2014 ‘ न खाऊँगा न खाने दूँगा’; महायोद्धा का अवतार -वादों की जाँच-पड़ताल
HIGH LIGHT; 2014 का लोकसभा चुनाव नई उम्मीदों के रथ पर सवार होकर जीता था @अहम मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए कांग्रेस घोषणापत्र के दो वादे मुद्दा बनाये @ जब मोदी ‘ न खाऊँगा न खाने दूँगा’ के नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरे तो लोगों को लगने लगा कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ एक महायोद्धा का अवतार @ इस मुद्दे को भुला दिया गया @ पिछले चुनाव में काला धन एक प्रमुख मुद्दा था @ 2 करोड़ रोज़गार # नोटबंदी की घोषणा करते समय मोदी ने दावा किया कि इससे देश में छिपा काला धन बाहर आ जाएगा @ HIMALAYAUK BUREAU
कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में दो ऐसे वादे किए हैं जिन्हें बीजेपी ने मुद्दा बना लिया है। कांग्रेस ने कहा है कि अगर केंद्र में उसकी सरकार बनती है तो आर्म्ड फ़ोर्सेस स्पेशल पॉवर्स एक्ट 1958 (अफ़स्पा) में संशोधन किया जाएगा और देशद्रोह के मुक़दमे से संबंधित धारा 124 A को ख़त्म किया जाएगा। इस पर केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि कांग्रेस के वादे बेहद ख़तरनाक हैं और ऐसा लगता है कि इस घोषणापत्र को राहुल गाँधी के ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ वाले दोस्तों ने तैयार किया है। पूर्वोत्तर के राज्यों में सुरक्षा बलों को विशेष अधिकार देने वाले सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून (अफ़स्पा) को लेकर लंबे समय से विवाद रहा है। 45 साल पहले भारतीय संसद ने अफ़स्पा क़ानून को लागू किया था।
वही दूसरी ओर बीजेपी की कोशिश है कि वह मोदी सरकार के 5 साल के कार्यकाल में उठे बेरोज़गारी, किसानों की ख़राब हालत, अर्थव्यवस्था की दुखद स्थिति जैसे अहम मुद्दों से जनता का ध्यान हटा दे। लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने पार्टी का घोषणापत्र जारी करते वक़्त इस बात को बता दिया कि वह बेरोज़गारी, किसानों की ख़राब हालत जैसे मुद्दों पर मज़बूती से डटे रहेंगे। कुल मिलाकर कांग्रेस की ओर से किए गए इन दोनों वादों को बीजेपी ने मुद्दा बनाना शुरू कर दिया है और वह चुनाव में इसके दम पर ध्रुवीकरण की पूरी कोशिश करेगी। राजनीति के जानकारों के अनुसार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी इस चुनाव को ‘उग्र राष्ट्रवाद‘ और ‘हिंदू कार्ड‘ के सहारे लड़कर जीतना चाहते हैं। प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के हालिया भाषणों से भी यह बात पूरी तरह साफ़ हो गई है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 का चुनाव नयी उम्मीदों के रथ पर सवार होकर जीता था। अब पाँच साल बाद उन उम्मीदों, सपनों और वादों की जाँच-पड़ताल जारी है। 2014 के चुनाव में मोदी एक महानायक के रूप में उभरे क्योंकि उन्होंने अपने भाषणों में उन सभी मुद्दों को समेटा जो उस समय जन मानस को झकझोर रहा था।
