योगी के खिलाफ सत्ता विरोधी रूझान?

अब जबकि बीजेपी लोकसभा चुनाव के लिए कमर कस रही है तो ऐसे में उत्तर प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ असंतोष का ऊंचा ग्राफ केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के लिए ताजा सिरदर्द का कारण बनता नज़र आ रहा है. इंडिया टुडे के लिए एक्सिस की ओर से सितंबर में किए गए पहले ट्रैकिंग पोल में योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता 43% थी. बीजेपी समर्थकों के लिए निराशाजनक बात ये है कि एक्सिस की ओर से कराए गए ताजा सर्वे में योगी की लोकप्रियता बीते तीन महीने में 5% नीचे आ चुकी है. दिसंबर के तीसरे हफ्ते में किए गए PSE सर्वे में सिर्फ 38% प्रतिभागियों ने ही कहा कि अगले सीएम के लिए योगी आदित्यनाथ उनकी पहली पसंद हैं.

 उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के खिलाफ सत्ता विरोधी रूझान (एंटी इंकम्बेंसी) जोर पकड़ता नज़र आ रहा है. इंडिया टुडे ग्रुप के लिए एक्सिस माई इंडिया की ओर से एकत्र पॉलिटिकल स्टॉक एक्सचेंज (PSE) डेटा के मुताबिक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता में बीते 3 महीने में खासी गिरावट आई है.  करीब दो साल से सत्ता में मौजूद योगी की लोकप्रियता की तुलना शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह के बतौर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री तीसरे कार्यकाल के आखिरी दिनों से की जाए तो ये 6% कम दिखी.

वही दूसरी ओर सोशल मीडिया पर इन दिनों यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के खिलाफ पूर्व नौकरशाहों के एक समूह का पत्र वायरल हो रहा है. देश के 83 पूर्व नौकरशाहों ने इस पत्र के जरिए सीएम योगी से इस्तीफा मांगा है. इनका आरोप है कि सीएम योगी आदित्यनाथ किसी राज्य में धर्मांधता और कट्टरता फैला रहे हैं. पूर्व नौकरशाहों ने ये भी आरोप लगाया कि योगी सरकार ने संविधान के मौलिक सिद्धांतों और नीति को तबाह करके रख दिया है. योगी के खिलाफ लिखे पत्र में एक दस्तखत शिव शंकर मेनन का भी है जो कि पूर्व एनएसए रहे हैं और अब इस पद पर अजित डोवाल है. पूर्व नौकरशाहों का लंबा-चौड़ा प्रशासनिक अनुभव रहा है. किसी ने विदेश तो किसी ने देश में बड़ी से बड़ी जिम्मेदारी का पद संभाला है.  लेकिन जैसे योगी के बुलंदशहर हिंसा पर बदलते बयानों पर सवाल उठाए जा सकते हैं वैसे ही इन पूर्व नौकरशाहों के पत्र की मंशा पर भी सवाल उठते हैं. इलाहाबाद हाईकोर्ट से बुलंदशहर हिंसा पर संज्ञान लेने की अपील और सीएम योगी का इस्तीफा मांगने वाला पत्र क्या राजनीति से प्रेरित नहीं माना जा सकता? क्या पूर्व नौकरशाहों के अभियान में किसी विचारधारा का प्रभाव नहीं दिखता? 83 पूर्व नौकरशाहों के समूह ने पत्र में लिखा है कि घृणा और विभाजन की राजनीति के खिलाफ मुहिम में एकजुट होने की जरूरत है. सवाल उठता है कि जब यूपी में पूर्व की अखिलेश सरकार के वक्त मुजफ्फरनगर के दंगे भड़के थे तब बौद्धिक स्तर पर विरोध की मशाल क्यों बुझी हुई थी? क्या इसकी एक वजह ये भी थी कि सरकारी पदों पर तब आसीन रहने की वजह से दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं भी प्रशासन की चूक नहीं बल्कि राजनीतिक दलों और धार्मिक कट्टरताओं की साजिश दिखाई देती थी?

इन 83 पूर्व नौकरशाहों ने यूपी में पदों पर आसीन नौकरशाहों से अपील की है कि वो निष्पक्ष और निर्भीक रह कर फैसला लेने में डिगे नहीं. सवाल उठता है कि जब ये पूर्व नौकरशाह अपने पदों पर आसीन रहे तब इन्होंने क्या ऐसी मिसाल कायम की?

 बुलंदशहर हिंसा बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है और किसी भी ऐसी हिंसक घटना की पूर्व में हुई किसी घटना के साथ तुलना भी नहीं की जा सकती. लेकिन ऐसी घटनाओं को देखने का नजरिया सरकार बदलने से बदला भी नहीं जाना चाहिए. जो निंदनीय है उसकी निंदा निष्पक्ष रह कर करने की जरूरत है. चाहे वो राजनीतिक दल हों या फिर नौकरशाह. अब पूर्व नौकरशाहों के पत्र पर जाहिर तौर पर सियासी पारा भी चढ़ना था. बीजेपी ने आरोप लगाया है कि पत्र लिखने वाले यूपीए सरकार के दौर के नौकरशाह हैं जिसमें कई लोग यूपीए की चेयरमैन सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद के सदस्य भी रह चुके हैं.

