गोदाम भरे हैं, राहत कोष लबालब,फिर भी सर्वे के हवाले से इंडियन एक्सप्रेस ने क्यो कहा- 96% दाने-दाने को मुँहताज
देशव्यापी लॉकडाउन को तीन मई तक बढ़ाए जाने के बाद एक स्वैच्छिक समूह ने एक रिपोर्ट जारी की है जो कि इस दौरान शहरों में फंसे हुए प्रवासी मजदूरों के भूख के संकट और आर्थिक बदहाली को दिखाती है. मध्यप्रदेश में 92 लाख टन अनाज के सरकारी दावे के बावजूद कूड़ेदान से अपनी भूख मिटाता नजर आया शख्स – सरकार का दावा है कि मध्यप्रदेश में 92 लाख टन अनाज है लेकिन फिर भी एक शख्स कूड़ेदान से अपनी भूख मिटाता नजर आया. शख्स की वीडियो शूट करने वाले ने कहा भी कि वो उसे खाना खिला देगा लेकिन पेट की भूख हर आश्वासन से बड़ी थी. इससे पहले एक गैर सरकारी संगठन जन सहस द्वारा 3,196 प्रवासी मजदूरों के बीच किए गए अध्ययन पता चला था कि 42 फीसदी घरों में एक दिन का भी राशन नहीं है. रिपोर्ट ने दावा किया कि भूख और संकट की दर मुहैया कराई जा रही राहत से कहीं अधिक है.
सरकारी आँकड़े कहते हैं कि गोदामों में 90 लाख टन अनाज का स्टॉक है, जो कि बफर स्टॉक का तीन गुना है। इसमें 39 लाख टन गेहूँ है, करीब 28 लाख टन चावल है और 23 लाख टन धान है। बफर स्टॉक यानी सूखा, बाढ़, अकाल जैसी मुसीबतों के समय काम आने वाला भंडार। लेकिन अनाज भंडार यहीं तक सीमित नहीं है, बल्कि अभी रबी की बंपर फसल आने वाली है, जिसे रखने के लिए न किसानों के पास जगह होगी और न सरकार के पास। किसानों की मदद के लिए सरकार को समर्थन मूल्य में अनाज तो ख़रीदना ही पड़ेगा, तब वह क्या करेगी। क्या वह इस अनाज को खुले में सड़ने के लिए छोड़ देगी। लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए। सबसे बेहतर तो यह होगा कि भारत के उन तीन महान अर्थशास्त्रियों की सलाह पर अमल किया जाए जिनमें से दो नोबल पुरस्कार विजेता हैं।
सर्वे के हवाले से इंडियन एक्सप्रेस- 96% दाने-दाने को मुँहताज https://himalayauk.org/top-news-16-april-2020/
अमर्त्य सेन, रघुराम राजन और अभिजीत बनर्जी ने सुझाव दिया है कि अनाज को यह चिंता किए बिना तेज़ी से बाँटा जाना चाहिए कि यह कुछ ग़लत लोगों के पास भी जा सकता है। अभी तो एक ही लक्ष्य होना चाहिए कि ज़रूरतमंदों को कैसे अनाज मिले।
इन अर्थशास्त्रियों ने यह सुझाव भी दिया है कि चूँकि बहुत सारे लोगों के पास राशन कार्ड नहीं हैं या ये बनने की प्रक्रिया में हैं, इसलिए अस्थायी कार्ड बनाकर वितरण शुरू कर देना चाहिए। मुफ़्त अनाज की मात्रा दोगुनी कर देनी चाहिए और यह योजना कम से कम छह महीनों तक जारी रहनी चाहिए। इससे लोगों में थोड़ी निश्चिंतता आएगी, क्योंकि पहले से ही बेरोज़गारी का डर भी उनके अंदर समाया हुआ है। इसमें कांग्रेस नेता राहुल गाँधी के इस सुझाव को भी जोड़ा जा सकता है कि अनाज हर हफ़्ते दिया जाए और साथ में एक किलो चीनी भी दी जाए। चीनी का स्टॉक भी देश में भरपूर है। मिड डे मील को भी छात्रों के घरों तक पहुँचाने की व्यवस्था की जानी चाहिए। वास्तव में कुछ राज्य सरकारें तो ऐसा कर भी रही हैं।