मोदी के उदय को अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से अलग करके नहीं देखा जा सकता था। दरअसल अन्ना हजारे के आंदोलन ने देश भर में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ व्यापक माहौल तैयार कर दिया था। इसलिए जब मोदी ‘ न खाऊँगा न खाने दूँगा’ के नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरे तो लोगों को लगने लगा कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ एक महायोद्धा का अवतार हो चुका है। लेकिन अपने पाँच सालों के शासन में मोदी ने भ्रष्टाचार ख़त्म करने के लिए कोई ठोस उपाय किया हो ऐसा नहीं लगता। अन्ना आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण माँग थी लोकपाल की नियुक्ति। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद पिछले मार्च में लोकपाल की नियुक्ति हो पाई। अभी काम शुरू होने में काफ़ी वक़्त लगेगा। मोबाइल फ़ोन के लिए सेकंड जेनरेशन यानी टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले को पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल का सबसे बड़ा घोटाला माना गया। लोकसभा के पिछले चुनाव में बीजेपी और मोदी ने उसे खूब भुनाया। लेकिन सरकार बनने के बाद इस मुद्दे को भुला दिया गया। सरकार विशेष अदालत के सामने कोई सबूत लेकर नहीं गई और आजिज़ आकर जज ने मामलों को बंद कर दिया। मनमोहन सरकार के जिन मंत्रियों को जेल जाना पड़ा था वे अब आरोप से बरी हो चुके हैं।
लोकसभा के पिछले चुनाव में काला धन एक प्रमुख मुद्दा था। मोदी ने एक सभा में यहाँ तक कह दिया कि अगर विदेशों में जमा काला धन देश में आ गया तो देश वासियों को 15 लाख रुपये मिल जाएँगे। पिछले पाँच सालों में मोदी सरकार विदेशों से काला धन लाने में पूरी तरह असफल रही है। बाद में चलकर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि यह सिर्फ़ जुमला था। यानी किसी के खाते में 15 लाख रुपये जाने नहीं थे।
अब जब विदेशों से काला धन आया ही नहीं तो किसी को मिलता कहाँ से? प्रधानमंत्री मोदी के प्रखर समर्थक बाबा रामदेव 2014 से चुनावों से पहले काला धन ख़त्म करने के लिए एक हज़ार और पाँच सौ रुपये के नोटों को बंद कराने की माँग कर रहे थे।
नोटबंदी की घोषणा करते समय मोदी ने दावा किया कि इससे देश में छिपा काला धन बाहर आ जाएगा। पुराने नोट बंद होने के बाद बैंकों तक काला धन का एक बड़ा हिस्सा आ तो गया लेकिन नये नोटों के रूप में बाहर चला गया। यानी कुल मिलाकर काला धन अपनी जगह पर क़ायम रहा। नोटबंदी के बाद ख़बरें आईं कि कई सहकारी और समान्य बैंकों में रातो-रात पैसा आया और फिर बाहर भी हो गया। लाइन में खड़े होकर नोट बदलने की परेशानी झेलने वाले आम आदमी के हिस्से में कुछ खास नहीं आया।
2 करोड़ रोज़गार याद है न!
तीसरा बड़ा मुद्दा था रोज़गार। मोदी ने घोषणा की थी कि हर साल 2 करोड़ लोगों को रोज़गार दिया जाएगा, वर्तमान स्थिति उससे अलग दिखाई दे रही है। भारतीय उद्योग परिसंघ यानी सीआईआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक लघु और अत्यंत छोटे उद्योगों में पिछले चार सालों के दौरान सिर्फ़ 3 लाख नौकरियाँ ही मिलीं।सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ 2017-2018 के मुक़ाबले 2018-2019 में क़रीब 7 प्रतिशत बेरोज़गारी बढ़ी है।
