हरीश रावत के निर्णय पर उठे सवाल
सरकार और मुख्यमंत्री हरीश रावत जी से समाज जानना चाहता है-
देहरादून की एक सड़क का नाम स्व.अतुल माहेश्वरी जी के नाम पर करने पर अमर उजाला से जुड़े उन लोगों को और समाज को जरूर अच्छा लगेगा जिन्होंने इस अखबार के उस पुराने दौर को देखा है।
आरा घर रोड का नाम अतुलजी के नाम पर दिया यह तो ठीक है , पर सरकार और मुख्यमंत्री हरीश रावत जी से समाज जानना चाहता है।
1- क्या राजधानी में विश्व को प्रकृति का संदेश देने वाली गौरा देवी के नाम पर कोई सड़क या स्मारक है।
2- क्या 1857 की आजादी की लडाई के हिमालय क्षेत्र के पहले स्वाधीनता सेनानी कालू मेहरा की याद में राजधानी में कोई स्मारक है। कोई सडक है।
3- क्या आजादी की लड़ाई में बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में निकलने वाले अखबारों के नाम पर कोई सड़क है। वो अखबार जो अंग्रेजों को चैन नहीं लेने देते थे। जिनकी प्रशंसा महात्मा गांधी ने भी की थी।
4- क्या गुप्त रेडियो से आजादी का जयघोष करने वाली अल्मोडा की कुंती देवीजी के नाम पर कोई सड़क है।
5- बागेश्वर की विश्नी शाहजी ने बीस हजार महिलाओं का नेतृत्व करते हुए अंग्रेजों को चुनौती दी। बेगार प्रथा के रजिस्टर सरयू में बहाए गए। क्या विश्नीजी के नाम पर देहरादून की कोई ,सड़क समर्पित है।
6 – क्या बद्रीदत्त पांडे , धूलियाजी , श्यामा चरण काला, नेत्र सिंह जैसे पत्रकारों के नाम पर राजधानी में कोई सडक है।
7- चीन के युद्ध में 72 घंटे अकेले लड़ने वाले योद्धा जसवंत सिह के नाम पर सड़क है। नेफा में उस बलिदानी के लिए मंदिर बना है। क्या हम उनके लिए राजधानी में किसी पगडंडी जैसा रास्ता भी तलाश पाए हैं।-
8- क्या गढ केसरी कुमांऊं समाचार, हिलांस , जयंत जैसे अखबार के संस्थापकों के नाम पर कोई सड़क है।
9- क्या तिलाडी कांड को अखबार में प्रकाशित करने वाले यशस्वी संपादक जिन्होंने यातना सही लेकिन रिपोर्टर का नाम नहीं बताया उन्हें लेकर कोई सड़क है।
10- क्या गबर सिंह, दरबान सिंह जैसे विक्टोरिया क्रास पाने वाले बलिदानियों के नाम पर राजधानी में कोई स्मारक या सडक है। क्या चंद्र सिंह गढवाली के नाम को हम राजधानी में इज्जत दे पाए हैं। क्या हमारे माधो सिंह मलेथा, तीलू रौतेली जैसे ऐतिहासिक नायको के लिए देहरादून की कोई सडक सम्मान जगाती है।
11- क्या राजधानी में सुमित्रानंदन पंत. शिवानी गिर्दा अबोध बंधु बहुगुणा , रतन जोनसारी चंद्र कुवंर बर्तवाल, हर भजन, कन्हैया लाल डंडरियाल जैसे लेखको, केशव अनुरागी चंद्र सिंह राही, बाबू गोपाल गोस्वामी, वचनी देही, मोहन उप्रेती जैसे कलाकारों के नाम पर कोई सडक है। क्या बीसवीं सदी के प्रारंभ में ही इस क्षेत्र में सामाजिक चेतना जगाने वाले रंगकर्मियों के नाम पर कोई सभाग्रह है। कोई सडक है।
12 – क्या दुनिया भर के पहाडों का सर्वेक्षण करने वाले हिमालय की ऊंचाई नापने वाले नैन सिंह रावत के नाम पर कोई सडक है। कोई स्मारक है।
