भोग-बिलास में रत लोग सुखी और सदकर्म वाले दुखी क्यों हैं?
हमें यह भ्रम कि ‘बुरे काम करने वाले लोग सुखी व अच्छे कर्म करने वाले लोग दुखी रहते है‘ इसलिए होता है क्योंकि हम हमेशा किसी के पूरे जीवन का हिसाब केवल उसके जीवन के कुछ हिस्सों 5, 10, 15, 20 या 30 सालों को देख कर ही लगा लेते हैं। अगर हम उनके कुल जीवन को (70, 80, 90 वर्ष) देखने के पश्चात गणना करें तो निश्चितता पायेंगे कि ईश्वर के घर (न्याय) में देर हैं अंधेर नहीं। जीवन संक्षिप्त हो या लंबा, महत्वपूर्ण विचार यह है कि हमारे जीवन का एक पल भी बोझ नहीं होना चाहिए
वैसे तो अपार परमात्मा व उसके अथाह सिस्टमको जानना अत्यंत कठिन है फिर भी अगर हम स्वयं को प्रेम के सागर परमात्मा की जगह रख कर देखें तो हम पाते हैं कि एक माँ की तरह परमात्मा भी सबसे बिना पक्षपात के प्रेम करता है।
प्रसिद्ध किताब “कन्वर्शेसन विद गौड” के लेखक नील डोनालड वालशने कहा है कि “Your will for you is God’s will for you.” “आपकी अपने लिये जो इच्छा है वही ईश्वर की आपके लिए इच्छा है” परमात्मा आपको वही देता है जो आप परमात्मा से चाहते हैं — पर वह देता अपने तरीक़े से है!!
बुरे काम करने वालों का परिणाम अत्यंत बुरा ही होता है। बल्कि स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार हर वह क्षण जो कोई भी व्यक्ति (दूसरों का शोषण या) स्वार्थ में मज़े करने में बिताता है उन कर्मों का भोग या हिसाब उस व्यक्ति को चक्रवर्ती ब्याज के हिसाब से चुकाना पड़ता है।
(इस अत्यंत मूल्यवान जीवन का) हर वह क्षण जो कोई व्यक्ति खुशी व मज़े करने में बिताता है वह (सुख व ख़ुशियाँ भविष्य में निश्चितता) उसके प्रारब्ध कर्मों के कोटे (भोगों) के रूप में दुख व पीड़ायें ले कर आयेगी; केवल उतनी ही मात्रा में नहीं बल्कि (उससे कहीं अधिक बदतर स्थिति में) — यौगिक सम्मिश्रण के साथ।
[Every bit of pleasure will bring its quota of pain, if not with compound interest.] –Swami Vivekananda
इस मापदंड के आधार पर अगर हम देखे तो हम पाते हैं कि दुष्ट प्रवृत्तियों के लोग परमात्मा से सुख-सुविधाएँ आदि माँगते हैं बल्कि ईमानदार व भलामानुसव्यक्ति खुद्दार होता है वह परमात्मा से सुख माँगने की बजाय साहस, सहनशक्ति, विनम्रता व भक्ति की प्रार्थना करता है।
दूसरा कारण यह कि दुष्ट व ग़लत प्रवृति के मनुष्यों के पाप करने के संस्कार इतने गहरे व प्रबल हो चुके होते होते हैं कि उनका पूर्ण जीवन तेज़ी से पतन की तरफ़ अग्रसर होने लगता है। ऐसे में ईश्वर के पास एक ही विकल्प बचता है कि वह जैसा (ग़लत) चाहते हैं वैसा होने दिया जाये, क्योंकि अब जब तक वह अपनी बुराइयों का सारा कोटा समाप्त नही कर लेते तब तक उनकी आदतों में सुधार की कोई सम्भावना नहीं हो सकती।
इसलिए परमात्मा उन दुष्ट स्वभाव के लोगों के पिछले जन्मों की अच्छाईयों का कोटा शीघ्रातिशीघ्र समाप्तकरने को देता है ताकि वह अपने जीवन की पतन की राह की पराकाष्ठा तक जल्द से जल्द पहुँच सके। क्योंकि वहाँ से ही बुराई से अच्छाई की तरफ़ का यू-टर्न (U-TURN) आरम्भ होता है।
हमें कैसे जीना चाहिए? ;केवल वही अकेला सौ साल अच्छी तरह से संतुष्टी के साथ जी सकता है जो लगाव के बिना काम करता है, जो अपने काम को ईमानदारी से करता है, इच्छाओं के बिना, अपने सभी कर्मों के फलों की अपेक्षाओं या चाहत के बिना, अपना जीवन ईश्वर के मधुर स्मरण में पूर्ण समर्पण भाव में जीता है।(ईशा उपनिषद 2)।
आमतौर पर यह महसूस किया जाता है या आध्यात्मिक जीवन में शास्त्र, पुस्तकें, कवितायें और अन्य मार्ग-संकेत करते हैं कि एक इंसान का सामान्य जीवनकाल सौ साल का होता है। जीवन संक्षिप्त हो या लंबा, महत्वपूर्ण विचार यह है कि हमारे जीवन का एक पल भी बोझ नहीं होना चाहिए और न ही कभी आत्महत्या के ख़्याल द्वारा हमारे मन में जीवन को छोटा करने की इच्छा उत्पन्न होनी चाहिए। एक दम से जीवन को हर तरह से शांति और खुशी के साथ पूरा करना चाहिए। सभी धर्मों और युगों के संतों और आचार्यों ने अपने जीवन द्वारा अच्छी तरह से दिखाया व साबित किया है कि यह संभव है। हमें केवल यह जानना है कि इसे कैसे करना है; उनकी शिक्षाएँ व शब्द हमें रास्ता बताते हैं।
आसक्ति और इच्छा के बिना कार्य करना ;भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने हमारे लिए बहुत ही स्पष्ट रूप से दो तरह के व्यक्तियों का चरित्र चित्रण खींचाहैं: एक वह जो चिंता और दुख में रहता है और दूसरा वह जो सदैव शांति और संतोष में रहता है।— दोनों बिल्कुल एक ही स्थिति में रह सकते हैं, क्योंकि यह कोई बाहरी स्थिति नहीं है जो हमें खुश या दयनीय (दुखी) बनाती है, बल्कि उन परिस्थितियों के प्रति हमारी प्रतिक्रिया है। श्रीकृष्ण यह बिल्कुल स्पष्ट करते हैं कि सुख या दुख का चक्र दो वजहों से चलता हैं : लगाव और इच्छा। जो लोग बाहरी चीजों के लिए आसक्ति में रहते हैं, इच्छा को पूरा करने के लिए उत्सुक रहते हैं, उन्हें निश्चितता (भविष्य में) पीड़ित होना पढ़ेगा और घोर निराशा में रहना पड़ेगा।
दूसरी ओर, जो लोग सांसारिक चीजों से लगाव करने की बजाय पूर्ण परमात्मा से लगाव रखते हैं व अहंकार की इच्छाओं के बिना रहते हैं, वे सदा शांति से रहते हैं।
अनासक्ति (Nonattachment);
श्रीकृष्ण हमारे लिए न केवल अपने जीवन का आदर्श रखते हैं, बल्कि वे हमें भगवद् गीता के निम्नलिखित श्लोकों द्वारा यह भी बताते हैं कि इसे कैसे पूरा किया जाए।
जीवन के हर कार्य को सदैव हृदय में विराजित सर्वोच्च परमात्मा पर अपना ध्यान केंद्रित रखते हुए निभायें। फलों के प्रति लगाव का त्याग करें। सफलता और असफलता में सदा समान रहें; यह समता का भाव ही है जो ध्यान योग द्वारा व्यक्ति (योगी) अर्जित करता है। (2:48)।
ईश्वर के प्रति समर्पण की सुखद शांतिमें आप इसी जीवन के दौरान खुद को पाप-पुण्य के बंधन से मुक्त कर सकते हैं। इसलिए, पूर्ण ब्रह्म मे विलयन की अवस्थातक पहुंचने के लिए स्वयं को समर्पित करें, हृदय पर निरन्तर ध्यान के अभ्यास द्वारा शीघ्रातिशीघ्र पूर्ण ब्राह्म के साथ अपनी आत्मा का एकाकार करें और फिर कार्य करें : यही अनासक्त भाव से काम करने का रहस्य है (2:50)
