नृत्य के प्रति बादशाह का असीम इश्क था; इतिहास के पन्नो से -दुर्लभ प्रसंग
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खिलजी की बेटी फिरोजा का दुर्लभ अमर प्रेम # भारत में ” पेटीकोट शासन” # मुगल बादशाह मोहम्मद शाह को रंगीला बादशाह क्यों कहा जाता था?#
भारतीय इतिहास में अलाउद्दीन खिलजी की बेटी फिरोजा ने जालौर के वीर सपूत ‘वीरमदेव’ से प्रेम किया था और वह उनके प्रेम में इतनी पागल हो गई है थी कि वीरमदेव के मर जाने के बाद उसने अपनी हत्या कर ली थी। जालौर के राजकुमार वीरमदेव मेवाड़ के पास ही सोनगरा के चौहान शासक कान्हड़ देव के पुत्र थे। वीरमदेव को कुश्ती में महारत हासिल थी और वे युद्ध में पूर्ण थे। और एक वीर शूरवीर थे सोमनाथ मंदिर को लूटकर वापस लौटते वक्त अलाउद्दीन की सेना को जालौर में वीरमदेव की सेना का सामना करना पड़ा जिसमें अलाउद्दीन खिलजी की हार हुई थी।
हार का बदला लेने के लिए उन्होंने अपने सेनापति को कान्हड़देव से समझौता करने के लिए भेजा, जहां वो राजी हो गऐ और वीरमदेव को दिल्ली दरबार में इसी समझौते के लिए भेजा गया । जहां पर अलाउद्दीन खिलजी की बेटी फिरोजा ने वीरमदेव को देखा और दीवानी हो गई।
फिरोजा ने अपने पिता से कहा की वह शादी करेगी तो सिर्फ वीरमदेव से वरना वह आजीवन कुंवारी रहेगी। अलाउद्दीन खिलजी ने कुछ चाल चलकर अपनी बेटी फिरोजा का रिश्ता वीरमदेव के लिए भेजा। लेकिन वीरमदेव ने यह कहकर इस रिश्ते से मना कर दिया कि वह अपने कुल और धर्म पर किसी दूसरे धर्म की लड़की से शादी कर दाग नहीं लगाना चाहते।
इसी बात पर अलाउद्दीन खिलजी ने नाराज होकर जालौर पर बड़ी सेना संख्या के साथ हमला कर दिया। इसी युद्ध में वीरमदेव बड़ी बहादुरी से लड़े लेकिन वीरमदेव वीरगति को प्राप्त हो गए और वह सिर्फ 22 साल के थे। वीरमदेव के सर को थाली में रखकर राजकुमारी फिरोजा के सामने ले जाया गया ।कहते हैं थाली में रखें वीरमदेव के सर ने भी फिरोजा को देखकर मुंह फेर लिया था।
वीरमदेव की मृत्यु हो जाने से फिरोजा इतनी दुखी हुई कि उसने सबसे पहले वीरमदेव जी के सर को अग्नि दी और फिर खुद भी नदी में कूदकर अपनी जान दे दी। इस प्रकार एक हिंदू राजा के लिए और अपने सच्चे प्रेम के लिए उसने अपनी जान दे दी।
भारत में ” पेटीकोट शासन“
भारत में ” पेटीकोट शासन” मुग़ल बादशाह अकबरके शासन काल से संबंधित है। यह 1560 से 1562 ई.के बीच के समय की दरबारी राजनीतिक स्थितियों के सन्दर्भ में बोला जाता है। दर असल जब हुमायूं की मृत्यु हुई और अकबर गद्दी पर बैठा तो अकबर की आयु मात्र तेरह वर्ष थी। इस परिस्थिति में हुमायूं का विश्वासपात्र बैरम खांजो कि अकबर का संरक्षक था उसे आरंभिक कठिनाइयों से उबारने में सहायता की।बैरम खां की प्रशासन में शक्ति बहुत बढ़ गई थी और उसने अकबर की चचेरी बहन से विवाह कर राजपरिवार से संबंध भी बना लिया। परन्तु 1560 आते आते अकबर सत्ता अपने हाथों में लेने के लिए व्यग्र हो उठा । अकबर की इस भावना को हरम की महिलाओं ने और प्रज्वलित कर दिया।हरम की महिलाओं का नेतृत्व माहम अनगाकर रही थी जो अकबर की प्रधान धाय थी। बैरम खां को पद से हटा दिया गया जिससे उसने विद्रोह कर दिया । लेकिन शीघ्र ही पराजित होकर आत्म समर्पण कर दिया। उसके सामने अब कालपी व चन्देरी की सूबेदारी, बादशाह के सलाहकार या मक्का की यात्रा में से किसी एक को चुनने के लिए कहा गया जिस पर उसने मक्का जाने की इच्छा जताई। परन्तु जब वह मक्का की यात्रा पर था तो मार्ग में उसकी हत्या कर दी गई।
बैरम खां के पतन के पश्चात् अकबर हरम की स्त्रियों के प्रभाव में आ गया और उनका प्रशासन में हस्तक्षेप बढ़ गया । इसी कारण इतिहासकारों ने इस काल (1560–1562ई.) को पेटीकोट गवर्नमेंट या पर्दा शासन कहा है । पर्दा शासन के दौरान माहम अनगा का सर्वाधिक प्रभाव था जबकि इस गुट के अन्य सदस्य थे- राजमाता हमीदा बानो बेगम,आधम खां (माहम अनगा का बेटा), अत्का खां (माहम अनगा का दामाद), पीर मुहम्मद (अकबर का शिक्षक) आदि ।
पर्दा शासन बहुत दिनों तक नहीं चल पाया क्योंकि उसके सदस्यों ने शक्ति का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया । वे कुचक्र रचने लगे व जनता तथा प्रशासन में अलोकप्रिय होने लगे । यह दिलचस्प है कि इस दौरान एक समय छः महीने में चार प्रधानमंत्री बदले गए।अधम खां के अत्याचार व शाही अवज्ञा बढ़ने लगे। उसने अपने कुछ सहयोगियों के साथ अत्का खां की हत्या कर दी और खुली तलवार लेकर अकबर के शयन कक्ष की ओर जाने का प्रयास किया परन्तु गिरफ्तार कर लिया गया। अकबर के आदेश पर उसके हाथ-पांव बांध दिया गया और छत से महल के नीचे फेंक दिया गया। जिन्दा रहने पर दोबारा फेंका गया जिससे उसकी मौत हो गई। इसके बाद माहम अनगा अत्यधिक बीमार पड़ गई और शोक में अधम खां के मरने के चालीस दिन बाद मर गई।
उधर मुल्ला पीर मुहम्मद(मालवा का सूबेदार) के अत्याचार से जनता में विद्रोह की भावना पैदा होने लगी जिसका लाभ उठाकर बाजबहादुर ने मालवा पर आक्रमण कर दिया। पीर मुहम्मद हारकर भागा किन्तु नर्मदा नदी पार करते समय घोड़े से गिर गया और डूब कर उसकी मौत हो गई। मुल्ला पीर मुहम्मद पर्दा शासन का अन्तिम स्तम्भ था । इसकी मृत्यु के साथ ही पर्दा शासन का भी अंत हो गया।
बादशाह रंगीला; मुगल बादशाह मोहम्मद शाह को रंगीला बादशाह क्यों कहा जाता था? 17 अगस्त को एक बेहद रोचक मुग़ल बादशाह का जन्मदिन होता है.
भारत में मुग़ल बादशाहों का एक अलग अंदाज रहा है. बाबर, हुमायूं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां, औरंगजेब और आखिरी बहादुर शाह जफ़र. सब के सब किसी ना किसी चीज के लिए जाने जाते हैं. पर इन सबकी चकाचौंध में भारत ने एक मुग़ल बादशाह को भुला दिया, जो इन सबसे जुदा थे. शायद दुनिया के बादशाहों में उसके जैसे बहुत ही कम होंगे. पर उनके बारे में जब भी लिखा गया, उनका मजाक बनाया गया. क्योंकि वो चंगेज खान, नादिरशाह और औरंगजेब वाले सांचे में फिट नहीं बैठते थे. तलवार की बजाय उन्हें लड़कियों के कपड़े और शायरी ज्यादा प्रिय थी. मुहम्मद शाह नाम था उनका. पर इतिहास उन्हें मुहम्मद शाह रंगीला के नाम से जानता है. वो बादशाह, जिनके नाम पर दिल्ली में एक सड़क तक नहीं है.
औरंगजेब से बिल्कुल उल्टे थे बादशाह रंगीला
औरंगजेब के मरने के बाद हिंदुस्तान में राजशाही बड़ी खतरनाक हो गई थी. तीन बादशाहों का क़त्ल हो गया था. एक को तो अंधा कर दिया गया था. वजीर बादशाहों को नचाते थे. इसके पहले औरंगजेब ने तो दिल्ली राज की बत्ती गुल कर दी थी. पूरे जीवन लड़ते रहे. मरे भी लड़ाई के बीच. पर मुग़लिया शासन के कल्चर को ध्वस्त कर के गए थे. गीत-संगीत, साहित्य, नाच-गाना सब बर्बाद कर के गए थे. जो कलाकार मुगलिया राज में ऐश करते थे, औरंगजेब के राज में भीख मांगने की नौबत आ गई.
