अनुच्छेद 35-ए का निदान, भ्रम व विघटन -वरिष्ठ अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट 

अनुच्छेद 35-ए का निदान, भ्रम व विघटन- भीमसिंह # इस विषय को भारतीय जनता पार्टी भी संसद में नहीं उठा सकी 

यह दुर्भाग्यपूर्ण एवं दुखद ऐतिहासिक घटना है, जिसके कारण जम्मू-कश्मीर आज भी भारतीय संविधान के साथ जुड़ नहीं पाया है। भारतीय संविधान का निर्माण भारत की संविधान सभा ने 1949 में सम्पन्न किया था और भारतीय संविधान को 26 जनवरी, 1950 को लागू कर दिया गया था। संविधान में सबसे महत्वपूर्ण अध्याय था अध्याय-3, जिसमें अनुच्छेद 12 से 35 तक मानवाधिकार का उल्लेख है। ये मानवाधिकार सभी भारतीय नागरिकों के अलावा कुछ गैरनागरिकों को भी दिये गये थे, जैसे अनुच्छेद 21, जो मानवाधिकार अध्याय-3 में दर्ज है, इसके अनुसार जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार भारतवर्ष में रह रहे सभी लोगों को प्राप्त हैं, चाहे वे नागरिक हों या भारत में रह रहे हों। त्रासदी यह रही कि अध्याय-3 को जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं किया गया, बल्कि जम्मू-कश्मीर का भारत के साथ विलय के प्रश्न को संविधान के अनुच्छेद 370 को अस्थायी रूप से डालकर एक भयंकर गलती की गयी। इसके लिए कौन जिम्मेदार है, कौन कसूवार है? इस विषय में इस समय विचार-विमर्श करने की आवश्यकता नहीं है। इतिहास के उन पन्नों को एक बार बड़े ध्यान से सोचने की आवश्यकता है।

दूसरी गलती भारत सरकार ने 1954 में की, जब जम्मू-कश्मीर के लिए वहां के नागरिकों के मानवाधिकार जो भारतीय संविधान में सुनिश्चित थे, उन पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया। 14 मई, 1954 को शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की हिरासत का औचित्य सिद्ध करने के लिए भारतीय संविधान के अध्याय-3 में अनुच्छेद 35 के साथ ‘ए‘ जोड़ दिया गया। अनुच्छेद 35-ए को समझना बहुत आवश्यक है, विशेषकर आज के दिन जब सरकारी मीडिया 35-ए के समर्थन में उन राजनीतिज्ञों का समर्थन कर रही है, जो अनुच्छेद 35-ए को सुरक्षित रखना चाहते हैं।

दूसरी गलती भारत सरकार ने 1954 में की, जब जम्मू-कश्मीर के लिए वहां के नागरिकों के मानवाधिकार जो भारतीय संविधान में सुनिश्चित थे, उन पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया। 14 मई, 1954 को शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की हिरासत का औचित्य सिद्ध करने के लिए भारतीय संविधान के अध्याय-3 में अनुच्छेद 35 के साथ ‘ए‘ जोड़ दिया गया। अनुच्छेद 35-ए को समझना बहुत आवश्यक है, विशेषकर आज के दिन जब सरकारी मीडिया 35-ए के समर्थन में उन राजनीतिज्ञों का समर्थन कर रही है, जो अनुच्छेद 35-ए को सुरक्षित रखना चाहते हैं। मैं (लेखक) सभी पक्षों से लगातार यह अपील करता आया हूं कि अध्याय-3 को अनुच्छेद 12 से 35 तक समझने की कोशिश करें, जिसमें भारतीय संविधान में दिये गये सभी मानवाधिकार शामिल हैं। ये मानवाधिकार भारत के सभी नागरिकों को प्राप्त थे, जिसमें जम्मू-कश्मीर में रहने वाले सभी नागरिकों को भी हासिल थे, क्योंकि भारतीय संविधान के अनुसार जम्मू-कश्मीर में रहने वाले सभी स्थायी नागरिक भारत के नागरिक हैं। यह क्यों किया गया, कैसे किया गया और इसका प्रभाव जम्मू-कश्मीर के नागरिकों पर क्या हुआ और इस मानवाधिकार के अध्याय को भारत संविधान के अनुच्छेद 35-ए ने किस तरह रौंद डाला। इसका उल्लेख मैं सभी नागरिकों, भारतवासियों और जम्मू-कश्मीर में रहने वाले नागरिकों से करना चाहूंगा कि जो भारतीय संविधान के अनुसार भारतीय नागरिक हैं और उनमें मैं भी शामिल हूं।
1953 में भारत सरकार जिसके प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू थे, उन्हें प्रधानमंत्री पद से 8 अगस्त की रात को निकालकर गुलमर्ग की एक जेल में बंद कर दिया गया। इसकी क्या वजह थी, क्या कारण था कि प. नेहरू ने अपने बहुत पुराने, करीबी दोस्त/साथी शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को सŸाा से निकालकर जेल में बंद कर दिया और सŸाा शेख अब्दुल्ला के साथी बख्शी गुलाम मोहम्मद को जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया गया।

