हरिद्वार में तमिल दलित संत तिरूवल्लुवर की प्रतिमा- हरीश को मिला श्रेय

TAMIL POET 1वाल्मीकि की तरह इनका जन्म भी एक दलित परिवार में ही हुआ #तिरुवल्लुवर को तमिल परंपरा में परैयार के रूप में पहचाना गया #तिरुक्कुरल तमिल की एक सबसे श्रद्धेय प्राचीन कृति है# भारतीय उपमहाद्वीप (कन्याकुमारी) के दक्षिणी सिरे पर संत तिरुवल्लुवर की 133 फुट लंबी प्रतिमा # हरीश रावत को मिला श्रेय- (www.himalayauk.org) UK Leading Digital Newsportal; Special Article; CS JOSHI- Editor ‘

#जैन विद्वान् और कई इतिहासकार मानते है की तिरुवल्लुवर एक जैन मुनि थे, क्यूंकि तिरुक्कुरल का पहला अध्याय जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को समर्पित है | इसके आलावा तिरुक्कुरल की शिक्षाएं जैन धर्म की शिक्षाओं से मेल खाती है | भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित पुस्तक कुरल काव्य में भी तिरुवल्लुवर के जैन होने की बात स्पष्ट लिखी है |

#” जैसे पानी जिस मिटटी में वो बहता है उसके अनुसार बदलता है , इसी प्रकार व्यक्ति अपने मिलने वालों के चरित्र को आत्मसात करता है.” ” यहाँ तक कि उत्तम पुरुष जो मन की पूरी अच्छाई रखता है वह भी पवित्र संग से और मजबूत होता है.”

हरिद्वार के मेला भवन परिसर में संत तिरूवल्लुवर की प्रतिमा की स्थापना में सहयोग के लिए तमिलनाडु की मुख्यमंत्री सुश्री जयललिता ने उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री हरीश रावत का आभार व्यक्त किया है। इसके जवाब में मुख्यमंत्री हरीश रावत ने पत्र के माध्यम से मुख्यमंत्री जयललिता को आश्वासन देते हुए कहा कि उत्तराखण्ड सरकार महान तमिल कवि एवं संत तिरूवल्लुवर की प्रतिमा को स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध है। उन्होंने कहा कि संत तिरूवल्लुवर विश्व के सभी क्षेत्रों विशेषकर भारत के लोगों के लिए हमेशा से प्रेरणास्रोत रहे हैं। ये हमारे राज्य के लिए गर्व की बात है कि महान संत तिरूवल्लुवर की प्रतिमा हरिद्वार के मेला भवन परिसर में स्थापित की जा रही है।
मुख्यमंत्री श्री रावत ने कहा कि उत्तराखण्ड में प्रतिमा स्थापित होने से दुनियाभर से आने वाले तीर्थयात्रियों को संत तिरूवल्लुवर के दर्शन का एक अवसर मिलेगा। मुख्यमंत्री श्री रावत ने मुख्यमंत्री जयललिता को प्रदेशवासियों की ओर से उत्तराखण्ड आकर इस प्रतिमा सहित बद्रीनाथ व केदारनाथ धाम के दर्शन करने हेतु आमंत्रित भी किया। मुख्यमंत्री श्री रावत ने तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम. करूणानिधि को भी पत्र लिखकर संत तिरूवल्लुवर की प्रतिमा स्थापित करने हेतु समर्थन और मार्गदर्शन के लिये आभार व्यक्त किया एवं बद्रीनाथ एवं केदारनाथ की यात्रा हेतु भी आमंत्रित किया। उन्होंने तमिलनाडु की जनता का आभार भी व्यक्त किया।

इससे पूर्व सूबे मे प्रेसीडेंट रूल के दौरान बीजेपी सांसद तरुण विजय दक्षिण में वोट रिझाने के लिए सुदूर उत्तर में दलितों के रहनुमा बनने के प्रयास में लगे थे। दक्षिण के एक संत की हाथी से भी भारी प्रतिमा को उत्तराखंड में स्थापित करने की उनकी मंशा पर तीन बार पानी फिरा है। पहले राजधानी में, वह के बाद हरकीपौड़ी पर उचित स्थान के चक्कर में विरोध झेलना पड़ा। जिसके बाद मूर्ति को शंकराचार्य चौक के निकट स्थापित करने की योजना पर काम करते हुए। आदि गुरु शंकराचार्य से जुड़े दशनाम नागा सन्यासियो के 13 अखाड़ो के संतो ने शंकराचार्य की निकट अन्य संत की मूर्ति लगाने का विरोध किया था।

