कहाँ खो रही है हमारी बोलियों की मिठास
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अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विशेष
राजेश बादल
एक ज़माना था जब कहा जाता था कि बच्चों का रिश्ता अपने माता पिता से ज़्यादा दादा – दादी या नाना नानी से होता है । लेकिन अब तस्वीर बदल गई है । दादी या नानी अपने नाती पोतों से बातें करना तो चाहतीं हैं । अफसोस ! बच्चों को उनकी बोलियां और भावुक अभिव्यक्तियों के प्रतीक समझ नहीं आते । फासला बढ़ता जा रहा है । बोलियाँ नई नस्लों तक नहीं पहुँच रहीं हैं । इसके गंभीर परिणामों पर हमने नहीं सोचा है । एकल परिवार प्रणाली ने सामुदायिक भावना का विलोप पहले ही कर दिया है । अब संयुक्त परिवारों की ख़ुशनुमा यादें जब बच्चों के साथ बाँटते हैं तो वो इतनी हैरानी से सुनते हैं मानो हम किसी दूसरे लोक की कथाएँ सुना रहे हैं । दिखने में एकल परिवार का सीधा फ़ायदा यही है कि एकदम निजी आज़ादी मिल जाती है । कमाई को ख़र्च करने का पूरा हक़ मिल जाता है । जो नुकसान होता है वह बहुत धीरे धीरे महसूस होता है । आज पति -पत्नी दोनों कामकाज़ी होते हैं । बच्चों के लिए वक़्त नहीं निकालते । बच्चों के संसार में दादा दादी नहीं होते । संस्कारों की नींव नहीं पड़ती । रिश्तों की गरमाहट किसी लॉक अप में बंद है । बच्चों के हाथ में मोबाइल ,रिमोट , कम्प्युटर और उसी माहौल के पले बढे दोस्त होते हैं । दादा दादी से उनका कोई भावुक रिश्ता नहीं बन पाता । जब यही बच्चे बड़े -बालिग़ हो जाते हैं तो उनकी दुनिया और आधुनिक हो जाती है । तब माता पिता के साथ उनका भावुक रिश्ता नहीं रहता । इस तरह तीन पीढ़ियाँ अपने अपने दुःख सुख के साथ दिन काट रहीं हैं । इन पीढ़ियों को जोड़ती थी हमारी अपनी बोलियाँ । बघेली,बुन्देली,मालवी,अवधी,बृज,हाड़ौती, भोजपुरी,मैथिली,गोंडी ,कोरकू और न जाने कितनी बोलियाँ । सदियों से कानों में मिसरी घोलतीं थीं । पर जैसे उन्हें अनपढ़ और गँवार होने का अभिशाप दे दिया गया है । असली माँ क़ैदख़ाने में है । सौतेली माँ अँगरेज़ी है,जिसकी हुक़ूमत हिंदुस्तान के घर में चल रही है । असहाय और बेबस पिता की तरह भारतीय समाज ने इस अत्याचार को ख़ून के घूँट पीते हुए स्वीकार कर लिया है । हर स्तर पर चिंता की जड़ें सूखतीं जा रही हैं ।
लेकिन इस ख़तरे को भी भारतीय उप महाद्वीप ने ही सबसे पहले सूँघा था । हिंदुस्तान के बँटवारे के बाद । पाकिस्तान ने आज के बंगलादेश( तब वो पाकिस्तान का हिस्सा था ) पर मातृभाषा बंगला की जगह उर्दू थोपी । उन्नीस सौ बावन में । आम अवाम में इसका विरोध हुआ । आंदोलन हुए । छात्र सड़कों पर उतर आए ( काश ! आज नई नस्ल भी ऐसा ही करे ) पाकिस्तानी पुलिस ने उन पर गोलियाँ चलाईं । अनेक छात्र मारे गए । अगले साल से लोगों ने अपने ढंग से उस दिन को मातृभाषा दिवस के तौर पर मनाना शुरू कर दिया । पैंतालीस साल बाद यूनेस्को ने इसे समर्थन दिया । उस समय दुनिया के कई विकसित देशों के समाज अपनी अपनी मातृभाषा पर हो रहे आधुनिक सांस्कृतिक आक्रमण से आहत थे । बंगलादेश का उदाहरण उन्होंने प्रेरणा देने वाला माना । सत्रह नवंबर,उन्नीस सौ निन्यानवे से अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाने लगा । इसे बाद में संयुक्त राष्ट्र का भी समर्थन मिला । दो हज़ार आठ में साधारण सभा की बैठक ने बाक़ायदा इसे इक्कीस फरवरी को समूचे विश्व में मनाने का एलान कर दिया । तबसे नौ साल हो गए । हम सिर्फ़ चिंता करते हैं । एक दिन माथा पीटते हैं । फिर भूल जाते हैं ।
लेकिन इस ख़तरे को भी भारतीय उप महाद्वीप ने ही सबसे पहले सूँघा था । हिंदुस्तान के बँटवारे के बाद । पाकिस्तान ने आज के बंगलादेश( तब वो पाकिस्तान का हिस्सा था ) पर मातृभाषा बंगला की जगह उर्दू थोपी । उन्नीस सौ बावन में । आम अवाम में इसका विरोध हुआ । आंदोलन हुए । छात्र सड़कों पर उतर आए ( काश ! आज नई नस्ल भी ऐसा ही करे ) पाकिस्तानी पुलिस ने उन पर गोलियाँ चलाईं । अनेक छात्र मारे गए । अगले साल से लोगों ने अपने ढंग से उस दिन को मातृभाषा दिवस के तौर पर मनाना शुरू कर दिया । पैंतालीस साल बाद यूनेस्को ने इसे समर्थन दिया । उस समय दुनिया के कई विकसित देशों के समाज अपनी अपनी मातृभाषा पर हो रहे आधुनिक सांस्कृतिक आक्रमण से आहत थे । बंगलादेश का उदाहरण उन्होंने प्रेरणा देने वाला माना । सत्रह नवंबर,उन्नीस सौ निन्यानवे से अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाने लगा । इसे बाद में संयुक्त राष्ट्र का भी समर्थन मिला । दो हज़ार आठ में साधारण सभा की बैठक ने बाक़ायदा इसे इक्कीस फरवरी को समूचे विश्व में मनाने का एलान कर दिया । तबसे नौ साल हो गए । हम सिर्फ़ चिंता करते हैं । एक दिन माथा पीटते हैं । फिर भूल जाते हैं ।
तो चेतावनी क्या है ? वैज्ञानिकों के विकासवाद और भाषा विज्ञानियों के अध्ययन पर ध्यान दें तो निष्कर्ष यह है कि हम दोबारा आदम युग की ओर जा रहे हैं । मूक या गूँगा युग याने अपने आपको अभिव्यक्त न कर पाने का संकट । भारतीय फ़िल्मों में जब मूक युग समाप्त हुआ और सवाक फ़िल्मों ने हाज़िरी लगाईं तो भारतीय समाज ने जलसा मनाया था । आज हम एक दूसरे से कटते जा रहे हैं । दिमाग़ों से अक्षरकोश कम हो रहा है । अपनी संवेदना के हर बिंदु को व्यक्त करने वाला शब्द भंडार सूख रहा है । एक सॉरी शब्द में हमने -दुःख,खेद,शोक और क्षमा के अलग अलग भावों की हत्या कर दी । एक अंकल शब्द ने चाचा,काका,मामा,ताऊ ,फूफ़ा और मौसा जैसे रिश्तों का अंतर और खुशबू कपूर की तरह उड़ा दी । ये तो बानगी है । गहराई से सोचेंगे तो पाएँगे हमारी मातृभाषाओं और बोलियों की उप धाराएँ सूख रहीं हैं । हिंदी की गंगा सिकुड़ती जा रही है । हिंदी जानने वाले बढ़ रहे हैं ,हिंदी का कारोबार बढ़ रहा है लेकिन यह भी हक़ीक़त है कि हमारी पढ़ने की आदत भी छूटती जा रही है । दिमाग़ के यादकोश का आकार सिकुड़ता जा रहा है । हम भूल गए हैं कि भाषा संस्कृति और समाज की संरक्षक है । क्या इसके लिए आज की भागदौड़ भरी ज़िन्दगी,आधुनिक उपकरण और अपने ख़ोल में सिमटने की आदत ही ज़िम्मेदार है ? नहीं ! सबसे ज़्यादा अपराधी हम ख़ुद हैं। जो हमने अपने समाज,पूर्वजों,और परिवेश से पाया,उसे अगली पीढ़ी को नहीं दे पाए । माफ़ कीजिए इसके लिए कोई बहाना या कारण मुझे तो स्वीकार्य नहीं है ।
अक्सर आँकड़े बोझिल और उबाऊ लगते हैं । मगर इस आधार पर हम उनकी अनदेखी नहीं कर सकते । याद रखिए संसार में आज भी अनेक मुल्क़ ऐसे हैं ,जो सिर्फ़ अपनी बोली या भाषा में काम करते हैं । इन देशों की कुल आबादी भी समूची दुनिया की क़रीब क़रीब आधी है । इसके बावजूद हमारी जड़ें सूखतीं जा रहीं हैं तो इसके लिए कौन दोषी है ? किसी समय सारे देशों में सोलह हज़ार से अधिक भाषाएँ अस्तित्व में थीं । आज यह संख्या सात हज़ार से भी कम रह गई है । दो हज़ार एक में एक रिपोर्ट आई थी । इसके मुताबिक़ इनमें से तीन हज़ार भाषाएँ तो विलुप्त होने की चेतावनी दे चुकी हैं । कोई दो सौ भाषाओं को केवल दस अथवा उससे कम लोग जानते हैं । संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी है कि अगले सौ साल में नब्बे फ़ीसदी भाषाएँ या बोलियाँ समाप्त हो सकती हैं । जिस भाषा और संस्कृति पर भारतीय गर्व करते थे,उसका मूल आधार तो संस्कृत थी,जो अब हाशिए पर है । हमारे बीच से कोई जब संस्कृत में बात करता है तो हम ऐसे चौंकते हैं जैसे वो अंतरिक्ष की भाषा बोल रहा है ।
भारत के लिए तो भाषा संकट और भी विकराल है । यहाँ की दो सौ भाषाएँ या बोलियाँ अब स्वर्गीय होने वालीं हैं । दो हज़ार छह में एक अधिकृत रिपोर्ट आई थी । इसमें कहा गया था कि केवल छह फ़ीसदी बच्चे अँगरेज़ी माध्यमों में पढ़ते थे । बाक़ी चौरानवे फ़ीसदी तो भारतीय भाषाओं में पढ़ते थे । इसके बाद भी भाषा की गंगोत्री सूख रही है ।
अफ़्रीक़ा में एक कहावत है कि जब घर के किसी बुजुर्ग का देहावसान होता है तो एक बड़ा पुस्तकालय जल जाता है । हम भारतीय आए दिन ऐसे कितने पुस्तकालय जलते टीस के साथ देख रहे हैं । घर में जब बच्चे फ़ोन पर या आपस में फर्राटेदार अँगरेज़ी बोलते हैं तो हम खुश होते हैं । सीना चौड़ा हो जाता है । लेकिन हम दुखी नहीं होते ,जब बच्चे हिंदी या कोई अपनी अन्य मातृभाषा ख़राब बोलते हैं । हम माथा नहीं पीटते । यही सारांश है।
हिन्दी बचाओ मंच का एक साल’ का लोकार्पण आगामी 23 फरवरी को सायं 6 बजे इंडिया हैबिटेट सेंटर, लोदी रोड, नई दिल्ली के गुलमोहर सभागार में होगा। इस अवसर पर चित्रा मुद्गल, राहुल देव, प्रेमपाल शर्मा, अमरनाथ, नंदकिशोर पाण्डेय, करुणाशंकर उपाध्याय, राकेश पाण्डेय आदि साहित्यकार उपस्थित रहेंगे। ग्यारह अध्यायों में बँटी इस पुस्तक में ‘हिन्दी बचाओ मंच’ की पिछले एक वर्ष की गतिविधियों का लेखा जोखा तो है ही, संसद और सोशल मीडिया पर हुई उत्तेजक बहसों का भी रोचक और आलोचनात्मक विवरण है।
अनेक रंगीन चित्रों से युक्त 592 पृष्ठों की यह पुस्तक पेपर बैक में भी उपलब्ध है और इसका मूल्य मात्र 500/ है।
लोकार्पण के अवसर पर इस दिन यह पुस्तक 50 % छूट पर यानी मात्र 250/ में खरीदी जा सकती है ।
इस अवसर पर ‘ शिक्षा के माध्यम की भाषा ‘ विषय पर एक संगोष्ठी भी होगी ।
इस आयोजन में सुधी मित्र सादर आमंत्रित हैं। – संपादक – शची मिश्र