इतिहास में एक बहुत बड़ी घटना यह हुई थी कि जब 26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ तो भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर राज्य को शामिल नहीं किया गया, बल्कि जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह के पद को भी नहीं छेड़ा गया, क्योंकि महाराजा हरिसिंह 1949 को अपनी स्वेच्छा से जम्मू-कश्मीर छोड़कर बम्बई चले गये। 26 जनवरी, 1950 जिस दिन भारत का संविधान लागू किया गया, उस दिन भी जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ही अस्थायी शासक थे। उनकी अनुपस्थिति के बहाने उनके बेटे युवराज कर्णसिंह को जम्मू-कश्मीर का राजप्रमुख (सदर-ए-रियासत) नियुक्त किया गया। यह क्यों हुआ, किस लिए किया गया, इसमें भारत सरकार का क्या उद्देश्य था? यह इतिहास एक दिन पूरे भारतवासियों के लिए अवश्य लिखा जाएगा, परंतु सबसे दुखदायक घटना यह थी कि महाराजा हरिसिंह के ऐतिहासिक विलयपत्र, जिसमें उनके अपने हस्ताक्षर हैं, उनके अनुसार महाराजा को तीन विषयों रक्षा, विदेश मामले, संचार इत्यादि के विलयपत्र को स्वीकार करते हुए भी संसद को नहीं सौंपे गये यानि भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़कर इन विषयों पर भी भारतीय संसद को कानून बनाने का   अधिकार नहीं दिया गया।

इतिहास में एक बहुत बड़ी घटना यह हुई थी कि जब 26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ तो भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर राज्य को शामिल नहीं किया गया, बल्कि जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह के पद को भी नहीं छेड़ा गया, क्योंकि महाराजा हरिसिंह 1949 को अपनी स्वेच्छा से जम्मू-कश्मीर छोड़कर बम्बई चले गये। 26 जनवरी, 1950 जिस दिन भारत का संविधान लागू किया गया, उस दिन भी जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ही अस्थायी शासक थे। उनकी अनुपस्थिति के बहाने उनके बेटे युवराज कर्णसिंह को जम्मू-कश्मीर का राजप्रमुख (सदर-ए-रियासत) नियुक्त किया गया। यह क्यों हुआ, किस लिए किया गया, इसमें भारत सरकार का क्या उद्देश्य था? यह इतिहास एक दिन पूरे भारतवासियों के लिए अवश्य लिखा जाएगा, परंतु सबसे दुखदायक घटना यह थी कि महाराजा हरिसिंह के ऐतिहासिक विलयपत्र, जिसमें उनके अपने हस्ताक्षर हैं, उनके अनुसार महाराजा को तीन विषयों रक्षा, विदेश मामले, संचार इत्यादि के विलयपत्र को स्वीकार करते हुए भी संसद को नहीं सौंपे गये यानि भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़कर इन विषयों पर भी भारतीय संसद को कानून बनाने का अ अधिकार नहीं दिया गया।

आश्चर्य की बात यह है कि इस विषय को भारतीय जनता पार्टी भी संसद में नहीं उठा सकी, जबकि यह विषय महाराजा हरिसिंह ने भारतीय संसद को सौंप दिये थे, जैसे बाकी 575 रियासतों ने भारत के सौंपे थे। उन रियासतों के शासकों ने बाद में भारत संघ से विलय कर दिया था, परंतु जम्मू-कश्मीर के बारे में कोई भी निर्णय भारतीय संसद आज तक नहीं कर सकी।

