….एक प्रखर ‘आवाज’ की ‘खामोश’ विदाई !!!क्या …‘वो’ अश्विनीजी को जानते हैं .?
चंद्रशेखर पंडित भुवनेश्वर दयाल उपाध्याय – न्यायविद – लेखक पिछले तीन दशकों से देश की ऊंची अदालतों में हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओँ की प्रतिष्ठा का देशव्यापी अभियान चला रहे हैं
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अश्विनी जी 1985-86 में विद्यार्थी-परिषद् के संगठन मंत्री बन कर आगरा आये थे, ये वो दौर था जब दक्षिणपंथी ताकतें देश में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी, देश के अधिसंख्य हिस्से में कांग्रेस का राज था, उनका विद्यार्थी संगठन तंत्र पर हावी था, ऐसे कठिन समय में अश्विनीजी ने हम किशोरों को स्वाभिमान सिखाया, निडर रहना सिखाया और अपनी बात को किस मजबूती व तार्किकता के साथ रखना है इसका प्रशिक्षण दिया। वे साईकिल पर ही चलते थे, इसलिए नहीं कि संगठन बेहद गरीबी के दौर से गुजर रहा था बल्कि यह सिखाने के लिए कि भारत के भूखे-नंगे, अनपढ़, बीमार, गरीब गांववासी, उनके उजड़े-पिछड़े गाँव और शहर का मजबूर मध्यम वर्ग गर्द-गुबार, तंग-गलियां, विकास की राह ताकते मौहल्ले, हमारी आँखों से ओझल न हो जाएँ।
….90 का दशक, आगरा कॉलेज छात्रसंघ का चुनाव चरम पर था, लगभग आधा-शहर व देहात के कई इलाके पुलिस की कड़ी निगहवानी में थे, देश-भर का मीडिया वहां मौजूद था, चुनाव एक शिक्षा-संस्थान के छात्रसंघ का था, परन्तु हिंदी-पट्टी के कई राजनैतिक दलों व चुनावी-विश्लेषकों की निगाह उस पर थी, कारण साफ़ था कि आगरा कॉलेज का चुनाव ही समूची ‘काऊ बेल्ट’ में दक्षिणपंथियों व वामपंथियों के अलावा कांग्रेस का अगला राजनैतिक रास्ता तय करता था।
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का राष्ट्रीय दायित्व होने के साथ साथ, मैं चुनाव मैदान में भी था, एक दूसरे बड़े कार्यकर्ता आलोक कुलश्रेष्ठ भी महामंत्री पद के उम्मीदवार थे, कई वर्षों बाद चुनाव हो रहे थे, मतदान से पूर्व छुटपुट हिंसक-घटनायें भी वहां हो चुकी थी, माहौल तनावपूर्ण था और विद्यार्थी समेत शहर के नागरिक भी अज्ञात भय से आशंकित थे। परंपरा के अनुसार मतदान से पूर्व सभी प्रत्याशियों को कॉलेज के विद्यार्थियों के बीच बहस करनी होती थी, विद्यार्थी परिषद् का पूरा पैनल अपनी जीत को लेकर आशान्वित था, कारण विद्यार्थियों के बुनियादी सवालों को लेकर हम सबका सतत-संघर्ष । विद्यार्थी परिषद् के उपाध्यक्ष पद के प्रत्याशी के नाते मुझे व महामंत्री पद के प्रत्याशी आलोक को सभा में बोलना था।
उपद्रवी व हार की आशंका से आकुल-व्याकुल तत्व भी पूरी तरह से सक्रिय थे, और वही हुआ जिसका डर था, सभा से पहले ही किसी ने सभा मंच को तहस-नहस कर दिया, विद्यार्थियों में आक्रोश फ़ैल गया। विद्यार्थी परिषद् के समर्थक छात्रावासों व अपने-अपने स्थानों से सड़कों पर आ गए, आगरा की सबसे व्यस्त सड़क महात्मा-गाँधी रोड अब ‘जाम’ थी, राजा मंडी स्थित विद्यार्थी-परिषद् कार्यालय पर हम सभी प्रत्याशियों समेत वरिष्ठ पदादिकारियों की महत्वपूर्ण बैठक चल रही थी, सूचना मिलने पर हम सब एम.जी.