कस्तूरी मृग ;हिमालय क्षेत्र में विशिष्ट प्रकार के जानवर

मृग की नाभि में अप्रतिम सुगन्धि वाली कस्तूरी 

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हिमालय क्षेत्र में कुछ विशिष्ट प्रकार के जानवर यहां की जैव-विविधता को विशेष बनाते हैं। यहां पाया जाने वाला कस्तूरी मृग 8 हजार से 15 हजार फुट की ऊंचाई वाले क्षेत्र दिखाई देता है लेकिन नर मृग की नाभि में पाई जाने वाली कस्तूरी ही इसका दुश्मन है लेकिन शिकारी नर और मादा का फर्क नहीं करते और इन मृगों का शिकार कर लेते हैं। इसकी कस्तूरी का इस्तेमाल कई प्रकार आयुर्वेदिक दवाइयों के निर्माण में होता है। कस्तूरी मृग उत्तराखंड का राज्य वन्य पशु है। कस्तूरी मृग प्रकृति के सुन्दरतम जीवों में है। इसका वैज्ञानिक नाम ‘मास्कस क्राइसोगौस्टर” (Moschus Chrysogaster) है। भारत में कस्तूरी मृग, जो कि एक लुप्तप्राय जीव है, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड के केदार नाथ, फूलों की घाटी, हरसिल घाटी तथा गोविन्द वन्य जीव विहार एवं सिक्किम के कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया है। इसे हिमालयन मस्क डियर के नाम से भी जाना जाता है। इस मृग की नाभि में अप्रतिम सुगन्धि वाली कस्तूरी होती है, जिसमें भरा हुआ गाढ़ा तरल पदार्थ अत्यन्त सुगन्धित होता है। कस्तुरी ही इस मृग को विशिष्टता प्रदान करती है। हिमालय क्षेत्र में यह देवदार, फर, भोजपत्र एवं बुरांस के वनों में लगभग 3600 मीटर से 4400 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाता है। कंधे पर इसकी ऊंचाई 40 से 50 सेमी होती है। कस्तूरी मृग विहारों में कस्तूरी मृगों का प्रजनन कर उनकी नाभि से कस्तूरी निकाली जाती थी और फिर पुनः उन्हें कस्तूरी पैदा करने के लिए छोड़ दिया जाता था लेकिन यह विधि ज्यादा कारगर नहीं हो पाई और विहार असफल हो गए। कस्तूरी मृग, जिसका वैज्ञानिक नाम मोकस मोसिकेट्स है, हिमालय का संकटग्रस्त जीव बन गया है।
इंटरनेशनल यूनियन ऑफ कंजर्वेशन ऑफ नेचर यानी आईयूसीएन के माइकल ग्रीन ने इस मृग को शोध के लिए चुना है। उनका अनुमान है कि प्रतिवर्ष हिमालय से 200 किलो तक कस्तूरी विदेशी बाजारों में भेजी जाती है जिसके लिए शिकारी मृगों का शिकार करते हैं। जाहिर है इसकी वजह से मृगों की संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है। हालांकि सरकार ने इसे लुप्तप्राय जानवरों की सूची में शामिल कर इसके शिकार पर पूर्णतया प्रतिबंध लगा रखा है। इसके अलावा इस मृग के संरक्षण व संवर्धन को लेकर कई मृग फार्म भी बनाए गए हैं लेकिन वह अपनी सार्थकता साबित नहीं कर पाए हैं। चमोली जिले के कांचुलाचखार्क में बना मृग अभ्यारण्य इसका उदाहरण है जहां मृग बच ही नहीं पाए हैं।