पर मुहम्मद शाह रंगीला ने सब बदल दिया. सारे कलाकारों को वापस लिया. उस समय दिल्ली में कठिन राग ध्रुपद चलता था. रंगीला के आग्रह पर ‘खयाल’ स्टाइल लाया गया. आज भी यही चलता है. फिर चित्रकारों को विशेष सुविधा दी गयी. निदा मॉल जैसे चित्रकार दरबार में रहते थे. बादशाह के हर तरह के चित्र बनाये गए. यहां तक कि सेक्स करते हुए भी तस्वीरें हैं. उस वक़्त का ये बादशाह अपनी सोच में कितना आगे था!
अपने लगभग 30 साल के राज में रंगीला ने खुद कोई लड़ाई नहीं छेड़ी. मस्ती में जीवन निकलता था. सुबह-सुबह कभी मुर्गों की लड़ाई. कभी घुड़दौड़. दिन में तरह-तरह के संगीत. फिर इश्क-मुहब्बत. तरह-तरह के कलाकारों को अपने पास बिठाना. बातें करना. बादशाह के बारे में कहा जाता है कि वो लड़कियों के कपड़े पहन नाचते थे. पर इसमें बुरा क्या था? ये नृत्य के प्रति उनका असीम इश्क था. एक बादशाह का वैसा करना थर्ड जेंडर के लोगों के लिए बड़ा ही सुकून वाला रहा होगा. इस बादशाह ने वो दिल्ली बनाई थी, जिसके बारे में मीर तकी मीर ने लिखा था: दिल्ली जो इक शहर था आलम में इन्तिखाब….
ये भी कहा जाता है कि जब मुगलिया राज का अकूत पैसा देख नादिर शाह अपने लश्कर के साथ चला आया, तब अपना बादशाह आराम फरमा रहा था. जब हरकारा चिट्ठी लेकर बादशाह के पास आया, तो बादशाह ने उस चिट्ठी को दारू के अपने प्याले में डुबो दिया और बोले:
आईने दफ्तार-ए-बेमाना घर्क-ए-मय नाब उला. इस बिना मतलब की चिट्ठी को नीट दारू में डुबा देना बेहतर है.
जब नादिर दिल्ली के पास पहुंचा, तो बादशाह रंगीला अपनी फ़ौज के साथ खड़े थे दो-दो हाथ करने के लिए. साथ ही सन्देश भी भिजवा दिया कि चाहो तो बात कर लो. बात हुई. तय हुआ कि लड़ाई नहीं होगी. नादिर पैसे लेकर लौट जायेगा. डिप्लोमेसी की ये मिसाल थी. जहां हर बात का फैसला तलवार से होता था, बादशाह ने बात से निपटा दिया. पर बादशाह के एक धोखेबाज़ सेनापति ने नादिर से कहा कि इनके पास बहुत पैसा है. सस्ते में छूट रहे हैं. नादिर अड़ गया कि हम को दिल्ली की मेहमानी चाहिए. दिल्ली आ गया. लगा सोना-चांदी उठाने. तीन दिन पड़ा रहा.
तभी उसके सैनिकों की बाज़ार में झड़प हो गई. 900 नादिरशाही सैनिक खेत रहे. नादिर को दया नहीं आती थी. उसके सैनिकों ने दिल्ली में क़त्ल-ए-आम मचा दिया. सड़कें लाशों से पट गईं. कहते हैं कि बादशाह रंगीला ने अपना खजाना खोल दिया नादिर के लिए. जो चाहे, ले लो. नादिर को जो हाथ लगा, उठा लिया. पर उसे एक चीज नहीं मिली. कोहिनूर का हीरा. वो रंगीला को बड़ा प्रिय था. नादिर उसके लिए मतवाला हो उठा. जाने को तैयार नहीं. बादशाह देने को तैयार नहीं. छुपा दिया कहीं.
फिर बादशाह के एक वजीर ने नादिर से बात कर ली. पता नहीं क्या बात की कि नादिर जाने को तैयार हो गया. जब जाने की बेला आई, तब बादशाह रंगीला नादिर को रुखसत करने गए. वहां नादिर ने गले लगाया. भूल-चूक लेनी-देनी की. और बोला: बादशाह, हमारे यहां रिवाज है कि जाते वक़्त हम अमामे बदल लेते हैं. तो आप मुझे अपना मुकुट दे दो, मेरा ले लो. बादशाह को काटो तो खून नहीं. बादशाह ने कोहिनूर अपने मुकुट में छुपा रखा था. वजीर ने यही बात बताई थी नादिर को