रोड की तरफ दौड़ें, विद्यार्थियों का विशाल समूह मरने-मारने पर उद्दत था, पुलिस भी अपनी कार्यवाई के लिए पूरी तरह तैयार थी। अब मोर्चा विद्यार्थी-परिषद् के पूर्णकालिक विस्तारक व हमारे संगठन मंत्री अश्विनी कौशिक जी ने संभाला, वह टूटे हुए मंच पर पहुंचे, आलोक एवं मैं अभी विद्यार्थियों के बीच में थे, तभी एक प्रखर आवाज में नारा गूंजा, ‘वंदेमातरम्’ – समूचे माहौल में सन्नाटा, स्तब्ध विद्यार्थियों की निगाहें मंच की ओर मुड़ गयी, अश्विनीजी को समवेत-स्वर में उत्तर मिला, ‘वंदेमातरम्‘। हम विद्यार्थियों के तुमुल-नारों से उस दिन आगरा की धरती कांप उठी थी, जिन पुलिस वालों ने हम विद्यार्थियों पर प्रहार करने के लिए अपनी लाठियां लगभग उठा ही ली थीं, उन पुलिस वालों ने भी मुट्ठियां बंदकर हवा में हाथ लहराए थे और कहा था, ‘वंदेमातरम्‘।
उस दिन मंच से अश्विनी जी बोले थे, ‘विरोधी हमारी लड़ाई का कोण बदलना चाहते हैं, हार की आशंका से बौखलाए लोग इसे विद्यार्थी बनाम पुलिस – संघर्ष की शक्ल देना चाहते हैं, हमें गर्म-हवाओं को रोकना होगा, नहीं तो यह महामारी की तरह समूचे परिवेश में पसर जाएंगी, फिर विद्यार्थी हितों पर संघर्ष का कोई मतलब नहीं रह जाएगा’। उनका यह भरत-वक्तव्य आज के सन्दर्भों में कितना सटीक बैठता है?
एक प्रदर्शन के दौरान हिंसा व आगजनी पर आमदा भीड़ के बीच बस की छत पर खड़े होकर ‘पहले विद्यार्थी-परिषद् का कार्यकर्ता सुनील जलेगा, तब बस जलेगी’ की ललकार लगाने वाले एवं हिमाचल-प्रदेश में विद्यार्थी-परिषद् की जड़ें ज़माने वाले सुनील उपाध्याय की याद उस दिन उन्होंने विद्यार्थियों को दिलाई।
उन्होंने पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में विद्यार्थी-परिषद् को विलक्षण विस्तार देने वाले अनिल वत्स का नारा दोहराया, ‘हम बड़ी लकीर बनकर विजय-पथ की ओर बढ़ेंगे’। अब विद्यार्थियों की आक्रोशित भीड़ शांत थी, उनकी प्रखर आवाज व वक्तव्य का विद्यार्थियों पर जादुई असर हुआ था और विद्यार्थी वन्देमातरम एवं भारत माता की जय का घोष करते हुए अपने अपने छात्रावासों व कक्षों-घरों की तरफ लौट गए थे, उस दिन उनकी नेतृत्व – क्षमता को आगरा ने देखा था।
अश्विनी जी की सूझबूझ व् सांगठनिक क्षमता व् कुशलता ने एक बड़ी अनहोनी को टाल दिया था, चुनाव का परिणाम उसी दिन तय हो गया था और विद्यार्थी परिषद् अब छात्र संघ भवन के अलावा समूचे विद्यार्थियों के दिलों में भी थी।
कल 5 मई 2020 को रात्रि लगभग बारह बजे कीर्ति के फ़ोन पर मल्लिका भाभी (श्री अश्विनी कौशिक जी की पत्नी) की एक पोस्ट आयी, अश्विनी जी का चित्र और दिवंगत प्रख्यात गजल गायक जगजीत सिंह की पंक्तियाँ, ‘चिट्ठी न कोई सन्देश ……….जहाँ तुम चले गए’। पढ़ते ही अवाक कीर्ति ने मुझसे पुछा , अश्विनी भाई साहब ठीक तो हैं, उनसे कब बात हुई है, आदि इत्यादि। मैं भी पोस्ट पढ़ कर स्तब्ध था, शुरू में मुझे लगा कि शायद भाभी ने मजाक किया है पर मन नहीं माना डरते डरते अश्विनी जी के नंबर पर ही फ़ोन मिलाया और प्रार्थना की कि यह भाभी का मजाक ही हो । फ़ोन उठा, कुछ पल ख़ामोशी, फिर भाभी ने फूट फूटकर रोना शुरू कर दिया , मुझे लगा यह अनहोनी अभी हुई है।