तमिल कवि थिरुवल्लुवर की प्रतिमा हरकी पैड़ी क्षेत्र में लगाने के विवाद के बाद हरिद्वार में प्रतिमा स्थापना समारोह आयोजित हुआ। कार्यक्रम में कवि की प्रतिमा का अनावरण कर दिया गया। प्रख्यात तमिल कवि हैं जिन्होंने तमिल साहित्य में नीति पर आधारित कृति थिरूकुरल का सृजन किया। उन्हें थेवा पुलवर, वल्लुवर और पोयामोड़ी पुलवर जैसे अन्य नामों से भी जाना जाता है।
तिरुवल्लुवर का जन्म मायलापुर में हुआ था। उनकी पत्नी वासुकी एक पवित्र और समर्पित महिला थी, एक ऐसी आदर्श पत्नी जिसने कभी भी अपने पति के आदेशों की अवज्ञा नहीं की और उनका शतशः पालन किया। तिरुवल्लुवर ने लोगों को बताया कि एक व्यक्ति गृहस्थ या गृहस्थस्वामी का जीवन जीने के साथ-साथ एक दिव्य जीवन या शुद्ध और पवित्र जीवन जी सकता है। उन्होंने लोगों को बताया कि शुद्ध और पवित्रता से परिपूर्ण दिव्य जीवन जीने के लिए परिवार को छोड़कर सन्यासी बनने की आवश्यकता नहीं है। उनकी ज्ञान भरी बातें और शिक्षा अब एक पुस्तक के रूप में मौजूद है जिसे ‘तिरुक्कुरल’ के रूप में जाना जाता है। तमिल कैलेंडर की अवधि उसी समय से है और उसे तिरुवल्लुवर आन्दु (वर्ष) के रूप में संदर्भित किया जाता है।
तिरुवल्लुवर के अस्तित्व का समय पुरातात्विक साक्ष्य के बजाय ज्यादातर भाषाई सबूतों पर आधारित है क्योंकि किसी पुरातात्विक साक्ष्य को अभी तक निर्धारित नहीं किया गया है। उनके काल का अनुमान 200 ई.पू. और 30 ई.पू. के बीच लगाया गया है।
तिरुवल्लुवर (तिरु वल्लुवर) नाम तिरु (एक तमिल शब्द जिसका अर्थ माननीय होता है, जो श्री के समान है) और वल्लुवर (तमिल परंपरा के अनुसार वल्लुवन के लिए एक विनम्र नाम) से बना है। उनके वास्तविक नाम के बजाए वल्लुवन नाम एक सामान्य नाम है जो उनकी जाति / व्यवसाय का प्रतिनिधित्व करता है। बहरहाल, थीरूकुरल (वल्लुवन) के लेखक का नाम उनके समुदाय पर रखा गया है या उसके विपरीत, यह सवाल आज तक अनुत्तरित बना हुआ है।
प्रतिमा का अनावरण मेघायल के राज्यपाल वी. षणमुखनाथन, यूपी के राज्यपाल राम नायक और राज्यसभा सांसद तरुण विजय ने किया।यह कार्यक्रम डाम कोठी के सभागार में आयोजित किया गया था। कवि थिरुवल्लुवर की प्रतिमा भी यहीं रखी गई है।
उस दिन कार्यक्रम में उत्तराखंड सीएम हरीश रावत और राज्यपाल केके पॉल को भी आना था, लेकिन वह कार्यक्रम में नहीं पहुंचे। आयोजकों की ओर से बताया गया कि अभी कवि थिरुवल्लुवर की प्रतिमा कहा स्थांपित होगी इसका निर्णय नहीं लिया गया है। कार्यक्रम में मेघालय के राज्यपाल और यूपी के राज्यपाल पहुंचे हैं।

