कुमाऊंनी होली- लाल, गुलाबी रंग डालो रे… होली आई रे रसिया
बरसाने की होली के साथ साथ उत्तराखंड की कुमाउनी होली विश्व प्रसिद्ध है। कुमाउनी होली 2 से 3 माह तक चलने वाला संगीतमय त्यौहार है। कुमाऊँनी होली के तीन प्रारूप हैं; बैठकी होली, खड़ी होली और महिला होली। इस होली में सिर्फ अबीर-गुलाल का टीका ही नहीं होता, वरन बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है। बसंत पंचमी के दिन से ही होल्यार प्रत्येक शाम घर-घर जाकर होली गाते हैं, और यह उत्सव लगभग २ महीनों तक चलता है।
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यह मिथक प्रचलित है कि जिन गांवों में आठूं मनाई जाती है वहां पर होली नहीं मनाई जाती।
उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँ क्षेत्र में होली का त्यौहार एक अलग तरह से मनाया जाता है, जिसे कुमाऊँनी होली कहते हैं। कुमाऊँनी होली का अपना ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व है। यह कुमाऊँनी लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक है, क्योंकि यह केवल बुराई पर अच्छाई की जीत का ही नहीं, बल्कि पहाड़ी सर्दियों के अंत का और नए बुआई के मौसम की शुरुआत का भी प्रतीक है, जो इस उत्तर भारतीय कृषि समुदाय के लिए बहुत महत्व रखता है।
कुमाऊँनी होली की उत्पत्ति, विशेष रूप से बैठकी होली की संगीत परंपरा की शुरुआत तो १५वीं शताब्दी में चम्पावत के चन्द राजाओं के महल में, और इसके आस-पास स्थित काली-कुमाऊँ, सुई और गुमदेश क्षेत्रों में मानी जाती है। बाद में चन्द राजवंश के प्रसार के साथ ही यह सम्पूर्ण कुमाऊँ क्षेत्र तक फैली। सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में तो इस त्यौहार पर होली गाने के लिए दूर दूर से गायक आते थे।
होली का त्यौहार कुमाऊँ में बसंत पंचमी के दिन शुरू हो जाता है। कुमाऊँनी होली के तीन प्रारूप हैं; बैठकी होली, खड़ी होली और महिला होली। इस होली में सिर्फ अबीर-गुलाल का टीका ही नहीं होता, वरन बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है। बसंत पंचमी के दिन से ही होल्यार प्रत्येक शाम घर-घर जाकर होली गाते हैं, और यह उत्सव लगभग २ महीनों तक चलता है।
बैठकी होली पारम्परिक रूप से कुमाऊँ के बड़े नगरों में (मुख्यतः अल्मोड़ा और नैनीताल में) ही मनाई जाती रही है। बैठकी होली बसंत पंचमी के दिन से शुरू हो जाती है, और इस में होली पर आधारित गीत घर की बैठक में राग रागनियों के साथ हारमोनियम और तबले पर गाए जाते हैं। इन गीतों में मीराबाई से लेकर नज़ीर और बहादुर शाह ज़फ़र की रचनाएँ सुनने को मिलती हैं। ये बैठकें आशीर्वाद के साथ संपूर्ण होती हैं जिसमें मुबारक हो मंजरी फूलों भरी..। या ऐसी होली खेले जनाब अली…जैसी ठुमरियाँ गाई जाती हैं। कुमाऊं के प्रसिद्द जनकवि गिरीश गिर्दा ने बैठकी होली के सामाजिक शास्त्रीय संदर्भों के बारे में गहराई से अध्ययन किया है, और इस पर इस्लामी संस्कृति और उर्दू का असर भी माना है।
खड़ी होली बैठकी होली के कुछ दिनों बाद शुरू होती है। इसका प्रसार कुमाऊँ के ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलता है। खड़ी होली में गाँव के लोग नुकीली टोपी, कुरता और चूड़ीदार पायजामा पहन कर एक जगह एकत्रित होकर होली गीत गाते हैं, और साथ साथ ही ढोल-दमाऊ तथा हुड़के की धुनों पर नाचते भी हैं। खड़ी होली के गीत, बैठकी के मुकाबले शास्त्रीय गीतों पर कम ही आधारित होते हैं, तथा पूर्णतः कुमाऊँनी भाषा में होते हैं। होली गाने वाले लोग, जिन्हें होल्यार कहते हैं, बारी बारी गाँव के प्रत्येक व्यक्ति के घर जाकर होली गाते हैं, और उसकी समृद्धि की कामना करते हैं।
महिला होली में प्रत्येक शाम बैठकी होली जैसी ही बैठकें लगती हैं, परन्तु इनमें केवल महिलाएं ही भाग लेती हैं। इसके गीत भी प्रमुखतः महिलाओं पर ही आधारित होते हैं।
होलिका दहन के लिए कुमाऊँ में छरड़ी से १५ दिन पहले ही चीड़ की लकड़ियों से होलिका का निर्माण किया जाता है, जिसे चीड़ बंधन कहते हैं। प्रत्येक गांव अपने अपने चीड़ की सुरक्षा में लग जाते हैं, क्योंकि प्रतिद्वंद्वी गाँव के लोग दूसरों की चीड़ चुराने की कोशिश करते हैं। होली से एक रात पहले चीड़ को जलाया जाता है, जिसे चीड़ दहन कहा जाता है। चीड़ दहन प्रह्लाद की हिरण्यकशिपु के विचारों पर जीत का प्रतीक माना जाता है।
होली के इन रंगों में सबसे अलग रंग है उत्तराखंड की कुमाऊंनी होली का.कुमाऊं की होली की पहचान है संगीत की राग-रागिनियों से. बैठकी, खड़ी और महिलाओं की स्वांग वाली होलियां, कुमाऊं की होली के रंग को खास बना देती हैं.कुमाऊंनी होली इस मायने में भी अलग है कि इसकी शुरुआत बसंत पंचमी के दिन से ही हो जाती है. इस दिन से घर की बैठकों या छतों में बैठकी होली का आयोजन शुरू हो जाता है. गांवों में बैठकी होली की महफिल जमने लगती है, जिनमें होल्यार (होली गाने वाले) हारमोनियम, तबला और हुड़के की थाप पर होली के गाने शुरू कर देते हैं ये होलियां दादरा और ठुमरी जैसे शास्त्रीय रागों पर गाई जाती हैं. इन बैठकी होलियों में गायन के दौरान राग धमार से आह्वान होता है. राग श्याम कल्याण से शुरुआत होती है और फिर अलग-अलग रागों में होलियां गाई जाती हैं . संगीत की शुद्धता, शास्त्रीयता और श्रृंगार के जरिये अद्भुत समां बंधता है. बैठकी होली में गायन का समापन राग भैरव से होता है.कुमाऊं में गाई जाने वाली ये होलियां ब्रज की भाषा में होती हैं. हालांकि इनके गाने का तरीका अलग होता है. न तो यह पूरी तरह सामूहिक गायन है और न शास्त्रीय होली तरह एकल. बैठकी होली की इन महफिलों में बैठा कोई भी शख्स बंदिश शुरू कर सकता है. इसे ‘भाग लगाना’ कहते हैं. यानी बैठकी होली में वह श्रोता भी है और होल्यार (होली गाने वाला) भी. दरअसल कुमाऊं में होली गायन साल भर चलता है.पौष महीने से लेकर कहीं-कहीं अगले साल की रामनवमी तक यह होली गायन होता है.जाड़े में पौष (पूस) के महीने से शुरू होने वाली बैठकी होली में बसंत पंचमी तक आध्यात्मिक और भक्ति संगीत से होली बैठकी की महफिल सजती है और शिवरात्रि आते-आते इसमें श्रृंगार रस शामिल होने लगता है. बहरहाल, बैठकी होली में भक्ति, वैराग्य, कृष्ण गोपियों की छेड़छाड़, प्रेमी-प्रेमिका की तकरार और देवर-भाभी की हंसी-ठिठोली सब शामिल हैं. बैठकी होली का दौर फागुन एकादशी तक चलता है और फिर इस दिन मंदिर में चीर बंधन के साथ ही शुरू हो जाती है खड़ी होली. खड़ी होली में होल्यार गांव-गांव जाकर एक बड़े गोले में घूम-घूम कर होली गाते हैं.
शशि भूषण मैठाणी पारस लिखते हैं कि – एक समय ऐसा था जब पूरे पहाड़ में होली की एक समान परंपरा थी । होली महीनेभर का जश्न होता था पहाड़ वासियों के लिए । होली बड़े ही प्यार, आदर, सम्मान व बड़ों से आशीर्वाद प्राप्त करने का पर्व था । एक ऋतु के आगमन दूसरी ऋतु के विदाई का पर्व भी होली को माना जाता है । समय बदलता गया, पहाड़ों से पलायन होता चला गया, गांव के गांव वीरान होते चले गए । और नब्बे के दशक तक आते-आते उत्तराखंड के एक हिस्से गढ़वाल मण्डल से करीब करीब होली का पर्व अपनी मूल परम्परा से पिछड़ते चला गया । इक्कसवीं सदी आते-आते गढ़वाल की होली किस्से कहानियों व मंचों में सिमटने लगी । जबकि हमारे दूसरे मण्डल कुमायूं के रहवासियों ने बदलते जमाने के साथ कदमताल करने के साथ-साथ अपने पहाड़ की अनूठी होली के कलेवर को पुराने अंदाज में जीवित रखा है । और आज भी कुमायूँ मण्डल के घर-घर में होली पर्व को बेहद ही पारंपरिक ढंग से मनाया जाता है । जिस कारण देश और दुनियाँ में मथुरा व ब्रज की होली के बराबर ही कुमाऊनी होली की भी चर्चा खूब होती है । लेकिन अच्छी बात यह भी है कि अब 2021 आते-आते एक बार फिर से गढ़वाल के कई क्षेत्रों में भी होली अपने पारंपरिक स्वरूप में मनाई जाने लगी है । खड़ी होली बैठकी होली यहा गढ़वाल की खूब चर्चित हुआ करती थी । उम्मीद है कि एक बार फिर से पूरे पहाड़ में होली अपने अनूठे अंदाज व पहचान के साथ मनाई जाएगी । वैसे उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पहाड़ के लोग एक बार फिर बड़ी तेजी से वापस अपनी परम्पराओं को अपनाने लगे हैं । यह सुखद एहसास भी है ।
छरड़ी (धुलेंडी) के दिन लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं। ऐतिहासिक तौर पर इस क्षेत्र में छरड़ से होली मनाई जाती थी, जिस कारण इसे छरड़ी कहा जाता था। छरड़ बनाने के लिए टेसू के फूलों को धूप में सुखाकर पानी में घोला जाता था, जिससे नारंगी-लाल रंग का घोल बनता था, जो छरड़ कहलाता था।
होलिका दहन के लिए कुमाऊँ में छरड़ी से १५ दिन पहले ही चीड़ की लकड़ियों से होलिका का निर्माण किया जाता है, जिसे चीड़ बंधन कहते हैं। प्रत्येक गांव अपने अपने चीड़ की सुरक्षा में लग जाते हैं, क्योंकि प्रतिद्वंद्वी गाँव के लोग दूसरों की चीड़ चुराने की कोशिश करते हैं। होली से एक रात पहले चीड़ को जलाया जाता है, जिसे चीड़ दहन कहा जाता है। चीड़ दहन प्रह्लाद की हिरण्यकशिपु के विचारों पर जीत का प्रतीक माना जाता है। छरड़ी (धुलेंडी) के दिन लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं। ऐतिहासिक तौर पर इस क्षेत्र में छरड़ से होली मनाई जाती थी, जिस कारण इसे छरड़ी कहा जाता था। छरड़ बनाने के लिए टेसू के फूलों को धूप में सुखाकर पानी में घोला जाता था, जिससे नारंगी-लाल रंग का घोल बनता था, जो छरड़ कहलाता था।
कुमाऊं की होली का एक और खास रंग है. और वह महिलाओं की होली. महिलाओं की बैठकी होली अलग होती है. महिलाएं लाल बॉर्डर वाली सफेद साड़ी पहन कर बैठकी होली की इन महफिलों में गाने और होली खेलने आती हैं. आलू के गुटके (चाट), पकौड़ों, गुझियों और चाय के साथ होली की यह महफिल घंटों चलती हैं. जिनमें शास्त्रीय रागों पर आधारित होली से लेकर होली से जुड़े लोक गीत होते हैं. महिलाओं की होली में बैठकी और खड़ी होली का मिलाजुला रंग दिखता है. शास्त्रीय रागों पर आधारित होली गीतों के अलावा ठेठ लोकगीत भी खूब गाए जाते हैं. देवर भाभी के बीच मजाक से जुड़ा एक गीत देखिये –
मेरो रंगीलो देवर घर ऐरों छो
कैं होणी साडी कैं होणी जंफर
मी होणी टीका लैंरो छो
मेरो रंगीलो देवर …
महिलाओं की स्वांग परंपरा के होली गायन में पुरुषों के जीविका की खोज में पहाड़ से पलायन से पैदा शून्य को भरने की कोशिश दिखती है. इस गायन में अक्सर महिलाएं पुरुषों का भेष धर कर होली गाती हैं और उनमें पुरुषों पर कटाक्ष भी किया जाता है. इन गीतों में विरह,प्रेम,रोमांस और पीड़ा सब कुछ होता है. पुरुष-स्त्री के बीच शालीन प्रेम की अभिव्यक्ति करते गीत शास्त्रीयता और लोक परंपरा में बंध जाते हैं.
होली के त्यौहार को उत्तराखंड राज्य के कुमाऊं क्षेत्र में कुमाऊं होली के नाम से जाना जाता है। यह त्यौहार कुमाऊं क्षेत्र के लोगों के लिए काफी महत्वपूर्ण है और उसका काफी ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व भी है। पहाड़ों के क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए यह काफी महत्वपूर्ण पर्व है क्योंकि इस दिन सर्दियों का अंत व बुवाई के मौसम की शुरुआत भी मानी जाती है। यह त्यौहार बसंत पंचमी के दिन शुरू होता है। कुमाऊ होली के तीन प्रकार हैं खड़ी होली बैठ की होली व महिला होली। इस होली के अंतर्गत सिर्फ अबीर गुलाल का टीका ही नहीं होता बल्कि बैठकी होली एवं खड़ी होली में गायन होता है| जिसके अंतर्गत लोकगीत गाने की भी शास्त्रीय परंपरा है। बसंत पंचमी के दिन घर-घर जाकर होली के गीत गाए जाते हैं वह यह उत्सव 2 माह तक हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
वर्तमान में उत्तराखंड की कई सांस्कृतिक पहचान के स्रोत विलुप्ति के द्वार पर खड़े हैं। जबकि प्रसिद्ध कुमाउनी होली की रंगत में खोए लोगों को देखकर सुखद अनुभूति होती है। उत्तराखंड की कुमाउनी होली अपने नित नए जोश और प्रेम से हर साल नए आयामो को छूती हैं।
होली का कुमाऊं क्षेत्र के लोगों के लिए बहुत महत्व है, यह दिन बहुत ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दिन रंग भरे सफेद वस्त्र धारण करके एक डंडे पर नए कपड़े की धारियां या चीर बांधने के बाद स्थानीय शिवालय में होली गाई जाती है।
कुमाउनी होली में छलड़ी के दिन आशीष गीत गाया जाता है। जो इस प्रकार है –
गावैं ,खेलैं ,देवैं असीस, हो हो हो लख रे
बरस दिवाली बरसै फ़ाग, हो हो हो लख रे।
जो नर जीवैं, खेलें फ़ाग, हो हो हो लख रे।
आज को बसंत कृष्ण महाराज का घरा, हो हो हो लख रे।
श्री कृष्ण जीरों लाख सौ बरीस, हो हो हो लख रे।
यो गौं को भूमिया जीरों लाख सौ बरीस, हो हो हो लख रे।
यो घर की घरणी जीरों लाख सौ बरीस, हो हो हो लख रे।
गोठ की घस्यारी जीरों लाख सौ बरीस, हो हो हो लख रे।
पानै की रस्यारी जीरों लाख सौ बरीस, हो हो हो लख रे
गावैं होली देवैं असीस, हो हो हो लख रे॥
यह मिथक प्रचलित है कि जिन गांवों में आठूं मनाई जाती है वहां पर होली नहीं मनाई जाती।
दूनाकोट, इस तहसील के लगभग 100 गांवों में होली नहीं मनाई जाती। दूनाकोट घाटी, आटाबीसी और बाराबीसी पट्टी के इन गांवों में लोग सिर्फ आठूं का पर्व मनाते हैं। इन गांवों में यह मिथक प्रचलित है कि जिन गांवों में आठूं मनाई जाती है वहां पर होली नहीं मनाई जाती। होली के त्योहार के समय अन्य गांवों में गीत, नृत्य की धूम रहती है, लेकिन इन गांवों में सन्नाटा पसरा रहता है। चीर बंधन, होली गायन से इन गांवों के लोग काफी दूर रहते हैं, रंग और अबीर से खेलने में भी परहेज करते हैं।
दूनाकोट घाटी में लोग होली के संगीत और साहित्य के बारे में कुछ नहीं जानते। जौरासी से लेकर चर्मा तक और उस तरफ लखतीगांव, सौगांव तक के गांवों में होली को लेकर लोगों में कोई उत्साह, उमंग नहीं दिखती। यहां के लोगों का कहना है कि आठूं का पर्व धूमधाम से मनाते हैं। आठूं इन गांवों में एक माह तक भी मनाई जाती है। हाटथर्प, धौलेत और सिटोली गांव में जितने उल्लास से होली मनाई जाती है उतने ही उल्लास से आठूं का पर्व भी मनाया जाता है। यहां के लोगों का कहना है कि यह सिर्फ मिथक बनाया गया है।