सेना में सीनियरिटी नजरंदाज; कांग्रेस सरकार में बहुत बार
उतत्तराखण्ड के होनहार अधिकारी का कांग्रेस विरोध- उत्तराखण्ड को पसंद नही आया- जनरल रावत को भारतीय थल सेना की कमान सौंपने पर उत्तराखण्ड में समाचार पत्रों की सुर्खियां थी- वही पूरे राज्य मेे खुशियां मनायी जा रही थी- कांग्रेस ने खुशियो पर तुषारापात कर दिया- ;एक रिपोर्ट
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जनरल रावत को भारतीय थल सेना की कमान सौंपने पर कांग्रेस द्वारा विरोध व्यापक प्रतिक्रिया हो सकती है, सवाल यह है कि क्या ऐसा पहली बार हुआ है, जब तत्कालीन सरकार पर सैन्य नियुक्ति में राजनीति करने का आरोप लगा है. ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है. पहले भी सबसे वरिष्ठ अधिकारी की उपेक्षा कर जूनियर को भारतीय थल सेना की कमान दी गई है.
1983 में भी सीनियरिटी को नजरंदाज किया गया… इससे पहले 1983 में आर्मी चीफ के अप्वाइंटमेंट में सीनियरिटी को अनदेखा किया गया था। तब जनरल एएस वैद्य को आर्मी चीफ बनाया गया था, जबकि ज्यादा सीनियर ले. जनरल एसके सिन्हा मौजूद थे। 1988 में भी एयर मार्शल एमएम सिंह की जगह एसके मेहरा को इंडियन एयरफोर्स का चीफ बनाया गया था। सरकार के पास किसी को भी आर्मी चीफ सेलेक्ट कर सकती है, लेकिन इस सेलेक्शन में सीनियर मोस्ट कैंडिडेट को ही आर्मी चीफ बनाया जाता रहा है।
ले. जनरल रावत अभी आर्मी के वाइस चीफ हैं। लेकिन, मौजूदा वक्त में आर्मी में सीनियर मोस्ट ले. जनरल प्रवीण बख्शी और पीएम हारिज हैं। सरकार का कहना है कि बिपिन रावत का सिलेक्शन मेरिट के बेस पर किया गया है। मिनिस्ट्री ऑफ डिफेंस के सूत्रों के मुताबिक, “इस समय में जो चुनौतियां सामने हैं, उनसे निपटने के लिए हमारे पास मौजूद ले. जनरल में सबसे काबिल बिपिन रावत ही हैं।” “ले. जनरल रावत का कॉम्बैट और दूसरे फंक्शनल लेवल पर तीन दशकों का बेहतरीन अनुभव है।” रावत इंडियन मिलेट्री एकेडमी (आईएमए), देहरादून से ग्रैजुएट हैं। 1978 में यहां से उन्हें ग्यारहवीं गोरखा रायफल्स (5/33GR) की पांचवीं बटालियनल में कमीशंड मिला। आईएमए में उन्हें “सोर्ड ऑफ ऑनर’ दिया गया। उन्हें ऊंचाई वाले स्थानों पर जंग और काउंटर-इनसर्जेंसी ऑपरेशन का बहुत अनुभव है।
इंदिरा गांधी की तत्कालीन सरकार ने जनरल सिन्हा को क्यों आर्मी चीफ नहीं बनाया, जबकि वो इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त थे, ज्यादातर लोगों के ध्यान में नहीं आता. जब जनरल के वी कृष्ण राव 1983 के जुलाई महीने में रिटायर होने जा रहे थे, उससे कुछ महीने पहले नये आर्मी चीफ की नियुक्ति का मामला सामने आया. इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं. सबको ये लग रहा था कि वरिष्ठता के आधार पर जनरल एस के सिन्हा ही नये आर्मी चीफ बनाये जाएंगे. लेकिन जब फैसले का ऐलान हुआ, तो सबको झटका लगा. इंदिरा गांधी ने जनरल सिन्हा की जगह जनरल ए एस वैद्य को आर्मी चीफ बनाने का ऐलान किया.