उधर, प्रशासन ने प्रतिमा को हरकी पैड़ी की बजाय शंकराचार्य चौक के पास गंगनहर किनारे लगाने की तैयारी की तो हंगामा मच गया। इसकी जानकारी होते ही बड़ी संख्या में संत चौक पर पहुंचे और विरोध प्रदर्शन करने लगे।
इसी बीच कार्यक्रम में आयोजक पूर्व राज्यसभा सांसद तरुण विजय मौके पर पहुंचे और संतों को समझाने की कोशिश की, पर संत किसी भी कीमत पर मानने को तैयार नहीं हुए।
मंगलवार रात करीब साढ़े दस बजे बड़ी संख्या संत शंकराचार्य चौक पहुंचे और यहां तमिल कवि थिरुवल्लुवर की प्रतिमा लगाने का विरोध किया।

वही किंवदंतियां रही हैं शैव, वैष्णव, जैन, बौद्ध सम्प्रदायों का तर्क है कि तिरुवल्लुवर उनसे संबंधित हैं। तिरुवल्लुवर के जन्म के बारे में कुछ किंवदंती भी रही हैं जिसमें उन्हें एक जैन समानार संत या एक हिंदू कहा गया है। लेकिन उनके धर्म के बारे में कोई सबूत उपलब्ध नहीं है| कमात्ची श्रीनिवासन “कुरल कुराम समयम”, तिरुक्कुरल प्रकाशन, मदुरै कामराज विश्वविद्यालय, 1979 | इस कृति का आरम्भ सर्वशक्तिमान भगवान को सादर प्रणाम करते हुए एक अध्याय से होता है। इसीलिए कहा जा सकता है कि तिरुवल्लुवर आस्तिक थे। लेकिन उनके परमेश्वर सर्वशक्तिमान हैं, सारे संसार के निर्माता हैं और जो अपने भक्तों की रक्षा करते हैं। दरअसल कुरल किसी भी विशिष्ट या सांप्रदायिक धार्मिक आस्था की वकालत नहीं करता है। एक कथा में उन्हें पंड्या शासकों की प्राचीन राजधानी मदुरै से जोड़ा जाता है, जिन्होंने तमिल साहित्य को सख्ती से बढ़ावा किया था। एक अन्य के अनुसार उनका जन्म और लालन-पालन मायलापुर में हुआ था जो वर्तमान में मद्रास शहर का एक हिस्सा है और उन्होंने अपनी कृति तिरुक्कुरल को जमा करने के लिए मदुरै की यात्रा की ताकि वे राजा (पंडियन) और उनके कवियों के समूह से अनुमोदन प्राप्त कर सकें. उनकी पत्नी का नाम वासुकी है
वहां और भी अधिक परंपरागत कहानियां हैं जिसमें कहा गया है कि मदुरै का तमिल संगम (नियमित तौर पर आयोजित किया जाने वाला प्रख्यात विद्वानों और शोधकर्ताओं का सम्मेलन/सभा) वह प्राधिकरण था जिसके माध्यम से तिरुक्कुरल को विश्व के सामने पेश किया गया। हो सकता है कि तिरुवल्लुवर ने अपना अधिकांश जीवन मदुरै में बिताया हो क्योंकि यह पांडिया शासकों के अधीन था जहां कई तमिल कवि आगे बढ़े. अभी हाल ही में कन्याकुमारी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शोध केन्द्र (KHCRC) द्वारा दावा किया गया कि वल्लुवर एक राजा थे जिन्होंने तमिलनाडु के कन्याकुमारी जिले के एक पहाड़ी इलाके वल्लुवनाडु पर शासन किया।
जॉर्ज उग्लो पोप या जी.यू पोप जैसे अधिकांश शोधकर्ताओं और तमिल के महान शोधकर्ताओं ने जिन्होंने तमिलनाडु में कई वर्ष बिताए और अंग्रेजी में कई पाठों का अनुवाद किया है जिसमें तिरुक्कुरल शामिल है, उन्होंने तिरुवल्लुवर को परैयार के रूप में पहचाना है। कार्ल ग्रौल (1814-1864) ने पहले ही 1855 तक तिरुक्कुरल को बौद्ध पंथ की एक कृति के रूप में चित्रित किया था(ग्रौल ने जैनियों को भी बौद्धों के अंतर्गत सम्मिलित किया )। इस संबंध में यह विशेष दिलचस्पी का विषय था कि थिरुक्कुरल के लेखक तिरुवल्लुवर को तमिल परंपरा में परैयार के रूप में पहचाना गया
जैन विद्वान् और कई इतिहासकार मानते है की तिरुवल्लुवर एक जैन मुनि थे, क्यूंकि तिरुक्कुरल का पहला अध्याय जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को समर्पित है | इसके आलावा तिरुक्कुरल की शिक्षाएं जैन धर्म की शिक्षाओं से मेल खाती है | भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित पुस्तक कुरल काव्य में भी तिरुवल्लुवर के जैन होने की बात स्पष्ट लिखी है |
तिरुक्क्ल
तिरुक्कुरल तमिल की एक सबसे श्रद्धेय प्राचीन कृति है . कुरल को ‘दुनिया का आम विश्वास’ माना जाता है, क्योंकि यह मानव नैतिकता और जीवन में बेहतरी का रास्ता दिखलाता है। संभवतः बाइबल, कुरान और गीता के बाद कुरल का सबसे अधिक भाषाओं में अनुवाद किया गया है। 1730 में तिरुक्कुरल का लैटिन अनुवाद कोस्टांज़ो बेस्ची द्वारा किया गया जिससे यूरोपीय बुद्धिजीवियों को उल्लेखनीय रूप से तमिल साहित्य के सौंदर्य और समृद्धि को जानने में मदद मिली.
तिरुक्कुरल का निर्माण तिरु और कुरल दो शब्दों को जोड़कर हुआ है, अर्थात तिरु + कुरल = तिरुक्कुरल.
तिरुक्कुरल तीन वर्गों में विभाजित है। पहले खंड में अरम, विवेक और सम्मान के साथ अच्छे नैतिक व्यवहार (“सही आचरण”) को बताया गया है। खंड दो में पारुल सांसारिक मामलों की सही ढंग से चर्चा की गई है और तीसरे अनुभाग इनबम, पुरूष और महिला के बीच प्रेम संबंधों पर विचार किया गया है। प्रथम खंड में 38 अध्याय हैं, दूसरे में 70 अध्याय और तीसरे में 25 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में कुल 10 दोहे या कुरल है और कुल मिलाकर कृति में 1330 दोहे हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप (कन्याकुमारी) के दक्षिणी सिरे पर संत तिरुवल्लुवर की 133 फुट लंबी प्रतिमा बनाई गई है जहां अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर मिलते हैं। 133 फुट, तिरुक्कुरल के 133 अध्यायों या अथियाकरम का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनकी तीन अंगुलिया अरम, पोरूल और इनबम नामक तीन विषय अर्थात नैतिकता, धन और प्रेम के अर्थ को इंगित करती हैं।