यह अलग बात है कि सरकार दावा कर रही है कि मुद्रा लोन स्कीम के अंतर्गत 10 करोड़ से ज़्यादा लोगों ने स्वरोज़गार शुरू किया। मोदी सरकार ने मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया जैसी अनेक योजनाएँ शुरू की लेकिन उसका व्यापक फ़ायदा कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। एक टीवी इंटरव्यू में मोदी ने कहा कि पकौड़ा बेचना भी एक रोज़गार है। ठीक बात है। छोटे-मोटे रोज़गार भी लोगों को मिलने लगें तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। ऐसा लग नहीं रहा है कि स्वरोज़गार बढ़ गया है। हाँ मुद्रा लोन के नाम पर 5-5 लाख रुपये का कर्ज़ बाँटकर सरकार ज़रूर ख़ुश हो रही है। प्रोविडेंट फ़ंड के आँकड़ों पर ग़ौर करें तो संगठित और बड़े क्षेत्रों में 4 सालों में क़रीब 22 लाख नौकरियाँ ही बाँटी। पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के मुताबिक़ पिछले पाँच सालों में 5 करोड़ नौकरियाँ कम हो गई हैं।
महँगाई पर बीजेपी भी घिरी
2014 के चुनावों से पहले महँगाई के मुद्दे पर बीजेपी और मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार की जमकर घेराबंदी की। ख़ुद मोदी और बीजेपी के नेताओं ने मनमोहन सरकार के समय पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमत को मुद्दा बनाया। मनमोहन सरकार के समय कच्चे तेल की क़ीमत आसमान छू रही थी।मोदी के आने के बाद कच्चे तेल की क़ीमत ज़बरदस्त रूप से गिरी। उसके बवाजूद पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमत लगभग मनमोहन सरकार के दौर जैसी बनी रही।
जिसका बचाव करने के लिए बीजेपी के प्रचार तंत्र ने यहाँ तक कहना शुरू कर दिया कि देश की बड़ी-बड़ी योजनाओं को चलाने के लिए पेट्रोल और डीज़ल की कीमत कुछ ज़्यादा भी है तो क्या हुआ? पिछले पाँच सालों में आटा, दाल, चावल और बाकी सभी ज़रूरी चीजों की कीमत बढ़ चुकी है पर अब उसपर सवाल नहीं उठाया जाएगा।
किसानों के लिए घड़ियाली आँसू
पिछले चुनावों के समय किसान और खेती की लागत को लेकर खूब रोना रोया गया। मोदी ने वादा किया कि किसानों को लागत का पचास फ़ीसदी ज़्यादा मूल्य दिलवाया जाएगा। मोदी सरकार ने अनाज की सरकारी ख़रीद मूल्य बढ़ा कर यह साबित करने की कोशिश भी की कि किसानों की माँग पूरी कर दी गई है। लेकिन वास्तव में सरकारी ख़रीद मूल्य बढ़ाने से आम किसानों को कोई बड़ा फ़ायदा नहीं मिला।
सरकार किसानों से कुल उपज का 15 फ़ीसदी से भी कम ख़रीद रही है। बाकी को किसान मंडियों में बेचने को मजबूर है जिसकी क़ीमत अनाज व्यापारी तय करते हैं। यानी आज भी किसान एक से दो रुपये किलो के भाव से आलू बेचता है और आम उपभोक्ता को वही आलू 15 से 20 रुपये किलो मिलता है। मोदी सरकार ऐसा कोई तंत्र नहीं ला पा रही जिससे छोटा और आम किसान आढ़त के चंगुल से निकले और उसे बेहतर क़ीमत मिले।
भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ कार्रवाई
बैंकों के ज़रिए देश के लाखों करोड़ों का चूना लगाने वालों पर अब भी लगाम नहीं है। देश के बैंक का क़रीब 14 हज़ार करोड़ रुपया हड़प लेने वाला नीरव मोदी एक अख़बार की सक्रियता के बाद गिरफ़्तार हो गया लेकिन भारत लाने और कार्रवाई करने में काफ़ी समय लगेगा। विजय माल्या को भारत वापस लाने की कार्रवाई ब्रिटेन की अदालत में फँसी हुई है। बड़े भ्रष्टाचार या राष्ट्रीय संपत्ति की लूट पर कारगर नियंत्रण मोदी सरकार भी नहीं लगा पाई जो पिछले चुनाव का एक महत्वपूर्ण मुद्दा था। इसके साथ ही मोदी सरकार पर रफ़ाल विमान ख़रीद घोटाले की काली छाया भी घूम रही है।
मोदी हिंदू राष्ट्रवाद के प्रवक्ता
