जितने भी देवी देवता इस ब्रह्मांड में हैं वह सूक्ष्म रूप से शरीर में है- सृष्टि की समस्त शक्तियों के केंद्र हैं शरीर के सात चक्र

शरीर के चक्रों पर कौन से देवी-देवताओं का वास होता है और चक्रों को खोलना क्या होता है? इस शरीर में भी सभी चीजें हैं जो इस ब्रह्मांड में है किंतु सूक्ष्म रूप में । जितने भी देवी देवता इस ब्रह्मांड में हैं वह सूक्ष्म रूप से शरीर में है यथार्थ रूप में वह अपने लोक में है ।

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मानव शरीर में सात चक्र होते हैं सबसे पहला है मूलाधार इसमें गणेश जी देवता है और देवी काली हैं ।साधना में सर्वप्रथम कुंडलिनी के जाग्रत होने पर साधक को गणेश जी की शक्तियां प्राप्त होती हैं जिससे वह रिद्धि सिद्धि का स्वामी बन जाता है । शुरुआत गणेश जीसे होती है इसी कारण गणेश जी सबसे पहले पूजे जाते हैं प्रथम पूजा का कारण यह नहीं है कि वह सबसे बड़े हैं । इनसे बड़े तो इंद्र है जिन का बास स्वाधिष्ठान में है ।

इसके ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र है । जिस के देवता इंद्र है और देवी ब्रह्मचारिणी । इस स्थान पर तभी पहुंचा जा सकता है जब ब्रह्मचर्य का पालन किया जाए । यहां तक पहुंचने से पहले साधकों के लिए इंद्र अप्सराएं भेज दिया करता है जिससे उनका ब्रह्मचर्य टूट जाए वह पतित हो जाए । ऐसे प्रमाण बहुत से ग्रंथों में हैं । जो इस स्थान तक पहुंच जाता है उसके पास इंद्र की शक्तियां आ जाती हैं । इंद्र की पूरी कैविनेट और सभी देवी देवता उसके अधीन हो जाते हैं l

उससे ऊपर मणिपुरक चक्र है इसके देवता ब्रह्माजी है ।यहां की देवी सरस्वती है ब्रह्मा जी की उत्पत्ति नाभि कमल से हुई है । वह इस स्थान में रहकर गर्भ में रहने वाले बच्चे की रचना करते हैं । यह स्थान पूरे शरीर का केंद्र माना जाता है इस स्थान पर पहुंचने वाले साधक के पास ब्रह्मा जी की शक्ति आ जाती हैं और उस के आशीर्वाद से किसी को भी संतान की प्राप्ति हो सकती है

इससे ऊपर अनहद चक्र है जिसमें जिसमें हर समय विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों की आवाज आती रहती है l इस चक्र के देवता विष्णु जी हैं जो छीर सागर में लेटे हुए हैं l जब ब्रह्मा जी किसी बच्चे की निर्माण ( रचना )कार्य पूरा कर देते हैं और उसकी उत्पत्ति ( जन्म )हो जाती है तब उनका कार्य पूर्ण हो जाता है और उसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी विष्णु जी पर आ जाती है । जिससे मां के स्तनों में दूध आ जाता है यह स्तन छीर सागर का प्रतीक है l यहां तक पहुंचने वाले साधक के पास विष्णु जी की शक्तियां आ जाती हैं ।.वह अपने शरीर को स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्म से स्थूल बना सकता है और किसी भी लोक में जा सकता है ।

विष्णु जी को ही भगवान माना जाता है इसीलिए लोग कहते हैं कि वह भगवान सबके ह्रदय में किंतु ऐसा नहीं है भगवान विष्णु और देव विष्णु में अंतर है इस पर यदि कोई प्रश्न अलग से आएगा तो इसका समाधान किया जाएगा ।

अनहद से ऊपर विशुद्ध चक्र है इसके देवता शंकर जी है और देवी उमा जी है यहां तक पहुंचने वाले साधक के पास शंकर जी की शक्ति आ जाती है और मृत्यु उसकी इच्छा पर निर्भर हो जाती है ।

इससे ऊपर आज्ञा चक्र है जहां पर तीसरा नेत्र होता है यह आत्मा का क्षेत्र है यहां पहुंचने पर कुंडली भी जो शक्ति रूपा थी वह इस आत्मा ईश्वर ब्रह्म शिव क्षेत्र में पहुंचकर शिव से मिलती है यहां पर पहुंचने वाला साधक अर्धनारीश्वर बन जाता है । शंकर जी ध्यान साधना योग आध्यात्म के द्वारा यहां तक पहुंचे ,वह शिव बन गए, उन्हें शिव कहा जाने लगा ।

