28 मार्च17 से नव संवत्सर का आरम्भ- भ्रष्टाचारियों पर भारी है साल

#5 मन्त्रिमण्डल अशुभ ग्रहों के पास# साधारण नामक संवत्सर का राजा मंगल है एंव मन्त्री गुरू# राजा का सलाहकार बहुत ही बुद्धिमान, नेक व ईमानदार होगा जिससे राजा को सही मार्गदर्शन प्राप्त होगा #घपले व भ्रष्टाचार के मामलें प्रकाश में आयेगे # इस संवत्सर में दो चन्द्र ग्रहण  #www.himalayauk.org (HIMALAYA GAURAV UTTRAKHAND# Web & Print Media; 

हिन्दुओं का नया साल चैत्र नव रात्रि के प्रथम दिन यनि गुदी पर हर साल चीनी कैलेंडर के अनुसार प्रथम मास का प्रथम चन्द्र दिवस नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है। विक्रम संवत् का आरम्भ चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा से होता है। प्रतिपदा तिथि की क्षय होने से ग्रन्थ निर्णय सिन्धु के अनुसार 28 मार्च दिन मंगलवार को ही नव संवत्सर का आरम्भ माना जायेगा।

विक्रम संवत् का आरम्भ चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा से होता है। इस दिन प्रातः 8 बजकर 30 मिनट तक अमावस्या है तत्पश्चात अगले सूर्योदय के पूर्व ही प्रतिपदा समाप्त हो रही है। अतः प्रतिपदा तिथि की क्षय होने से ग्रन्थ निर्णय सिन्धु के अनुसार 28 मार्च दिन मंगलवार को ही नव संवत्सर का आरम्भ माना जायेगा।
इस बार विक्रमीय संवत् 2074 का नाम साधारण संवत्सर है। इस संवत्सर का राजा मंगल है और मन्त्री गुरू है। सूर्य ग्रह के पास नीरसेश एंव सस्येश दो पद है। मंगल के पास राजा एंव रसेश के दो महत्पूर्ण विभाग है। शुक्र के पास धान्येश एंव शनि के पास धनेश विभाग है। बुध के पास मेघेश, फलेश एंव दुर्गेश तीन विभाग है। अतः आकाशीय मन्त्रि मण्डिल 5 मन्त्रि मण्डल शुभ ग्रहों के पास है और पॉच मन्त्रिमण्डल अशुभ ग्रहों के पास है।
साधारण नामक संवत्सर का राजा मंगल है एंव मन्त्री गुरू। मंगल के अन्दर अग्नि कारक, विस्फोटक, साहसी, उर्जावान आदि गुण होते है। गुरू सत्व प्रधान है, राजनीतिक व शिक्षा का कारक भी है। अतः राजा का सलाहकार बहुत ही बुद्धिमान, नेक व ईमानदार होगा जिससे राजा को सही मार्गदर्शन प्राप्त होगा। राजा मंगल होने के फलस्वरूप भ्रष्टाचार पर अपेक्षित अंकुश लगेगा।
पड़ोसी राज्यों से मधुर सम्बन्ध स्थापित करने का पूरा लगभग निष्फल ही रहेगा। राजा देश व राज्य के हित के लिए कठोर निर्णय लेने में लेश मात्र भी संकोच नहीं करेगा। राजा के कार्यो की जनता भूरि-भूरि प्रशंसा करेगी। आर्थिक विकास की दर बेहतर होगी, आतंकवादी प्रयास निष्फल होगें। अतीत में किये गये विभिन्न प्रकार के घपले व भ्रष्टाचार के मामलें प्रकाश में आयेगी। दोषियों व अपराधियों को कठोर-कठोर से सजा मिलेगी। मन्त्री गुरू होने के कारण संसद व विधान सभाओं में तनावपूर्ण स्थिति होने के बावजूद भी राजा के सलाहकार राजा को ऐसी सलाह देंगे जिससे सत्ता पक्ष व विपक्ष में विवाद की स्थिति कम रहेगी। आर्थिक उन्नति के लिए विशेष योजनाओं की शुरूआत होगी। इस संवत्सर में दो चन्द्र ग्रहण पड़ रहे है। इन दोनों ग्रहणों का धार्मिक महत्व है किन्तु इन ग्रहणों के कारण दैवीय अपदाओं में वृद्धि के साथ-साथ समाज के मानवीय मूल्यों का हनन भी हो सकता है। संवत्सर का मन्त्रिपरिषद सुगठित व वैचारिक दृष्टि से एकमत वाला बना रहेगा। इस प्रकार अच्छी वर्षा होगी, उत्तम कृषि होगी एंव जनता सुख शान्ति से युक्त होकर अपना जीवन व्यतीत करेगी। न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए कुछ कठोर कद्द उठाये जा सकते है।

