परिवार आत्मीय संबंधों के ताने-बाने से गुंथा एक पवित्र वस्त्र

 

नारी ही नारी की दुश्मन क्यों? नारी को जननी माना गया है, जननी एक ऐसे घर का निर्माण करे जिसमें प्यार की छत हो, विश्वास की दीवारें हों, सहयोग के दरवाजे हों, अनुशासन की खिड़कियाँ हों और समता की फुलवारी हो। तथा उसका पवित्र आँचल सबके लिए स्नेह, सुरक्षा, सुविधा, स्वतंत्रता, सुख और शांति का आश्रय स्थल बने, ताकि इस सृष्टि में चाहे सास हो या चाहे बहू आत्महत्या करने को विवश न हो।

presents by www.himalayauk.org (Leading Digital Newsportal & Print Media)

परिवार को पतन की पराकाष्ठा न बनने दे

-ललित गर्ग –

वर्तमान दौर की एक बहुत बड़ी विडम्बना है कि पारिवारिक परिवेश पतन की चरम पराकाष्ठा को छू रहा है। अब तक अनेक नववधुएँ सास की प्रताड़ना एवं हिंसा से तंग आकर भाग जाती थी या आत्महत्याएँ कर बैठती थी वहीं अब नववधुओं की प्रताड़ना एवं हिंसा से सास उत्पीड़ित है, परेशान है। वे भी अब आत्महत्या का सहारा ले रही हंै, जो कि न केवल समाज के असभ्य एवं त्रासद होने का सूचक है बल्कि नयी बनी रही पारिवारिक संरचना की एक चिन्तनीय स्थिति है। आखिर ऐसे क्या कारण रहे हैं जो सास जिन्हें सासू मां भी कहा जाता है, आत्महत्या को विवश हो रही है। इसका कारण है हमारी आधुनिक सोच और स्वार्थपूर्ण जीवन शैली। हम खुलेपन और आज़ादी की एक ऐसी सीमा लांघ रहे हैं, जिसके आगे गहरी ढलान है। ऐसा लग रहा है कि व्यक्ति केवल अपनी सोच रहा है, परिवार नाम का शब्द उसने शब्दकोश में वापिस डाल दिया। तने के बिना शाखाओं का और शाखाओं के बिना फूल-पत्तों का अस्तित्व कब रहा है? परिवार कुछ व्यक्तियों का समूह नहीं है, खून और आत्मीय संबंधों के ताने-बाने से गुंथा एक पवित्र वस्त्र है और इसका वस्त्रहरण न होने दे।

हालही में राजधानी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में बेटे और बहू से आए दिन होने वाले झगड़ों से परेशान होकर एक सास का आत्मदाह करना बहुत ही दुखद एवं शर्मसार करने वाली घटना है। यह घटना सीधे तौर पर संस्कारों के पतन की कहानी बयां कर रही है। पांच वर्ष पूर्व इसी महिला ने बेटे-बहू का प्रेम विवाह कराया था। मतलब, उनकी खुशी के लिए शायद अपने अरमानों का भी गला घोंट दिया था, लेकिन वही बहू अपने सास-ससुर को प्रताड़ित करने लगी। हालात ऐसे हो गए कि सास-ससुर परेशान रहने लगे। ससुर तो फिर भी कामधंधे के लिए घर से बाहर चले जाते थे, लेकिन सास के लिए जीना मुश्किल हो गया। जैसे ही मौका मिला, इस महिला ने घर में ही खुद को जलाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। घटना बहुत ही दुखद है और यह आम परिवारों की समस्या एवं त्रासदी बनती जा रही है।

परिवार होता क्या है? ऐसे लोगों का समूह जो भौतिक और मानसिक स्तर पर एक-दूसरे से प्रगाढ़ता से जुड़ा हो। जिसके सभी सदस्य अपना फर्ज पूरी ईमानदारी से करते हुए उदारतापूर्वक एक-दूसरे के लिये त्याग और सहयोग करते हैं। ऐसे क्या कारण हैं कि पारिवारिक प्रगाढ़ता अब प्रताड़ना बनती जा रही है। जिन बच्चों की खुशी के लिए माता-पिता हंसते-हंसते सबकुछ कुर्बान कर देते हैं, अगर वही उनकी मौत का कारण बन जाएं तो इससे ज्यादा दुखद क्या होगा। कोई भी इंसान अपने परिवार का विस्तार चाहता है, उसका विघटन नहीं। मतभेद चाहे छोटा हो या बड़ा, हंसते-खेलते परिवार को तबाह कर देता है। 