ऐसे में पूर्व नौकरशाह कितना भी कहें कि वो किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित नहीं हैं बल्कि देश और समाज को बदलने के लिए एक मुहिम का हिस्सा हैं तो उनकी मंशा पर राजनीतिक सवाल तो उठेंगे ही.

 सीएम योगी आदित्यनाथ पर यूपी में दो बड़ी जिम्मेदारी हैं. पहली सूबे में कानून व्यवस्था तो दूसरी संकल्प-पत्र के विकास के वादों को पूरा करना. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नौकरशाह के साथ सरकार का तालमेल बेहद जरूरी है. लेकिन ये ट्यूनिंग एकदम से बन भी नहीं सकती. इसमें वक्त लगता है. लंबे समय में ही एक मजबूत प्रशासनिक टीम आकार ले पाती है.

वहीं समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव, जिनकी लोकप्रियता सितंबर में PSE के मुताबिक 29% पर टिकी थी वो बीते तीन महीनों में 8% बढ़कर दिसंबर में 37% तक पहुंच गई. अखिलेश की लोकप्रियता में उछाल के बाद अब वो योगी आदित्यनाथ से 1%  ही पीछे रह गए हैं. वहीं बीएसपी सुप्रीमो की लोकप्रियता में सितंबर से दिसंबर के बीच 3% की गिरावट आई है. मायावती की लोकप्रियता सितंबर में 18% थी जो दिसंबर में घट कर 15% रह गई. 

योगी आदित्यनाथ के खिलाफ असंतोष के स्तर को अच्छी तरह तभी समझा जा सकता है जब उत्तर प्रदेश के PSE आंकड़ों की तुलना मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के आंकड़ों से की जाए, जहां हाल में ही विधानसभा चुनाव हुए.

नवंबर के PSE डेटा में 44%  प्रतिभागियों ने शिवराज सिंह चौहान को मध्य प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी पहली पसंद बताया था. इतने ही प्रतिभागियों ने रमन सिंह को छत्तीसगढ़ में बतौर अगले मुख्यमंत्री अपनी पसंद बताया था. जहां तक राजस्थान का सवाल है तो वहां नवंबर में 31% प्रतिभागियों ने वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री के एक और कार्यकाल के लिए सबसे पसंदीदा उम्मीदवार बताया था. इसका अर्थ है कि योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्ता से बाहर हुए शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह की लोकप्रियता से 6%  कम रही. राजस्थान में मुख्यमंत्री के तौर पर अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में वसुंधरा राजे की लोकप्रियता से ही योगी आदित्यनाथ आगे दिखाई दिए.  दिक्कत अकेले योगी आदित्यनाथ तक ही सीमित नहीं है. उत्तर प्रदेश सरकार के कामकाज के खिलाफ भी असंतोष तेजी से बढ़ता जा रहा है.

PSE के ताजा सर्वे में हिस्सा लेने वाले 35% प्रतिभागियों ने कहा कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी सरकार के कामकाज से वो पूरी तरह असंतुष्ट हैं. सिर्फ 37% प्रतिभागियों ने ही कहा कि वे इस सरकार के कामकाज से पूरी तरह संतुष्ट हैं. यानि पूरी तरह संतुष्ट और पूरी तरह असंतुष्ट वोटरों में अंतर सिर्फ 2% तक नीचे आ गया है. 9% वोटरों ने कहा कि वे कुछ हद तक असंतुष्ट और 12% ने कहा कि वे कुछ हद तक संतुष्ट हैं. एक्सिस माई इंडिया की ओर से PSE सर्वे 14 दिसंबर से 19 दिसंबर के बीच किया गया. इस दौरान उत्तर प्रदेश के 80 संसदीय क्षेत्रों में टेलीफोन इंटरव्यू लिए गए. इसमें 31,200 प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया. ये सैम्पल उत्तर प्रदेश की आबादी और भौगोलिक स्थिति की नुमाइंदगी करने वाला था.  

PSE डेटा से उन मुद्दों को बारीकी से जाना जा सकता है जिन्हें वोटर 2019 चुनाव में वोट करने के लिए सबसे अहम बता रहे हैं. सर्वे के 32% प्रतिभागियों ने बेरोजगारी को सबसे अहम मुद्दा बताया. वहीं 21% वोटरों की नज़र में महंगाई सबसे अहम मुद्दा है. 17%  प्रतिभागियों के लिए खेती और किसानों से जुड़े मुद्दे सबसे अहम हैं. वहीं हिन्दू-मुस्लिम द्वन्द्व को सिर्फ 9% प्रतिभागियों ने ही अहम बताया. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर राज्य में हालिया चुनावों का सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करने का आरोप लगता रहा है. PSE डेटा से संकेत मिलता है कि गोरखपुर के बाहुबली योगी की ओर से प्राथमिकताएं गलत तय हुई हो सकती हैं.   