आश्चर्य की बात यह है कि इस विषय को भारतीय जनता पार्टी भी संसद में नहीं उठा सकी, जबकि यह विषय महाराजा हरिसिंह ने भारतीय संसद को सौंप दिये थे, जैसे बाकी 575 रियासतों ने भारत के सौंपे थे। उन रियासतों के शासकों ने बाद में भारत संघ से विलय कर दिया था, परंतु जम्मू-कश्मीर के बारे में कोई भी निर्णय भारतीय संसद आज तक नहीं कर सकी। यहां बात का उल्लेख करना भी आवश्यक है कि दो रियासतें जिनमें हैदराबाद और जूनागढ़ शामिल हैं, ने भारत  संघ में 26 जनवरी, 1950 में शामिल की गयी थी, जिनके शासकों ने विलयपत्र पर हस्ताक्षर नहीं किये थे। एक बहुत बड़ा प्रश्न यह है कि भारतीय संसद ने जम्मू-कश्मीर में राजशाही को क्यों नहीं हटा था, जबकि वहां के महाराजा और लोकप्रिय नेतृत्व ने जम्मू-कश्मीर की विलय प्रक्रिया को पूरा समर्थन किया था। इस प्रश्न का उŸार भी एक दिन भारत के इतिहासकारों को देना होगा।

26 जनवरी, 1957 को जम्मू-कश्मीर में जम्मू-कश्मीर का संविधान लागू हुआ, जिसमें भारती संविधान में दिये गये अध्याय-3 में दिये गए मौलिक अधिकार का उल्लेख तक नहीं है। आज भी जम्मू-कश्मीर के संविधान में भारतीय संविधान में दिये गये मौलिक अधिकारों को कोई उल्लेख नहीं है। उच्चतम न्यायालय का योगदान है कि भारतीय संविधान में दिये गये कई मानवाधिकार जम्मू-कश्मीर में रहने वाले भारतीय नागरिकों को भी उपलब्ध हैं।

वहां रहने वाले भारतीय नागरिक आज भी मानवाधिकारों से वंचित हैं, जो पूरे भारत के नागरिकों को प्राप्त हैं। जम्मू-कश्मीर के शासक वहां के सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जब सरकार चाहे तो जनसुरक्षा कानून के तहत जानवरों की तरह जेलों में बंद कर सकती है आज भी जम्मू-कश्मीर में जनसुरक्षा कानून 1978 लागू है, 

मुझे स्वयं जम्मू-कश्मीर में लगभग 50 बार जेलों में बंद कर दिया गया और लगभग हर बार उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप से रिहा हुआ और आज भी जिंदा हूं। यह आश्चर्य की बात है कि जम्मू-कश्मीर भारतीय संविधान के अनुसार पूरे भारत का अटूट अंग है, परंतु वहां रहने वाले भारतीय नागरिक आज भी मानवाधिकारों से वंचित हैं, जो पूरे भारत के नागरिकों को प्राप्त हैं। इसकी बहुत बड़ी वजह यह है कि जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकार के अध्याय को लागू नहीं किया गया और इसका कारण था कि जम्मू-कश्मीर की सरकार को पूरी सŸाा दी जाय, ताकि जम्मू-कश्मीर के शासक वहां के सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जब सरकार चाहे तो जनसुरक्षा कानून के तहत जानवरों की तरह जेलों में बंद कर सकती है।

किसी भी व्यक्ति/राजनीतिक कार्यकर्ता को दो वर्ष तक बिना मुकदमा चलाए जेल में रखा जा सकता है, इनमें आज भी सैंकड़ो लोग जम्मू-कश्मीर से राज्य की जेलों में ही नहीं बल्कि पूरे देश की जेलों में बंद हैं। दर्जनों ऐसे नौजवानों को मैंने उच्चतम न्यायालय में उनकी याचिकाएं लगाकर रिहा करवाकर न्याय दिलाया।