पिछले चुनाव से पहले वादा यह भी था कि देश में 100 स्मार्ट शहर बनेंगे। मोदी सरकार ने नई दिल्ली जैसे इलाके को स्मार्ट सिटी का हिस्सा घोषित करके अपनी ज़िम्मेदारी से इतिश्री कर ली। महिलाओं को संसद और विधान सभाओं में 33% आरक्षण का विधेयक राज्य सभा ने 2014 में ही पास कर दिया था। चुनावी वादे के बावजूद मोदी सरकार लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक नहीं लाई। कश्मीर से धारा 370 हटाने का मामला हो या अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का मुद्दा। चर्चा खूब होती रही लेकिन स्थिति अभी भी 2014 जैसी बनी हुई है। 2014 के चुनावों के पहले वाले मोदी 2019 में हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रवक्ता बन कर सामने आ रहे हैं।
अफ़स्पा क़ानून तब लगाया जाता है जब किसी इलाक़े को सरकार ‘अशांत इलाक़ा’ यानी ‘डिस्टर्बड एरिया’ घोषित कर देती है। अफ़स्पा क़ानून के लागू होने के बाद ही वहाँ सेना या सशस्त्र बलों को भेजा जाता है। अगर सरकार यह घोषणा कर दे कि अब राज्य के उस इलाक़े में शांति है तो यह क़ानून हट जाता है और जवानों को वापस बुला लिया जाता है। यह क़ानून सुरक्षा बलों और सेना को कुछ विशेष अधिकार देता है। पूर्वोत्तर और देश के कई अन्य इलाक़ों में आतंकवादी गतिविधियों के चलते हमारे कई जवान अपनी जान गँवा चुके हैं और कहा जाता है कि अफ़स्पा क़ानून जवानों को सुरक्षा देता है।
यह क़ाननू ख़ासतौर से उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिए बनाया गया था। 1958 में इसे असम, मिज़ोरम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड सहित पूरे पूर्वोत्तर भारत में लागू किया गया था, जिससे उस दौरान इन राज्यों में फैली हिंंसा पर क़ाबू पाया जा सके। इसके अलावा जम्मू-कश्मीर में भी अफ़स्पा लगा हुआ है। बता दें कि पिछले साल अप्रैल में मेघालय से इसे पूरी तरह ख़त्म कर दिया गया था।
अफ़स्पा के तहत मिलने वाले अधिकार
अफ़स्पा के तहत सुरक्षा बलों को किसी भी व्यक्ति को बिना किसी वारंट के ग़िरफ़्तार करने का अधिकार है।
गिरफ़्तारी के दौरान सुरक्षा बलों के जवानों के द्वारा उसके ख़िलाफ़ किसी भी तरह के बल का इस्तेमाल किया जा सकता है।
बिना वारंट किसी के घर में घुसकर उसकी तलाशी लेने का अधिकार है।
सुरक्षा बलों को किसी को गोली मारने तक का अधिकार है।
किसी भी वाहन को रोक कर उसकी तलाशी लेने का अधिकार भी सुरक्षा बलों को मिला हुआ है।
अफ़स्पा को लेकर विवाद
पिछले कुछ सालों में अफ़स्पा की काफ़ी आलोचना हुई है। अफ़स्पा को लेकर मानवाधिकार, अलगाववादी संगठन और राजनीतिक दल सवाल उठाते रहे हैं। उनका तर्क है कि इस क़ानून से जनता के मौलिक अधिकारों का हनन होता है। अफ़स्पा क़ानून के बारे में कोई भी बात इरोम शर्मिला के ज़िक्र के बिना अधूरी है। इरोम शर्मिला मणिपुर से अफ़स्पा क़ानून को हटाने की माँग को लेकर 2000 से 2016 तक भूख हड़ताल पर रहीं। इरोम महज 28 साल की उम्र में अनशन पर बैठ गई थीं। इरोम ने असम राइफ़ल के जवानों के साथ मुठभेड़ में 10 नागरिकों के मारे जाने के ख़िलाफ़ यह अनशन शुरू किया था। इसके बाद से ही उन्हें नाक में नली लगाकर भोजन दिया जा रहा था।
