ऋषि मुनियो की तपस्‍थली हिमालय पर्वत; हिमालय दिवस पर विशेष

हिमालय आदि काल से रहस्यमय – हिमालय दिवस पर विशेष  : ऋषि मुनियो की तपस्‍थली हिमालय पर्वत

हिमालय संस्कृत के दो शब्दों – हिम तथा आलय से मिल कर बना है, जिसका शब्दार्थ बर्फ का घर होता है। यह ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद पृथ्वी पर सबसे बड़ा हिमआवरण वाला क्षेत्र है। हिमालय और विश्व की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट को भी कई नामों से जाना जाता है। नेपाल में इसे सगरमाथा (आकाश या स्वर्ग का भाल), संस्कृत में देवगिरी और तिब्बती में चोमोलुंगमा (पर्वतों की रानी) कहते हैं। 

इन ऋषियो के कारण देवभूमि  थी उत्‍तराखण्‍ड- आज बेईमान राजनेताओ ने राक्षस भूमि बना दिया-

प्राय: सभी ऋषि उत्तराखण्ड में ही हुए हैं। ऋषियों ने इसी पुनीत भूमि में रहकर तपस्या की, ताकि अध्यात्म शक्तियों को ठीक ढंग से संभाल सकें। इसलिए उन्होंने इसी स्थान को चुना था। चरक ऋषि को आप जानते हैं क्या? चरक ऋषि प्राचीन काल में हुए हैं। उन्होंने दवाओं, प्राकृतिक औषधियों के संबंध में शोधें की थीं, खोजें की थीं। उनका स्थान केदारनाथ के पास था, जहाँ सिखों का गुरुद्वारा है। केदारनाथ के पास फूलों की घाटी है जो उन्हें बहुत प्रिय थी।  उत्तरकाशी में आरण्यक हैं। आरण्यक किसे कहते हैं? आरण्यक उसे कहते हैं जहाँ लोग वानप्रस्थ लेकर समाजसेवा के लिए समर्पित हो जाते हैं उनके निवास स्थान को आरण्यक कहते हैं। गुरुकुल छोटे बच्चों का होता है।  आद्य शंकराचार्य का नाम सुना है न आपने। जिन्होंने चारों धाम बनाए थे। चारों धाम कौन-कौन से हैं? रामेश्वरम्, द्वारिका, बद्रीनाथ और जगन्नाथपुरी। चारों धामों में चार मठ उन्होंने स्थापित किए थे। उनका अपना निवास स्थान था ज्योतिर्मठ। ज्योतिर्मठ के पास शहतूत का एक पेड़ था। उसी के नीचे उनकी गुफा थी। वे वहीं रहते थे। वहीं उनने अपने ग्रंथ लिखे थे और वहीं तप किया था और वहीं जो कुछ भी काम कर सकते थे, चारों धाम बनाने का, वे भी योजनाएँ उन्होंने वहीं बनाई थीं। मांधाता को कहकर वह काम उन्होंने वहीं से कराया था। 

आपने पिप्पलाद ऋषि का नाम सुना है। वह भी यहीं रहते थे हिमालय पर लक्ष्मण झूला के पास। पीपल के फल खाकर के ही उनने जिंदगी काट दी थी, क्योंकि वे जानते थे-‘जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन’। यदि हम अपने मन को अच्छा बनाने की फिक्र में हैं तो सबसे पहले शुरुआत अच्छे खाने से करनी चाहिए। अच्छे अन्न से करनी चाहिए। अच्छे अन्न का मतलब होता है कि बेईमानी से कमाया हुआ अन्न नहीं हो। बिना हराम का जो अपने खून पसीने से कमाया हो, उसी को खा करके रहना चाहिए। पीपल के पेड़ उन दिनों ज्यादा थे। उनके फल भी ज्यादा होते होगे। तोड़-ताड़कर उन्हें साल भर के लिए रख लेते रहे होगे और उसे ही खाते रहे होंगे। हमारा भी आहार ऐसा ही रहा है।  ;   आज उत्‍तराखण्‍ड में  बेईमान राजनेताओ ने क्‍या हाल कर दिया- कहने की जरूरत नही –

सूत और शौनक ऋषि   वे कहाँ रहते थे? हिमालय पर। कौन भी जगह? ऋषिकेश में।  बुद्ध का नाम सुना है न आपने? धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए उनके कितने शिष्य थे जो आकर समय समय पर साधनाएँ किया करते थे और उपासनाएँ करते थे। वे कहाँ रहते थे ?? बुद्ध के पास ?? नहीं, बुद्ध के पास नहीं रहते थे। नालंदा में रहते थे। तक्षशिला में रहते थे और कुछ हिमालय में रहते थे।

