उत्तराखंड की विशिष्ट पंरपंरा है ‘भिटौली- हिल्स डेवलपमेंट मिशन द्वारा
DEHRADUN हिमालयायूके न्यूज पोर्टल : बासा घुघुती चैत की याद आ जैछे मैके मैत की
सामाजिक संस्था हिल्स डेवलपमेंट मिशन ने रविवार को पर्वतीय अंचल में मनाया जाने वाले भिटौली कार्यक्रम का आयोजन किया। इस अवसर पर महिलाओं ने रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ ही पहाड़ी व्यंजनों पकवानों को भी परोसा। लोक कलाकार सौरभ मैठाणी एवं उनके साथियों ने गायन एवं नृत्य का मंचन भी किया।
उत्तराखंड की ऐसी ही एक विशिष्ट पंरपंरा है ‘भिटौली। इसका शाब्दिक अर्थ है भेंट या मुलाकात। प्रत्येक विवाहित लड़की के मायके वाले चैत के महीने में उसके ससुराल जाकर विवाहिता से मुलाकात करते हैं। उत्तराखण्ड की यह प्राचीन परम्परा है कि चैत्र मास में भाई अपनी बहिन को भिटौली देना नहीं भूलता। इसकी मान्यता व महत्ता का अंदाजा इस बात से लगता है कि लोकगीत भी इसके बिना पूरे नहीं हो पाते। पारंपरिक गीतों में इस परंपरा का बहुतायत उल्लेख मिलता है। भिटौली देने के लिए पूड़ी, हलवा, खजूरे, गुड़ तथा मिष्ठान के साथ ही वस्त्र भी भेंट किए जाते है। इस परम्परा को निभाने में महंगाई आड़े आ गयी है। महंगाई की पीड़ा हर उस चेहरे में दिखाई दे रही है, जो अपनी बहन को हर वर्ष देने वाले उपहार उतने नहीं दे पाया जितना मन था।
कार्यक्रम की शुरूआत में महिलाओं ने त्यौहार से संबंधित लोकगीत गाये और नृत्य के जरिये संस्कृति से रूबरू कराया। टीम ने कुमाऊंनी वेषभूषा के जरिये भी संस्कृति की झलक प्रदर्शित की। संस्था के अध्यक्ष रघुबीर बिष्ट ने कहा कि आज के वैश्विक युग में हिल्स डेवलपमेंट मिशन राज्य के विलुप्त होते जा रहे लोकपर्व भिटौली को देहरादून में धूमधाम से मनाकर इस पर्व की प्रासंगिकता को बनाये रखने का प्रयास कर रहा है। हमारी संस्था लोकपर्वों को जीवंत रूप देने के लिये समय समय पर आयोजन करती रही है। जिससे हमारी भावी पीढ़ी अपने गौरवशाली संस्कृति को संजो कर रख सके। मुख्य अतिथि उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र के निदेशक डा एमपीएस बिष्ट ने कहा कि वर्तमान समय में हालांकि दूरसंचार के माध्यमों और परिवहन के क्षेत्र में उपलब्ध सुविधाओं की बदौलत दूरिया काफी सिमट चुकी है। लेकिन एक विवाहित के दिल में मायके के प्रति संवेदनायें और भावनायें शायद ही कभी बदल पायेंगी। कार्यक्रम में सामाजिक चिंतक पीसी थपलियाल, संस्था के कमल रजवार, प्रकाश मैठाणी, अनिल रावत, मोहन भुलानी, रुपेंद्र रावत, रेवा चौहान, विक्रम, गोपाल गुसाईं, नरेंद्र रावत आदि मौजूद रहे।
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भिटौली शब्द भेंट से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ स्थानीय भाषा में मिलने से होता हैए जहां तक इस त्योहार का समबन्ध है तो इसमें शादीशुदा लड़्की के मायके वाले अपनी बहनध्बेटी को उसके ससुराल में जाकर भेंट ;यहां पर यह स्थानीय भाषा के अनुसार मिलने और उपहार देने दोनो अर्थों में हैद्ध या भिटौली देते हैं। इस भेंट में मायके वालों की तरफ़ से पहले पिता ; अगर जीवित हैं तोद्ध इसे लेकर लड़की के घर जाते हैं तथा पिता की मृत्यु के बाद भाई इस कार्य को निभाते हैं। यह प्रथा इसलिये भी शुरु हुई होगी कि पहले आवागमन के सुगम साधन उपलब्ध नहीं थे और ना ही लड़की को मायके जाने की छूट। लड़की किसी निकट समबन्धी के शादी ब्याह या दुख बिमारी में ही अपने ससुराल से मायके जा पाती थी। इस प्रकार अपनी शादीशुदा लड़की से कम से कम साल में एक बार मिलने और उसको भेंट देने के प्रयोजन से ही यह त्यौहार बनाया गया होगा। भाई.बहन के प्यार को समर्पित यह त्यौहार ; रिवाज सिर्फ उत्तराखण्ड के लोगों के द्वारा मनाया जाता है। विवाहित बहनों को चैत का महिना आते ही अपने मायके से आने वाली भिटौली की सौगात का इंतजार रहने लगता है।
शादी के बाद की पहली भिटौली लड़की को उसकी डोली विदाई के समय समय ही दी जाती हैए और उसके बाद जो पहला चैत का महीना होता है लड़की की शादी के वर्ष उसे काला महीना कहा जाता हैए लड़की उस महीने शादी के एक साल के अंदर पढ़ने वाले चैत के महीने में अपने मायके में ही रहती है। जिस कारण शादी के पहले वर्ष की भिटौली वैशाख में लड़की को ससुराल में विदा करते समय दी जाती है क्योंकि विवाह के पहले वर्ष के चैत्र को काला महीना माना जाता है फिर अगले वर्ष से जन्म पर्यंत भाई अपनी बहिन को हर वर्ष चैत्र के महीने में भिटौली देता है। चैत्र महीने की ५ गते तक विवाहित महिला को स्वयं तथा किसी और के द्वारा उसके सामने महीने का नाम लेना भी वर्जित होता है।
उत्तराखण्ड की हर विवाहित महिला चैत माह में अपने मायके वालों से भिटौली का इंतजार करती हैए जिसे पूरे गांव में बांटा जाता है। यह त्यौहार हमारे सामाजिक सदभाव का भी प्रतीक है। इस माह का महिलाओं के लिये कितना महत्व हैए हमारे लोकगीतों के माध्यम से सहज ही जाना जा सकता है। स्व० गोपाल बाबू गोस्वामी जी का यह गीत इसका प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करता हैरू
बासा घुघुती चैत की याद आ जैछे मैके मैत की
भिटौली से संबंधित कई कहानियां प्रचलित हैए जिसमें से एक प्रकार है कि
बहुत समय पहले किसी गांव में सचदेव नाम का लड़का रह्ता थाए उसकी बहिन का विवाह पाताल लोक में किसी नाग के साथ हुआ था। जब उसकी बहन का विवाह हुआ तब सचदेव बहुत छोटा था। जैसे जैसे सहदेव बड़ा हुआ और जब शादी के कई साल बीतने पर भी उसकी बहिन मायके नही आ पायी तो सचदेव को अपनी बहन की याद सताने लगी। और एक दिन वह उससे मिलने पाताल लोक चला गयाए लेकिन नाग ने सहदेव को पहले कभी देखा नही था। उन दोनों भाई बहनों को साथ देखकर वह उन दोनो के रिश्ते को शक की निगाह से देखने लगा। क्योंकि नाग सचदेव से कभी मिला नही थाए इसलिये उसने उन भाई बहनो के बारे में कुछ अपमानजनक बातें कही। ऐसी लज्जाजनक बातें सुन कर सचदेव को बड़ ग्लानि हुयी और उसने आत्महत्या कर ली। नाग को जब असलियत का पता चला तो उसने भी आत्महत्या कर ली। अपने भाई व पति के देहान्त के उप्रान्त सचदेव की बहिन ने सोचा कि अब उसकी भी जिंदगी व्यर्थ है और उसने भी अपनी इहलीला समाप्त कर दी। इन दोनों भाई बहनो के त्याग और बलिदान को याद करते हुए त्यौहार आज भी प्रचलन में है
भिटौली के सम्बन्ध में एक और दंत कथा लोक कथा इस प्रकार की भी प्रचलित है
एक गाँव में नरिया और देबुली नाम के भाई – बहन रहते थे और दोनो भाई बहनों में बहुत प्यार था। जब देबुली १५ वर्ष की हुयी तो उसकी शादी हो गई जो उस समय के अनुसार शादी के लिए बहुत ज्यादा उम्र थी। देबुली की शादी के बाद भी दोनों भाई बहनों को ही एक दूसरे का विछोह सालता रहा। दोनों भाई बहन भिटौली के त्यार की प्रतीक्षा करने लगे। अंततः समय आने पर भिटौली के दिन नरिया भिटौली की टोकरी सर पर रख कर खुशी – खुशी बहन से मिलने चला। बहन देबुली बहुत दूर ब्याही गयी थी पैदल चलते – चलते नरिया शुक्रवार की रात को दीदी के गाँव पहुँच पाया। जब नरिया अपनी बहन देबुली के घर पहुंचा तो देबुली तब गहरी नींद में सोई थीए थका हुआ नरिया भी देबुली के पैर के पास सो गया। सुबह होने के पहले ही नरिया की नींद टूट गयी देबुली तब भी सोई थी और नींद में कोई सपना देख कर मुस्कुरा रही थी। अचानक नरिया को ध्यान आया कि सुबह शनिवार हो जायेगा और शनिवार को देबुली के घर ले कर आने के लिये उसकी ईजा ने मना कर रखा था। नरिया ने भिटौली की टोकरी दीदी के पैर के पास रख दी और उसे प्रणाम कर के वापस अपने गाँव चला गया। देबुली सपने में अपने भाई को भिटौली ले कर अपने घर आया हुआ देख रही थीए नींद खुलते ही पैर के पास भिटौली की टोकरी देख कर उसकी बांछें खिल गयीं। वह भाई से मिलने दौड़ती हुई बाहर गयी लेकिन भाई नहीं मिला। वह पूरी बात समझ गयी भाई से न मिल पाने के हादसे ने उसके प्राण ले लिये। कहते हैं देबुली मर कर घुघुती, उत्तराखण्ड में घुघुती चिड़िया को सभी जानते हैं, बन गयी और चैत के महीने में आज भी कुछ इस प्रकार गाती हैर
भै भुखो मैं सितीए भै भुखो मैं सिती
भिटौली आने पर घर में त्यौहार का माहौल हो जाता हैए क्योंकि हर घर में बहुऎं अपने मायके से आने वाली भिटौली का ईन्तजार करती हैं। घर में भिटौली के साथ आने वाले पकवानों को गांव-पडोस में बांटा जाता है और इस तरह यह त्यौहार सामाजिक सदभाव को भी बढ़ावा देता है। चैत्र मास के दौरान पहाडो में सामान्यतः खेतीबारी के कामों से भी लोगों को फुरसत रहती है। जिस कारण यह रिवाज अपने नाते-रिश्तेदारो से मिलने जुलने का और उनके हाल-चाल जानने का एक माध्यम बन जाता है।
आज से कुछ दशक पहले जब यातायात व संचार के माध्यम इतने नहीं थे उस समय की महिलाओं के लिये यह परंपरा बहुत महत्वपूर्ण थी। जब साल में एक बार मायके से उनके लिये पारंपरिक पकवानों की पोटली के साथ ही उपहार के तौर पर कपडे आदि आते थे। इसमें एक तथ्य और है कि जब तक किसी महिला को भिटौली नहीं मिलती तब तक उस महिला के सामने चैत महीने का नाम नहीं लिया जाता है तथा इसे अपशगुन माना जाता है। ऎसा होने पर वह महिला अपने पहने कपड़े फाड़ देती हैए ताकि उसका भाई जीवित रहे। पर यह सब परम्पराऎं अब केवल प्रतीकात्मक रूप में ही मौजूद रह गयी हैं।
समय बीतने के साथ.साथ इस परंपरा में कुछ बदलाव आ चुका है। इस रिवाज पर भी औपचारिकता और शहरीकरण ने गहरा प्रभाव छोडा हैए वर्तमान समय में अधिकतर लोग फ़ोन पर बात करके कोरियर से गिफ़्ट या मनी आर्डर से अपनी बहनों को रुपये भेज कर औपचारिकता पूरी कर देते हैं। आज यह त्योहार भाई-बहन के प्रेमभाव की बजाय आर्थिक हित साधने का तथा स्टेटस सिमबल ज्यादा बनता जा रहा है। लेकिन ग्रामीण इलाकों में आज भी प्रेमभाव व पारिवारिक सौहार्द के साथ भिटौली का खास महत्व बना हुआ है।