कुंडलिनी यहीं पर रुक जाती है इस कुंडलिनी शक्ति के द्वारा मूलाधार में रहने वाला जीव इन चक्रों से होता हुआ शिव बनता है जो पहले शिव ही था जिसे माया ने जीव बना दिया था । जो जीव इस स्थिति में पहुंच कर अपने पूर्व के स्वरूप को प्राप्त करता है इसे ही स्वरूप की प्राप्ति, आत्मज्ञान की प्राप्ति आत्मज्ञान आदि नामों से जाना जाता है । जहां पर साधक लिखा है वहां जीव पढ़ा जाए । आप शरीर नहीं है जीव हैं , प्राप्ति जीव को ही होती है शरीर सिर्फ माध्यम है ।

दुनिया के जितने भी गुरुजी लोग हैं उन्हें जीव की जानकारी नहीं है कि जीब क्या है ? कैसा है ? कहां रहता है ? वह सिर्फ कुंडलिनी को आज्ञा चक्र तक पहुंचने का विवरण बताते है । जब जीव शिव बन जाता है तब वह नीचे वाले संपूर्ण देवताओं और देवियों से श्रेष्ठ बन जाता है । उसे किसी देवी देवता के आगे सर पटकने की जरूरत नहीं है । इसीलिए कहा है बड़े भाग मानुष तन पावा सुर दुर्लभ सब ग्रंथन गावा ।

मानव शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है और कितनी खुशहाली की बात है कि वह मानव तन आपके पास है । यहां दिव्य ज्योतिर्मय प्रकाश और चिदानंद है । जीव शिव बनते ही चिदानंद और ज्योतिर्मय हो जाता है । यहाँ पर जीव का पहुंचना ही समाधि कहलाता है क्योंकि वह शिव से अथवा शिव के समत्व प्राप्त कर लेता है या शिव के समक्ष हो जाता है ।शंकर जी अपने आप को यही स्थित रखते है ।इस लिए ज्यादा तर वह समाधि में रहते हैं ।

यहां तक पहुंचने वाले गुरु स्वयं को भगवान मानने लगते हैं क्योंकि ब्रह्मा विष्णु महेश उससे नीचे होते हैं । वह इसी आत्मा ईश्वर ब्रह्म और दिव्य चेतन ज्योति को ही परमात्मा घोषित कर देते हैं । ध्यान साधना का अभीष्ट यही है । इससे आगे ना तो कुंडलिनी जा सकती है और ना ही कोई गुरु ।

संसार के जितने भी गुरु है उन्हें महात्मा कहलाने का भी अधिकार नहीं है क्योंकि जिसका इष्ट, अभीष्ट आत्मा ही है वह आत्मा से महान अर्थात् महात्मा कैसे हो सकता है ? कोई भी गुरु इस क्षेत्र से आगे नहीं बढ़ा सकता क्योंकि गुरु भी ज्योतिर्मय शिव ही है। इसे ही कैवल्य कहते हैं । इससे ऊपर सहस्त्र सार है । महावीर स्वामी बुद्ध भी आज्ञा चक्र से आगे नहीं पहुंचे क्योंकि इससे ऊपर जाने की ना तो कोई क्रिया है और ना ही कोई कर्म यह सिर्फ़ भगवान की कृपा पर आधारित है।यह स्वयं को ही भगवान मानने लगते हैं जिससे भगवान से इनका संबंध नहीं रहता ।

जिसका इष्ट और अभीष्ट परमात्मा है जो आत्मा से ऊपर और परमात्मा से नीचे होता है वह महात्मा कहलाता है । वही असली गुरु है वह सहस्त्र सार में साकार रूप में अभय मुद्रा में बैठे होते हैं ,और यहीं से पूरे शरीर पर नियंत्रण करते हैं । संसारी गुरु ने इस स्थान को परमात्मा का स्थान बता दिया है जबकि सच्चाई यह है परमात्मा ना तो इस शरीर में है और ना ही ब्रह्मांड में । वह परमधाम में रहता है । वह युग युग में एक बार किसी शरीर विशेष में अवतरित होता है।

