जंग और मुहब्बत में सब जायज

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गुजरात विधानसभा चुनाव में दूसरे चरण के लिए प्रचार अब चरम पर है. पीएम मोदी और राहुल गांधी चुनावी मंच से एक दूसरे पर तीर चला रहे हैं. गुजरात में सियासी पारा लगातार चढ़ रहा है. गुजरात विधानसभा चुनाव के शतरंज पर बीजेपी और कांग्रेस में शह मात का खेल जारी है, परिणाम तो भविष्य के गर्भ में छिपा है लेकिन शह और मात का खेल जारी है,
अय्यर का भाषण सुनेंगे तो साफ हो जाएगा कि जाति का नाम तक नहीं लिया गया. लेकिन पुरानी कहावत है, जंग और मुहब्बत में सब जायज है. गुजरात विधानसभा चुनाव मे पूरे गुजरात में घूम-घूमकर जैसी भाषा बोली गयी हैं, उन्‍हें आम बोलचाल में हेट स्पीच कहा जाता है. यह भी कहा गया कि राहुल मंदिर में इस तरह बैठते हैं, जैसे नमाज पढ़ रहे हैं. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को `नमूना’ बताया.
 

मोदी के पीएम बनने के बाद वहां पहली बार चुनाव हो रहे हैं। गृह राज्य होने की वजह से यहां के चुनावी नतीजों का उनकी प्रतिष्ठा से जुड़ना स्वाभाविक है। मोदी जिस तरह से गुजरात मथ रहे हैं, उससे साफ दिख रहा है कि अब राज्य के मुख्यमंत्री भले ही न हों, लेकिन पार्टी के लिए वही चेहरा हैं। उधर राहुल गांधी उनके मुकाबिल हैं और उन्होंने भी जिस तरह से मोर्चा संभाला हुआ है, उससे यह लगता है कि गुजरात की लड़ाई बीजेपी बनाम कांग्रेस से कहीं ज्यादा मोदी बनाम राहुल बन चुकी है। दोनों तरफ से एक दूसरे पर तीर छोड़े जा रहे हैं। बीजेपी और कांग्रेस में शह मात का खेल जारी है. दोनों दल एक दूसरे को सियासी पटकनी देने के लिए अपने तरकश में लगातार मजबूत तीर इकट्ठा कर रहे हैं.

 
गुजरात के चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी एक अलग अवतार में नज़र आ रहे हैं. वे आत्मविश्वास से तो भरे हैं लेकिन वे लगातार संयम दिखा रहे हैं. राहुल ने प्रधानमंत्री पर हमला तो बोला है, लेकिन बहुत नपी-तुली भाषा में. उन्होनें कभी किसी पर निजी हमला नहीं किया. एक रैली के दौरान जब बीजेपी मुर्दाबाद के नारे लगे तो राहुल ने लोगों को ये कहते हुए चुप कराया कि मुर्दाबाद कहना कांग्रेस की संस्कृति नहीं है. मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे के बारे में जब उनसे पूछा गया तो राहुल ने कहा कि कांग्रेस और बीजेपी दोनो भारतीय मानस का प्रतिनिधित्व करती हैं. इसलिए मैं कभी बीजेपी मुक्त भारत नहीं कह सकता, उन्हें जो कहना है, वे कहें. राहुल गांधी एक ऐसे राजनेता की छवि गढ़ना चाहते हैं जो आक्रामक भाषा का इस्तेमाल नहीं करता, विरोधियों का सम्मान करता है, तथ्यों पर बात करता है और समावेशी राजनीति में यकीन रखता है. गुजरात कैंपेन के दौरान ये छवि सामने आती दिख भी रही थी. ऐसे में राहुल ने मणिशंकर अय्यर के बयान को अपनी इस छवि पर चोट माना. अय्यर की बलि इसी छवि को बचाने के लिए चढ़ाई गई है. अय्यर को किनारे करके उन्होंने मोदी की भावुकता भरी फरियाद को बेअसर करने की कोशिश की है, जिसमें वे गुजराती वोटरो से कांग्रेस को सबक सिखाने को कह रहे हैं.
पहली बार गुजरात समेत देश को लगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ लगे आरोपों को पतवार देने में सक्षम हैं. पहले उनकी इस कमजोरी का जमकर मजाक उड़ाया गया था. लेकिन अब अचानक से हवा का रुख राहुल गांधी की ओर मुड़ गया है. अब कहीं ज्‍यादा सशक्‍त, तीखे, विनम्र और व्‍यंग्‍य की पैनी धार वाले दिख रहे हैं. यह वो राहुल नहीं हैं जो बदल चुके हैं. जो बदला हुआ है वो है सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ. इसने भारत की समस्याओं और उनके संभावित समाधानों के प्रति जनता की धारणा को बदल दिया है.
राहुल गॉधी ने ठोस बात की है, कृषि संकट के बारे में बात की है. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा कानून की बात की है जिसे, मनमोहन सिंह सरकार ने 2005 में बनाया था. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का बचाव किया. हिंदुत्व रुझान वाले राष्ट्रवाद के विचार के खतरों को भी लोगों के सामने रखा है. जब राहुल ने जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्‍स कह कर मजाक बनाया तो इसे लोगों की खूब सराहना मिली इन सबसे निसंदेह गुजरात की जनता प्रभावित हुई है तभी भाजपा को अपना अजेय किला बचाने में पसीने छूट गये है, जनता भी यह मानने लगी है कि भारत की पुरानी भव्य पार्टी के नेता के रूप में, राहुल संभावित विकल्‍प दे सकते हैं.
वही कांग्रेस के किसी बड़े नेता की जुबान जब भी फिसली है तो नरेंद्र मोदी बिना मौका गंवाए धोबी पछाड़ मार देते हैं
मोदी को जनता का नब्ज पढ़ना आता है. मोदी जानते हैं कि तालियां किस बात पर बजेंगी. मोदी के दर्जनों ऐसे बयान मिल जाएंगे जिनमें शब्दों की मर्यादा की सीमा बुरी तरह टूटी है. गुजरात के इसी चुनाव में मोदी राहुल गांधी के खानदान को पानी-पीकर कोसते नजर आए हैं. मोदी ने कहा- गुजरातियों का ये अपमान कांग्रेस की `मुगल मानसिकता’ का परिचायक है. मुगलों का कांग्रेस और बीजेपी से क्या लेना-देना? मतलब मोदी अच्छी तरह जानते हैं. वे इशारो-इशारों में उन प्रतीकों को वापस लाना चाहते हैं, जिनकी मदद से 2002 में उनका राजनीतिक सितारा रातों-रात चमका था.

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