रमन सरकार की शराब नीति ने बीजेेेेपी को डूबो दिया


कांग्रेस का छत्तीसगढ़ में 15 साल का वनवास खत्म हो गया है.  छत्‍तीसगढ़ विधानसभा चुनाव 2018 में सूबे की नई शराब नीति विपक्षी दलों के प्रमुख मुद्दों में एक था. छत्‍तीसगढ़ में बीजेपी के खिलाफ खड़े लगभग सभी राजनैतिक दलों ने शराब नीति के मुद्दे पर रमन सिंह की सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इस मुद्दे पर रमन सरकार को न केवल गांव बल्कि कस्‍बों और शहरों में भी भारी विरोध का सामना करना पड़ा. विधानसभा चुनाव से पहले ज्‍यादातार लोग इस बात से सहमत दिखे थे कि बीजेपी की सरकार अपनी नई शराब नीति के जरिए लोगों को शराब पीने के लिए प्रेरित कर रही है. इस नीति को लेकर महिलाओं में सर्वाधिक नाराजगी थी. 

ज्ञात हो कि इससे पूर्व उत्‍तराखण्‍ड में भी हरीश रावत सरकार की शराब नीति का भी चौतरफा विरोध था, हरीश रावत सरकार के पतन के कारणो में एक मुख्‍य कारण शराब नीति भी मुख्‍य थी, यह बात अलग है कि उत्‍तराखण्‍ड में हरीश रावत सरकार के बाद आई भाजपा की त्रिवेन्‍द्र रावत सरकार की शराब नीति का गाॅॅव गॉव, सम्‍पूर्ण पर्वतीय क्षेत्रो  तथा महिलाओ में भी नाराजगी है, भविष्‍य में इसका भी दूरगामी असर पड सकता है, शायद उस समय अहसास हो, बहरहाल अभी तो नही है, और सरकार के सलाहकार आदि में जनता से निकटता की कमी के कारण तारत्‍म्‍य का अभाव है,

 छत्‍तीसगढ़ विधानसभा चुनाव 2018 से ठीक पहले छत्‍तीसगढ़ जनता कांग्रेस और बीएसपी के बीच हुए गठबंधन को बीजेपी की जीत की संभावना के तौर पर देखा जा रहा था. इस गठबंधन के बाद न केवल राजनैतिक विश्‍लेषक बल्कि कांग्रेस ने भी यह कहना शुरू कर दिया था कि अजीत जोगी छत्‍तीसगढ़ के मौजूदा मुख्‍यमंत्री डॉ. रमन सिंह का पुराना कर्ज उतारने की कोशिश कर रहे हैं. इस गठबंधन के बाद कांग्रेस को विधानसभा चुनाव 2018 से बाहर मान लिया गया था. लेकिन चुनाव के नतीजे लोगों की आकलन के विल्‍कुल विपरीत आए. 

रायपुरमें बीजेपी की करारी हार अपनी पहली प्रतिक्रिया देते हुए मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कहा 
मैं हार की नैतिक जिम्मेदारी लेता हूं, कांग्रेस को जीत की शुभकामनाएं देता हूं. मुख्यमंत्री ने कहा कि अगर मैं जीत का श्रेय लेता हूं तो मुझे हार की जिम्मेदारी भी स्वीकार करनी होगी.  मुख्यमंत्री ने कहा कि यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे 15 सालों तक राज्य की जनता की सेवा करने का मौका मिला.  

कांग्रेस छत्‍तीगसढ़ में 65 सीटों पर बढ़त हासिल कर सरकार बनाने के बेहद करीब पहुंच गई है. अब छत्‍तीसगढ़ में  कांग्रेस की जीत और बीजेपी की हार के लिए सबसे बड़ा कारण अजीत जोगी ही माने जा रहे हैं. दरअसल, छत्‍तीसगढ़ में बीजेपी का सवर्णों के साथ-साथ अनसूचित जाति वर्ग में भी बड़ा जनाधार था. अजीत जोगी और बीएसपी के बीच गठबंधन के बाद अनसूचित जाति का बड़ा वर्ग बीजेपी से अलग होकर अजीत जोगी और बीएसपी के गठबंधन की तरफ चला गया. यह वर्ग अजीत जोगी को सूबे में निर्णायक जीत तो नहीं दिला सका, बल्कि बीजेपी की हार का बड़ा कारण जरूर बन गया. 

किसानों की नाराजगी: 
2013 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने किसानों से धान का समर्थन मूल्‍य2100 रुपए और 300 रुपए बोनस देने का वादा किया था. रमन सिंह की सरकार किसानों से किए इस वादे को पूरा नहीं कर पाई. विधानसभा चुनाव करीब आने पर बीजेपी सरकार को किसानों की नाराजगी समझ आने लगी. यही वजह थी कि जुलाई 2018 में रमन‍ सिंह सरकार ने किसानों को धान का समर्थन मूल्‍य 1750 रुपए प्रति क्‍विंटल कर दिया. हालांकि इस इजाफे के बावजूद किसानों का असंतोष खत्‍म नहीं हुआ. मजबूरन रमन सिंह सरकार को नवंबर 2018 में एक बार फिर धान का समर्थन मूल्‍य बढ़ाना पड़ा. वहीं किसानों की आत्‍महत्‍या की बढ़ती घटनाओं से भी किसानों में बीजेपी सरकार को लेकर भारी रोष था. 

सूबे का नक्‍सलवाद 
छत्‍तीसगढ़ में नक्‍सलवाद की समस्‍या बीते कई वर्षों से जस की तस बनी हुई है. नक्‍सलवाद पर लगाम कसने के लिए राज्‍य सरकार द्वारा कारगर उपाय न किए जाने की वजह से स्‍थानीय जनता लंबे समय से बीजेपी से नाराज चल रही थी. 2013 में प्रतिपक्ष के प्रमुख नेता नंद कुमार पटेल की नक्‍सलियों द्वारा हत्‍या किए जाने के बाद यह नाराजगी बढ़ती चली गई. लोगों की नाराजगी भांपकर मुख्‍य विपक्षी दलों ने रमन सिंह पर सीधे तौर पर निशाना साधना शुरू कर दिया. राज्‍य में बेलगाम हो चुके नक्‍सलवाद को विपक्षी दलों ने बीजेपी की नाकामी की तौर पर पेश किया. जिसका खामियाजा बीजेपी को विधानसभा चुनाव 2018 में उठाना पड़ा. 

सवर्ण आंदोलन
विधानसभा चुनाव 2018 से ठीक पहले एससी-एसटी एक्‍ट और आरक्षण को लेकर केंद्र सरकार के कदम ने राज्‍य के सवर्णों को खासा नाराज कर दिया. जिन सवर्णों को बीजेपी का पारंपरिक वोट माना जाता था, वही सवर्ण बीजेपी के खिलाफत में खडे हो गए. राज्‍य में विधानसभा चुनाव से पहले सवर्णों द्वारा कई बड़े आंदोलन किए गए. सवर्णों के इस आंदोलन को लेकर बीजेपी आलाकमान के लापरवाह नजरिए और मौन ने लोगों का गुस्‍सा और बढ़ा दिया. वहीं बीजेपी अंत तक इसी गलतफहमी में रही कि सवर्णों के पास कोई विकल्‍प न होने की वजह से वह अंत में उसे ही वोट देंगे. हालांकि मतदान के दौरान ऐसा नहीं हुआ. सवर्णों ने एकजुट होकर बीजेपी का विरोध किया और कांग्रेस के पक्ष में आ खडे हुए. इसका खामियाजा बीजेपी को विधानसभा 2018 का चुनाव हार कर चुकाना पड़ा. 

बीजेपी पर उल्‍टा पड़ा विकास का दाव
बीजेपी ने न केवल 2013 का विधानसभा चुनाव बल्कि 2014 का लोकसभा चुनाव विकास के मुद्दे पर जीता था. बीजेपी का यही मुद्दा उनके लिए 2018 के विधानसभा चुनाव में हार का कारण बन गया. दरअसल, बीजेपी की सरकार ने सूबे में उतना विकास नहीं किया था, जितना वह प्रचारित कर रही थी. टूटी हुई मुख्‍य सड़कें, दूर दराज के गांवों में संपर्क मार्गों की गैरमौजूदगी, जर्जर हो चुकी स्‍कूल की इमारतें, शिक्षकों का अभाव, वन अधिकार कानून, स्वास्थ्य सुविधा, डॉक्टर्स की नियुक्ति आदि मुद्दों को लेकर मतदाताओं में खासी नाराजगी दिखी. वहीं, सूबी में बढ़ती बेरोजगारी और तमाम दावों के बावजूद औद्योगिक निवेश न होने के चलते युवा वर्ग में सरकार को लेकर खासी नाराजगी थी. इसी का नतीजा था कि बीजेपी सूबे में चौथी बार सरकार बनाने से चूक गई. 

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