परिवार की खुशहाली और समृद्धि तभी संभव है जबकि परिवार का कोई भी सदस्य स्वार्थी, विलासी और दुर्गुणी न हो। यदि परिवार में कर्तव्यों के प्रति पूरी आस्था और समर्पण होगा तो वे अच्छी तरह से समझ पाएंगे कि स्वार्थ की बजाय स्नेह-सहयोग का माहौल ही फायदेमंद है। किसी भी परिवार में अलगाव, बिखराव या मन-मुटाव तभी पैदा होता है जबकि सदस्यों में अपने कर्तव्य की बजाय अधिकार को पाने की अधिक जल्दी होती है। आज की नयी जीवनशैली में आदर की जगह अधिकार भावना अधिक पनप रही है। विचारणीय पहलू यह भी है कि लोग विकास की दौड़ में शहरों की ओर भाग तो रहे हैं, लेकिन संस्कारों की जड़ गांव में ही छोड़ते जा रहे हैं। वह खुद नहीं समझ पा रहे है कि वह भीतर से कितने खोखले होते जा रहे हैं और परिवारों को भी खोखला कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में ‘परिवार’ की संस्कृति को बचाना होगा। इसमें हमें कट्टरवादिता का पाखण्ड नहीं पालना है और व्यक्ति की आजादी हो अमर्यादित भी नहीं होने देना है। अपनी संस्कृति को काल क्षेत्र के अनुरूप ढालना है।

परिवार में बिखराव क्यों होता है? जब परिवार में संयुक्त हितों से जुड़े फैसले कई बार एकतरफा ले लिए जाते हैं। बड़े अपने हिसाब से निर्णय लेते हैं, छोटे उसे अपने पर थोपा हुआ मानते हैं। बस यहीं से शुरू होती है परिवार से बाहर की ओर निकलने वाली राहें। छोटे विद्रोही स्वर लेकर परिवार से अलग हो जाते हैं या परिवार में ही रहकर सौहार्दपूर्ण वातावरण को लील देते है। ‘परिवार’ को स्वस्थ बनाना कोई उत्पाद नहीं है। यह तो जीवन है, इसे जीवन्त बनाना होगा।

नारी ही नारी की दुश्मन क्यों? नारी को जननी माना गया है, जननी एक ऐसे घर का निर्माण करे जिसमें प्यार की छत हो, विश्वास की दीवारें हों, सहयोग के दरवाजे हों, अनुशासन की खिड़कियाँ हों और समता की फुलवारी हो। तथा उसका पवित्र आँचल सबके लिए स्नेह, सुरक्षा, सुविधा, स्वतंत्रता, सुख और शांति का आश्रय स्थल बने, ताकि इस सृष्टि में चाहे सास हो या चाहे बहू आत्महत्या करने को विवश न हो।

हम जितने आधुनिक हो रहे है, हमारे नैतिक मूल्य उतने ही गिरते जा रहे हैं। रिश्तों में व्यावहारिकता की जो लहर चली है उसने कई नातों को धराशायी कर दिया है। अब रिश्ते दिलों के नहीं, सिर्फ लाभ-हानि के रह गए हैं। हम जितने प्रोफैशनल हुए हैं, परिवारों में दुराव बढ़ा है। हमारे इस प्रोफेशनलिज्म की कीमत संभवतः परिवारों ने भी चुकाई है। महानगरीय संस्कृति उपभोक्तावाद का शिकार होकर रह गई है। हर कोई न जाने किस अंतहीन दौड़ में भागा जा रहा है। इसमें इतना भी ध्यान नहीं है कि कितना कुछ पीछे छूटता जा रहा है। माता-पिता तो जीवन रूपी वृक्ष की जड़ हैं और जड़ के सूखने से कोई भी वृक्ष हरा-भरा नहीं रह सकता। इसलिए संबंधों की कद्र करनी चाहिए। सभी रिश्ते जीवन में समान अहमियत रखते हैं। महानगरीय तनाव को जीवन पर इतना भी हावी न होने दें कि वह रिश्तों पर भारी पड़ने लगे। जीवन के हर क्षेत्र और रिश्ते में संतुलन बनाना जरूरी है। परिवार के सदस्य परस्पर समझौतावादी दृष्टिकोण लेकर चलें और विचार-फर्क की कठिन स्थितियों में संवाद बंद न होने दे। नेगोसिएशन… की प्रणाली समस्याओं के समाधान में नई दिशा दे सकती है।

