देशव्यापी आंदोलन का असली नेता सोशल मीडिया?

नई दिल्ली : दो अप्रैल को दलित संगठनों के आह्वान पर बुलाए भारत बंद के दौरान भड़की हिंसा पर बीजेपी का आरोप है कि कांग्रेस, बीएसपी और सपा ने मिलकर इस आंदोलन को हिंसक बनाया था. केंद्रीय मंत्री तथा बीजेपी के वरिष्ठ नेता रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि कुछ नेता हिंसा का समर्थन करके देश के शांतिपूर्ण माहौल को हिंसक बनाने का काम कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि राजनीतिक स्वार्थ के लिए हिंसा कराई जा रही है.
इस सिलसिले में कयास लगाए जा रहे हैं कि भीम आर्मी, नेशनल कांफेडेरेशन फॉर दलित आर्गेनाइजेशंस (NACDOR) या किसी अनाम दलित संगठन में से किसने आयोजन की एक सप्तामह पहले घोषणा की थी. सुरक्षा एजेंसियां ये भी पता लगाने का प्रयास कर रही हैं कि आखिर किसने नारा दिया कि ‘देश संविधान से चलता है न कि फासिज्मह से.’ देश के कई हिस्सोंि में तख्तियों पर इस तरह के नारों को देखा गया. यह भी सवाल उठ रहे हैं कि क्याे इस देशव्याहपी आंदोलन का असली नेता सोशल मीडिया है? इतने बड़े आंदोलन के पीछे चाहे जो शक्तियां हों लेकिन ये बात तो सही है कि राज्योंआ की लोकल इंटेलीजेंस यूनिटें जमीनी स्तिर पर इसका आकलन करने में असमर्थ रहीं.

  अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम को कथित तौर पर शिथिल किए जाने के विरोध में दलित संगठनों के राष्ट्रव्यापी बंद के चलते कई राज्यों में जनजीवन प्रभावित हुआ जबकि कई जगह प्रदर्शन ने हिंसक मोड़ ले लिया. इन घटनाओं में करीब 10 लोगों की मौत भी हुई है. दलित आंदोलन के इस हद तक जाने के पीछे राजनीतिक दलों का समर्थन होना भी बताया जा रहा है. ऐसे में जेहन में सवाल उठना लाजिमी है कि अपने राजनीतिक हित के लिए फैसले लेने वाली पार्टियां आखिरकार दलितों के पीछे क्यों खड़ी हैं. सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक क्यों दलितों के साथ खुद को दिखाने की कोशिश कर रहा है. इन तमाम सवालों के तह में जाने पर पता चलता है कि राजनीतिक पार्टियों का दलित प्रेम साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए है. हमारे देश में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की एक बड़ी आबादी है. साल 2011 की जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक देश में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की आबादी करीब 20 करोड़ है. इतना ही नहीं इस वक्त लोकसभा में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के 131 सांसद हैं. इनमें सबसे ज्यादा भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के 67 सांसद इसी वर्ग से आते हैं. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह हारी कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियां इस दलित विरोध प्रदर्शन के बहाने 2019 के आम चुनाव में अपनी खोई हुई ताकत हासिल करने की उम्मीदें लगाए हुए हैं. वहीं सत्ताधारी बीजेपी भी समाज के इतने बड़े वर्ग को चुनाव से पहले नाराज नहीं करना चाहती है.