13 – क्या जिन अशिक्षित महिलाओं ने आंदोलन करके विश्वविद्यालय मांगा था, जिन्होंने दुनिया को पर्यावरण का नारा दिया, जिन महिलाओं ने शराब बंदी के आंदोलन किए, उनको समर्पित कोई स्मारक है
13- भारत पर छेडे गए बार बार युद्ध में उत्तराखंड के जिन सैनिकों ने सीमा पर बलिदान दिया, सीमा की रक्षा की उन्हें राजधानी किस तरह याद करती है। कोई स्मारक कोई खास सड़क। गढवाल राइफल के पराक्रम को राजधानी में किस तरह याद करें। कुमाऊ रेजिमेंट्स के शोर्य को किस तरह याद कर सकते हैं।
14- क्या कोई सडक मोला राम तोमर जैसे कलाकार के नाम पर है, क्या कोई सडक मुकंदीलाल बेरिस्टर के नाम पर है। क्या जयानंद भारती जैसे समाजसेवी के लिए हम श्रद्धासुमन अर्पित कर पाए हैं।
आखिर एक समय –
बताते हैं, एक समय अमर उजाला में उत्तराखंड में स्थानीय और बाहर से आए पत्रकारों के ने मिलकर सार्थक और गंभीर पत्रकारिता की। गौरा देवी का आंदोलन हो या विश्व विद्यालय की स्थापना का या फिर पृथक राज्य के लिए किया गया संघर्ष या फिर प्राकृतिक आपदा से जूझते गांव, पलायन, लोगों की भावना, उनके सुख दुख, क्षेत्रीय सरोकार अमर उजाला तब समाज के साथ जुडा रहा।
आज जब राज्य सरकार ने अतुलजी को सम्मान दिया है तब अमर उजाला जैसे अखबार के दायित्व और जिम्मेदारियां बहुत बढ जाती है।
जो समाज , अमर उजाला अखबार के एक दिवंगत आत्मा की इतनी इज्जत कर रहा है, अमर उजाला को उस समाज के प्रति उतना ही जवाबदेह होना पडेगा। एक तरह की पारदर्शिता और निष्पक्षता और पहाडों की संवेदना। डाकबंगलों और बीजापुर गेस्ट हाउस से चलने वाली पत्रकारिता से इस संवेदनशील राज्य के हित में लिखा नहीं जा सकता। न ही मंत्री और नौकरशाहों के दरवाजे पर चक्कर काट कर और फोनवा मोबाइलवा किस्म की पत्रकारिता से किसी राज्य की दशा और हालात को नहीं समझ सकते हैं।
संपादक ( चाहे दिल्ली के हों या देहरादून के ) मुख्यमंत्री, नेताओ, नौकरशाहों के आगे लोटन कबूतर की तरह नजर नहीं आए यह भी देखना अखबार का गंभीर दायित्व होगा । याद रखना चाहिए नेताओं और नौकरशाहों के आगे फडफडाते , लजाते, झेंपते संपादक विज्ञापन तो ला सकते हैं, लेकिन समाज को वो आंच नहीं दे सकते, जिस आंच की जरूरत अतुलजी ने अपने समय में महसूस की थी। और जिसके लिए वो सबको प्रोत्साहित करते थे। इसलिए अखबार भी चला और समाज के हित में लिखा भी गया। अतुलजी संस्थान मे अच्छे योग्य कर्मठ लोगों के चयन को लेकर बहुत सजग थे। उन्होंने पत्रकारों को पूरा अवसर दिया कि वे अपने लेख, खबरें, विश्लेषण आदि लिख सके। संपादक ही नहीं बिल्कुल नए पत्रकारों के लेख व्यंग्य विश्लेषण आदि प्रकाशित होते रहे। अमर उजाला ने उस दौर में कई नए लेखक दिए।
कोई अखबार किसी राजनीतिक पार्टी या किसी नेता का भौंपू न बनेे । एक संवेदनशील राज्य में उन लोगों के सहारे अखबार खडा रहे, जिन पर समाज यकीन कर सके। आज के समय में अखबारों को स्वयं में व्यंग्य बनने से बचाने की बेहद जरूरत है।
Harish Thapliyal