मैं अवाक रह गया कि अश्विनी जी तो पांच अप्रैल को ही गुपचुप हम सबको अलविदा कह गए थे, एक प्रखर आवाज की यह खामोश विदाई – कुछ सवाल छोड़ गयी है और सवालों के घेरे में हैं ….‘वो’ जो पिछले पांच वर्ष ग्यारह माह छह दिन से भारत को ‘फिरसे’ विश्वगुरु बनाने के ‘खेल-आमोद-प्रमोद’ में ‘अस्त-व्यस्त और मस्त’ हैं और ….‘वो’ जिनके लिए एक ही दल और संस्था में लोग ‘इसके लोग’ और ‘उसके लोग’ हैं और ….‘वो’ जिनके लिए ‘व्यक्ति संचय’ एवं ‘संस्कार संचय’ की चर्चा सिर्फ ‘चर्चित’ होने के लिए है और ….‘वो’ जो खिड़कियाँ, रोशनदान और दरवाजे बंद कर ‘ताज़ी और खुली हवा’ को बातें करते हैं, बाहर की हलचल और कोलाहल जिन्हे नामंजूर है और ….‘वो’ जो हर ‘सुदामा’ को अपने ‘द्वार’ पर आने के लिए विवश कर देते हैं, वो सुदामा के घर नहीं जाते क्योंकि वो ‘कृष्ण’ नहीं अब ‘द्वारिकाधीश’ हैं, और ….‘वो’ जो अपनी हर जीत को ‘विनम्रता’ नहीं बल्कि ‘दर्प’ के साथ स्वीकार करते हैं। और ….‘वो’ जिनके लिए भ्रष्टाचार और बेईमानी ऐसी कुटेव हैं जिसके प्रति अरुचि व् घृणा दिखाना जरूरी है लेकिन मौका मिला है तो ‘यह राजनैतिक मजबूरी है, संस्था अथवा दल भी तो चलाना है’ कहकर ‘अपनाना भी जरूरी है’।
अश्विनी जी 1985-86 में विद्यार्थी-परिषद् के संगठन मंत्री बन कर आगरा आये थे, ये वो दौर था जब दक्षिणपंथी ताकतें देश में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी, देश के अधिसंख्य हिस्से में कांग्रेस का राज था, उनका विद्यार्थी संगठन तंत्र पर हावी था, ऐसे कठिन समय में अश्विनीजी ने हम किशोरों को स्वाभिमान सिखाया, निडर रहना सिखाया और अपनी बात को किस मजबूती व तार्किकता के साथ रखना है इसका प्रशिक्षण दिया। वे साईकिल पर ही चलते थे, इसलिए नहीं कि संगठन बेहद गरीबी के दौर से गुजर रहा था बल्कि यह सिखाने के लिए कि भारत के भूखे-नंगे, अनपढ़, बीमार, गरीब गांववासी, उनके उजड़े-पिछड़े गाँव और शहर का मजबूर मध्यम वर्ग गर्द-गुबार, तंग-गलियां, विकास की राह ताकते मौहल्ले, हमारी आँखों से ओझल न हो जाएँ।
वे पांच अप्रैल की शाम तक संगठन के सवालों पर सक्रिय रहे, उधर उनकी हालत बिगड़ रही थी, इधर वे अपनी पोस्ट पर देशवासियों से कोरोना-सेनानियों के सम्मान में दीपक प्रज्ज्वलित करने का आह्वान कर रहे थे, उनकी असमय विदाई से पहले ही उनके असंख्य कार्यकर्ताओं ने दीपक प्रज्ज्वलित कर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित कर दी थी, एक समर्पित अदीब को उसके समर्पित शुभचिंतकों की तरफ से मिला यह स्नेह और सम्मान दुनिया में मिलने वाले किसी सबसे बड़े पुरस्कार से भी बड़ा पुरस्कार माना जाना चाहिए।
गोविंदाचार्य, मदन दास देवी, दत्तात्रेय होसबोले, उस समय के राजीव कुमार शर्मा और अब जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी राजराजेश्वरानन्द महाराज, सुशील मोदी, हरेंद्र कुमार, अनिल वत्स, राधेश्याम जी, सुनील उपाध्याय, बलराम यादव, नरेंद्र टंडन, दिनेश, जयराम ठाकुर, जे.पी.नड्डा, नागेंद्र कुमार, अतुल भाई कोठारी, अश्विनीजी, राकेश चतुर्वेदी जी, आलोक, भास्कर नैथानी और मैं, विद्यार्थी परिषद में एक ही दौर में सक्रिय और आंदोलित रहे, आलोक और मैं आयु में सबसे छोटे थे, तो अश्विनीजी का स्नेह और डाँट सबसे ज्यादा हम दोनों के ही हिस्से में आती थी, हमारी गलती पर टोकते, डांटते, फिर रोते, फिर रात में कुल्हड़ का दूध पिलाने यादव हलवाई के यहाँ ले जाते।
इतिहास का खेल बहुत ऊँचा होता है, दक्षिणपंथी ताकतें मजबूती के साथ सत्ता पर आरूढ़ हो गई जो लोग संगठन की बजाय चुनाव-केंद्रित कार्य-पद्दति पर आश्रित थे, वे सरकार के अलावा संगठनों में भी ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर काबिज हो गए, पर न अश्विनीजी बदले और न उनके हालात। वे दुनियावी दिक्कतों से बेपरवाह दल व संस्था की सेवा करते रहे।
वे ‘पूँजी’ और ‘संघर्ष’ के बीच तेजी से पनप रही ‘नई-मित्रता’ के धुर-विरोधी थे, सत्ता पाने वालों का तर्क था की ‘पूँजी’ और ‘संघर्ष’ की अन्योन्याश्रयता या मित्रता पुरानी है और वह कुछ ऐसी रही है कि उसके नाजायज होने की ओर नज़र कम ही जाती रही है, प्रायः ‘संघर्ष’ के हल्क़ों में यह सर्वानुमति सी ही है कि ‘थोड़ी बहुत इमदाद जरूरी है, जो ले लेनी चाहिए’ लेकिन छोटे-स्तर पर ‘संघर्ष’ में तकलीफ की हल्की सी लकीर खिंची हमेशा देखी जाती रही है कि ‘हमें समझौता करना पड़ा है’, एक मुक्ति बोधीय किस्म का अपराध-बोध छोटे-स्तर पर आम रहा ही है और रहेगा। बाजार के माल के रूप में ‘संघर्ष’ को तब्दील होने को लेकर वाल्टर बेंजामिन से लेकर पियरे बोदरेउ ने पश्चिम में खूब विचार किया है।
प्रख्यात विचारक थियानो ने लिखा है, ‘विचार और संघर्ष जितना सिंहासन के करीब आते जाते हैं, उतना ही अपने बुनियादी सवालों, अभियान और काडर से दूर चले जाते हैं, एक वक्त ऐसा आता है जब राजा और उसका सिंहासन नितांत अकेले रह जाते हैं, राजा अपने काडर का भरोसा खो देता है और वो काडर फिर दोबारा लौटता नहीं, राजा और सिर्फ राजा ही बने रहने की यह प्रदूषित मनोवृत्ति उसके ‘अंत’ का निशान बन जाती है’ लेकिन सत्ता पाने वालों ने लगता है किसी श्लाका पुरुषों को कभी पढ़ा ही नहीं।
वे जानते थे कि यह राम जैसे वीतरागी राजा का देश है, चाणक्य जैसे त्यागियों-वैरागियों का राष्ट्र है। उनकी खामोश विदाई की शोकांतिका एवं संताप यह है कि उन्होंने जिसको माना उन्होंने उन्हें कभी अपना माना ही नही। संगठन की ‘गरीबी’ और ‘संघर्ष’ के दौर में ऐसे समर्पित जीवनव्रती कार्यकर्ता जहाँ ‘समाधान’ होते हैं वही राजसिंहासन मिलते ही वे राजा के लिए ‘समस्या’ और ‘सवाल’ बन जाते हैं।
अश्विनीजी को संगठन ने जो भी छोटा-मोटा दायित्व सौंपा उन्होंने कभी उसकी शिकायत किसी से नहीं की। अश्विनीजी की असमय ‘खामोश विदाई’ असंख्यों समर्पित देशभक्त कार्यकर्ताओं के संरक्षक की विदाई है, मैं इस आलेख को लिखते-लिखते कई बार रोया हूँ, असंख्यों आलेख मैंने लिखे, पर आज कई बार लगा जैसे ‘आखर’ ख़त्म हो गए हों। उन्होंने कार्यकर्ताओं से संवाद स्थापित किया था, आम कार्यकर्ताओं का भरोसा जीता था, उन्होंने कार्यकर्ताओं से वैचारिक तालमेल बनाकर तमाम परिभाषाओं एवं विश्लेषणों को तोड़ा था।
मुझे लगता है कि हम जितना भव्य व आलीशान भवन बना लें अनिल वत्स, सुनील उपाध्याय व अश्विनी कौशिक जी जैसे जीवनव्रती कार्यकर्ता सदैव उसकी नीव में नीचे गढ़े हुए मिलेंगे। राजनय-विद्रूपता और ऐसे जीवनव्रतियों की निरंतर ‘उपेक्षा’ एवं ‘अपमान’ पर अब निम्न पंक्तियों पर आकर ‘आखर’ ख़त्म हो गए हैं।
‘बौने जबसे मेरी बस्ती में आकर रहने लगे हैं,
रोज कद्दौक़द्दावत के झगड़े होने लगे हैं,
मुझे सोने दो, मत जगाओ,
वरना
हस्ती का हिसाब होने लगे है।’
असंख्योंसमर्पितकार्यकर्ताओंकीओरसेअश्विनीजीआपकोसादर – वन्देमातरम।
चंद्रशेखर पंडित भुवनेश्वर दयाल उपाध्याय न्यायविद
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