लखनऊ फतह के लिए “करो या मरो” में जुटे दल
उत्तर प्रदेश को है सक्षम नेतृत्व की तलाश – ललित गर्ग – (www.himalayauk.org) Leading Newsportal
भारतीय राजनीति में उत्तर प्रदेश का महत्व सर्वाधिक इसलिये है क्योंकि केन्द्र की राजनीति भी वही से निर्धारित होती रही है। इसीलिये एक मुहावरा चर्चित है कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है। इस जैसे बड़े, जटिल और बहुध्रुवीय राज्य का चुनाव एक बार फिर चर्चा में हैं। सभी राजनीतिक दलों ने अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिये प्रयास शुरू कर दिये हैं।
राजनीतिक दृष्टि से सशक्त होने, भौगोलिक दृष्टि से समृद्ध होने एवं सांस्कृतिक-साहित्यिक-धार्मिक दृष्टि से गौरवमय होने के बावजूद यह प्रान्त लगातार पिछडता ही जा रहा है। गंगा-जमुनी संस्कृति के प्रतीक इस प्रांत की पहचान बाल्मीकि, तुलसीदास, कबीरदास, सूरदास, प्रेमचंद, निराला, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, रामचंद्र शुक्ल, महाबीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त जैसे व्यक्तित्वों से होती है। देश को जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, चैधरी चरण सिंह, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी एवं वर्तमान में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री रूप में देने वाला प्रदेश राजनैतिक और सामाजिक दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण राज्य है कि देश में प्रत्येक वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं किन्तु उत्तर प्रदेश के चुनाव पर पूरे देश की नजर रहती है।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे निकट आते जा रहे हैं, विभिन्न राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ती जा रही है। प्रान्त में चुनाव का माहौल गरमा रहा है। अभी से विभिन्न राजनीतिक दलों ने भावी नेतृत्व के विकल्प की खोज शुरू कर दी है, जो देश के सबसे बड़े प्रान्त को सुशासन दे सके। कुछ पार्टियां सरकार बनाने की संभावनाओं को तलाशते हुए अपने को ही विकल्प बता रही हैं, उन्हें उम्मीदवार चयन में सावधानी बरतनी होगी। अभी के हालातों में सभी राजनीतिक दलों के लिये मुख्यमंत्री का चेहरा भी महत्वपूर्ण हो गया है। इधर मतदाता सोच रहा है कि राज्य में नेतृत्व का निर्णय मेरे मत से ही होगा। यही वह वक्त है जब मतदाता ताकतवर दिखाई देता है? इसी वक्त मतदाता मालिक बन जाता है और मालिक याचक- यही लोकतंत्र का आधार भी है और इसी से लोकतंत्र भी परिलक्षित होता है। अन्यथा लोकतंत्र है कहां? लेकिन मतदाता को भी अपनी जिम्मेदारी एक वफादार चैकीदार के रूप में निभानी होगी। एक समय इस प्रदेश के नेतृत्व ने समूचे राष्ट्र के लिये उदाहरण प्रस्तुत किये थे, लोकतंत्र को सशक्त बनाने में अहम भूमिका निभाई थी, वही नेतृत्व जब तक पुनः प्रतिष्ठित नहीं होगा तब तक मत, मतदाता और मतपेटियां सही परिणाम नहीं दे सकेंगी।
आज उत्तर प्रदेश को एक सफल एवं सक्षम नेतृत्व की अपेक्षा है, जो प्रदेश की खुशहाली एवं लोकतांत्रिक मूल्यों को सर्वोपरि माने। क्योंकि पिछले दो दशक में उत्तर प्रदेश में ज्यादातर सरकारों ने जहां लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाई वहीं उनका कामकाज, आर्थिक स्थिति या कानून व्यवस्था इतनी खराब रही है कि प्रदेश की जनता स्वयं को जख्मी महसूस करने लगी। सत्ता और स्वार्थ नेे प्रांत की महत्वाकांक्षी योजनाओं को पूर्णता देने में नैतिक कायरता दिखाई है। इसकी वजह से लोगों में विश्वास इस कदर उठता रहा है कि प्रदेश में मतदाता हर पांच साल बाद सत्तारुढ़ दल को अस्वीकार कर देता है। सत्तारुढ़ दल के खिलाफ मतदाता का गुस्सा हर चुनाव में दिखाई देता रहा है।
अब 2017 में अखिलेश यादव के कार्यों की समीक्षा जनता के द्वारा की जानी है। कांग्रेस अभी भी कमजोर है। भाजपा 2014 की विजय के बाद उत्तर प्रदेश में फिर से उभर चुकी है। अब अखिलेश सरकार के विकल्प के रूप में मायावती और भाजपा में घमासान होने की संभावना बन रही है। लम्बे दौर से प्रदेश की राजनीति विसंगतियों एवं विषमताओं से ग्रस्त रही है। इन स्थितियों से मुक्त होने के लिये भाजपा और बसपा के साथ-साथ विभिन्न राजनीतिक दलों को आने वाले चुनाव में ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करने होंगे ताकि प्रदेश को ईमानदार और पढ़े-लिखे, योग्य उम्मीदवार के रूप में सफल नेतृत्व मिल सके। जो भ्रष्टाचारमुक्त शासन के साथ विकास के रास्ते पर चलते हुए राजनीति की विकृतियों से छुटकारा दिला सके। प्रदेश को सम्पूर्ण क्रांति की नहीं, सतत क्रांति की आवश्यकता है।
उत्तर प्रदेश के वर्तमान राजनीतिक परिवेश एवं विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थितियों को देखते हुए बड़ा दुखद अहसास होता है कि किसी भी राजनीतिक दल में कोई लीडर नजर नहीं आ रहा जो स्वयं को लोकतांत्रिक मूल्यों में ढाल, मजदूरों की तरह श्रम करने का प्रण ले सके। सिर्फ सरकार बदल देने से समस्याएं नहीं मिटती। अराजकता और अस्थिरता मिटाने के लिये सक्षम नेतृत्व चाहिए। उसकी नीति और निर्णय में निजता से ज्यादा निष्ठा चाहिए। यही समय जागने का है, अतीत को सीख बनाने का है। उन भूलों को न दोहरायें जिनसे प्रदेश की संवेदनशीलता जख्मी हुई है। विकास लड़खड़ाया है। जो सबूत बनी है हमारे असफल प्रयत्नों की, अधकचरी योजनाओं की, राजनीतिक स्वार्थों की, जल्दबाजी में लिये गये निर्णयों की, सही सोच और सही कर्म के अभाव में मिलने वाले अर्थहीन परिणामों की।
एक बार फिर उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव में जातिवाद, विकास, सांप्रदायिकता और आतंकवाद प्रमुख मुद्दे होंगे जिनके इर्द-गिर्द ये चुनाव केन्द्रित रहेगा। उत्तर प्रदेश के बारे में एक कहावत बहुत प्रचलित है कि यहां के मतदाता अपना वोट किसी दल को नहीं अपनी जाति के नेता को देते हैं। चुनाव के दिन विकास का मुद्दा धरा रह जाता है और चुनाव का आधार जाति और धर्म बन जाता है। इसलिए राम मंदिर का मुद्दा चुनाव के समय बोतल में बंद जिन्न की तरह एक बार फिर बाहर आ सकता है। आस्था के प्रतीक राम मंदिर के मुद्दे को जनभावनाओं को उद्वेलित करने