लेकिन अफ़स्पा के पक्ष में दलील भी दी जाती रही है। कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियाँ होने की संभावना के चलते यह कहा जाता है कि अफ़स्पा क़ानून के बिना आतंकवादी हमले बढ़ जाएँगे। देश के ख़िलाफ़ किसी तरह की साज़िश से या किसी देशद्रोही गतिविधि से निपटने के लिए एक और क़ानून है, जिसे भारतीय दंड संहिता की धारा 124A के तहत राजद्रोह या देशद्रोह के रूप में परिभाषित किया जाता है। धारा 124A के तहत उन लोगों को ग़िरफ़्तार किया जाता है जिन पर देश की एकता या अखंडता को नुक़सान पहुँचाने का आरोप होता है।
धारा 124A के मुताबिक़, अगर कोई भी शख़्स मौखिक, लिखित या सांकेतिक रूप से सरकार के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने, लोगों को भड़काने की कोशिश करता है या सरकार की अवमानना करता है तो उसे इस धारा के तहत राजद्रोही या देशद्रोही क़रार दिया जाता है।
फ़रवरी 2016 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कथित रूप से देशद्रोही नारे लगाने के मामले में जब जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार, उमर ख़ालिद और कुछ अन्य लोगों पर देशद्रोह की धारा लगी तो इसे लेकर चर्चा शुरू हुई। आरोप है कि संसद पर हमले के दोषी अफज़ल गुरु को फाँसी दिए जाने के विरोध में आयोजित हुए एक कार्यक्रम में कथित रूप से ‘देशविरोधी’ नारे लगाए गए थे।
दिल्ली पुलिस की चार्जशीट में कन्हैया कुमार, उमर ख़ालिद और अनिर्बान भट्टाचार्य को मुख्य आरोपी बनाया गया है। तब बीजेपी ने ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का नारा देकर कई राज्यों में चुनाव के दौरान ‘उग्र राष्ट्रवाद’ के मुद्दे को लेकर वोट बटोरे थे। बता दें कि कन्हैया कुमार इन दिनों बिहार की बेगूसराय सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं।
कन्हैया को देशद्रोह के आरोप में ग़िरफ़्तार कर लिया गया और मुक़दमा चला। वह और उनके कई साथी कई दिनों तक जेल में भी रहे। लेकिन हैरानी की बात यह है कि दिल्ली पुलिस क़रीब तीन साल बाद इस मामले में चार्जशीट दायर कर पाई।
इसके अलावा जैसे ही यह ख़बर फैली कि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने ‘अच्छे दिन’ लाने के लिए पच्चीस साल की माँग की है, वैसे ही भाजपा को सफ़ाई देनी पड़ गई.
पार्टी ने फटाफट उनके भाषण का वीडियो जारी करके बताया कि शाह ने ‘अच्छे दिन’ लाने के लिए नहीं, बल्कि भारत को ‘विश्व गुरु’ की पदवी पर बिठाने के लिए पूरी चौथाई सदी तक भाजपा को जिताते रहने की माँग की है.
हो सकता है कि भाजपा के प्रचार विभाग का दावा सही हो, पर सवाल यह है कि जैसे ही यह ख़बर प्रसारित हुई, सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोगों ने इस बात पर यक़ीन कैसे कर लिया कि अमित शाह ने निश्चित रूप से ऐसा ही कहा होगा?
किसी ने इस कथित वक्तव्य पर स्वाभाविक रूप से संदेह क्यों नहीं किया? बात केवल इतनी नहीं है कि दिग्विजय सिंह और अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट करके अमित शाह और उनकी पार्टी की खिल्ली उड़ाई.
बात यह भी है कि पत्रकारों, मीडियाकर्मियों या सोशल मीडिया पर सक्रिय राजनीतिक टिप्पणीकारों ने ख़बर और उसके खंडन के बीच के तकरीबन दस-बारह घंटों के दौरान यह मान ही लिया था कि सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष ने ऐसा कहा ही होगा!
दरअसल, पिछले तेरह महीने से नरेंद्र मोदी और अमित शाह समेत पूरी भाजपा जिस भाषा में चुनाव के दौरान किए गए वादों की व्याख्या कर रही है, उसी ने ऐसा माहौल बनाया कि लोगों को बेसाख़्ता अमित शाह के नाम से जारी किए गए इस बयान पर यक़ीन हो गया.
चुनाव जीतने के बाद से ही भाजपा इस राजनीतिक थीसिस पर काम कर रही है कि चुनाव प्रचार के दौरान कही जाने वाली बातों की कसौटी पर उसकी सरकार के प्रदर्शन को नहीं कसा जाना चाहिए.
जीत के बाद बड़ोदरा में दिए गए अपने पहले भाषण में ही मोदी ने इस रणनीति की ओर इशारा कर दिया था.
चुनावी जुमला
इसके बाद एक पूरा सिलसिला चल निकला जिसमें बार-बार नागरिकों को यह संदेश दिया गया कि चुनाव जीतने के लिए लफ़्फ़ाजी करनी पड़ती है, पर सरकार चलाना एक कहीं ज़्यादा गम्भीर काम है.
सबसे पहले सौ दिन में महंगाई कम करने के वादे की गम्भीरता को भाजपा के प्रवक्ताओं ने मौसमी और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के हवालों से दरकिनार किया.
फिर, प्रधानमंत्री ने अपनी ‘मन की बात’ में कह दिया कि न उन्हें पता है कि विदेशों में कितना काला धन है और न ही पिछली सरकार को पता था.
फिर अमित शाह ने इसे और साफ़ करते हुए जनता को समझाया कि सभी के खातों में पंद्रह-पंद्रह लाख जमा करने का वादा तो महज एक चुनावी जुमला था.
यह प्रक्रिया उस समय अपने चरम पर पहुँच गई जब पार्टी के चुनावी घोषणापत्र में साफ़ रूप से दर्ज खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश न लाने के वादे से पार्टी 180 डिग्री घूम गई.
वादा तेरा वादा…
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने तो सरकार के बचाव में यहां तक कह डाला कि ‘हम अभी भी अपने घोषणापत्र के वादे पर टिके हुए हैं, पर सरकार चलाते हुए हम पिछली सरकार द्वारा चलाई गई प्रक्रिया को जारी रख रहे हैं.’
बेरोजगारों को रोज़गार देने का वादा अभी तक हवा में लटका हुआ है.
किसान यह कैसे भूल सकते हैं कि चुनावी भाषण करते हुए मोदी ने उनसे बार-बार खेती में होने वाले सभी खर्चों को गिनाते हुए दावा किया था कि उनकी सरकार इन तमाम खर्चों के ऊपर पचास फ़ीसदी मुनाफा देने वाला ‘एमएसपी’ यानी न्यूनतम खरीद मूल्य जारी करेगी.
अब हम प्रतीक्षा कर सकते हैं कि जब बेरोज़गार और किसान मोदी को इन वादों की याद दिलाएँगे तो शाह-जेटली कंपनी की दलील क्या होगी!
‘विश्व गुरु के लिए नहीं दिया वोट’
हक़ीक़त यह है कि देश की जनता ने ‘विश्व गुरु’ बनने के लिए या ‘महाशक्ति’ बनने के लिए मोदी को वोट नहीं दिया था.
वोटरों की तीन फौरी जरूरतें थीं. पहली, महंगाई कम हो. दूसरी, भ्रष्टाचार घटे. और तीसरी, रोजगार मिले.
इन्हीं तीन मोर्चों पर नाकामी की वजह से कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार हारी थी. इस समय मोदी सरकार की आँखों में भ्रष्टाचार का मुद्दा एक किरकिरी की तरह चुभ रहा है.
यूपीए सरकार के कार्यकाल की किसी अवधि में कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों, राज्य सरकार और केंद्र के मंत्रियों पर एक साथ इतने कम समय में इतने आरोप शायद ही लगे थे.
मोदी ने कहा था कि ‘न खाऊँगा, न खाने दूँगा’. क्या इसका जवाब यह होना चाहिए कि ‘यह एनडीए सरकार है, यहाँ यूपीए की तरह इस्तीफ़े नहीं होते’?
यही है वह छोटा सा इतिहास जिसकी रोशनी में देखने पर एक बारगी यह लगने लगता है कि कहीं अमित शाह ने ‘अच्छे दिन’ लाने के लिए वास्तव में पच्चीस साल तो नहीं माँग लिए थे!