अन्तरिक्ष से लिया गया हिमालय का चित्र

हिमालय पर्वत की एक चोटी का नाम ‘बन्दरपुंछ’ है। यह चोटी उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल ज़िले में स्थित है। इसकी ऊँचाई 13,731 फुट है। इसे सुमेरु भी कहते हैं। हिमालय के कुछ प्रमुख शिखरों में सबसे महत्वपूर्ण सागरमाथा हिमालय, अन्नपूर्णा, गणेय, लांगतंग, मानसलू, रोलवालिंग, जुगल, गौरीशंकर, कुंभू, धौलागिरी और कंचनजंघा हैं। हिमालय की कुछ प्रमुख नदियां हैं- सिंधु, गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र और यांगतेज।

हिमालय पर्वत तन्त्र को तीन मुख्य श्रेणियों के रूप में विभाजित किया जाता है जो पाकिस्तान में सिन्धु नदी के मोड़ से लेकर अरुणाचल के ब्रह्मपुत्र के मोड़ तक एक दूसरे के समानांतर पायी जाती हैं। चौथी गौड़ श्रेणी असतत है और पूरी लम्बाई तक नहीं पायी जाती है। ये चार श्रेणियाँ हैं-
(क) परा-हिमालय,
(ख) महान हिमालय
(ग) मध्य हिमालय, और
(घ) शिवालिक।
परा हिमालय जिसे ट्रांस हिमालय या टेथीज हिमालय भी कहते हैं, हिमालय की सबसे प्राचीन श्रेणी है। यह कराकोरम श्रेणी, लद्दाख श्रेणी और कैलाश श्रेणी के रूप में हिमालय की मुख्य श्रेणियों और तिब्बत के बीच स्थित है। इसका निर्माण टेथीज सागर के अवसादों से हुआ है। इसकी औसत चौड़ाई लगभग 40 किमी है। यह श्रेणी इण्डस-सांपू-शटर-ज़ोन नामक भ्रंश द्वारा तिब्बत के पठार से अलग है।
महान हिमालय जिसे हिमाद्रि भी कहा जाता है हिमालय की सबसे ऊँची श्रेणी है। इसके क्रोड में आग्नेय शैलें पायी जाती है जो ग्रेनाइट तथा गैब्रो नामक चट्टानों के रूप में हैं। पार्श्वों और शिखरों पर अवसादी शैलों का विस्तार है। कश्मीर की जांस्कर श्रेणी भी इसी का हिस्सा मानी जाती है। हिमालय की सर्वोच्च चोटियाँ मकालू, कंचनजंघा, एवरेस्ट, अन्नपूर्ण और नामचा बरवा इत्यादि इसी श्रेणी का हिस्सा हैं। यह श्रेणी मुख्य केन्द्रीय क्षेप द्वारा मध्य हिमालय से अलग है। हालांकि पूर्वी नेपाल में हिमालय की तीनों श्रेणियाँ एक दूसरे से सटी हुई हैं।
मध्य हिमालय महान हिमालय के दक्षिण में स्थित है। महान हिमालय और मध्य हिमालय के बीच दो बड़ी और खुली घाटियाँ पायी जाती है – पश्चिम में काश्मीर घाटी और पूर्व में काठमाण्डू घाटी। जम्मू-कश्मीर में इसे पीर पंजाल, हिमाचल में धौलाधार तथा नेपाल में महाभारत श्रेणी के रूप में जाना जाता है।
शिवालिक श्रेणी को बाह्य हिमालय या उप हिमालय भी कहते हैं। यहाँ सबसे नयी और कम ऊँची चोटी है। पश्चिम बंगाल और भूटान के बीच यह विलुप्त है बाकी पूरे हिमालय के साथ समानांतर पायी जाती है। अरुणाचल में मिरी, मिश्मी और अभोर पहाड़ियां शिवालिक का ही रूप हैं। शिवालिक और मध्य हिमालय के बीच दून घाटियाँ पायी जाती हैं।

देवात्मा हिमालय –  यहां मौजूद दिव्‍य शक्‍तियां जब भी पृथ्वी पर संकट आता है, नेक और श्रेष्ठ व्यक्तियों की सहायता करने के लिए वे पृथ्वी पर भी आती हैं। वही शास्त्रों के अनुसार इन हिमालय मे तीर्थस्थलों में किसी भी प्रकार की मानव आबादी का रहना वर्जित है। यह स्थान सिर्फ तपस्वियों के लिए ही है। यदि सबक नहीं लेते हैं तो एक दिन  हिमालय प्रलय की भूमि में बदल जायेगा और तब  छुपने की जगह नहीं मिलेगी। 