बताया जाता है कि जनरल सिन्हा ने उस समय सिख उग्रवाद से निबटने में सेना के इस्तेमाल की मनाही की थी. सिन्हा का मानना था कि अगर ऐसा हुआ, तो ये सेना के लिए अच्छा नहीं होगा. भारतीय सेना के अधिकारियों और जवानों का बड़ा हिस्सा पंजाब से आता है और ऐसे में एक ऐसा मामला, जो तत्कालीन कांग्रेस सरकार की नीतियों के कारण ही धार्मिक उग्रवाद में तब्दील हो चुका था, उसमें सेना को शामिल करना ठीक नहीं था. जाहिर है, इंदिरा गांधी सिन्हा की इस राय से इत्तफाक नहीं रखती थीं और इसलिए सिन्हा की जगह जनरल वैद्य को नया आर्मी चीफ बनाने का फैसला किया गया.
जब पहले भारतीय को सैन्य प्रमुख की जिम्मेदारी देने का सवाल उठा, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल दोनों ही जनरल राजेंद्र सिंह के पक्ष में थे. जनरल राजेंद्र सिंह जामनगर के महाराजा दिग्विजय सिंह के रिश्तेदार थे और दोनों नेताओं के करीबी भी. लेकिन खुद राजेंद्र सिंह ने इसका विरोध किया. उन्होंने कहा कि जनरल करियप्पा मेरे से वरिष्ठ हैं और भारतीय सेना के पहले भारतीय प्रमुख की नियुक्ति में वरिष्ठता का ध्यान न रखा जाए, ये मैं कबूल नहीं कर सकता. जनरल राजेंद्र सिंह ने जब कमांडर इन चीफ का पद लेने से मना कर दिया, तो जनरल करियप्पा को वो कुर्सी सौंपी गई. करियप्पा को नेहरू या सरदार इसलिए पसंद नहीं करते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि करियप्पा पूरी तरह ब्रिटिश रंग-ढंग में ढले अधिकारी हैं. हालांकि पहले भारतीय सैन्य प्रमुख के तौर पर वो जनरल करियप्पा ही थे, जिन्होंने अधिकारियों के सामान्य फौजी से बातचीत के दौरान शिष्टाचार अभिवादन के तौर पर राम-राम की प्रथा शुरु करवाई.
जनरल करियप्पा के रिटायरमेंट के बाद जनरल राजेंद्र सिंह भारतीय सेना के प्रमुख बने. ये जानना भी रोचक होगा कि राजेंद्र सिंह जहां स्वतंत्रता के बाद भारतीय सेना के दूसरे भारतीय कमांडर इन चीफ बने, वही पहले आर्मी चीफ भी. जनरल राजेंद्र सिंह के समय में ही थल सेना प्रमुख का पद कमांडर इन चीफ की जगह चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ के तौर पर रखा गया.
जिस नेहरू को स्वतंत्रता के बाद तमाम संवैधानिक संस्थाओं को मजबूती देने का श्रेय दिया जाता है, फौज के मामले में उनका रिकॉर्ड काफी खराब रहा. वी के कृष्णमेनन से अपनी दोस्ती निभाने के चक्कर में उन्होंने जनरल थिमैया जैसे भारतीय सेना के बेहतरीन जनरल को दो-दो बार इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया. जनरल थिमैया फौज की नियुक्तियों में कृष्ण मेनन के अतार्किक हस्तक्षेप के खिलाफ थे, लेकिन नेहरू ने कभी कृष्ण मेनन को रोका नहीं. परिणाम ये हुआ कि जब 1962 का भारत-चीन युद्ध हुआ, उस वक्त फौज की कमान जनरल थापर जैसे अपेक्षाकृत कमजोर जनरल के हाथ में थी और मोर्चे पर रखा गया था जनरल बीएम कौल को, जिसे लड़ाई छिड़ते ही डर के मारे बुखार आ गया और मोर्चे पर सैनिकों को मार्गदर्शन देने की जगह दिल्ली के अस्पताल में जनरल कौल बेड पर पड़े रहे.
1962 की वो लड़ाई ही थी, जिसके कारण पंडित नेहरू की प्रतिष्ठा धूल में मिल गई. अपने प्रिय कृष्णमेनन का बतौर रक्षा मंत्री इस्तीफा लेने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि खुद कांग्रेस पार्टी में गुस्सा इस कदर था कि पंडित नेहरू के लिए अपने पद पर बने रहना चुनौतीपूर्ण हो गया था. 1962 का ही वो जख्म था, जिसकी वजह से नेहरू की तबीयत बिगड़ती चली गई और आखिरकार मई 1964 में उनका देहांत हो गया.
नेहरू के समय में ही ये सवाल भी उठा था कि क्या वरिष्ठता की जगह प्रतिभा को जगह नहीं देनी चाहिए. जनरल थिमैया ने अपने अऩुगामी के तौर पर जनरल थोराट के बारे में सोचा था, वो थोराट जिन्होंने चीन के सामने मुकाबले के लिए थोराट प्लान बनाया था. लेकिन पंडित नेहरू ने थोराट की जगह कृष्ण मेनन की सलाह पर जनरल थापर को सैन्य प्रमुख बनाया. जनरल थोराट जनरल थिमैया की तरह ही खुद्दार अधिकारी थे, वो न तो कृष्ण मेनन की चमचागीरी कर सकते थे और न ही पंडित नेहरू की. नेहरू को चमचागीरी पसंद थी, यही वजह थी कि जनरल कौल को लगातार प्रोमोशन देकर सैन्य पमुख बनाना तय कर लिया गया, वो तो 1962 का युद्ध था, अन्यथा कौल जैसा व्यक्ति भारत सेना का प्रमुख भी बन गया होता, चीफ ऑफ जनरल स्टाफ तो बन ही गया था. 1962 की लड़ाई के कारण ही थापर और कौल दोनों को अपना पद छोड़ने को मजबूर होना पड़ा.
कहा जाता है कि अगर पंडित नेहरू ने जनरल थिमैया की सलाह मानी होती, तो शायद 1962 के युद्ध में भारत को चीन के सामने इतनी करारी पराजय न झेलनी पड़ती. हो सकता है कि पंडित नेहरू ने अधिकतम चार साल तक ही कोई अधिकारी भारतीय थल सेना का प्रमुख रह सकता है, ये तुगलकी फरमान न बनाया होता, तो 1962 में भारतीय सेना की कमान जनरल थिमैया के हाथ में रह सकती थी, जो महज 55 साल की उम्र में मई 1961 में रिटायर हो चुके थे.
1962 की लड़ाई भारतीय सेना के लिहाज से टर्निंग प्वाइंट भी बनी. अगर वो लड़ाई नहीं हुई होती, तो सैम मानेकशा जैसा श्रेष्ठ अधिकारी भारतीय सेना के शीर्ष पर पहुंचने की जगह कोर्ट मार्शल होकर सेना से बेइज्जत होकर निकाला जा चुका होता. कृष्ण मेनन और कौल की जोड़ी ने नेहरू की सरपरस्ती में मानेकशा के खिलाफ जांच शुरु करवाई थी, वो भी ये आरोप लगाते हुए कि वो विद्रोह की साजिश रच रहे हैं और सरकार विरोधी भावनाएं भड़का रहे हैं. 1962 के युद्ध के बाद कृष्ण मेनन को बेइज्जत होकर रक्षा मंत्री का पद छोड़ना पड़ा और उसके बाद रक्षा मंत्री बने वाई बी चह्वाण ने मानेकशा के खिलाफ जांच बंद करवाई और मानेकशा को चीन के उस मोर्चे पर लगाया, जहां से भाग खड़े हुए थे जनरल कौल. मानेकशा के कमान संभालते ही भारतीय सेना में नये उत्साह का संचार हुआ और फौज का पीछे हटना बंद हुआ. यही मानेकशा पाकिस्तान के खिलाफ 1971 में भारत की विजय के हीरो बने और स्वतंत्र भारत के पहले फील्ड मार्शल भी. ; कई मीडिया की रिपोर्ट; उनसे साभार
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