चारभुजानाथ मंदिर; राजस्‍थान विजय का रास्‍ता इसी मंदिर से होकर जाता है

चारभुजानाथ मंदिर चारभुजानाथ जी को मेवाड़ के चार धाम में से एक माना जाता है प्रति वर्ष लाखो दर्शनार्थी यहाँ दर्शन हेतु आते है |  श्रीचारभुजानाथ  जी के दुर्लभ दर्शन कीजिये- हिमालयायूके न्‍यूज पोर्टल में पहली बार- दर्शन-  इस मूर्ति को अत्यंत प्राचीन और बड़ी चमत्कारी माना जाता है|मूर्ति के नेत्र स्वर्ण निर्मित और अद्भुत है | चारभुजा जी का श्रृंगार और पूजा पद्दति में भी शौर्य और पराक्रम के भाव निहित है|

 CHANDRA SHEKHAR JOSHI- EDITOR

Presented by- हिमालयायूके- हिमालय गौरव उत्‍तराखण्‍ड Leading Digital Newsportal & DAILY NEWSPAPER)

राणा प्रताप की धरती मेवाण- इस बार किसको छप्‍पर फाड बहुमत देने जा रही है- चमत्‍कारिक धरती है- यहां की
राणा प्रताप की धरती देती है, तो छप्पर फाड़ कर देती है, लेकिन जब वापस लेती है, तब सब कुछ ले लेती है.
आखिर क्या वजह है कि 200 सीटों वाली विधानसभा में 28 सीटों वाला मेवाड़ इतना महत्व रखता है? राजस्थान के राजनेता भलीभांति जानते हैं कि राणा प्रताप की धरती देती है, तो छप्पर फाड़ कर देती है, लेकिन जब वापस लेती है, तब सब कुछ ले लेती है. साल 2013 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का मेवाड़ से सूपड़ा साफ हो गया और 28 में 26 सीटें बीजेपी के खाते में आ गई. इसी तरह 2008 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को मेवाड़ की 28 में से 22 सीटें मिलीं और 96 सीटों पर जीत के साथ अशोक गहलोत सीएम बने. साल 2009 के लोकसभा चुनाव में पांचों संसदीय सीट कांग्रेस के खाते में थीं, तो वहीं साल 2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले इससे विपरीत परिणाम देखने को मिले. इससे साफ होता है कि मेवाड़ ने कभी किसी को मिलाजुला बहुमत नहीं दिया, जब दिया स्पष्ट दिया. इसीलिए मेवाड़ से निकला राजनीतिक संदेश पूरे राजस्थान में परिलक्षित होता है. एक बार फिर राजस्थान में सियासी रणभेरी बज चुकी है और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अभियान की शुरुआत मेवाड़ के चारभुजा नाथ मंदिर से आशीर्वाद लेकर की है. लेकिन स्थानीय जानकारों और विश्लेषकों की मानें तो इस बार वसुंधरा राजे की डगर आसान नहीं है.

चारभुजानाथ मंदिर का चमत्‍कार- राजस्‍थान विजय का रास्‍ता इसी मंदिर से होकर जाता है-

“शंख – चक्र चंहु हाथ बिराजे |
गदा पदम् धूति दामिनी लाजे |

राजस्थान के राजसमंद जिले में जलझूलनी एकादशी पर गढबोर (चारभुजा) में भगवान चारभुजानाथ के बाल स्वरुप को राजसी ठाठ बाट से स्नान यात्रा निकाली जाती है। सोने के बेवाण में बिराजित चारभुजानाथ की एक झलक पाने के लिए हजारों लोग लालायित दिखते है। ठाकुरजी के दर्शनों के लिए प्रदेश ही नहीं, बल्कि मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, दिल्ली, इंदौर, सूरत और मुंबई से हजारों की तादाद में लोग पहुंचते है। गुलाल अबीर से खेलने की अनूठी परंपरा के तहत समूचे चारभुजा का वातावरण गुलाल मय हो गया। चारभुजानाथ, प्रभु आपकी की जय… और छोगाला छैल… के जयकारों से पूरी धर्मनगरी की सरहदें गूंज उठती है। दूध तलाई पर चारभुजानाथ को स्नान कराने की रस्म के बाद छतरी पर अल्पविश्राम के दौरान अफीम (अमल) का भोग धराया जाता है। दूध तलाई की परिक्रमा करते हुए ठाकुरजी का बेवाण विभिन्न मार्गों से होकर शाम पांच बजे पुन: मंदिर पहुंचती।   चारभुजानाथ के जयकारें आमजन में स्फूर्ति और खुशी का अहसास कराती है।

चारभुजानाथ जी को मेवाड़ के चार धाम में से एक माना जाता है प्रति वर्ष लाखो दर्शनार्थी यहाँ दर्शन हेतु आते है| राजसमन्द जिला मुख्यालय से ३२ किलोमीटर की दुरी पर और राजसमन्द से ब्यावर जाने वाले मार्ग पर मध्य स्थित गोमती चोराहे से १० किलोमीटर पश्चिम पर स्थित है चारभुजानाथ जी का मंदिर |गाँव में प्रवेश हेतु एक विशालकाय दरवाजा बना हुवा है जिससे लगभग एक किलोमीटर अन्दर जाने के बाद बायी और मुड़ने के बाद मुख्य क़स्बा आता है जिसमे कुछ पुरानी धर्मशालाओं के सामने से मंदिर के लिए मुख्य मार्ग है जिससे थोडा आगे जाने पर एक पोल (दरवाजा ) बना हुवा है जीसमे से आगे बायीं और मुड़ने पर आगे एक चौक आता है जिसमे बायीं और ऊँची जगती पर निर्मित है चारभुजानाथ जी का मंदिर|मंदिर की सीढियों पर दोनों तरफ विशालकाय हाथी बने हुवे है जिन पर महावत सवार है जिससे आगे मुख्य प्रवेश द्वार चांदपोल बनी हुई है जिसके दोनों तरफ दो द्वारपालों (जय विजय )की आदमकद मुर्तिया है| द्वार में प्रवेश करते ही मंदिर की तरफ मुख किये हुवे पांच गरुड़ आसीन है जिनके ऊपर गोप वंशज सुराजी बगडवाल की मूर्ति है
मुख्य मंदिर में प्रवेश हेतु पुन कुछ पंक्तिया है जिन पर चढ़ने के बाद अर्धमंडप बना हुवा है आगे मंडप निर्मित है जिसमे अत्यत सुन्दर रंग बिरंगे कांच का कार्य किया हुवा है आगे अंतराल है जो बाहर और अन्दर लगभग पूरी तरह से चांदी के पत्रो से आच्छादित है जो की विभिन्न राजा महाराजो और श्रधालुओ द्वारा मंदिर हेतु समय समय पर दिए गए दान के पत्र है जिन पर उत्कीर्ण लेखो से मंदिर के इतिहास पर काफी प्रकाश पड़ता है |
गर्भ गृह के मुख्य द्वार पर सोने की परत चढ़ी हुई है और अन्दर भी अनेक स्थानों पर सोने का कार्य किया हुवा है|
मुख्य मूर्ति एक उचे आसन पर विराजित है और भगवान् श्री कृष्ण के चारभुजानाथ के सुदर्शन स्वरुप की है जिसकी चार भुजाओं में शंख, चक्र गदा और कमल पुष्प धारण किये हुवे है | भगवान् विष्णु का दुष्टों का संहार करने वाल स्वरुप है | इसी स्वरुप का दर्शन वासुदेव जी को हुवा था |
इस मूर्ति को अत्यंत प्राचीन और बड़ी चमत्कारी माना जाता है|मूर्ति के नेत्र स्वर्ण निर्मित और अद्भुत है | चारभुजा जी का श्रृंगार और पूजा पद्दति में भी शौर्य और पराक्रम के भाव निहित है|

“शंख – चक्र चंहु हाथ बिराजे |
गदा पदम् धूति दामिनी लाजे ||
रूप चतुर्भुज महामन भाता |
फल पुरुषार्थ चतुष्टय दाता ||
दुष्ट जनन के हो तुम काला |
गो ब्राह्मण भक्तन प्रतिपाला||

विशेष रूप से आरती के दौरान जब गुर्जर परिवार के पुजारी जिस प्रकार से मूर्ति के समक्ष खुले हाथो से जो मुद्रा बनाते है और आरती के दौरान जिस प्रकार नगाड़े और थाली बजती है वो पूर्णत वीर भाव के प्रतिक है शायद इसीलिए चारभुजा जी की उपासना मुख्यत राजपूतो और गुर्जरों द्वारा विशेष रूप से की जाती थी | चारभुजा जी की आरती और भोग लगभग श्रीनाथ जी की तरह ही है किन्तु चारभुजा जी के दर्शन सदैव खुले रहते है अर्थात उनके दर्शन का वैष्णव सम्प्रदाय की पूजा पद्दतियो की भाँती समय आदि नहीं है|
निज मंदिर के बाहर मंडप के दायी और बायीं और दोनों तरफ दो मंदिर बने हुवे है जिसके बारे में कहा जाता है की वो नर और नारायण के मंदिर है| वर्तमान में दोनों मंदिर बंद है उनके बाहर तिजोरिया और अलमारिया रखी हुई है|मुख्य मंदिर के बाहर दाई तरफ दो छोटे छोटे देवालय बने हुवे है जिसमे से एक विधाता माता का मंदिर है और दूसरा ब्रम्हा विष्णु महेश का मंदिर है दोनों में अत्यंत प्राचीन मुर्तिया लगी हुई है|मुख्य मंदिर के बायीं तरफ एक दो मंजिला पांडाल बना हुवा है जिसमे श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का अत्यंत सुन्दर चित्रांकन किया हुवा है|मंदिर के बारे में कुछ जानना हो तो मंदिर के अन्दर प्रसाद वितरण का प्रबंध देखने वाले नाथू बाबा से मिला जा सकता है |
मंदिर के सामने ही मंदिर जितना ऊँचा नक्कारखाना बना हुवा है जिसमे मध्य में माताजी की मुर्तिया लगी हुई है जिसके नीचे शिलालेख अंकित है नक्कारखाने के दायी और प्रवेश करते ही बजरंगबली की मूर्ति स्थापित है और आगे की तरफ गणेशजी की मूर्ति स्थापित है |मंदिर की सीढियों के दायी तरफ बने हुवे चबूतरे पर तीन प्राचीन शिलालेख अंकित है जिससे मंदिर के इतिहास पर काफी रौशनी डाली जा सकती है |

इस मंदिर में एक विक्रम संवत 1501 का तदनुसार ईस्वी सन् 1444 का अभिलेख है जिसके अनुसार खरवड जाती के रावत महिपाल,उसके पुत्र लक्ष्मण ने ,उसकी स्त्री क्षिमिणी तथा उसके पुत्र झाझा इन चारो ने मिलकर मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था ।इस लेख में इस कसबे का नाम बद्री लिखा है शायद इसी कारण चारभुजा जी को बदरीनाथ भी कहा जाता हैं। इस लेख से पता चलता है की ये मंदिर ईस्वी 1444 से भी पुराना है।
मंदिर के इतिहास और भजनों से सम्बंधित साहित्य मंदिर के दायी तरफ स्थित श्री चारभुजा प्रसाद भण्डार से क्रय की जा सकती है जिसके संचालक रामचन्द्र जी गूर्जर ( 8003575400) है|
जनश्रुतियो के अनुसार चारभुजानाथ और इससे थोड़ी दूर सहित सेवंत्री स्थित देवनारायण भगवान् ( बलराम जी ) की मुर्तिया स्वयं भगवान् श्री कृष्ण के निर्देशानुसार श्री विश्वकर्मा जी ने तैयार की थी और भगवान् के निर्देशानुसार उन्हें इंद्र देव को पांड्वो और सुदामा गोप को सौपने के लिए दे दी | इंद्र देव ने उन मूर्तियों को पांड्वो और सुदामा गोप को दे दी जिन्होंने मंदिर निर्माण कर मूर्तियों की प्रतिष्ठा की और पूजा अर्चना करने लगे|बाद में मंदिर पर हुवे आक्रमणों में मूर्ति को बचाने के लिए जलमग्न कर दिया गया|
कहते है की बाद में एक क्षत्रिय राजा गंग देव हुवे जिन्हें चारभुजानाथ प्रभु ने स्वयं स्वप्न में दर्शन दिए और जलमग्न प्रतिमा को बाहर निकाल कर मन्दिर में प्रतिष्ठा करने का आदेश दिया तब गंगदेव ने निर्दिष्ट स्थान से प्रतिमा को बाहर निकाल कर उसकी प्रतिष्ठा की और सेवा अर्चना करने लगे किन्तु बाद में यवनों के आक्रमण होने पर गंग देव ने मंदिर की सुरक्षा के लिए अपने पांचो भाइयो के साथ युद्ध करते हुवे प्राण त्यागे | गंगदेव के परिजनों ने प्रतिमा की सुरक्षा के लिए उसे पुनः जलमग्न कर दिया |

अनेक वर्षो के उपरान्त बूंदी के नडा ग्राम के सुदामा गोप के वंशज सुराजी बगडवाल जो की अपनी गायो को चराने के लिए गढ़बोर की पहाडियों में आकर बस गए थे ने एक दिन अपनी गायो को चराते समय देखा की एक साधू उनकी गायो से दुग्धपान कर रहा है तो उन्हें बड़ा क्रोध आया और उन्होंने उस साधू को अपशब्द कहने के लिए जैसे ही अपना मुँह खोला उनकी जिह्वा तालू से चिपक गई और साधू साक्षात भगवान् चतुर्भुज के स्वरुप में बदल गए| प्रभु के आदेश पर सुराजी ने अमरसागर से प्रभु की जलमग्न प्रतिमा को बाहर निकाला और पुनः मंदिर का निर्माण कर उनकी पूजा अर्चना करने लगे | जब मेवाड़ के महाराणा को इस चमत्कारी घटना के बारे में पता चला तो उन्होंने राजकोष से प्रतिवर्ष मंदिर के खर्च के लिए छः हजार रुपियो को देने का आदेश दिया और स्वयं एकलिंग जी की तरह चारभुजानाथ जी को भी अपना इष्ट मान कर पूजने लगे |

सुदामा गोप वंशी सुराजी बगड़वाल की तरह ही सुदामा गोप वंशी कालूजी चौहान भी बड़े प्रसिद्द है जिनके हाथो से स्वयं चारभुजानाथ ने दुग्धपान किया था | इसी प्रकार आशाराम जी पंचोली भी अत्यंत प्रसिद्द संत हुवे है |

आज भी सुदामा गोप के वंशज या सुदामा के पुत्र दामोदरजी के वंशज ही मंदिर के पुजारी है|जो की मुख्यत तीन गोत्रो में विभाजित है बगड़वाल ,पंचोली और चौहान जिसमे मंदिर की सेवा की हिस्सेदारी या पाती में से दो पांति बगड़वालो की है और एक, एक पांति पंचोलियो और चौहानों की है और ये चारो पांति बराबर की है और चारभुजानाथ के चौपडे में दर्ज है|चारभुजानाथ में सुदामा गोप के वंशजो के लगभग ५०० परिवार निवास करते है जो प्रतिमाह बारी बारी से एक माह के लिए मंदिर की पूजा सेवा करते है और पूजा के दौरान पुरे परिवार के पुरुष मंदिर में ही निवास करते है|
कहते है चारभुजानाथ के इस मंदिर ने अनेक आक्रमण झेले है किन्तु प्रभु के चमत्कार से कुछ भी नहीं हुवा | स्थानीय निवासियों के अनुसार एक बार मंदिर को लुटने के प्रयोजन से मराठो ने भी आक्रमण करने का प्रयास किया था किन्तु मंदिर के सामने स्थित माताजी की कृपा से वहा लगे भौरों के छत्ते ने सेना पर आक्रमण कर दिया और दैवीय योग से अनेक बड़ी बड़ी पाषाण की शिलाए उनके मार्ग में जाकर अवरोध के रूप में गिर गई तब मंदिर को लुटने आये मराठो ने मंदिर में दान देकर अपने प्राणों की रक्षा की |
मंदिर के बाहर लगे शिलालेखो में से एक महाराणा भीम सिंह जी के समय विक्रम संवत १८५२ का है |चार्भुजानाथ जी के मंदिर से थोडा आगे एक भीमकुंड निर्मित है जहा हनुमान जी की प्रतिमा विराजित है |चारभुजाजी के मंदिर के बाहर वर्तमान बस स्टैंड पर एक प्राचीन और भव्य धर्मशाला बनी हुई है जिसमे स्टेट समय में महाराणा अपने पुरे लवाजमे के साथ आकर रुकते थे ( देखे फोटोग्राफ्स) वर्तमान में ये धर्मशाल देवस्थान विभाग के अधीन है और अत्यंत जर्जर हो चुकी है |
चारभुजानाथ जी में दो प्रसिद्द मेले भरते है जिसमे पहला है प्रतिवर्ष भाद्रपद शुकल एकादशी ( जल झुलनी एकादशी ) को भरने वाला मेला जो पुरे प्रांत में प्रसिद्ध है जिसे लक्खी मेला भी कहते है | दूसरा मेला होली के दुसरे दिन से अगले पंद्रह दिवस तक चलता है जिसमे अनेक दर्शनार्थी आते है |

चारभुजा नाथ गढ़बोर जी का रेवाड़ी दर्शन विडिओ

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