पाठ पढाता है. किसी धर्म विशेष से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है. गीता के बाद विश्व के सभी प्रमुख भाषाओँ में सबसे अधिक अनूदित ग्रन्थ है. तिरुकुरल तीन खण्डों में बंटा है. “अरम” (आचरण/सदाचार), “परुल” (संसारिकता/संवृद्धि) तथा “इन्बम”(प्रेम/आनंद). कुल १३३ अध्याय हैं और हर अध्याय में १० दोहे हैं. संयोग की बात है कि वाल्मीकि की तरह इनका जन्म भी एक दलित परिवार में ही हुआ था. मान्यता है कि वे चेन्नई के मयिलापुर से थे परन्तु उनका अधिकाँश जीवन मदुरै में बीता क्योंकि वहां पांड्य राजाओं के द्वारा तामिल साहित्य को पोषित किया जाता रहा है और उनके दरबार में सभी जाने माने विद्वानों को प्राश्रय दिया जाता था. वहीँ के दरबार में तिरुकुरल को एक महान ग्रन्थ के रूप में मान्यता मिली.
प्रस्तुत हैं इसीके दो छंद.
” जैसे पानी जिस मिटटी में वो बहता है उसके अनुसार बदलता है , इसी प्रकार व्यक्ति अपने मिलने वालों के चरित्र को आत्मसात करता है.” ” यहाँ तक कि उत्तम पुरुष जो मन की पूरी अच्छाई रखता है वह भी पवित्र संग से और मजबूत होता है.”
शैव, वैष्णव, बौद्ध तथा जैन सभी तिरुवल्लुवर को अपना मतावलंबी मानते हैं, जबकि उनकी रचनाओं से ऐसा कोई आभास नहीं मिलता. यह अवश्य है कि वे उस परम पिता में विश्वास रखते थे. उनका विचार था कि मनुष्य गृहस्थ रहते हुए भी परमेश्वर में आस्था के साथ एक पवित्र जीवन व्यतीत कर सकता है. सन्यास उन्हें निरर्थक लगा था.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *