पंचेश्वर बॉध से अब कूमाय में बडे पैमाने पर होगा विस्थापन
पंचेश्वर बांध बहुउद्देशीय परियोजना के कार्य में तेजी #3 जनपद प्रभावित- चंपावत पिथौरागढ़ और अल्मोड़ा जनपद पंचेश्वर बॉध से प्रभावित हो रहे है #उत्तराखंड पुनर्वास प्राधिकरण का गठन किया जाएगा धीरे-धीरे पहाडों का जीवन अपार जल संपदा के होने के बाद भी हर लिहाज से शुष्क
-चन्द्रशेखर जोशी की रिपोर्ट-
बॉध और खननः उत्तराखण्ड की नियती!
टिहरी बांध का दंश राज्य के गरीब लोग पहले ही देख चुके हैं. अब नेपाल सीमा से लगे पंचेश्वर में सरकार एक और विशालकाय बांध बनाने जा रही है. ये बांध दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचा बांध होगा. ये योजना नेपाल सरकार और भारत सरकार मिलकर चलाने वाली हैं. इससे छह हजार चार सौ मेगावॉट बिजली पैदा करने की बात की जा रही है. इसमें भी बडे पैमाने पर लोगों का विस्थापन होना है और उनकी खेती योग्य उपजाऊ जमीन बांध में समा जानी है। इस तरह प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध होना ही आज उत्तराखंड के लिए सबसे बडा अभिशाप बन गया है।
प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध उत्तराखंड का दोहन कर उसे खोखला बनाने का काम राज्य के नुमाइंदों द्वारा करवाया जा रहा है। पानी मिले तो उस पर बॉध बनवा दो, और बाकी पहाड को खनन के नाम पर खुदवा दो।
टिहरी बांध का दंश राज्य के गरीब लोग पहले ही देख चुके हैं. अब नेपाल सीमा से लगे पंचेश्वर में सरकार एक और विशालकाय बांध बनाने जा रही है. ये बांध दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचा बांध होगा. ये योजना नेपाल सरकार और भारत सरकार मिलकर चलाने वाली हैं। इससे छह हजार चार सौ मेगावॉट बिजली पैदा करने की बात की जा रही है. इसमें भी बडे पैमाने पर लोगों का विस्थापन होना है और उनकी खेती योग्य उपजाऊ जमीन बांध में समा जानी है. इस तरह प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध होना ही आज उत्तराखंड के लिए सबसे बडा अभिशाप बन गया है. सारे हालात को देखकर ऐसा लग रहा है कि एक दिन उत्तराखंड के पहाडी इलाकों में सिर्फ बांध ही बांध नजर आएंगे. नदियां सुरंगों में चली जाएंगी. जो इलाके बचेंगे उन में खनन का काम चलेगा. इस विकास को देखने के लिए लोग कोई नहीं बचेंगे. तब पहाडों में होने वाले इस विनाश के असर से मैदानों के लोग भी नहीं बच पाएंगे।
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देहरादून 05 जुलाई 2017 पंचेश्वर बांध बहुउद्देशीय परियोजना के कार्य में तेजी लाने के लिए हर हफ्ते समीक्षा बैठक की जाएगी। प्रगति की समीक्षा के लिए पी.एम.यू.(प्रोजेक्ट मॉनिटरिंग यूनिट) बनाया जाएगा। यह निर्णय मुख्य सचिव श्री एस.रामास्वामी की अध्यक्षता में बुधवार को सचिवालय में आयोजित उच्चाधिकार प्राप्त समिति की बैठक में लिया गया। उत्तराखंड पुनर्वास प्राधिकरण का गठन किया जाएगा। उत्तराखण्ड में चंपावत पिथौरागढ़ और अल्मोड़ा जनपद बांध से प्रभावित हो रहे है। फॉरेस्ट क्लीयरेंस की प्रक्रिया शुरु कर दी गई है। इसके लिए कैट(कैचमेंट एरिया ट्रीटमेंट) प्लान और सीए(कम्पेंसेटरी एफायरेस्टेेशन) तैयार किया जा रहा है। मुख्य सचिव श्री रामास्वामी ने निर्देश दिए है कि इस महत्वकांक्षी परियोजना की टाइमलाइन तय करके प्राथमिकता के आधार पर कार्य किया जाए।
बैठक में प्रमुख सचिव श्रीमती मनीषा पंवार प्रमुख सचिव सिंचाई श्री आनंद वर्धन सचिव श्री अमित सिंह नेगी आयुक्त गढ़वाल श्री विनोद शर्मा पीसीसीएफ श्री राजेंद्र महाजन सचिव ऊर्जा श्रीमती राधिका झा सचिव वन श्री अरविंद सिंह ह्यांकी, सदस्य सचिव प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड श्री विनोद सिंघल सहित अन्य वरिष्ठ अधिकारी उपस्थित थे।
एक तरफ भारत सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया है लेकिन उसकी मूल नदी भागीरथी अब पहाडी घाटियों में ही खत्म होती जा रही है। अपने उद्गम स्थान गंगोत्री से थोडा आगे बढकर हरिद्वार तक उसको अपने नैसर्गिक प्रााह में देखना अब मुश्किल हो गया है. गंगोत्री के कुछ करीब से एक सौ तीस किलोमीटर दूर धरासू तक नदी को सुरंग में डालने से धरती की सतह पर उसका अस्तित्व खत्म सा हो गया है। उस इलाके में बन रही सोलह जल विद्युत परियोजनाओं की वजह से भागीरथी को धरती के अंदर सुरंगों में डाला जा रहा है. बाकी पस्तावित परियोजनाओं के कारण आगे भी हरिद्वार तक उसका पानी सतह पर नहीं दिखाई देगा या वो नाले की शक्ल में दिखाई देगी. मनेरी-भाली परियोजना की वजह से भागीरथी को सुरंग में डालने से अब घाटी में नदी की जगह पर सिर्फ कंकड दिखाई देते हैं. यही हालत गंगा की दूसरी मुख्य सहायक नदी अलकनंदा की भी है. लामबगड में सुरंग में डाल देने की वजह से उसका भी पानी धरती की सतह पर नहीं दिखाई देता. नदी की जगह वहां भी पत्थर ही पत्थर दिखाई देते हैं. आगे गोविंदघाट में पुष्पगंगा के मिलने से अलकनंदा में कुछ पानी जरूर दिखाई देने लगता है।
ये हाल तो गंगा की प्रमुख सहायक नदियों भागीरथी और अलकनंदा का है. उत्तराखंड से निकलने वाली बाकी नदियों से साथ भी सरकार यही बर्ताव कर रही है. जिस वजह से धीरे-धीरे पहाडों का जीवन अपार जल संपदा के होने के बाद भी हर लिहाज से शुष्क होता जा रहा है. एक अनुमान के मुताबिक राज्य में सुरंगों में डाली जाने वाली नदियों की कुल लंबाई करीब पंद्रह सौ किलोमीटर होगी. इतने बडे पैमाने पर अगर नदियों को सुरंगों में डाला गया तो जहां कभी नदियां बहती थीं वहां सिर्फ नदी के निशान ही बचे रहेंगे. इससे उत्तराखंड की जैव विविधता पर क्या असर पडेगा इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है. विकास के नाम पर कुदरत के साथ इस तरह का मजाक जारी रहा तो विकास चाहे जिसका हो नदियों से भौतिक और सांस्कृतिक तौर पर गहरे जुडे लोगों का जीना जरूर मुश्किल हो जाएगा. इन सभी चिंताओं को केंद्र में रखकर उत्तराखंड के विभिन्न जन संगठनों ने मिलकर नदी बचाओ आंदोलन शुरू किया है. लेकिन हैरत की बात ये है कि पर्यावरण से हो रही इतनी बडी छेडछाड को लेकर राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई चर्चा नहीं हो रही है.
अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर पहाडी नदियों को रोककर सुरंगों में डाला गया तो इससे नदी किनारे बसे गांवों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा. इस बात की शुरूआत हो भी चुकी है. जिन जगहों पर नदियों को सुरंगों में डाला जा चुका है. वहां लोगों के खेत और जंगल सूखने लगे हैं. पानी के नैसर्गिक स्रोत गायब हो गए हैं. सुरंगों के ऊपर बसे गांवों में कई तरह की अस्वाभाविक भूगर्वीय हलचल दिखाई देने लगी हैं. कहीं घरों में दरारें पड गई हैं तो कहीं पर जमीन धंसने लगी है. चार सौ मेगावॉट की विष्णुपयाग विद्युत परियोजना की वजह से चांई गांव में मकान टूटने लगे हैं. भूस्खलन के डर से वहां के कई परिवार तंबू लगाकर खेतों में सोने को मजबूर हैं।