ना सिर्फ राज्य सरकार का निराशाजनक कामकाज बीजेपी के लिए चिंता की बात है, बल्कि विपक्षी गठबंधन के लिए बढ़ता समर्थन भी उसके लिए परेशानी का सबब है. PSE सर्वे में हिस्सा लेने वाले करीब आधे प्रतिभागियों (47%) ने कहा कि समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस को बीजेपी के खिलाफ लड़ाई में एकजुट होना चाहिए. 28% प्रतिभागियों ने ऐसे किसी महागठबंधन के खिलाफ राय व्यक्त की. वहीं सर्वे में हिस्सा लेने वाले एक-चौथाई प्रतिभागी कोई स्पष्ट राय व्यक्त नहीं कर सके कि विपक्षी महागठबंधन होना चाहिए या नहीं.

 PSE डेटा में सीटों और वोटों का अनुमान व्यक्त नहीं किया गया है लेकिन इससे ये साफ संकेत मिलता है कि भारत के सबसे संवेदनशील राज्य में हवा किस ओर बह रही है. अगर सत्ता में दूसरा साल पूरा करने से पहले ही किसी सरकार की लोकप्रियता 40% से नीचे आ जाती है तो बीजेपी के लिए राज्य में अच्छी खबर नहीं है. बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश में सिर्फ राहत की बात ये है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी खुद की लोकप्रियता को बीते तीन महीनों में बढ़ाने में कामयाब रहे हैं.

सितंबर में 78%  प्रतिभागियों ने मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर एक और कार्यकाल देने के पक्ष में राय व्यक्त की थी. दिसंबर में हुए सर्वे में 51% लोगों ने मोदी को पीएम के लिए पसंदीदा उम्मीदवार बताया. ये अपने आप में बहुत मायने रखता है कि एंटी इंक्मबेंसी का प्रधानमंत्री पर कोई असर नहीं दिखाई देता. 

 बीते तीन महीने में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की लोकप्रियता में भी 4% का इज़ाफ़ा हुआ है. सितंबर में राहुल की लोकप्रियता 22% थी जो दिसंबर में बढ़ कर 26% हो गई. हालांकि राहुल के समर्थक उत्साह में हैं कि उनकी स्वीकार्यता बढ़ रही है. लेकिन असलियत ये है कि अब भी लोकप्रियता के मामले में नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच 25% का बड़ा अंतर है. यानी अगला प्रधानमंत्री कौन? के सवाल पर मोदी राहुल से कहीं आगे हैं.   केंद्र सरकार के कामकाज को लेकर भी वैसी ही लोगों में मजबूत अवधारणा है जैसे कि सरकार की अगुआई करने वाले नेता को लेकर है. PSE सर्वे के 52% प्रतिभागियों का कहना है कि वे केंद्र सरकार के कामकाज को लेकर पूरी तरह संतुष्ट हैं. सिर्फ़ 29% प्रतिभागियों ने कहा कि वे केंद्र सरकार के कामकाज को लेकर पूरी तरह असंतुष्ट हैं. इसका मतलब केंद्र सरकार के कामकाज को लेकर खुश वोटरों की संख्या इस कामकाज को लेकर नाराज वोटरों से 23% ज्यादा है.  

बीजेपी की सबसे बड़ी उम्मीद प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता पर टिकी है जो कि यूपी की 80 लोकसभा सीटों पर पार्टी के अच्छे प्रदर्शन में मदद करेगी. 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने राज्य में 71 सीटों पर जीत हासिल की थी. जबकि दो सीटों पर बीजेपी के सहयोगी दल अपना दल को कामयाबी मिली थी.  

बीजेपी की पूरी कोशिश जहां 2019 चुनाव को ‘वन टू वन’ लड़ाई बनाने की रहेगी, वहीं पार्टी के लिए दिक्कत ये है कि उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार के लिए बढ़ता एंटी इंक्मबेंसी का स्तर केंद्र सरकार को हासिल बढ़त में कुछ कटौती कर सकता है. 2014 आम चुनाव के वक्त बीजेपी ना केंद्र की सत्ता में थी और ना ही यूपी की सत्ता में. इसलिए तब सत्ता विरोधी रूझान से बीजेपी की संभावनाओँ को झटका नहीं लग सकता था. लेकिन 2019 में परिस्थितियां भी अलग होंगी और लड़ाई भी अलग, जब तक कि गोरखनाथ मंदिर के महंत अगले तीन महीनों में अपने राजनीतिक भाग्य को जगाने के लिए कोई नाटकीय रास्ता नहीं अपनाते.   

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