हिमालय की हसीन वादियों में छुपा है एक गहरा राज़.. राज़ उन अनजाने चेहरों का जो इस दुनिया में कहीं नहीं दिखाई देते, राज़ उन अनजाने लोगों को जिन्हें इस दुनिया का नहीं कहा जा सकता. ये रहस्य करीब 250 साल पुराना है और इसे जानने के लिए हिमालय की बर्फीली घाटियों में तांत्रिक कर रहे हैं अब तक की सबसे बड़ी साधना –  पायलट बाबा का भी कहना है कि वह हिमालय में छह-छह माह निराहार रहते है। 
हिमालय का एक रहस्यमय मठ
परम पूज्य सद्गुरुदेव श्रीराहुलेश्वरानंद जी की पुस्तक से उद्धत विभिन्न कार्यो को मैं पाठकों के समक्ष रख रहा हूं जिन्हें पढ़ कर आप दांतों तले अंगुली दबा लेगे- हिमालयायूके – CHANDRA SHEKHAR JOSHI- EDITOR

हिमालय का एक रहस्यमय मठ जिसके गुरु की आयु है लगभग 1400 वर्ष और उनके शिष्य की आयु है लगभग 450 वर्ष
कहते हैं हिमालय में बड़े-बड़े आश्रम हैं। जहां पर आज भी सैकडों साधक अपनी-अपनी साधना में लगे हुए हैं। ऐसे ही इस हिमाच्छादित प्रदेश में अनंत रहस्यों से भरा है एक मठ जिसका नाम है ज्ञानगंज। वैसे तो इस आश्रम की स्थापना एक हजार पांच सौ वर्ष पूर्व हुई थी परन्तु इसको प्रकट करने का श्रेय जाता है बनारस के मायावी या गंधबाबा के नाम से प्रसिद्ध स्वामी श्री विशुद्धानंद परमहंस को। हम हिमालय के जितने अंदर जाएंगे, उतनी हमें नई जानकारियां उपलब्ध होती जाएंगी। देवात्मा हिमालय का वर्णन अवर्णनीय है। महर्षि महातपा की उम्र है लगभग 1400 वर्ष जो अधिकतर निराहार ही रहते हैं। श्री भृगराम परमहंस देव जी लगभग 450 वर्ष के हैं। इसके अलावा पायलट बाबा का भी कहना है कि वह हिमालय में छह-छह माह निराहार रहते है। हिमालय के रहस्यमय व दिव्य स्वरुप के बारे में उनकी दो पुस्तकें बेजोड़ हैं।
हिमालय केे एक रहस्यमठ मठ के बारे में उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून से चन्द्रशेखर जोशी की प्रस्तुतिः-
हिमालय आदि काल से रहस्यमय रहा है जैसे-जैसे रहस्य की परतें हटती गई, वैसे-वैसे रहस्य और गहराता गया। सदियों से यह प्राणी मात्र को अपनी ओर आकर्षित करता आया है चाहे इसका कारण वहां पाई जाने वाली दिव्य वानस्पतिक संपदाएं हो या हजारों सालों से तपस्यारत साधुाअें की तपस्या स्थली या फिर देवताओं का मनोरम स्थल। गंगा और सिंधु जैसी पवित्र नदियों का उद्गम स्थल भी तो हिमालय ही है। कहते हैं वहां बड़े-बड़े आश्रम हैं जहां पर आज भी सैकड़ों साधक अपनी साधना में लगे हुए हैं। ऐसे ही इस हिमाच्छादित प्रदेश में अनंत रहस्यों से भरा है एक मठ, जिसका नाम है ज्ञानगंज। वैसे इस आश्रम की थापना एक हजार पांच सौ वर्ष से भी पहले हुई थी परन्तु इसको प्रकट करने का श्रेय जाता है बनारस के मुगलसराय से गंधबाबा के नाम से प्रसिद्ध स्वामी श्री विशुद्धानंद परमहंस को।

1- गुरु के प्रति पूर्णतया समर्पित थेः-
परम पूज्य सद्गुरुदेव श्रीराहुलेश्वरानंद जी ने लिखा है कि जब मैं आठ महाविद्या सिद्ध कर नवी महाविद्या प्राप्त करने हेतु स्वामी निखिलेश्वरानंद जी के गृहस्थ रुप डाॅ0 नारायण दत्त श्रीमाली जी के यहां गया तो मैं संयासी वस्त्रों में था। मुझे त्रिजटा महाराज ने सीधे नागार्जुन पर्वत से भेजा था। मैं थोड़ा डरा-सहमा सा था क्योंकि त्रिजटा गुरुदेव ने मुझे जिस व्यक्तित्व का परिचय दिया था मैं उसका साक्षात्कार करने जा रहा था। वे अंदर आफिस में बैठे हुए थे उन्होंने मुझे देखा, मानसिक रुप से मैंने उन्हें प्रणाम किया और उन्होंने मेरा प्रणाम स्वीकार किया। लेकिन इसके बाद गुरुदेव ने तीन दिनों तक मेरी ओर देखा भी नहीं। उस वक्त जोधपुर में ठण्ड का मौसम था, रात को हड्डियां कंपकपाने वाली ठण्ड होती थी। लेकिन मुझे विश्वास था कि चाहे गुरुदेव मेरी कुछ भी परीक्षा लें मैं उन सब मैं सफल रहूंगा और उनसे दीक्षा प्राप्त करुंगा। मुझे भी घमंड आ सकता था कि मैंने तो आठ महाविद्याएं सिद्ध कर रखी हैं, अनेकों साधनाओं में सिद्धहस्त हूं फिर मैं क्यों रुकूं। मैं क्यों बाहर खड़ा रहूं और जबकि एक प्रकार से मैं उनका गुरुभाई भी था क्योंकि सच्चिदानंद गुरुदेव से मैं दीक्षा ले चुका था। फिर भी मैं एक नवोदय शिष्य की तरह खड़ा था कि कब वह मुझ पर अपनी एक दृष्टि डालेगे। मेरे मन में गुरुदेव से दीक्षा देने के सिवा और कोई भाव नहीं आया। गुरुदेव ने अपनी करुणामय दृष्टि से मेरी ओर देखा और मुझे अपने साथ लेकर चले गये तो उस क्षण मैं उनके ममत्व से पूरी तरह भीग गया था।
2- सिद्धाश्रम
सिद्धाश्रम एक अत्यंत उच्चकोटि की भावभूमि पर एक अत्यन्त सिद्ध आश्रम है जो कई वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। इसके एक ओर कैलाश मानसरोवर है दूसरी ओर ब्रहम सरोवर है और तीसरी ओर विष्णुतीर्थ है। इन तीनों पुण्य स्थलियों के बीच यह सिद्धाश्रम स्थित है। स्वयं विश्वकर्मा ने ब्रह्मादि के कहने पर इस आश्रम की रचना की।
परमहंस स्वामी सच्चिदानंद प्रभु जिनकी आयु हजारोझारों वर्षो की है और जो समस्त गुरुओं के गुरु हैं वे इस श्रेष्ठतम आश्रम के संस्थापक, संचालक एवं नियंता हैं। सच्चिदानंद जी के बारे में स्वयं ब्रह्मा ने कहा है कि वे साक्षात ब्रह्मा का मूर्तिमय पुंज है। भगवान शिव ने उनको आत्मस्वरुप कहा है और सभी देवी-देवता उनकी एक झलक पाने को लालायित रहते हैं। सिद्धाश्रम में चारों ओ दिव्य स्फटिक शिलाएं देखने को मिलती हैं जिस पर हजारों वर्ष के योगी साधनारत एवं समाधिस्थ हैं। वहां जगह-जगह पर दिव्य कल्पवृक्ष देखने को मिलते हैं जिनका विभिन्न शास्त्रों में वर्णन है। इनके नीचे बैठकर व्यक्ति जो इच्छा करता है वह पूर्ण होती ही हैं।
सिद्धाश्रम की आयु अत्यधिक शीतल एवं संगीतयुक्त है। उसमें एक थिरकन है, एक गुनगुनाहट है, एक मधुरता है, एक अद्वितीयता है। वहां देव संगीत निरंतर गुंजरित होता रहता है एवं उसको सुनकर मन में एक तृष्टि का अहसास होता है। कहीं कहीं उच्चकोटि के योगी यज्ञ सम्पन्न करते दिखाई देते हैं और सारा वातावरण उस यज्ञ की पवित्र धूम से आप्लावित रहता है। वहां सभी अपनी-अपनी क्रिया में संलग्न रहते हैं। वास्तव में ही वहां पहुंचने पर शरीर एवं हृदय ऐसे आनंद से भर जाता है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
इस सिद्धाश्रम का सबसे अधिक आकर्षण का केन्द्र है यहां की सिद्धयोगा झील। कई कि0मी0 विस्तार में फैली हुई यह अद्भूत झील कायाकल्प के गुणों से युक्त है। 80 साल का व्यक्ति भी यदि इसमें स्नान कर लेता है तो वह सौन्दर्य से परिपूर्ण कामदेव के समान हो जाता है। उसके सारे मानसिक एवं दैहिक क्लेश समाप्त हो जाते हैं और वह पूर्ण आरोग्य को प्राप्त करता है। इस झील में कई स्फटिक नौकाएं हैं जिसमें साधक जन एवं देवागंनाएं विहार करते दिखाई देते हैं।