सुप्रीम कोर्ट के 20 मार्च को एससी/एसटी एक्टी पर दिए गए फैसले के खिलाफ दो अप्रैल को भारत बंद का ऐलान आखिरकार किसने किया? किसकी अपील पर इतना बड़ा दलित आंदोलन सामने आया? यह बड़ा सवाल इसलिए उठ खड़ा हुआ है क्योंद‍कि एक तो इस दौरान भारी हिंसा के कारण कई लोग मारे गए. वहीं दूसरी ओर राजनीतिक दलों की ओर से इसका आयोजन नहीं किया गया. अभी तक इस आंदोलन को शक्लर देने वाले संगठन या नेता का नाम सामने नहीं आया है? यह सही है कि अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग संगठनों के बैनर तले दलित कार्यकर्ता एकजुट हुए लेकिन इन सबके पीछे कौन है? यह अभी भी रहस्यक बना हुआ है.
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी एक्ट में कुछ संशोधनों करते हुए अपना फैसला दिया था. कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ दलित संगठनों ने 2 अप्रैल को भारत बंद का आह्वान किया था. इस बंद के दौरान उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान में जमकर हिंसा हुई. इस हिंसा में 9 लोग मारे गए और कई लोग घायल हुए.
इस हिंसा के बाद देश की राजनीति में तूफान खड़ा हो गया है. सभी दल एकदूसरे को हिंसा के लिए दोषी ठहरा रहे हैं. बीएसपी प्रमुख मायावती ने आरोप लगाया कि बीजेपी राज में दलितों का उत्पीड़न किया जा रहा है. उन्होंने कहा कि भारत बंद के दौरान हिंसा बीजेपी और संघ के लोगों ने कराई थी, इस बात के पक्के सबूत भी हैं, लेकिन पुलिस दलितों को जेल में बंद कर रही है. कांग्रेस और सपा ने भी बीजेपी को हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया. इस पर बीजेपी ने पलटवार करते हुए कहा कि सारे विपक्षी दल बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाने का काम कर रहे हैं. रविशंकर प्रसाद ने कहा कि बीजेपी में ही सबसे ज्यादा दलित सांसद और विधायक हैं. दलितों का बीजेपी में विश्वास बढ़ रहा है, यह बाद तथाकथित दलित नेताओं को हजम नहीं हो रही है. इसलिए दलितों का नाम लेकर माहौल को बिगाड़ने की कोशिश की जा रही है.
हालांकि यह भी सही है कि प्रत्यकक्ष रूप से तो नहीं लेकिन दलित आंदोलन के इस हद तक जाने के पीछे राजनीतिक दलों का परोक्ष रूप से समर्थन होना भी बताया जा रहा है. ऐसे में जेहन में सवाल उठना लाजिमी है कि अपने राजनीतिक हित के लिए फैसले लेने वाली पार्टियां आखिरकार दलितों के पीछे क्यों खड़ी हैं? इस मामले में सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक क्यों दलितों के साथ खुद को दिखाने की कोशिश कर रहा है. इन तमाम सवालों के तह में जाने पर पता चलता है कि राजनीतिक पार्टियों का दलित प्रेम साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए है.
हमारे देश में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की एक बड़ी आबादी है. साल 2011 की जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक देश में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की आबादी करीब 20 करोड़ है. इतना ही नहीं इस वक्त लोकसभा में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के 131 सांसद हैं. इनमें सबसे ज्यादा भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के 67 सांसद इसी वर्ग से आते हैं. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह हारी कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियां इस दलित विरोध प्रदर्शन के बहाने 2019 के आम चुनाव में अपनी खोई हुई ताकत हासिल करने की उम्मीदें लगाए हुए हैं. वहीं सत्ताधारी बीजेपी भी समाज के इतने बड़े वर्ग को चुनाव से पहले नाराज नहीं करना चाहती है.
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (उत्पीीड़न रोकथाम) एक्ट , 1989 (एससी/एसटी एक्ट ) से संबंधित एक अहम फैसला दिया. इसमें ईमानदार सरकारी अधिकारियों को इस एक्टअ के जरिये झूठे केसों में फंसाने से संरक्षण देने की बात कहते हुए एक्टस के प्रावधानों को नरम कर दिया गया. कोर्ट का यह मानना था कि कई लोग इस ऐक्ट् का इस्ते माल ईमानदार सिविल सेवकों को ब्लै कमेल करने के लिए झूठे मामले में फंसाने के इरादे से भी कर रहे हैं. इसलिए इस कानून के जरिये तत्काकल गिरफ्तारी के प्रावधान को कोर्ट ने नरम कर दिया. लिहाजा इसके खिलाफ देश भर के दलित संगठन सड़कों पर उतर आए.
पीठ ने यह भी कहा कि इस कानून के तहत दर्ज ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत देने पर कोई प्रतिबंध नहीं है, जिनमें पहली नजर में कोई मामला नहीं बनता है या न्यायिक समीक्षा के दौरान पहली नजर में शिकायत दुर्भावनापूर्ण पाई जाती है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस कानून के तहत दर्ज मामलों में किसी लोक सेवक या सरकारी कर्मचारी की गिरफ्तारी उसकी नियुक्ति करने वाले प्राधिकार से मंजूरी और गैर लोक सेवक के मामले में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की स्वीकृति से ही की जाएगी, जो उचित मामलों में ऐसा कर सकते हैं. न्यायालय ने कहा कि इसकी मंजूरी देने के कारण दर्ज किए जाने चाहिए और आगे हिरासत में रखने की अनुमति देने के लिए मजिस्ट्रेट को इनका परीक्षण करना चाहिए.
सरकार का कहना है कि एससी- एसटी के कथित उत्पीड़न को लेकर तुरंत होने वाली गिरफ्तारी और मामले दर्ज किए जाने को प्रतिबंधित करने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश इस कानून को कमजोर करेगा. दरअसल, इस कानून का लक्ष्य हाशिये पर मौजूद तबके की हिफाजत करना है. लिहाजा सरकार ने कोर्ट में रिव्यूि पिटीशन दायर की है.
इस मामले में सरकार के भीतर भी मुखर विरोध उठा था. बहराइच से बीजेपी सांसद सावित्री बाई फुले ने इस फैसले का विरोध किया. लोजपा प्रमुख राम विलास पासवान और केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गहलोत के नेतृत्व में राजग के एससी और एसटी सांसदों ने इस कानून के प्रावधानों को कमजोर किए जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर चर्चा के लिए पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी.

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