कस्तूरी मृग सम-खुर युक्त खुरदार स्तनधारियों का एक समूह है। यह मोशिडे परिवार का प्राणी है। कस्तूरी मृगों की चार प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जो सभी आपस में बहुत समान हैं। कस्तूरी मृग, सामान्य मृग से अधिक आदिम है। कस्तूरीमृग नामक पशु मृगों के अंग्युलेटा (Ungulata) कुल (शफि कुल, खुरवाले जंतुओं का कुल) की मॉस्कस मॉस्किफ़रस (Moschus Moschiferus) नामक प्रजाति का जुगाली करनेवाला शृंगरहित चौपाया है। प्राय: हिमालय पर्वत के २,४०० से ३,६०० मीटर तक की ऊँचाइयों पर तिब्बत, नेपाल, हिन्दचीन और साइबेरिया, कोरिया, कांसू इत्यादि के पहाड़ी स्थलों में पाया जाता है। शारीरिक परिमाण की दृष्टि से यह मृग अफ्रीका के डिक-डिक नामक मृग की तरह बहुत छोटा होता है। प्राय: इसका शरीर पिछले पुट्ठे तक ५०० से ७०० मिलीमीटर (२० से ३० इंच) ऊँचा और नाक से लेकर पिछले पुट्ठों तक ७५० से ९५० मिलीमीटर लंबा होता है। इसकी पूँछ लगभग बालविहीन, नाममात्र को ही (लगभग ४० मिलीमीटर की) रहती है। इस जाति की मृगियों की पूँछ पर घने बाल पाए जाते हैं। जुगाली करनेवाले चौड़ा दाँत (इनसिज़र, incisor) नहीं रहता। केवल चबाने में सहायक दाँत (चीभड़ और चौभड़ के पूर्ववाले दाँत) होते हैं। इन मृगों के ६० से ७५ मिलीमीटर लंबे दोनों सुवे दाँत (कैनाइन, canine) ऊपर से ठुड्ढ़ी के बाहर तक निकले रहते हैं। इसके अंगोपांग लंबे और पतले होते हैं। पिछली टाँगें अगली टाँगों से अधिक लंबी होती हैं। इसके खुरों और नखों की बनावट इतनी छोटी, नुकीली और विशेष ढंग की होती है कि बड़ी फुर्ती से भागते समय भी इसकी चारों टाँगें चट्टानों के छोटे-छोटे किनारों पर टिक सकती हैं। नीचे से इसके खुर पोले होते हैं। इसी से पहाड़ों पर गिरनेवाली रुई जैसे हल्के हिम में भी ये नहीं धँसते और कड़ी से कड़ी बर्फ पर भी नहीं फिसलते। इसकी एक-एक कुदान १५ से २० मीटर तक लंबी होती है। इसके कान लंबे और गोलाकार होते हैं तथा इसकी श्रवणशक्ति बहुत तीक्ष्ण हाती है। इसके शरीर का रंग विविध प्रकार से बदलता रहता है। पेट और कमर के निचले भाग लगभग सफेद ही होते हैं और बाकी शरीर कत्थई भूरे रंग का होता है। कभी-कभी शरीर का ऊपरी सुनहरी झलक लिए ललछौंह, हल्का पीला या नारंगी रंग का भी पाया जाता है। बहुधा इन मृगों की कमर और पीठ पर रंगीन धब्बे रहते हैं। अल्पवयस्कों में धब्बे अधिक पाए जाते हैं। इनके शरीर पर खूब घने बाल रहते हैं। बालों का निचला आधा भाग सफेद होता है। बाल सीधे और कठोर होते हुए भी स्पर्श करने में बहुत मुलायम होते हैं। बालों की लंबाई ७६ मिलीमीटर की लगभग होती है।
कस्तूरीमृग पहाड़ी जंगलों की चट्टानों के दर्रों और खोहों में रहता है। साधारणतया यह अपने निवासस्थान को कड़े शीतकाल में भी नहीं छोड़ता। चरने के लिए यह मृग दूर से दूर जाकर भी अंत में अपनी रहने की गुहा में लौट आता है। आराम से लेटने के लिए यह मिट्टी में एक गड्ढा सा बना लेता है। घास पात, फूल पत्ती और जड़ी बूटियाँ ही इसका मुख्य आहार हैं। ये ऋतुकाल के अतिरिक्त कभी भी इकट्ठे नहीं पाए जाते और इन्हें एकांतसेवी पशु ही समझना चाहिए। कस्तूरीमृग के आर्थिक महत्व का कारण उसके शरीर पर सटा कस्तूरी का नाफा ही उसके लिए मृत्यु का दूत बन जाता है।
कस्तूरी मृग एक छोटे मृग के समान नाटी बनावट का होता है और इनके पिछले पैर आगे के पैरों से अधिक लम्बे होते हैं। इनकी लम्बाई ८०-१०० से०मी० तक होती है, कन्धे पर ५०-७० से०मी० और भार ७ से १७ किलो तक होता है। कस्तूरी मृग के पैर कठिन भूभाग में चढ़ाई के लिए अनुकूल होते हैं। इनका दन्त सूत्र सामान्य मृग के समान ही होता है उत्तराखंड राज्य में पाए जाने वाले कस्तूरी मृग प्रकृति के सुंदरतम जीवों में से एक हैं। यह 2-5 हजार मीटर उंचे हिम शिखरों में पाया जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम moschus Chrysogaster है। यह “हिमालयन मस्क डिअर” के नाम से भी जाना जाता है। कस्तूरी मृग अपनी सुन्दरता के लिए नहीं अपितु अपनी नाभि में पाए जाने वाली कस्तूरी के लिए अधिक प्रसिद्ध है। कस्तूरी केवल नर मृग में पायी जाती है जो इस के उदर के निचले भाग में जननांग के समीप एक ग्रंथि से स्रावित होती है। यह उदरीय भाग के नीचे एक थेलीनुमा स्थान पर इकट्ठा होती है। कस्तूरी मृग छोटा और शर्मीला जानवर होता है। इस का वजन लगभग १३ किलो तक होता है। इस का रंग भूरा और उस पर काले-पीले धब्बे होते हैं। एक मृग में लगभग ३० से ४५ ग्राम तक कस्तूरी पाई जाती है। नर की बिना बालों वाली पूंछ होती है। इसके सींग नहीं होते। पीछे के पैर आगे के पैर से लम्बे होते हैं। इस के जबड़े में दो दांत पीछे की और झुके होते हैं। इन दांतों का उपयोग यह अपनी सुरक्षा और जड़ी-बूटी को खोदने में करता है।
कस्तूरी मृग की घ्राण शक्ति बड़ी तेज होती है। कस्तूरी का उपयोग औषधि के रूप में दमा, मिर्गी, निमोनिया आदि की दवाऍं बनाने में होता है। कस्तूरी से बनने वाला इत्र अपनी खुशबू के लिए प्रसिद्ध है। कस्तूरी मृग तेज गति से दौड़ने वाला जानवर है, लेकिन दौड़ते समय ४०-५० मीटर आगे जाकर पीछे मुड़कर देखने की आदत ही इस के लिये काल बन जाती है। कस्तूरी मृग को संकटग्रस्त प्रजातियों में शामिल किया गया है।
रूद्रप्रयाग जिले में चोपता के पंचकेदारों में से एक तुङ्गनाथ महादेव के आस-पास कस्तूरी मृग अभयारण्य स्थित है। तुङ्गनाथ महादेव मंदिर के मार्ग में ही इस अभयारण्य का कस्तूरी मृग प्रजनन केन्द्र भी स्थित है।

सदियों से ऋषि-मुनियों के आश्रम के अभिन्न अंग रहे एवं स्थानीय पशुचारकों की भेड़-बकरियों के साथ निर्भीक विचरण करने वाले कस्तूरी मृगों की संख्या को कथित वैज्ञानिक ज्ञान के बावजूद स्थिर रखना भी संभव नहीं हो पा रहा है। सम्बन्धित विभाग कस्तूरी मृगों को तस्करों की कुदृष्टि से बचाने में अक्षम हैं। यात्रा मार्गों पर नकली कस्तूरी बेचकर यात्रियों को बरगलाने वाले बंजारों पर भी कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जाता। कम से कम ऐसे पोस्टर तो लगाये ही जा सकते हैं कि कस्तूरी और अन्य महत्वपूर्ण वन उत्पादों की खरीद-फरोख्त प्रतिबंधित है। कुछ विदेशी सौंदर्य प्रसाधन एवं औषधि कंपनियाँ सोने से तीन गुना महंगी कस्तूरी को मँुहमाँगी कीमत पर खरीदती हैं। माँग और आपूर्ति का बढ़ता अंतर भी इस निरीह जानवर को विलुप्ति की कगार पर पहुँचा रहा है। सुगन्धयुक्त कस्तूरी ग्रंथि सिर्फ नर कस्तूरी मृगों में ही पाए जाने के बावजूद तथा नर-मादा की बाहरी बनावट में कोई विशेष शारीरिक अंतर न होने से मादा कस्तूरी मृग अनावश्यक रूप से कस्तूरी के लोभ में मारी जा रही हैं। नर शिशु में भी यह ग्रंथि एक वर्ष के पश्चात ही विकसित होती है।

कस्तूरी मृग (हिमालयन मस्क डियर) का प्राकृतिक आवास पाकिस्तान, उत्तरी भारत, नेपाल, भूटान, म्याँमार, तिब्बत व दक्षिण-पश्चिमी चीन तक फैला हुआ है। भारत में हिमाचल प्रदेश में किन्नौर व राजगढ़ तथा उत्तराखण्ड में केदारनाथ, बदरीनाथ व टौंस वन प्रभाग व नंदा देवी बायोस्फियर में ही कस्तूरी मृग पाया जाता है। एक सामान्य कस्तूरी मृग की लम्बाई 2.5 से 3.5 फीट, ऊँचाई लगभग 2 फीट तथा वजन 11 से 19 किग्रा तक होता है। कस्तूरी मृग के सींग नहीं होते हैं। ऊपरी जबड़े में 7-10 सेमी तक के, पीछे की ओर मुड़े व बाहर निकले दो कैनाइन दाँत होते हैं। गर्भकाल लगभग 7 माह का तथा मेटिंग सीजन दिसम्बर-जनवरी होता है। 12 से 20 साल तक के सामान्य जीवनकाल वाला कस्तूरी मृग खाने में बुग्याली घास, रिंगाल की पत्तियाँ, माँस, लाइकेन आदि पसंद करता है।, सफेद किनारों वाले कान व आँखों के ऊपर व नीचे हल्के नारंगी-मटमैला रंग वाले कस्तूरी मृग का सामान्य रंग गहरा भूरा होता है। निचले जबड़े से लेकर आँखों के नीचे तक एक सफेद लाइन भी देखी जा सकती है। शरीर के निचले व टाँगों के भीतरी हिस्से हल्के भूरे या सफेद रंग के होते हैं। कस्तूरी मृग झुण्ड के बजाय अकेले ही रहना पसंद करते हैं। अधिक से अधिक इन्हें दो या तीन के समूह में देखा जा सकता है। ये बर्फीली तथा बुग्याली क्षेत्र के लिए अनुकूलित होते हैं। इनके बाल भी इस तरह हवायुक्त बने होते हैं कि वे ऊष्मा के कुचालक रहते हुए शरीर की गर्मी से बर्फ को पिघलने नहीं देते। दूसरी विशेषता इनके बालों की यह होती है कि त्वचा में इनकी पैठ मजबूत नहीं होती है और शिकारी जानवर द्वारा हमला करने की स्थिति में यह उसके पंजों या जबड़ों में आकर मृग को भागने का अवसर दे देते हैं। कस्तूरी मृग सुबह और शाम को ही सक्रिय दिखते हैं, दिन में ये विश्राम करना पसंद करते हैं। रात को भी इन्हें भोजन की तलाश में इधर-उधर जाते हुए देखा जा सकता है क्योंकि तब कठोर बर्फ पर चलना इनके लिए आसान रहता है।

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