में इस्तेमाल किया जा सकता है। यही कारण है कि कभी जाति तो कभी धर्म चुनाव जीतने के माध्यम बनते रहे हैं। इसी वजह से उत्तर प्रदेश में विकास का पहिया उतनी तेजी के साथ नहीं चल सका जितना देश के बाकी राज्यों में चला। प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण और भौगोलिक दृष्टि से सशक्त होने के बावजूद उत्तर प्रदेश कहीं पिछड़ता चला गया। क्षेत्रीय राजनैतिक दलों के पास कभी कोई राष्ट्रीय एजेंडा नहीं रहा।
उत्तर प्रदेश का सक्षम नेतृत्व चाहिए। लोकतंत्र की मजबूती के लिये नेतृत्व की पुरानी परिभाषा थी, ‘सबको साथ लेकर चलना, निर्णय लेने की क्षमता, समस्या का सही समाधान, कथनी-करनी की समानता, लोगांे का विश्वास, दूरदर्शिता, कल्पनाशीलता और सृजनशीलता।’ इन शब्दों को किताबों में डालकर अलमारियों में रख दिया गया है। नेतृत्व का आदर्श न पक्ष में है और न प्रतिपक्ष में। एक युग था जब सम्राट, राजा-महाराजा अपने राज्य और प्रजा की रक्षा अपनी बाजुओं की ताकत से लड़कर करते थे और इस कत्र्तव्य एवं आदर्श के लिए प्राण तक न्यौछावर कर देते थे। आज नारों और नोटों से लड़ाई लड़ी जा रही है, चुनाव लड़े जा रहे हैं- सत्ता प्राप्ति के लिए। जो जितना लुभावना नारा दे सके, जो जितना धन व्यय कर सके, वही आज जनता को भरमा सकता है।
राजा और प्रजा, शासक और शासित की यह व्यवस्था सदैव रही है और सदैव रहेगी। पद्धतियां बदलती रहती हैं। पहले राजा रानी के पेट से पैदा होता था और अब ‘मत पेट’ से पैदा होता है। सभी राजनीतिक दलों की बड़ी लुभावनी घोषणाएं होती हैं, घोषणा पत्र होते हैं-जनता को पांच वर्षों में अमीर बना देंगे, हर हाथ को काम मिलेगा, सभी के लिए मकान होंगे, सड़कें, स्कूल-अस्पताल होंगे, बिजली और पानी, हर गांव तक बिजली पहुंचाई जायेगी, शिक्षा-चिकित्सा निःशुल्क होगी। जनता मीठे स्वप्न लेती रहती है। कितने ही पंचवर्षीय चुनाव हो गये और कितनी ही पंचवर्षीय योजनाएं पूरी हो गईं पर यह दुनिया का आठवां आश्चर्य है कि कोई भी लक्ष्य अपनी समग्रता के साथ प्राप्त नहीं हुआ।
जो प्रांत लोकतन्त्र की पाठशाला और प्रयोगशाला माना जाता रहा है, इस दृष्टि से शून्यता का माहौल बनना गभीर चिन्ता का विषय है। लोकतंत्र की बुनियाद है राजनीति, जिसकी जनता की आंखों में पारदर्शिता होना चाहिए। मगर आज राजनीति ने इतने मुखौटे पहन लिये हैं, छलनाओं के मकड़ी जाल इतने बुन लिये हैं कि उसका सही चेहरा पहचानना आम आदमी के लिये बहुत कठिन हो गया है। प्रदेश की राजनीति में किसी भी दल के प्रति मतदाता का विश्वास कायम नहीं है क्योंकि वहां किसी भी मौलिक एवं सार्वदैशिक मुद्दे पर स्थिरता नहीं और जहां स्थिरता नहीं वहां विश्वास और आस्था कैसे संभव होगी? बदलती सरकारें, बदलती नीतियां, बदलते वायदे और बदलते चेहरे और बयान कैसे थाम पायेगी करोड़ों की संख्या वाले इस प्रांत का आशाभरा विश्वास? इसके लिये जरूरी है ऐसे ही किसी नये चेहरे की तलाश जो उम्मीदों पर खरा उतर सके।
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(ललित गर्ग)
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