वास्तव में ही सिद्धाश्रम काल से परे कालजयी आश्रम है। यहां पर न सुबह होती है न शाम होती है और न ऋतु परिवर्तन ही होता है। यहां पर सदैव वसंत ऋतु का ही मौसम रहता है एवं सदैव ही शीतल चाॅदनी सा प्रकाश बिखरा रहता है। योगियों के शरीर से जो आभा प्रकाशित होती है उससे भी यहां प्रकाश फैला रहता है। इस कालजयी आश्रम में किसी की मृत्यु नहीं होती है। हर कोई सौंदर्यवान, तरुण एवं रोग रहित रहता है। यहां पर उगी वनस्पति, पुष्प एवं कमल भी कभी मुरझाते नहीं है। सतयुग, त्रेताकालीन, द्वापरकालीन अनेकानेक दिव्य विभूतियां इस दिव्य आश्रम में आज भी विद्यमान हैं। राम, बुद्ध, हनुमान, कृष्ण, महावीर, गोरखनाथ, सप्त ऋषिगण, जिनका नाम लेना ही इस पूरे जीवन को पवित्र और दिव्य बनाने के लिए काफी है। यहां पर सशरीर विद्यमान हैं। परमहंस त्रिजटा जी महाराज, महावतार बाबा जी आहदि इस दिव्य आश्रम की श्रेष्ठ विभूतियां हैं। जगह-जगह पर अनेकानेक योगी तांत्रिक इन महापुरुषों का सत्संग लाभ करते हुए देखे जा सकते हैं। अगर यह भूमि तप भूमि हैं, साधना या तपस्या भूमि हैं तो यह सही अर्थो में सौन्दर्यभूमि भी है। समस्त ब्रह्माण्ड का सौन्दर्य ही मानों इस आश्रम में समाया हुआ है। सिद्धाश्रम देवताओं के लिए भी दुर्लभ एवं अन्यतम स्थान है, जिसे प्राप्त करने के लिए उच्चकोटि के योगी भी तरसते रहते हैं। प्रत्येक साधक अपने मन में यह आकांक्षा लिये रहता है कि उसे एक बार सिद्धाश्रम प्रवेश का अवसर मिल जाएं। परमहंस सच्चिदानंद जी के प्रमुख शिष्य युगपुरुष परमहंस निखिलेश्वरानंद जी इस आश्रम के प्राण हैं। आज जो भी नवीनताएं एवं रोचक बदलाव इस आश्रम में हुए हैं वे सब उन्हीं के प्रयत्नों से संभव हो सका है। वास्तव में बिना निखिलेश्वरानंद जी के तो सिद्धाश्रम की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यही कारण है कि सिद्धाश्रम को निखिल भूमि के नाम से भी पुकारा जाता है।
पर इस आश्रम को स्थूल नेत्रों से नहीं देखा जा सकता पर सामान्य व्यक्ति भी सिद्धाश्रम जा सकता है। इसके लिए तीन कसौटियां हैं। प्रथम उसने दस महाविद्याओं में से चार महाविद्याएं सिद्ध की हो या उसने षटचक्र भेदन करके सहस्रार में कुण्डलिनी को अवस्थित कर लिया हो या फिर तीसरा मार्ग है किसी श्रेष्ठतम सद्गुरु की कृपा से सिद्धाश्रम जाना। पर हर कोई सन्यासी या हर कोई गुरु यह नहीं कर सकता। हरिद्वार, इलाहाबाद, वाराणसी में बैठे संयासी किसी को सिद्धाश्रम नहीं ले जा सकते हैं। शिष्य को वे ही सद्गुरु सिद्धाश्रम ले जा सकते हैं जो स्वयं सिद्धाश्रम की परम्परा से जुड़े हैं जो सिद्धाश्रम सशरीर गये हुए हैं और वहां से वापस भी आए हैं। जिनका आवागमन हैं सिद्धाश्रम में, जिन्होंने दसों महाविद्यां सिद्ध की हैं एवं जिनका सहस्रार पूर्ण जागृत हैं और जो ब्रहमाण्ड भेदन में पूर्ण सिद्धहस्त हैं केवल और केवल मात्र वे ही अपने शिष्य को प्रवेश लेने के बाद सिद्धाश्रम ले जा सकते हैं आप सबका भाग्योदय हो। आपमें सिद्धाम जाने की ललक उठे, आपको ऐसे गुरु प्राप्त हो आप उन्हें पहचान सकें एवं उनकी परीक्षाओं में सफल होते हुए सिद्धाश्रम जा सके, यही मेरी कामना है।
क्रम सं. 3
निखिलेश्वरानंद जी महाराज का नाम अपने आप में ही देवगंगा की तरह पवित्र, उज्जवल एवं शीतलता का प्रतीक है। मात्र उनके संसर्ग, साहचर्य एवं सम्पर्क से ही जीवन की पूर्णता का आभास अनुभव होने लगता है। पूज्य गुरुदेव डा0 नारायण दत्त श्रीमाली जी परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी सही अर्थो में पूर्ण योगीश्वर हैं जिन्हें कई-कई हजार वर्षो की आयु का पूर्ण ज्ञान है। एक ही जीवन जीते हुए उन्होंने प्रत्येक युग को देखा। द्वापर को, त्रेता को और इससे भी पहले वैदिक काल को। उन्हें वैदिक ऋचाएं ज्ञात हैं, द्वापर की एक-एक घटना स्मरण है, त्रेता के एक-एक क्षण के साक्षी रहे हैं।
परम पूज्य सद्गुरुदेव श्रीराहुलेश्वरानंद जी ने लिखा है कि पहले का नहीं कह सकता पर 2000 वर्षो का साक्षी भूत शिष्य तो मैं भी रहा हूं, और इन 2000 वर्षो में उन्हें कैसे चिर यौवनवान, चिर नूतन एक संयासी के रुप में देखा है। यह अलग बात है कि इस दौरान उन्होंने कई रुप लिये, कई रुपों में प्रस्तुत हुए। उन्होंने जो साधनाएं सम्पन्न की है वे अपने आप में ही अद्वितीय हैं। अगम्य हैं हजारोंझार वर्ष के योगी भी उनके सामने नतमस्तक रहते हैं क्योंकि वे योगी उनके आभ्यतंरिक जीवन एवं भावनाओं से परिचित हैं। वे जानते हैं कि यह व्यक्तित्व अनूठा है, अद्वितीय है, इसके पास ज्ञान एवं साधनाओं का इतना विशाल भण्डार है कि वे योगी कई सौ वर्षो तक उनके साहचर्य में रहकर भी उसे पूरी तरह प्राप्त नहीं कर सकते। सम्पूर्ण वेद एवं शास्त्र उन्हें स्मरण हैं और जब वे बोलते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि स्वयं ब्रह्मा चारों मुख से वेद उच्चारित कर रहे हैं। मैंने उन्हें ब्रह्म स्वरुप को देखा है उनके विष्णु स्वरुप को देखा है, उनके रुद्र स्वरुप को देखा है। उनके रौद्र स्वरुप का भी साक्षी रहा हूं। मैंने उनके जीवन के हर क्षण को जिया है और यह अनुभव किया है कि वास्तव में ही योगीश्वर निखिलेश्वरानंद जी इस समस्त ब्रह्माण्ड की अद्वितीय विभूति हैं और इस बात का साक्षी मैं ही नहीं अपितु सैकड़ों योगी, ऋषि एवं मुनि रहे हैं। सिद्धाश्रम का हर योगी इस बात को महसूस करता है ंकि निखिलेश्वरानंद जी नहीं हैं तो यह सिद्धाश्रम भी नहीं है। क्योंकि निखिलेश्वरानंद जी इस सिद्धाश्रम के कण-कण मैं व्याप्त हैं। वे किसी को दुलार देते हैं, किसी को सहलाते हैं। किसी को झिड़कते हैं तो केवल इसलिए कि वह कुछ सीख लें। केवल इसलिए कि वह कुछ समझ लें, केवल इसलिए कि वह जीवन में पूर्णतया प्राप्त कर लें और सभी ऋषिगण उनके पास बैठकर अत्यंत शीतलता का अनुभव करते हैं। ऐसा लगता है कि एक साथ ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ बैठे हो।
वे अद्वितीय युग पुरुष हैं हो सकता है कि वर्तमान काल उनको समझ नहीं सके क्योंकि एक अनिर्वचनीय व्यक्तित्व को काल अपनी बाहों में बाॅध नहीं सकता, समय उनकी गाथा नहीं गा सकता वह तो जो उनके साथ रहा है, जो साक्षी भूत रहा है वहीं समझ सकता है क्योंकि उन्होंने तो कई रुपों में जन्म लिया, शंकराचार्य के रुप में, बुद्ध के रुप में, महावीर के रुप में, योगियों के रुप में और सभी रुपों में वे अपने-आप में उच्चतम रहे।
कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जिस प्रकार अपना विराट स्वरुप दिखाया, उससे भी उच्च एवं अद्धितीय विराट स्वरुप मैंरे अलावा हजारों संयासियों ने उनका देखा है और अहसास किया है कि वास्तव में ही वे 108 कला पूर्ण एवं अद्वितीय व्यक्तित्व हैं। एक युग पुरुष हैं जो एक विशेष उद्देश्य के लिए इस पृथ्वी ग्रह पर आए हैं।
वे सिद्धाश्रम के प्राण हैं। जब भी वे सिद्धाश्रम में आते हैं तो हजारों साल की आयु प्राप्त योगी-यति भी अपनी तपस्या बीच में ही भंग करके खड़े हो जाते हैं। उनके चरणों को स्पर्श करने के लिए रेलम-पेल मच जाती हैं। चाहे साधक-साधिकाओं हो, चाहे संयासी-संयासिनियां हो, चाहे योगी हो, चाहे ऋषिगण हो या अप्सराएं हो, सभी में एक ही ललक, एक ही इच्छा, आकांक्षा होती है कि स्वामी निखिलेश्वरानंद जी के चरणों को स्पर्श किया जाए क्योंकि उनके चरणों को स्पर्श करना ही जीवन का सर्वोच्च भाग्य है। वे जिस रास्ते से गुजर जाते हैं जहां-जहां उनके चरण चिन्ह पड़ जाते हैं। वहां की धूलि उठाकर उच्च कोटि के योगी, संयासी अपने ललाट पर लगाते हैं। अप्सराएं उस माटी से अपनी मांग भरती हैं एवं साधक साधिकाएं उसको चंदन की भांति अपने शरीर पर लगाते हैं।
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स्वामी जी लिखते हैं कि वास्तव में ही सिद्धाश्रम इस समस्त ब्रहमाण्ड का आध्यात्मिक चेतना बिन्दु है। ऋषि, योगी, मुनि एवं हजारों हजारों वर्ष की आयु प्राप्त तपस्वी भी मन में यह आस पाले रहते हैं कि जीवन में एक बार भी अगर सिद्धाश्रम के दर्शन हो जाए तो यह हजारोंझारों वर्ष का जीवन धन्य हो जाए। वास्तव में ही सिद्धाश्रम एवं निखिलेश्वरानंद जी एक दूसरे के पर्याय हैं। निखिलेश्वरानंद जी के आने से पूर्ण सिद्धाश्रम एक ठूठ के समान था यहां कोई हलचल एवं मस्ती नहीं थी। यहां के योगी, तपस्वी पूर्ण रुप से आत्मलीन एवं आत्मकेन्द्रित थे। यहां सभी अपनी-अपनी तपस्या में ही केन्द्रित थे। वहां शांति तो थी पर वह मरघट की शांति थी। निखिलेश्वरानंद जी ने यह सब बदल दिया। उन्होंने साधक-साधिकाओं को परस्पर बात करने की छूट दी। सिद्धयोगा झील में स्फटिक नौकाओं में विहार करने की आजादी दी। सिद्धाश्रम के मुख्य महोत्सवों में किन्नरों से संगीत बजवाया, गंधर्वो का दिव्य गायन करवाया एवं अप्सराओं से नृत्य भी करवाया और सब ऐसा हुआ तो पूरा सिद्धाश्रम एक क्षण रुक सा गया क्योंकि इससे पहले वहां अप्सरादि का नृत्य नहीं हुआ था। इस सबको मर्यादा के विपरीत माना जाता था। आप तो सिद्धाश्रम में आमूल चूल परिवर्तन करना चाहते थे और यह परिवर्तन वहां स्थित ऋषियों एवं मुनियों को असह्य था और जब आपने उर्वशी से एक घंटे तक नृत्य करवाया तो सबकी आंखें परम पूज्य स्वामी सच्चिदानंद जी पर टिकी हुइ थी कि अब वे किसी भी समय कुछ भी कर सकते हैं।
मगर आपने उस दिन छोटे से सारगर्भित शब्दों में यह समझाया कि यदि आंख साफ है, यदि मन में विकार नहीं है तो फिर चाहे नृत्य होि या चाहे संगीत होि वह गलत नहीं है क्योंकि नृत्य एवं संगीत जीवन का एक आवश्यक अंग है। ठीक उसी तरह जिस तरह वेद मंत्र, साधनाएं एवं सिद्धियां हैं। गुरुदेव की आंखें आपके ऊपर टिकी हुई थी और आपने जब कहा- यह मेरी धृष्टता हो सकती है कि मैंने इस पारस्परिक कार्यक्रम में एक नया अध्याय जोड़ा है और अगर इसके लिए मुझे यहां से जाना भी पड़े तो मैं तैयार हूं। मगर मैं जहां तक समझता हूं मैंने शास्त्र एवं मर्यादा के खिलाफ कोई कार्य नहीं किया है, फिर भी गुरुदेव सर्वोपरि हैं और वे जो भी आज्ञा देगे, वह मुझे सहर्ष स्वीकार है।
उस समय अधिकतर ऋषि गुरुदेव स्वामी सच्चिदानंद जी को सुनने के लिए व्यग्र थे और जब उन्होंने कहा- निखिल ने जो कुछ भी परिवर्तन किया है वह शास्त्र मर्यादा के अनुसार किया है तो सभी आश्चर्य युक्त हर्ष से विभोर हो गये। वास्तव में ही उस दिन से सिद्धाम का स्वरुप ही बदल गया। अब वह इन्द्र के नंदन कानन से भी श्रेष्ठ है और देवी-देवता भी वहां आने को तरसते हैं। सिद्धाश्रम में वेदकालीन ऋषि जैसे वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, कणाद, भारद्वाज आज भी विद्यमान हैं राम, कृष्ण, बुद्ध आदि भी वहां विचरण करते हुए दिखाई दे जाते हैं पर सभी इस बात को स्वीकार करते हैं कि युग पुरुष निखिलेश्वरानंद जी अपने आप में एक अन्यतम विभूति हैं और उन जैसी ऊॅचाई प्राप्त करना असम्भव है। तभी तो आज सिद्धाश्रम में सबसे ज्यादा उन्हीं के शिष्य हैं स्वयं सिद्धाश्रम भी ऐसे अद्वितीय युग पुरुष को प्राप्त कर गौरवान्वित हुआ हैं।
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इन ऋषियो के कारण देवभूमि  थी उत्‍तराखण्‍ड- आज बेईमान राजनेताओ ने राक्षस भूमि बना दिया-

श्रृंगी ऋषि मंत्रविद्या में पारंगत थे। वे लोमश ऋषि के बेटे। उन्होंने परीक्षित को शाप दिया था कि तुझे सातवें दिन साँप काट खाएगा, तो सातवें दिन साँप ने उन्हें काट खाया था। उन्होंने ही राजा दशरथ के यहाँ यज्ञ कराया था। राजा दशरथ के बच्चे नहीं होते थे तो पुत्रेष्टि यज्ञ कराने के लिए श्रृंगी ऋषि को उपयुक्त समझा गया। वे ब्रह्मचारी थे और मंत्रविद्या के पारंगत भी। उन्हीं की मंत्रविद्या की वजह से राजा दशरथ के चार बच्चे पैदा हुए थे। यह सब श्रृंगी ऋषि की मंत्रविद्या थी। वह भी हिमालय में रहते थे। 

नंदनवन जो स्वर्ग में था, वह यहीं है। तपोवन भी, मानसरोवर भी यहीं है।  शंकर जी को चीन छीन ले गया, लेकिन यह कैलाश पर्वत उसी पर है।    हिमालय क्या है? स्वर्ग है। स्वर्गारोहण के लिए जब पांडव गए थे तो यहीं गए थे। स्वर्गारोहण बद्रीनाथ से आगे यशोधरा है और वसोधारा से आगे एक पहाड़ है, वहीं स्वर्गारोहण है। सुमेरु पर्वत भी यहीं है सारे देवता उसी पर रहते थे। यह सोने का पहाड़ था।   श्रीकृष्ण भगवान तप करने के लिए बद्रीनाथ गए थे। रुक्मिणी और कृष्ण दोनों ने वहीं तप किया था। तप करने के बाद में उनके प्रद्युम्न जैसी संतान पैदा हुई। 

 आपने शकुन्तला का नाम सुना है और चक्रवर्ती भरत ! जिसके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। शकुन्तला कौन थी? वह कण्व ऋषि की बेटी थी, हाँ बेटी ही कहिए और उसके बच्चे भरत का जन्म, पालन जो हुआ था, यहाँ कोटद्वार नाम की एक जगह है हिमालय में 

हिमालय में पाँच प्रयाग हैं, पाँच काशियाँ हैं, पाँच सरोवर हैं। हिमालय में चार धाम हैं। चार धाम कौन-कौन से हैं? बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री। चार धाम ये ही कहलाते हैं। ये सारे के सारे पवित्रतम स्थान इसमें बने हुए हैं। 

बद्रीनाथ के पास में ब्रह्मकपाल नाम का स्थान है, वहाँ लोग तर्पण कराते हैं। यहाँ भी तर्पण कराते हैं। श्राद्ध कराते हैं।  यह अनुष्ठान की भूमि है।  

हिमालयायूके – CHANDRA SHEKHAR JOSHI- EDITOR

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