मोदी सरकार की डायरेक्ट कैश ट्रांसफ़र योजना की रफ़्तार भी सुस्त है और वह सारे ज़रूरतमंदों को मिल भी नहीं रही। इस मामले में भी सरकार को तीनों विद्वान अर्थशास्त्रियों के सुझाव को मानते हुए उसका दायरा बढ़ाना चाहिए। लोगों में असंतोष बढ़ता जा रहा है और वह किसी भी रूप में फूटकर बाहर आ सकता है। इससे क़ानून-व्यवस्था की समस्या तो खड़ी होगी ही, कोरोना से लड़ने के लिए जो उपाय किए जा रहे हैं वे भी नाकाम हो जाएंगे। इसलिए बहुत ज़रूरी है कि सरकार अपने अनाज भंडार ग़रीबों के लिए खोले और मदद देने के मामले में कोई कंजूसी या लापरवाही न करे।
देश भर से मज़दूरों और ग़रीब तबक़े में असंतोष होने की ख़बरें आ रही हैं। लॉकडाउन ने उनकी कमर तोड़ दी है, उनके सामने भूखे मरने की नौबत आ चुकी है। मगर केंद्र सरकार कुछ नहीं कर रही। उसके गोदाम अनाज से भरे हुए हैं, चूहे उसे खा रहे हैं, वह सड़ रहा है। मगर उन लोगों को नहीं मिल रहा जो भूखे हैं, भूख से मर रहे हैं। एक ग़ैर सरकारी संगठन स्वैन के सर्वे के मुताबिक़ करीब 96 फ़ीसदी लोगों तक किसी भी तरह की सरकारी मदद नहीं पहुँची है। यह सर्वे 13 अप्रैल को करवाया गया था यानी लॉक डाउन घोषित होने के बीसवें दिन। सोचा जा सकता है कि सरकार ने कितनी सुस्त रफ़्तार से ग़रीबों की मदद के लिए क़दम उठाए। इसमें उसकी संवेदनहीनता और अगंभीरता दोनों झलकती है। ऐसा तब है जबकि अनाज की कोई कमी नहीं है। सरकार चाहती तो अपनी इस घोषणा पर तत्काल अमल कर सकती थी कि वह हर ग़रीब परिवार को पाँच किलो चावल या गेहूँ और एक किलो दाल हर महीने देगी। लेकिन ज़ाहिर है कि सरकार में इच्छाशक्ति का अभाव है या उसे ग़रीबों की कोई परवाह ही नहीं है। उसकी रुचि थाली-ताली बजवाने में ज़्यादा थी, अपनी झूठी कामयाबी के ढोल पीटने में ज़्यादा थी और वह उसी में लगी रही। यह सही है कि हमारा डिलीवरी सिस्टम अरसे से चौपट पड़ा है, मगर लॉकडाउन से पहले सरकार को इसे दुरुस्त करने की योजना भी बनानी चाहिए थी, जो उसने नहीं बनाई। बल्कि यूँ कहना चाहिए कि उसने इस दिशा में सोचा ही नहीं। नतीजा हम देख ही रहे हैं। हर तरफ असंतोष बढ़ रहा है और यह कभी भी हिंसक रुख़ अख़्तियार कर सकता है।
देशव्यापी लॉकडाउन को तीन मई तक बढ़ाए जाने के बाद एक स्वैच्छिक समूह ने एक रिपोर्ट जारी की है जो कि इस दौरान शहरों में फंसे हुए प्रवासी मजदूरों के भूख के संकट और आर्थिक बदहाली को दिखाती है. इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा किए जाने के दो दिन बाद 27 मार्च से ही शिक्षाविदों और भूख के अधिकार कार्यकर्ताओं को महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, पंजाब, दिल्ली और हरियाणा में फंसे हुए प्रवासी मजदूरों की चिंताजनक हालत की सूचनाएं मिलने लगीं. बेंगलुरु के अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सहायक प्रोफेसर राजेंद्रन नारायणन ने कहा, ‘पहले तो हमने पैसे देने की कोशिश की लेकिन जल्द ही हमें पता चला कि अभाव का पैमाना बहुत बड़ा था.’
13 अप्रैल तक स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (स्वान) के 73 स्वयंसेवकों के समूह से फंसे हुए श्रमिकों के 640 समूहों ने संपर्क किया गया था, जिनकी देशभर में संख्या 11,159 थी. उन्होंने श्रमिकों को नकद हस्तांतरण (3.8 लाख रुपये) में मदद की, उन्हें स्थानीय संगठनों से जोड़ा और सरकारी सुविधाओं की व्यवस्था की. नारायणन ने कहा, ‘हालांकि यह एक शोध परियोजना के रूप में शुरू नहीं हुआ था लेकिन हमने जो डेटा एकत्र किया है, वह लॉकडाउन के प्रवासी श्रमिकों के अनुभव को समझने में मदद कर सकता है.’ समूह से संपर्क करने वाले अधिकांश श्रमिकों ने शहरों में रहना चुना था या लंबी दूरी तय करके घर जाने में असफल रहे. 13 अप्रैल तक जो फोन आए उनमें से लगभग आधे (44 फीसदी) फोन एसओएस थे जिसमें लोग खाने या पैसे की मांग कर रहे थे. वहीं, लॉकडाउन के दूसरे सप्ताह तक यह संख्या 36 फीसदी थी. रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि प्रयासों और वादों के बावजूद राज्य और केंद्र सरकारें प्रवासी श्रमिकों तक नहीं पहुंचने पा रही हैं. उदाहरण के लिए 96 प्रतिशत को सरकार से राशन नहीं मिला था और 70 प्रतिशत को पका हुआ भोजन नहीं मिला था. 3992 प्रवासी मजदूरों के सैंपल वाले महाराष्ट्र में 1 प्रतिशत से कम को ही सरकार से राशन मिला था और लगभग 90 प्रतिशत को डर था कि दो दिनों में उनका राशन खत्म हो जाएगा. मुंबई में वालंटियरों को खाने और राशन का इंतजाम करने में खासी समस्या आई जहां के एक स्टेशन पर पिछले सप्ताह प्रवासी मजदूर बड़ी संख्या में इकट्ठा हो गए थे. रिपोर्ट में कहा गया, ‘एंटॉप हिल और मुंबई जैसे जगहों पर हमें 300 से अधिक प्रवासी मजदूर मिले. वे पके हुए भोजन की मांग कर रहे रहे हैं और डब्बाबंद खाना खाने के कारण बच्चों के बीमार पड़ने की कई खबरें हैं. वे बार-बार व्यर्थ में हेल्पलाइन पर कॉल करते हैं. तलोजा-पनवेल क्षेत्र में लगभग 600 प्रवासी फंसे हुए हैं, जिनमें कुछ सप्ताह से कम उम्र के बच्चे और महिलाएं भी हैं. उन क्षेत्रों में काम करने वाले संगठनों के पास इतनी बड़ी संख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता नहीं है. सरकार को जल्दी से जल्दी कदम बढ़ाने होंगे.’
रिपोर्ट ने दावा किया कि भूख और संकट की दर मुहैया कराई जा रही राहत से कहीं अधिक है. सरकार से राशन न मिलने वालों की संख्या 8 अप्रैल के 99 फीसदी से 13 अप्रैल को 96 फीसदी हुई है. दूसरे शब्दों में कहें तो दो सप्ताह के लॉकडाउन के बाद केवल एक प्रतिशत फंसे हुए श्रमिकों को सरकार से राशन मिला जबकि तीन सप्ताह के लॉकडाउन में उनमें से केवल 4 प्रतिशत को सरकार से राशन मिला था. रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक निर्देश के बावजूद 89 प्रतिशत श्रमिकों को उनके नियोक्ताओं द्वारा लॉकडाउन के दौरान भुगतान नहीं किया गया है. नारायणन ने कहा, ‘माननीय सीजेआई ने पूछा है कि भोजन मिलने पर श्रमिकों को नकदी की आवश्यकता क्यों होनी चाहिए. लेकिन जब वे छोटे समूहों में फंसे होते हैं तो कई श्रमिकों के लिए नकद राशि एक जीवन रेखा की तरह होती है. उन्हें दवाइयों की जरूरत होती है या अपना फोन रिचार्ज करवाना होता है जिससे वे मदद मांग सकते हैं. हालांकि, 300 रुपये से कम बचे होने पर, वे एक अनिश्चितिता की स्थिति में हैं.’ प्रवासी मजदूरों की इस समस्या से निपटने के लिए स्वान रिपोर्ट में तीन महीने के लिए पीडीएस राशन को दोगुना करने और इसकी पहुंच को सार्वभौमिक बनाने, प्रति एक लाख लोगों पर 70 हजार केंद्रों के माध्यम से न्यूनतम दो समय पके हुए भोजन सुनिश्चित करना, बिना बायोमीट्रिक जानकारी के प्रत्येक गरीब परिवार या प्रवासी मजदूर को दो महीनों के लिए प्रति माह 7000 हजार की आपातकालीन नकद राहत और उनके जनधन खाते में प्रति माह 25 दिनों के लिए न्यूनतम मजदूरी जारी की जाए. इससे पहले एक गैर सरकारी संगठन जन सहस द्वारा 3,196 प्रवासी मजदूरों के बीच किए गए अध्ययन पता चला था कि 42 फीसदी घरों में एक दिन का भी राशन नहीं है. सर्वे में सामना आया था कि एक तिहाई मजदूर लॉकडाउन के चलते शहरों में फंसे हुए हैं जहां पर न तो पानी है, न खाना और न ही पैसा. जो मजदूर अपने गांव पहुंच भी गए है वे भी पैसे और राशन की समस्या से जूझ रहे हैं.