जब परमात्मा पर ध्यान के अभ्यास से आपकी बुद्धि से भ्रम का प्रभाव समाप्त हो जाता है अर्थात मिटकर साफ हो जाता है, तो आप सभी वर्तमान या भविष्य की क्रियाओं के परिणामों के प्रति विरक्त/तटस्थ (indifferent) हो जाएंगे” (2:52)
यह दुनिया तब तक अपनी गतिविधियों में कैद रहती है जब तक की लोगों द्वारा प्रत्येक कार्य परमात्मा की पूजा की तरह समर्पित भाव से न किये जायें। इसलिए हमें प्रत्येक कार्य को पवित्रता के साथ करना चाहिए; और सदैव परिणामों की सभी चिंताओं व अपेक्षाओं से मुक्त रहना चाहिए।(3: 9)
प्रभु श्रीकृष्ण कहते हैं: जो व्यक्ति अकेले मेरे लिये काम करता है, मुझे अपना एकमात्र लक्ष्यबनाता है और मेरे प्रति पूर्ण रूप से समर्पित है; सांसारिक लगाव व आसक्तियों से मुक्त है, और उसमें किसी भी प्राणी के प्रति घृणा का भाव नहीं है — हे अर्जुन, वह व्यक्ति, मेरे अंदर प्रवेश करेगा (11:55)
इसलिए, प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण ब्राह्म का तब तक ध्यान व मनन करते रहना चाहिए जब तक कि उसकी अनासक्ति की कुल्हाड़ी भक्ति व दिव्य प्रेम की कसौटीपर कस कर तेज नहीं हो जाती। और मनुष्य को चाहिए कि वह विरक्ति की कुल्हाड़ी से इस भौतिक जीवन रूपी प्रबल अश्र्वत्थ के वृक्ष के बन्धन को काटकर पूर्ण परमात्मा श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करें अर्थात् उस उच्चतम लक्ष्य का अन्वेषण करेंजिसमें पहुँचने पर फिर जन्म- मरण के (मरणशील) जीवन में लौटने की बाध्यता नहीं रहती; प्रभु श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करते ही मनुष्य स्वतः इस भौतिक विस्तार से विलग हो जाता है। (15: 3)
कोई भी मनुष्य समस्त कर्मों का त्याग नहीं कर सकता है, लेकिन वह जो कर्म केफल का परित्याग कर देता है, उसे ही अनासक्त या त्यागी कहा जाता है। (18:11)
जब एक व्यक्ति विरक्ति व त्याग के माध्यम से अनासक्ति, आत्म-निपुणता और इच्छा से मुक्ति प्राप्त कर लेता है, तो वह पूर्ण ब्राह्म के साथ मिल जाता है, जो सभी कार्रवाई से परे है। दूसरे शब्दों में, ध्यान व साधना के निरन्तर अभ्यास द्वारा व्यक्ति कर्मफल से मुक्ति की सर्वोच्च सिद्ध-अवस्था प्राप्त कर सकता है |(18:49)
ईश्वर पर ध्यान व मन रखने से हमें अपनी गतिविधियों के प्रति अहंकारी लगाव से मुक्ति मिलती है। यह एक बहुत ही उच्च आदर्श है और इसे प्राप्त करना बहुत कठिन है; हमें ध्यान के नियमित अभ्यास के माध्यम से इस आदर्श तक पहुँचने के लिए निरन्तर प्रयास करना चाहिए, केवल ध्यान के माध्यम से ही स्पष्ट व उत्कृष्ट दृष्टिकोण पैदा हो सकता है और हृदय में बसी दिव्य आत्मा पर निरन्तर ध्यान हमें ऐसे उदात्त आदर्श को जीने के लायक़ व सक्षम बना सकता है।
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