सोशल मीडिया पर प्रमोशन ;चुनाव के मुद्देे ही बदल गये

साभार- प्रधानमंत्री नरेेंद्र मोदी चुनाव सभाओं में काला धन, बेरोज़गारी, किसानों के हाल पर कोई बात नहीं कर रहे हैं। वह देश की सुरक्षा के ख़तरे को मुद्दा बनाने में सफल हैं। लोग सभाओं में उन्हें अभी भी सुनने आ रहे हैं। विपक्ष को मर्म समझ नहीं आ रहा है। किसी भी सर्वेक्षण में मोदी की संभावित सीटें कम हुई भले ही हुई दिखें, अभी भी वे सबसे कहीं ज्यादा हैं! भारत में करीब 30 करोड़ स्मार्ट फोन स्तेमाल में हैं। यह व्यवसायिक प्रमाणित डाटा है। कई लोग दो-तीन फोन भी रखते हैं, पर वे 10 प्रतिशत से ज्यादा नहीं हैं। यह संख्या करीब 15 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ रही है।

यह भी अनुमान ही है, पर बीजेपी-मोदी-संघ-तमाम अन्य हिंदू संगठन-धार्मिक मठ-मंदिर, सेक्ट आदि क़रीब एक मिलियन यानी 10 लाख के आसपास व्हाट्सऐप ग्रुप चलाते हैं। इनमें से बहुत सारे सदस्य कई कई ग्रुपों में होते हैं, फिर भी ये करीब 15 करोड़ लोगों तक पहुँच रखते हैं। कांग्रेस ने बहुत बाद में आईटी सेल के महत्व को समझा। आम आदमी पार्टी वाले इसे शुरू से समझते हैं, इसीलिये वे कम से कम दिल्ली में बीजेपी के मुक़ाबिल टिके हुए हैं। उनके पास भी कई हज़ार व्हाट्सऐप ग्रुप हैं, जिनमें सुबह सुबह केजरीवाल पहुँच जाते हैं। बीजू जनता दल, तृणमूल कांग्रेस, तेलुगु देशम पार्टी, शिवसेना और वामपंथी पार्टियाँ भी यहाँ सक्रिय हुए हैं। पर सारे ग़ैर भाजपाई दल मिलकर भी बीजेपी के सामने इस मामले में निहायत ही बौने हैं।

कांग्रेस आईटी सेल ट्विटर पर नज़र आने लगी है और कई मामले ट्रेंड करा ले जाती है। लेकिन ट्विटर एलीट कोशिश है ।व्हाट्सऐप पर बीजेपी उतना ही आगे है, जितना वह इलेक्टोरल बांड्स से धन उगाहने में। सामाजिक न्याय के लड़ाकों की भी उपस्थिति इस मंच पर है। पर वे संगठित अभियान के रूप में नहीं हैं। हाँ! विकसित हो रही है। दलित आंदोलन इस पर बहुत सक्रिय और संगठित है। उनके हजारों ग्रुप हैं और वे कम से कम दो बार इसी संगठन के बलबूते भारत बंद जैसे आह्वान करके अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुके हैं।दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों में अब बाक़ायदा आईटी सेल हैं और इनके प्रमुख का पद आज पार्टी में बहुत ही महत्वपूर्ण है। बीजेपी ने 2007 में राजनाथ सिंह की अध्यक्षता के समय इसकी शुरुआत की थी। प्रद्युत वोरा इसके पहले प्रमुख थे, जो 2009 में इससे अलग हो गये थे। उसके बाद अरविंद गुप्ता हेड बने और अब अमित मालवीय हैं। 

हमारे यहाँ क़रीब बीस करोड़ घरों में टीवी पहुँच चुका है और 90 करोड़ जोड़ी आँखें इसके क़ब्ज़े में हैं। हालॉकि सिर्फ 15 फ़ीसद से भी कम लोग न्यूज़ एडिक्ट हैं, पर कई बार यह संख्या 70 प्रतिशत तक पहुंच जाती है। मसलन, हाल ही में पुलवामा के बाद बालाकोट और अभिनंदन के मामले में ऐसा हुआ। वरना 85 प्रतिशत लोग कार्टून, सिनेमा, सीरियल, खेल, फ़ैशन और डिस्कवरी चैनलों में गुम रहते हैं। डिजिटल दुनिया हमारे युग में मष्तिष्क पर नियंत्रण करने और राय बदलने का सबसे बड़ा और सबसे कारगर तरीक़ा है। सामान बेचने और बिक्री बढ़ाने के लिये सफल होने के साथ साथ ही दुनिया के राजनैतिक योजनाकारों को इसका महत्व और प्रतिभा समझ में आ गई थी। इसमें पैसा तो लगता है, पर कामयाबी कन्फर्म है। 

ऑल्ट न्यूज़’ ने अपनी एक रिपोर्ट में हाल ही  में सोशल मीडिया पर विभिन्न पार्टियों द्वारा किये जा रहे ख़र्चे दर्शाये थे, जिनसे पता चलता है कि महाकाय आईटी सेल के बावजूद हर माध्यम पर मोदी-बीजेपी प्रचार में कितना निवेश करती है। इस रिपोर्ट के अनुसार, फ़ेसबुक पर कांग्रेस और अन्य सारी विपक्षी और क्षेत्रीय पार्टियों ने जितना पेड प्रमोशन किया है, मोदी कैंप ने अकेले उसके तीन गुने से ज्यादा प्रमोशन किया है।

वर्तमान राजनीति में संचार के साधनों का प्रभावी स्तेमाल बहुत बड़े अंतर पैदा कर रहा है, क्योंकि अब यह सर्वस्वीकृत है कि लोगों की राय बनाई-बदली जा सकती है। ऐसे में यदि भारत का विपक्ष इस ग़लतफ़हमी में है कि आर्थिक मोर्चे पर बढ़ती कठिनाइयों से त्रस्त अवाम खुद ही मोदी को उखाड़ फेंकेंगे तो यह चुनाव उनकी ग़लतफ़हमी दूर कर देगा। क्योंकि संचार के साधनों पर क़ब्ज़े के ज़रिये मोदी कैम्प ने ख़ुद विपक्ष को ही मुद्दे बदल कर देशद्रोही ठहरा दिया है।

शीतल पी. सिंह

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