापस जेल में बंद करके उसमें ताला लगा दिया, परंतु फिर भी वह उन्हें जेल की छत पर दिखाई दिए। जल्दी ही पुलिस वालों ने हार मान ली और उन्हें छोड़ दिया और वह पुनः उसी रूप में वाराणसी की सड़कों में चलने लगे।
त्रैलंग स्वामी की शिक्षाएं
त्रिलंगा की शिक्षाएं अभी भी उनके एक शिष्य उमाचरण मुखोपाध्याय की जीवनी में उपलब्ध हैं। त्रिलंगा ने बंधन को “दुनिया के प्रति लगाव” और मुक्ति को “दुनिया का त्याग और भगवान में अवशोषण” के रूप में वर्णित किया। उन्होंने कहा कि इच्छाहीनता की स्थिति को प्राप्त करने के बाद, “यह दुनिया स्वर्ग में बदल जाती है” और कोई भी “आध्यात्मिक ज्ञान” के माध्यम से इस संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। (हिंदू धर्म के अनुसार जीवन जन्म और मृत्यु का एक चक्र है ) त्रिलंगा के अनुसार, क्षणभंगुर संसार के प्रति लगाव “हमारी पुरानी बीमारी” है और जिसकी दवा “अनासक्ति” है। त्रिलंगा ने मनुष्य की इंद्रियों को अपना दुश्मन और अपनी नियंत्रित इंद्रियों को अपना मित्र बताया। एक गरीब व्यक्ति के बारे में उनका वर्णन जो “बहुत लालची” होता है और जो हमेशा अमीर के रूप में ही संतुष्ट रहता है।” उन्होंने कहा कि तीर्थयात्रा का सबसे बड़ा स्थान “हमारा अपना शुद्ध दिमाग” है और लोगों को गुरु से ” वेदांत सत्य ” का पालन करने का निर्देश दिया। उन्होंने एक साधु का वर्णन एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर किया जो आसक्ती और भ्रम से मुक्त हो और जिसने अहंकार को पार कर लिया हो, वही साधु है।