इसका उल्लेख भी आवश्यक है कि 1954 में शेख अब्दुल्ला के ब्रिटेन से आये हुए वकील श्री डिंगल फुट ने जम्मू की एक अदालत में यह प्रश्न उठाया था कि शेख अब्दुल्ला को तीन महीने से ज्यादा हिरासत में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि यह गारंटी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 इत्यादि में दी गयी है, इसीलिए आज भी भारत के हिरासत कानून हैं, किसी भी भारतीय नागरिकों को तीन महीने से ज्यादा बिना मुकदमा चलाए जेल में नहीं रखा जा सकता। तत्कालीन जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद को असीमित शक्ति अथोरिटी देने के लिए अनुच्छेद 35-ए को जन्म दिया गया, जिसके कारण भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर सरकार को असीमित अधिकार दे दिया, जिसके अनुसार जम्मू-कश्मीर सरकार को अपना जनसुरक्षा कानून बनाने का अधिकार मिल गया। आज भी जम्मू-कश्मीर में जनसुरक्षा कानून 1978 लागू है, जिसके अनुसार किसी भी व्यक्ति/राजनीतिक कार्यकर्ता को दो वर्ष तक बिना मुकदमा चलाए जेल में रखा जा सकता है, इनमें आज भी सैंकड़ो लोग जम्मू-कश्मीर से राज्य की जेलों में ही नहीं बल्कि पूरे देश की जेलों में बंद हैं। दर्जनों ऐसे नौजवानों को मैंने उच्चतम न्यायालय में उनकी याचिकाएं लगाकर रिहा करवाकर न्याय दिलाया।
आज का इतिहास इस बात पर जोर दे रहा है कि जम्मू-कश्मीर के ही नहीं पूरे भारतवर्ष के लोग विशेषकर यहां के सांसदों काो इस बात को समझने की कोशिश करनी चाहिए कि इस अन्याय से भरे हुए अनुच्छेद 35-ए में दर्ज कानून को जम्मू-कश्मीर के भूतपूर्व शासक क्यों समर्थन दे रहे हैं। इसका उŸार मेरे पास है कि ऐसे ही जनविरोधी कानून का इस्तेमाल करके हजारों जम्मू-कश्मीर के नौजवानों, राजनीतिक कार्यकर्ता इत्यादि को जेलों में रखा गया, उनमें मैं भी जम्मू-कश्मीर विधानसभा का विधायक होते हुए भी लगभग आठ वर्ष जेलों में रहा हूं, शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की सरकार से लेकर पिछले कल की सरकार तक।
मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि जो बु़िद्धजीवी, राजनीतिक समूह, मानवाधिकार के लिए लड़ने वाले क्रांतिकारी आज भी जेलों से बाहर आ सकते हैं यदि भारतीय संविधान में अनुच्छेद 35-ए मौजूद न हो। आश्यर्च की बात यह है कि आज जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 35-ए के विरुद्ध युद्ध कौन कर रहा है नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और बाकी वे लोग जिन्होंने जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों पर रोक लगा रखी थी और आज भी वे सŸाा के ख्वाब में डूबे हुए यही सोच रहे हैं कि कल ऐसा न हो कि जम्मू-कश्मीर के लोगों को विशेषकर राजनीतिक कार्यकर्ताओं को मानवाधिकार प्राप्त हो जायं, जिसका आश्वासन भारतीय संविधान के अध्याय-3 में दर्ज अनुच्छेद 12 से 35 में है।

मैं यह भी बात करना चाहूंगा कि अनुच्छेद 35-ए को किसने जन्म दिया और मैं देश के सभी क्रांतिकारियों, सांसदों, इतिहासकारों और अधिवक्ताओं से जानना चाहता हूं कि क्या 35-ए का निर्माण किसी संविधान या नीति के अनुसार था। भारतीय संविधान के अध्याय-3 को अनुच्छेद 370 के किसी भी दायरे में नहीं रखा गया है। अनुच्छेद 370 का विषय क्या है और अनुच्छेद 370 भारत की किसी अथोरिटी यानि संसद से लेकर राष्ट्रपति तक हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं देता। अनुच्छेद 35-ए को राष्ट्रपति छः महीने तक संविधान के अनुसार लागू कर सकते थे और यह संशोधन सिर्फ छः महीने तक ही लागू रह सकता था यानि 1955 से अनुच्छेद 35-ए भारतीय संविधान में असंवैधानिक चल रहा है। जम्मू-कश्मीर में भी वहां के लोगों को भारतीय संविधान में दिये गये सभी मानवाधिकार उसी तरह प्राप्त हैं, जिस तरह देश के बाकी नागरिकों को। जहां तक जम्मू-कश्मीर ‘स्टेट सब्जेक्ट‘ के विषय का सम्बंध है, यह कानून महाराजा हरिसिंह ने 1927 में लागू किया था, जिसे भारतीय संविधान ने स्वीकार किया है।

ह./भीमसिंह
वरिष्ठ अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट 
मुख्य संरक्षक, नेशनल पैंथर्स पार्टी


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