यह संपूर्ण शरीर सूक्ष्म ब्रह्मांड है जो कुछ ब्रह्मांड में है वह इस शरीर में भी है जिस प्रकार एक ग्लोब संपूर्ण पृथ्वी का प्रतिरूप होता है उसमें सभी चीजें सूक्ष्म रूप में होती हैं । उसी प्रकार इस शरीर में भी सभी चीजें हैं जो इस ब्रह्मांड में है किंतु सूक्ष्म रूप में । जितने भी देवी देवता इस ब्रह्मांड में हैं वह सूक्ष्म रूप से शरीर में है यथार्थ रूप में वह अपने लोक में है ।

यह लोग अपने शिष्यों को भ्रमित करके कुछ क्रियाएं बता देते हैं कहते हैं करते रहो सच्चाई नहीं बताते । जबकि यम नियम का पालन किए बिना कोई भी क्रिया नहीं हो सकती जिसमें ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है । यदि यह ब्रह्मचर्य का पालन करवाने लगेंगे तो कोई भी शिष्य इनके पास नहीं रुकेगा , जो इन्हें रुपये देना तो दूर एक गिलास पानी भी नहीं देगा । इन्हें शिष्यों के कल्याण से मतलब नहीं है उसके धन से मतलब है क्योंकि इन्हें शिष्य के पैसे से अपने बेटा बेटी पालने हैं ।

ये स्वयं मूलाधार में पड़े हुए हैं । जो मूलाधार में पड़ा हुआ है वह किसी को आज्ञा चक्र अथवा सहस्त्र सार में क्या पहुंचाएगा ? यह साधन किसी दुर्लभ गुरु के सानिध्य में रहकर संयमित जीवन जीकर ही की जा सकती है अन्यथा नहीं ।

सृष्टि की समस्त शक्तियों के केंद्र हैं शरीर के सात चक्र

शरीर में मूल रूप से 7 चक्र होते हैं. इन्हें सृष्टि की समस्त शक्तियों का केंद्र माना जाता है. आइए जानते हैं इन चक्रों के बारे में. मूलाधार चक्र  – यह चक्र रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले हिस्से के आसपास होता है. – इस चक्र को कुलकुण्डलिनी का मुख्य स्थान कहा जाता है , इसका एक और नाम भौम मंडल भी है. – यह चक्र चौकोर तथा उगते हुये सूर्य के समान स्वर्ण वर्ण का है. – भौतिक रूप से सुगंध और आरोग्य इसी चक्र से नियंत्रित होते हैं. – आध्यात्मिक रूप से धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष का नियंत्रण करता है.  – इसका बीजाक्षर है – “लं” – व्यक्ति के अन्दर अत्यधिक भोग की इच्छा और आध्यात्मिक इच्छा इसी चक्र से आती है  स्वाधिष्ठान चक्र – जनन अंग के ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी पर स्थित होता है, – इस चक्र का स्वरुप अर्ध-चन्द्राकार है, यह जल तत्त्व का चक्र है – इस चक्र से निम्न भावनाएँ नियंत्रित होती हैं – अवहेलना,सामान्य बुद्धि का अभाव,आग्रह,अविश्वास,सर्वनाश और क्रूरता  – यह चक्र छह पंखुड़ियों का है  – इसी चक्र से व्यक्ति के अन्दर काम भाव और उन्नत भाव जाग्रत होता है  – इस चक्र का बीज मंत्र है – “वं”  – इस चक्र को तामसिक चक्र माना जाता है.  मणिपुर चक्र  – यह चक्र नाभि के ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी पर स्थित होता है.  – इस चक्र की आकृति त्रिकोण है, और रंग रक्त के समान लाल है. – यह चक्र ऊर्जा का सबसे बड़ा केंद्र है , यहीं से सारे शरीर में ऊर्जा का संचरण होता है.  यह अग्नि तत्त्व को नियंत्रित करता है और राजसिक गुण से संपन्न है.  – यह चक्र १० पंखुड़ियों का है  – इस चक्र से निम्न वृत्तियाँ नियंत्रित होती हैं – लज्जा,दुष्ट भाव,ईर्ष्या,सुषुप्ति,विषाद,कषाय,तृष्णा,मोह,घृणा,भय – मन या शरीर पर पड़ने वाला प्रभाव सीधा मणिपुर चक्र पर पड़ता है. – इस चक्र का बीज मंत्र है- “रं”  अनाहत चक्र  – ह्रदय के बीचों बीच रीढ़ की हड्डी पर स्थित चक्र को अनाहत चक्र कहा जाता है.  – आध्यात्मिक दृष्टि से यहीं से साधक के सतोगुण की शुरुआत होती है. इसी चक्र से व्यक्ति की भावनाएँ और अनुभूतियों की शुरुआत होती है.  – इस चक्र को सौर मंडल भी कहा जाता है. इसका वर्ण हल्का हरा है.  – इसका आकार षठकोण का है.  – इस चक्र में १२ पंखुड़ियां हैं  – इस चक्र से निम्न प्रकार की वृत्तियाँ नियंत्रित होती हैं –  चिंता, चेष्टा, ममता, दंभ, विवेक, विकलता, अहंकार, लोलता, कपटता, वितर्क, अनुताप  – व्यक्ति की भावनाएँ और साधना की आंतरिक अनुभूतियाँ इस चक्र से सम्बन्ध रखती हैं. – मानसिक अवसाद की दशा में इस चक्र पर गुरु ध्यान और प्राणायाम करना अदभुत परिणाम देता है. – इस चक्र का बीज मंत्र है – “यं” विशुद्ध चक्र  – कंठ के ठीक पीछे स्थित चक्र है – विशुद्ध चक्र  – यह चक्र और भी उच्चतम आध्यात्मिक अनुभूतियाँ देता है , सारी की सारी सिद्धियाँ इसी चक्र में पायी जाती हैं.  – यह चक्र बहुरंगा है और इसका कोई एक ख़ास स्वरुप नही है.  – यह चक्र आकाश तत्त्व और आठों सिद्धियों से सम्बन्ध रखता है.  – इस चक्र की १६ पंखुड़ियां हैं  – कुंडली शक्ति का जागरण होने से जो ध्वनि आती है वह इसी चक्र से आती है  – इसका बीज मंत्र है – “हं” – इस चक्र से निम्न वृत्तियाँ नियंत्रित होती हैं – भौतिक ज्ञान,कल्याण,महान कार्य,ईश्वर में समर्पण,विष और अमृत  – इस चक्र के गड़बड़ होने से वैज्ञानिक रूप से थाईराइड जैसी समस्याएँ और वाणी की विकृति पैदा होती है  – संगीत के सातों सुर इसी चक्र का खेल हैं आज्ञा चक्र – दोनों भौहों के बीच स्थित चक्र को आज्ञा चक्र कहा जाता है. – यह दो पंखुड़ियों वाला है , एक पंखुड़ी काले रंग की और दूसरी पंखुड़ी सफ़ेद रंग की है. – सफ़ेद पंखुड़ी ईश्वर की ओर जाने का प्रतीक है , और काली पंखुड़ियों का अर्थ संसारिकता की ओर जाने का है . – इस चक्र के दो अक्षर और दो बीज मंत्र हैं – ह और क्ष  – इस चक्र का कोई ध्यान मंत्र नहीं है क्योंकि यह पांच तत्वों और मन से ऊपर होता है. – इस चक्र पर मंत्र का आघात करने से शरीर के सारे चक्र नियंत्रित होते हैं. – इसी चक्र पर इडा,पिंगला और सुषुम्ना आकार खुल जाती हैं और मन मुक्त अवस्था में पंहुँच जाता है. सहस्त्रार चक्र – मष्तिष्क के सबसे उपरी हिस्से पर जो चक्र स्थित होता है , उसे सहस्त्रार कहा जाता है. – यह सहस्त्र पंखुड़ियों वाला है , और बिलकुल उजले सफ़ेद रंग का है. – इस चक्र का न तो कोई धयान मंत्र है और न ही कोई बीज मंत्र , इस चक्र पर केवल गुरु का ध्यान किया जाता है.   कुण्डलिनी जब इस चक्र पर पहुँचती है तब जाकर वह साधना की पूर्णता पाती है और मुक्ति की अवस्था में आ जाती है. – इसी स्थान को तंत्र में काशी कहा जाता है – इस स्थान पर सदगुरु का ध्यान या कीर्तन करने से व्यक्ति के मुक्ति मोक्ष का मार्ग सहज हो जाता है.

आप सभी लोग इस कुंडलिनी के चक्कर में मत पड़े भगवान की भक्ति करें जो उपलब्धि कुंडलिनी की अंतिम उपलब्धि है भगवान के भक्तों को उससे भी आगे सहज ही प्राप्त होती है क्योंकि भक्त क्रिया पर नहीं कृपा पर आधारित है । भगवान किस को क्या दे देगा कोई भी नहीं जानता ? यह संसार के गुरु आप का भला नहीं कर सकते यह सिर्फ अपना भला करने में लगे हुए हैं भगवान भला नहीं करता परम कल्याण करता है उस पर भरोसा रखिए।

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