जिन पहाडियों में सुरंग बन रही हैं. वहां बडे पैमाने पर बारूदी विस्फोट किए जा रहे हैं. जिससे वहां भूस्खलन का खतरा बढ गया है. जोशीमठ जैसा ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व का नगर भी पर्यावरण से हो रहे इस मनमाने खिलवाड की वजह से खतरे में आ गया है. उसके ठीक नीचे पांच सौ बीस मेगावॉट की विष्णुगाड-धौली परियोजना की सुरंग बन रही है. डरे हुए जोशीमठ के लोग कई मर्तबा आंदोलन कर अपनी बात सरकार तक पहुंचाने की कोशिश कर चुके हैं। कुमाऊं के बागेश्वर जिले में भी सरयू नदी को सुरंग में डालने की योजना पर अमल शुरू हो चुका है. ग्रामीण इसके खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं. जिले के मुनार से सलिंग के बीच का ये इलाका उन्नीस सौ सत्तावन में भूकंप से बडी तबाही झेल चुका है. इसलिए यहां के ग्रामीण किसी भी हालत में सरयू नदी को सुरंग में नहीं डालने देना चाहते. यहां भी जनता के पास अपने विकास के रास्ते चुनने का अधिकार नहीं है।
उत्तराखंड में नदियों को सुरंग में डालने का विरोध कई तरह से देखने को मिल रहा है. एक तो इससे सीधे प्रभावित लोग और पर्यावरणविद् विरोध कर रहे हैं. दूसरा उत्तराखंड की नदियों को पवित्र और मिथकीय नदियां मानने वाले धार्मिक लोग भी विरोध में उतरे हैं. मसलन हरिद्वार में चल रहे महाकुंभ के दौरान साधुओं ने भी गंगा पर बांध बनाने का विरोध किया है. उनके मुताबिक गंगा पर बांध बनाना हिंदुओं की आस्था के खिलाफ है. इसलिए वे गंगा को अविरल बहने देने की वकालत कर रहे हैं. अखिल भारतीय अखाडा परिषद ने गंगा पर बांध बनाने की हालत में महाकुंभ का वहिष्कार करने और हरिद्वार छोडकर चले जाने की धमकी दी. इस धमकी की वजह से उत्तराखंड सरकार को झुकना पडा लेकिन बांध बनाने का काम शुरू कर चुकी सरकार किसी भी हालत में पीछे हटने को तैयार नहीं लगती. इसकी एक बडी वजह सरकार में निजी ठेकेदारों की गहरी बैठ है. अंदर खाने उत्तराखंड की भाजपा सरकार साधुओं को मनाने की पूरी कोशिश में जुटी रही क्योंकि साधु-संन्यासी उसका एक बडा आधार हैं. लेकिन अपने करीबी ठेकेदारों को उफत करने से वो किसी भी हालत में पीछे नहीं हटना चाहती. साधुओं की मांग पर सोचते हुए इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि ये मामला सिर्फ धार्मिक आस्था का नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा उत्तराखंड के लोगों के भौतिक अस्तित्व से जुडा है।
उत्तराखंड को अलग राज्य बने हुए करीब 16 साल हो गए हैं. लेकिन आज भी वहां पर लोगों के पीने के पानी की समस्या हल नहीं हो पाई है. ये हाल तब है जब उत्तराखंड पानी के लिहाज से सबसे समृद्ध राज्यों में से एक है. ठीक यही हाल बिजली का भी है. उत्तराखंड में बनने वाली बिजली राज्य से बाहर सस्ती दरों पर उद्योगपतियों को तो मिलती है लेकिन राज्य के ज्यादातर गांवों में आज तक बिजली की रोशनी नहीं पहुंच पाई है. वहां एक पुरानी कहावत प्रचलित रही है कि पहाड की जवानी और पहाड का पानी कभी उसके काम नहीं आता. उत्तराखंड राज्य की मांग के पीछे लोगों की अपेक्षा जुडी थी कि एक दिन उन्हें अपने प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार मिल पाएगा, विकास का नया मॉडल सामने आएगा और युवाओं का पलायन रुकेगा. लेकिन हकीकत में इसका बिल्कुल उल्टा हो रहा है।
उत्तराखंड या मध्य हिमालय दुनिया के पहाडों के मुकाबले अपेक्षाकृत नया और कच्चा पहाड है. इसलिए वहां हर साल बडे पैमाने पर भूस्खलन होते रहते हैं. भूकंपीय क्षेत्र होने की वजह से भूकंप का खतरा भी हमेशा बना रहता है. ऐसे में विकास योजनाओं को आगे बढाते हुए इन बातों की अनदेखी जारी रही तो वहां पर आने वाले दिन तबाही के हो सकते हैं, जिसकी सबसे ज्यादा जिम्मेदार हमारी सरकारें होंगी. हैरत की बात है कि उत्तराखंड जैसे छोटे भूगोल में पांच सौ अठावन छोटी-बडी जल विद्युत परियोजनाएं पस्तावित हैं. इन सभी पर काम शुरू होने पर वहां के लोग कहां