महाभारत में देखिए कौरवों का परिवार, वहां संस्कारों एवं मूल्यों की लगभग अनदेखी ही हो गई। सत्ता और पुत्र-प्रेेम के मोह में धूतराष्ट्र ने संस्कारों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। मद में चूर दुर्योधन ने भी संस्कारों और मर्यादाओं का उल्लंघन करना शुरू कर दिया। पिता पुत्र- प्रेम में दृष्टिहीन था, पुत्र सत्ता के मद में अंधा। अपने ही भाइयों को दुर्योधन ने पिता के नाम से जुआ खेलने के लिए आमंत्रित किया, धृतराष्ट्र कुछ नहीं बोले। द्रौपदी को भरी सभा में निर्वस्त्र करने का प्रयास किया तो भी कौरव परिवार के सारे लोग चुप रहे। परिवार में सभ्यता और संस्कृति दोनों का ही नाश हो गया। यह दरअसल सिर्फ इसलिए हुआ कि दुर्योधन को अनुचित अधिकार और प्रेम मिलने लगा। धृतराष्ट्र ने राजा होते हुए भी पुत्रमोह की परंपरा को परिवार में प्रवेश दे दिया। एक गलत परंपरा को घर में लाते ही पूरा कौरव परिवार नष्ट हो गया। आज उन्हीं विडम्बनापूर्ण स्थितियों की शक्ल बदलकर पुनरावृत्ति हो रही है। ‘परिवार’ संस्था की कुण्डली में सदैव संघर्ष का योग रहता है। पर यह सर्व स्वीकृत है कि जो संघर्ष करता है वही जीवित रहता है। लेकिन संघर्ष मूल्यों के लिए हो, अच्छे के लिये हो, सौहार्द के लिये हो।

सभ्य समाज की नींव सभ्य परिवार से पड़ती है। संस्कारों का प्रवाह परिवार से समाज की ओर जितनी तेजी से जाता है, उतनी ही गति से समाज से परिवार की ओर आता भी है। संस्कारों का प्रवाह ही परंपराओं को जीवन प्रदान करता है। अगर परिवार से गलत परंपराओं की शुरुआत हो जाए तो समाज भी उससे अछूता नहीं रहेगा। यदि आदर्शों और मर्यादाओं के गिरते स्तर के प्रति कठोर प्रतिक्रिया नहीं होती तो लोगों का चरित्र गिरने लगता है यानि कि वे और भी अधिक उद्दण्ड और मनमौजी हो जाते हैं। 

आज जबकि हमारे देश में नया भारत एवं नए मनुष्य निर्मित करने की की बात हो रही है, परिवार के नए स्वरूप की पृष्ठभूमि तैयार करने का यही वक्त है। ‘परिवार संस्था’ को टूटने से बचाना कठिन जरूर है पर सुख-समृद्धि इसी जमीन पर उगते हैं। नयी परिवार संस्था में अनुशासन आरोपित न हो अपितु व्यक्ति से आविर्भूत हो। ताकि कोई सास जीवन लीला समाप्त करने की न सोचे। विश्वभर में जब मानवीय उदात्तताएं हाशिए पर जा रही हैं तब नैतिक मूल्यों पर आधारित एक स्वस्थ परिवार की रूपरेखा खड़ी करने की आवश्यकता है।  

www.himalayauk.org (HIMALAYA GAURAV UTTRAKHAND) 

(ललित गर्ग)

ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट

25, आई0पी0 एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92, फोन: 22727486

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *