आम आदमी पार्टी के सितारे गर्दिश में

‘आप’ की लगातार गिरती साख
– ललित गर्ग –

अपने स्वार्थ हेतु, महत्वाकांक्षा हेतु, प्रतिष्ठा हेतु, राजनीति बयानों की ओट में नेतृत्व झूठा श्रेय लेता रहे और भीड़ भी आरती उतारती रहे- यह राजनीतिक अवसरवादिता है। इसी अवसरवादिता के प्रतीक है अरविन्द केजरीवाल। सार्वजनिक जीवन में नैतिकता और ईमानदारी की दुहाई देकर दिल्ली में प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई ‘आप’ की लगातार छीजती छवि की एक और घटना से न केवल केजरीवाल की साख को बट्टा लगा है बल्कि आम आदमी पार्टी के सितारे भी गर्दिश में जाते हुए दिखाई दे रहे हैं।
निजी मुकदमे का खर्च सरकारी खजाने से भुगतान कराने की कोशिशों का पर्दाफाश होने पर आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की एक बार फिर जमकर जगहंसाई हुई है। मानहानि के इस मुकद्दमे का सामना कर रहे केजरीवाल के वकील राम जेठमलानी के बिल का भुगतान दिल्ली सरकार के खजाने से किए जाने पर यह घमासान मच गया है। भाजपा ने इसे जनता के पैसे पर डाका करार दिया है। निश्चित ही यह राजनीतिक अधिकारों का दुरुपयोग है। सत्ता और सम्पदा के शीर्ष पर बैठकर इस तरह लोकतंत्र के मूल्यों सेे खिलवाड़ करना न केवल राजनीति को दूषित करता है बल्कि भारत की चेतना भी इस तरह की घटनाओं से प्रदूषित होती है। सत्ता के गलियारों में स्वार्थों की धमाचैकड़ी एवं मूल्यों की अवमानना चिन्ताजनक है। सार्वजनिक जीवन में नैतिकता और ईमानदारी की दुहाई देने वाले एवं राजनीतिक शुचिता के महात्मा कहलाने वाले लोग इस तरह राजनीतिक मूल्यों का अपहरण करके लम्बे समय तक जनता को गुमराह नहीं कर सकते। सत्ता और स्वार्थ के कारण केजरीवाल ने अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूर्णता देने के लिये जिस तरह की नैतिक कायरता का प्रदर्शन किया है, निश्चित ही इससे उनकी राजनीतिक साख गिरी है। हालांकि पार्टी के नेता इस मामले में कई तरह की तकनीकी दलीलें लेकर सामने आए हैं, लेकिन ये दलीलें बेबुनियाद सिद्ध हो रही हैं। सवाल सिर्फ पैसे का नहीं, नीयत का भी है। और यहां तो नियत में खोट साफ-साफ झलक रही है, उपराज्यपाल को अंधेरे में रख कर भुगतान कराने की कोशिश पूरी तरह से की गयी मगर कामयाबी नहीं मिली।

###केजरीवाल -आदर्श और सिद्धांतों क मुखौटा उतर चुका है

दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल एक बार फिर खामोश हैं. वैसे तो केजरीवाल हर मामले पर अपनी राय देते हैं. लेकिन जिस सरकार और पार्टी का वो नेतृत्व कर रहे हैं उससे जुड़े मौजूदा विवाद को लेकर वो एक शब्द नहीं कह रहे हैं. दुर्भाग्य से यह चुप्पी उनके और उनकी पार्टी के लिए अच्छी नहीं है. खास कर उन दो मुद्दों को लेकर जिसकी वजह से दिल्ली के अंदर और बाहर लोग कुछ दिनों से विरोध कर रहे हैं. अव्वल तो ये कि लेफ्टिनेंट गर्वनर अनिल बैजल ने दिल्ली सरकार को आम आदमी पार्टी से नब्बे दिनों के भीतर 97 करोड़ रुपए वसूलने को कहे हैं. ये राशि उन विज्ञापनों के बदले वसूलनी है जो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ जारी किए गए थे. दूसरा मामला केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के खिलाफ मानहानि मुकदमा लड़ने में एलजी की अनुमति के बगैर करोड़ों रुपए राम जेठमलानी जैसे वकील को बतौर फीस देने का है. केजरीवाल इस बार खामोश हैं क्योंकि उनके पास जनता के पैसों से खुद के लिए किए गए मनमाने प्रचार कार्यों के बचाव में कोई तर्क नहीं है. 11 मार्च को पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे जब सामने आए तो इससे पहले तक आम आदमी पार्टी पंजाब और गोवा में शानदार प्रदर्शन की उम्मीद लगाए बैठी थी. तब तक केजरीवाल सरकार की उपलब्धियों का दावा भरने वाले तमाम विज्ञापन टीवी चैनलों पर दिखते रहे. यहां तक कि चैनलों पर दिन भर जनता के लिए दिल्ली को जन्नत में बदलने के दावे किए जाते रहे.

लेकिन जैसा कि कहते हैं राजनीति में एक सप्ताह या एक महीने का समय काफी ज्यादा होता है. आप खेमे में संभावित उत्साह पर निराशा अब हावी होती दिख रही है. क्योंकि सुर्खियों में बने रहने की केजरीवाल की चाहत ने उन्हें कई तरह के विवादों में उलझा दिया है. जिसके कई तरह के आर्थिक, कानूनी और राजनीतिक मायने हैं.

हाल में लिए गए उनके निर्णय जिसके तहत आम जनता से वसूले गए टैक्स के पैसे से मशहूर वकील राम जेठमलानी की 3.24 करोड़ रुपए फीस ( 1 दिसंबर 2016 तक ) का भुगतान किया गया. जिसमें केजरीवाल का मुकादमा लड़ने के लिए 1 करोड़ की राशि बतौर रिटेनरशिप और 11 बार मुकदमे के दौरान उपस्थिति के लिए 2.42 करोड़ की राशि जेठमलानी को दी गई. यह जनता के साथ किया गया ये बेहद क्रूर मजाक की तरह है.

उपमुख्यमंत्री सिसोदिया ने एक आधिकारिक नोट के तहत लिखा, ‘ये फाइल एलजी के पास उनकी अनुमति के लिए नहीं भेजा जाना है, बल्कि इस फाइल को संबंधित एडमिनिस्ट्रेटिव डिपार्टमेंट यानी जीएडी ( जेनरल एडमिनिस्ट्रेटिव डिपार्टमेंट ) के पास भेजा जाना है.’ और संबंधित डिपार्टमेंट इसकी अनुमति ‘प्राथमिकता के आधार पर एक दिन में’ दे. उपमुख्यमंत्री के लिखे गए इस तरह के नोट का संकेत साफ है कि आप नेतृत्व को ये भरोसा नहीं था कि एलजी इस तरह के प्रस्ताव को पास करेंगे या फिर इसकी अनुमति देंगे. इतना ही नहीं केजरीवाल सरकार को इस बात का डर भी सता रहा था कि अगर ये फाइल कई विभागों से होकर गुजरेगी तो इस प्रक्रिया में ज्यादा वक्त लग जाएगा. और तो और इस फाइल के लीक होने का भी जोखिम बढ़ जाएगा. जिससे तमाम तरह की सियासी दिक्कतें पैदा हो जाएंगी. नतीजतन इस फाइल को विद्युत की गति से मंजूरी दे दी गई जैसा कि सिसोदिया भी चाहते थे. जाहिर है इसे लेकर जनता में अच्छी प्रतिक्रिया नहीं है. आखिरकार केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के साथ इस बेहद निजी कानूनी लड़ाई के बदले जनता क्यों भुगतान करे?

अब जबकि ये पूरा विवाद आम आदमी पार्टी और केजरीवाल की छवि को धक्का पहुंचाने लगा है तो राम जेठमलानी कह रहे हैं कि वो दिल्ली के मुख्यमंत्री से बतौर फीस एक पैसा भी नहीं मांगेंगे. हालांकि ये अभी तक साफ नहीं है कि 3.42 करोड़ की फीस की राशि जो उनका बकाया है, क्या वो भी जेठमलानी छोड़ देंगे. बावजूद इसके कि जेठमलानी मुफ्त में उनका मुकदमा लड़ेंगे ये मामला जनता की यादों से इतनी जल्दी मिटने वाला नहीं है.   ये मुद्दा केजरीवाल की सियासी महत्वाकांक्षाओं के रास्ते में रोड़ा साबित होने वाला है, क्योंकि केजरीवाल ने राजनीति में सियासत की धारा को बदलने का दावा कर एंट्री की थी. उनकी सियासत की ताकत पारदर्शिता और बेहतर छवि है. लेकिन अफसोस यह है कि केजरीवाल ने जिन उच्च नैतिक आदर्शों को अपनी सियासत का आधार बनाया था वो अब उन्हीं सिद्धांतों को लांघने में लगे हैं. केजरीवाल अब किसी सामान्य राजनीतिज्ञ की तरह ही हैं जिनके चेहरे से आदर्श और सिद्धांतों को वो मुखौटा उतर चुका है जो उन्होंने अपनी सियासत चमकाने के लिए पहले पहन रखी थी. जहां तक बात दिल्ली सरकार की है तो उसका डीडीसीए या फिर क्रिकेट एडमिनिस्ट्रेशन से कोई लेना-देना नहीं है. यहां तक कि इस मामले की जांच को भी जरूरी मंजूरी नहीं मिली हुई थी. इतना ही नहीं केजरीवाल सरकार ने जिस जांच कमेटी की घोषणा की थी वो भी बनाई नहीं जा सकी. केजरीवाल भले खामोश हों, लेकिन उनके बदले उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया अब मुखर हैं. आम आदमी का पैसा जेठमलानी जैसे वकील को बतौर फीस क्यों दिया जाना चाहिए इसके लिए सिसोदिया का तर्क कहीं से जायज नहीं है.

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गौरतलब है कि केजरीवाल ने भाजपा नेता और केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली पर दिल्ली एंड डिस्ट्रिक्ट क्रिकेट एसोसिएशन का अध्यक्ष रहने के दौरान घपला करने का आरोप लगाया था। जेटली ने इसे अपनी मानहानि मानते हुए अदालत में दस करोड़ रुपए हर्जाने का मुकदमा दायर कर रखा है। केजरीवाल की तरफ से मशहूर वकील राम जेठमलानी पैरवी कर रहे हैं। हुआ यों कि जेठमलानी ने अपनी फीस वसूली के लिए दिसंबर 2016 में करीब 3.8 करोड़ रुपए का बिल केजरीवाल के पास भेजा था, जिसमें एक करोड़ रुपए रिटेनर फीस तथा 22 लाख रुपए प्रति सुनवाई का जिक्र था। विवाद का बिंदु यही बिल है। इस बिल के भुगतान के संबंध में दिल्ली सरकार के विधि मंत्रालय ने अपनी सलाह में कहा कि इस पर केंद्र सरकार के वित्त मंत्रालय और उपराज्यपाल की मंजूरी जरूरी है। इस तरह की तकनीकी व्यवस्था के चलते ही यह घपला सामने आ सका। बहरहाल, उपराज्यपाल ने कानूनी राय ली तो इसमें यह बात साफ हुई कि यह मुकदमा ‘व्यक्ति’ पर हुआ है, न कि ‘मुख्यमंत्री’ पर। मंगलवार को जैसे ही यह मामला मीडिया में उछला तो प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो गया। केजरीवाल पर सार्वजनिक धन की ‘लूट और डकैती’ करने के आरोप लगे हैं। सवाल सामने आया है कि निजी मामले में भुगतान करदाताओं के धन से कैसे किया जा सकता है? जबकि आम आदमी पार्टी ने अपने बचाव में कहा है केजरीवाल ने जो भी आरोप लगाए थे, वह सार्वजनिक हित में और सार्वजनिक पद पर रहते हुए लगाए थे।
अरविन्द केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन की उपज हैं। एक तरह से वे राजनीति में ईमानदारी के हीरो के रूप में ही आये थे और जनता ने इसीलिये उनका प्रचण्ड समर्थन किया। लेकिन उनकी कथनी और करनी में अन्तर तो सत्ता के शीर्ष पर बैठते ही झलकने लगा। जिस सीढ़ी यानी अन्ना को आधार बनाकर उन्होंने सत्ता हासिल की, उन्हीं अन्ना को ही उन्होंने प्रारंभ में ही नकारा। उनकी तो शुरुआत ही झूठ की बुनियाद पर ही हुई है। सबसे पहले तो उन्होंने राजनीति में नहीं आने की कसम खाई थी। लेकिन, बाद में वह अपनी बात से पलट गए और राजनीति में ईमानदारी और नैतिकता के नये पैमाने तय करने के लिए आम आदमी पार्टी बनाकर मैदान में आ गए। अब तक के उनके राजनीतिक करियर को देखकर सामान्य आदमी भी बता सकता है कि केजरीवाल ने राजनीति में शुचिता की कोई नई लकीर नहीं खींची है। बल्कि, उन्होंने एक अजीब किस्म की राजनीति को जन्म दिया है। अपने अपराध पर पर्दा डालने के लिए वह खुद को पीड़ित बताते हुए दूसरों पर हमलावर हो जाते हैं। उनके स्वयं के मंत्रिमण्डल एवं पार्टी के नेताओं-मंत्रियों पर चारित्रिक, आपराधिक और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं, लेकिन उन्होंने ठोस संदेश देने वाली कोई कार्रवाई नहीं की। केजरीवाल के भरोसेमंद और दिल्ली सरकार के परिवहन मंत्री गोपाल राय पर भी भ्रष्टाचार का आरोप लगा है। हालांकि उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है, लेकिन इस्तीफे का कारण बनाया है बीमारी को। बात केवल गोपाल राय की नहीं बल्कि उनके मंत्रिमंडल के अधिकांश सदस्य ऐसे ही आरोपों से घिरे हैं।
अब जबकि ये पूरा विवाद आम आदमी पार्टी और केजरीवाल की छवि को धक्का पहुंचाने लगा है तो राम जेठमलानी कह रहे हैं कि वो दिल्ली के मुख्यमंत्री से बतौर फीस एक पैसा भी नहीं मांगेंगे। क्योंकि वे केजरीवाल को गरीब मानते हैं। जबकि उन्होंने 3.42 करोड़ की फीस की राशि का बिल दे दिया है। लेकिन यहां सवाल खड़ा होता है कि अगर जेठमलानी को मुफ्त सेवा देनी थी तो इतना लंबा-चैड़ा बिल क्यों भेजा था? पिछले महीने नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (कैग) ने अपनी एक रिपोर्ट में 29 करोड़ रुपए सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय मानकों के विरुद्ध विज्ञापन पर खर्च करने की बात कही थी। इस बारे में उपराज्यपाल दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव को वसूली करने का आदेश भी जारी कर चुके हैं। इसके बाद अब इस नए खुलासे के चलते आप की साख को और चोट पहुंची है। आम आदमी पार्टी हाइकमान संस्कृति को खत्म करने और सत्ता के दुरुपयोग को बंद करने के वादे पर वजूद में आई थी। विडंबना यह है कि खुद अपनी ही कसौटियों पर आज वह कठघरे में खड़ी दिखती है। ये मुद्दे जहां एमसीडी चुनाव के परिप्रेक्ष्य में आम आदमी पार्टी के खिलाफ जाते हुए दिखाई दे रहे हैं वहीं केजरीवाल की सियासी महत्वाकांक्षाओं के रास्ते में रोड़ा साबित होने के संकेत भी दे रहे हंै, क्योंकि केजरीवाल ने राजनीति में सियासत की धारा को बदलने का दावा कर एंट्री की थी। उनकी सियासत की ताकत पारदर्शिता और बेहतर छवि प्रस्तुत की थी, लेकिन अफसोस यह है कि केजरीवाल ने जिन उच्च नैतिक आदर्शों को अपनी सियासत का आधार बनाया था वो अब उन्हीं सिद्धांतों को लांघने में लगे हैं। वे अब किसी सामान्य राजनीतिज्ञ की तरह ही हैं जिनके चेहरे से आदर्श और सिद्धांतों को वो मुखौटा उतर चुका है जो उन्होंने अपनी सियासत चमकाने के लिए पहले पहन रखा था।
आज की राजनीति में ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है तो सत्य और ईमानदारी की रेखा से कभी दाएं या बाएं नहीं चले। जो अपने कार्य की पूर्णता के लिये छलकपट का सहारा न लें। हमारे भीतर नीति और निष्ठा के साथ गहरी जागृति की जरूरत है। नीतियां सिर्फ शब्दों में हो और निष्ठा एवं नियत पर सन्देह की परतें पड़ने लगे तो राजनीति में शुचिता और शुद्धि कैसे आएगी? बिना जागती आंखों के सुुरक्षा की साक्षी भी कैसी! एक वफादार चैकीदार अच्छा सपना देखने पर भी इसलिए मालिक द्वारा तत्काल हटा दिया जाता है कि पहरेदारी में सपनों का खयाल चोर को खुला आमंत्रण है। केजरीवालजी! ईमानदारी अभिनय करके नहीं बताई जा सकती, उसे जीना पड़ता है कथनी और करनी की समानता के स्तर तक।

प्रेषक:
(ललित गर्ग)
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