जाएंगे इसका जवाब किसी के पास नहीं है. उत्तराखंड के पहाडी इलाकों में पर्यावरण के खिलवाड के खिलाफ आंदोलनों की लंबी परंपरा रही है. चाहे वो चिपको आंदोलन हो या टिहरी बांध विरोधी आंदोलन. लेकिन राज्य और केंद्र सरकारें इस हिमालयी राज्य की पारिस्थिकीय संवेदनशीलता को नहीं समझ रही है. सरकारी जिद की वजह से टिहरी में बडा बांध बनकर तैयार हो गया है. लेकिन आज तक वहां के विस्थापितों का पुनर्वास ठीक से नहीं हो पाया है. जिन लोगों की सरकार और पशासन में कुछ पहुंच थी वे तो कई तरह से फायदे उठा चुके हैं लेकिन बडी संख्या में ग्रामीणों और गरीबों को उचित मुआवजा नहीं मिल पाया है. ये भी नहीं भूला जा सकता कि इस बांध ने टिहरी जैसे एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर को भी डुबाया है. यहां के कई विस्थापितों को तराई की गर्मी और समतल जमीन पर विस्थापित किया गया. पहाडी लोगों को इस तरह उनकी इच्छा के विपरीत एक बिल्कुल ही विपरीत आबो-हवा में भेज देना कहां तक जायज था इस पर विचार करने की जरूरत कभी हमारी सरकारों ने नहीं समझी. सरकारों ने जितने बडे पैमाने पर बिजली उत्पादन के दावे किए थे वे सब खोखने साबित हुए हैं. बात कि इससे राज्य के लोगों की जरूरत पूरा करने के लिए राज्य सरकार के पास अधिकार भी नहीं हैं।
दुनियाभर के भूगर्ववैज्ञानिक इस को कई बार कह चुके हैं कि हिमालयी पर्यावरण ज्यादा दबाव नहीं झेल सकता इसलिए उसके साथ ज्यादा छेडछाड ठीक नहीं. लेकिन इस बात को समझने के लिए हमारी सरकारें बिल्कुल तैयार नहीं हैं. कुछ वक्त पहले हिमालयी राज्यों के कुछ सांसदों ने मिलकर लोकसभा में एक अलग हिमालयी नीति बनाने को लेकर आवाज उठाई थी लेकिन उसका भी कोई असर कहीं दिखाई नहीं देता. हिमालय के लिए विकास की अलग नीति की वकालत करने वालों में से एक महत्वपूर्ण सांसद प्रदीप टम्टा राज्य में पर्यावरण से हो रहे खिलवाड के खिलाफ कभी कुछ नहीं बोल पाये और भाजपा सांसद मौन साधे हैं।
आज पहाडी इलाकों में विकास के लिए एक ठोस वैकल्पिक नीति की जरूरत है. जो वहां की पारिस्थितिकी के अनुकूल हो. ऐसा करते हुए वहां की सामाजिक, सांस्कृतिक और भूगर्वीय स्थितियों का ध्यान रखा जाना जरूरी है. इस बात के लिए जब तक हमारी सरकारों पर चौतरफा दबाव नहीं पडेगा तब तक वे विकास के नाम पर अपनी मनमानी करती रहेंगी और तात्कालिक स्वार्थों के लिए कुछ स्थानीय लोगों को भी अपने पक्ष में खडा कर विकास का भ्रम खडा करती रहेंगी. लेकिन एक दिन इस सब की कीमत आने वाली पीढियों को जरूर चुकानी होगी. आज उत्तराखंड में अनगिनत बांध ही नहीं बन रहे हैं बल्कि कई जगहों पर अवैज्ञानिक तरीके से खडिया और मैग्नेसाइट का खनन भी चल रहा है. इसका सबसे ज्यादा बुरा असर अल्मोडा और पिथौरागढ जिलों में पडा है. इस वजह से वहां भूस्खलन लगातार बढ रहे हैं। नैनीताल में भी बडे पैमाने पर जंगलों को काटकर देशभर के अमीर लोग अपनी ऐशगाह बना रहे हैं. अपने रसूख का इस्तेमाल कर वे सरकार को पहले से ही अपनी मुट्ठी में रखे हुए हैं. पर्यारण से हो रही इस छेडछाड की वजह से ग्लोबल वार्मिंग का असर उत्तराखंड में लगातार बढ रहा है. वहां का तापमान आश्चर्यजनक तरीके से घट-बढ रहा है. विगत माह केदारनाथ क्षेत्र में तापमान 31 तक पहुच गया था
ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं. इतना तय है कि सुरक्षा के उपाय नहीं किए गए तो भविष्य में ग्लेशियर जरूर लापता हो जाएंगे. तब बरदान माने जाने वाली नदियों का नामो-निशान भी गायब हो सकता है. तब सरकारें जलवायु परिवर्तन पर घडियाली आंसू बहाती रहेगी।
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