नव वर्ष अलग-अलग तिथियों को
भारत के विभिन्न हिस्सों में नव वर्ष अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। प्रायः ये तिथि मार्च और अप्रैल के महीने में पड़ती है। पंजाब में नया साल बैशाखी नाम से १३ अप्रैल को मनाई जाती है। सिख नानकशाही कैलंडर के अनुसार १४ मार्च होला मोहल्ला नया साल होता है। इसी तिथि के आसपास बंगाली तथा तमिळ नव वर्ष भी आता है। तेलगु नया साल मार्च-अप्रैल के बीच आता है। आंध्रप्रदेश में इसे उगादी (युगादि=युग+आदि का अपभ्रंश) के रूप में मनाते हैं। यह चैत्र महीने का पहला दिन होता है। तमिल नया साल विशु १३ या १४ अप्रैल को तमिलनाडु और केरल में मनाया जाता है। तमिलनाडु में पोंगल १५ जनवरी को नए साल के रूप में आधिकारिक तौर पर भी मनाया जाता है। कश्मीरी कैलेंडर नवरेह १९ मार्च को होता है। महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के रूप में मार्च-अप्रैल के महीने में मनाया जाता है, कन्नड नया वर्ष उगाडी कर्नाटक के लोग चैत्र माह के पहले दिन को मनाते हैं, सिंधी उत्सव चेटी चंड, उगाड़ी और गुड़ी पड़वा एक ही दिन मनाया जाता है। मदुरै में चित्रैय महीने में चित्रैय तिरूविजा नए साल के रूप में मनाया जाता है। मारवाड़ी नया साल दीपावली के दिन होता है। गुजराती नया साल दीपावली के दूसरे दिन होता है जो अक्टूबर या नवंबर में आती है। बंगाली नया साल पोहेला बैसाखी १४ या १५ अप्रैल को आता है। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में इसी दिन नया साल होता है।[
संवत्‌, दरअसल काल या समय को गिनने या मापने का वो भारतीय पैमाना है, जिसे भारतीय कैलेंडर भी कहा जा सकता है. जम्बूद्वीप यानि भारतीय उपमहाद्वीप में यूं तो कई संवत्‌ प्रचलन में हैं, हैं पर आज के दौर में अनेक सम्वतों में दो संवत्‌ अधिक प्रख्यात हैं, पहला, विक्रम संवत्‌, दूसरा शक संवत्‌.
विक्रम संवत्‌ ईसा से लगभग पौने 58 वर्ष पहले वजूद में आया. काल गणना की यह पद्धति गर्दभिल्ल के पुत्र सम्राट विक्रमादित्य, जिन्होंने मालवों का नेतृत्व कर विदेशी ‘शकों’ को धूल धुसरित किया था, के प्रयास से अस्तित्व में आई. बृहत्संहिता की व्याख्या करते हुए 966 ईसवी में ‘उत्पल’ ने लिखा कि शक साम्राज्य को जब सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने पराभूत कर दिया, तब नया संवत अस्तित्व में आया, जिसे आज विक्रम संवत कहा जाता है.
विदेशी शकों को उखाड़ फेंकने के बाद तब के प्रचलित शक संवत के स्थान पर विदेशियों और आक्रांताओं पर विजय स्तंभ के रूप में विक्रम संवत स्थापित हुआ. आरम्भ में इस संवत्‌ को कृत संवत के नाम से जाना गया. कालांतर में यह मालव संवत के रूप में भी प्रख्यात हुआ. बाद में जब विक्रमादित्य राष्ट्र प्रेम प्रतीक चिन्ह के रूप में स्थापित हुए, तब मालव संवत खामोशी से, कई सुधारों को अंगीकार करते हुए, विक्रम संवत्‌ के रूप में तब्दील हो गया. पर शकों का शक संवत्‌ अब तक भारत में प्रचलित है. महाकवि कालिदास इन्ही सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्न थे.
द्वादश माह के वर्ष एवं सात दिन के सप्ताह का आगाज विक्रम संवत से ही आरम्भ हुआ. विक्रम संवत में दिन, सप्ताह और मास की गणना सूर्य व चंद्रमा की गति पर निश्चित की गई. यह काल गणना अंग्रेजी कैलेंडर से बहुत आधुनिक और विकसित प्रतीत होती है. इसमें सूर्य, चंद्रमा के साथ अन्य ग्रहों को तो जोड़ा ही गया, साथ ही आकाशगंगा के तारों के समूहों को भी शामिल किया गया, जिन्हें नक्षत्र कहा जाता है. एक नक्षत्र चार तारा समूहों के मेल से निर्मित होता है, जिन्हें नक्षत्रों के चरण के रूप में जाना जाता है.
कुल नक्षत्र की संख्या सत्ताईस मानी गयी है, जिसमें अट्ठाईसवें नक्षत्र अभिजीत को शुमार नहीं किया गया. सवा दो नक्षत्रों के समूहों को एक राशि माना गया. इस प्रकार कुल बारह राशियां वजूद में आईं, जिन्हें बारह सौर महीनों में शामिल किया गया. पूर्णिमा पर चंद्रमा जिस नक्षत्र में गतिशील होता है, उसके अनुसार महीनों का विभाजन और नामकरण हुआ है. सूर्य जब नई राशि में प्रविष्ट होता है वह दिवस संक्रांति कहलाता है. पर चूंकि चंद्रवर्ष सूर्यवर्ष यानि सौर वर्ष से ग्यारह दिवस, तीन घाटी, और अड़तालीस पल कम है, इसीलिए हर तीन साल में एक एक मास का योग कर दिया जाता है, जिसे बोलचाल में अधिक माह, मल मास या पुरूषोत्तम माह कहा जाता है.
राष्ट्रीय शाके अथवा शक संवत भारत की बेहद प्रचलित काल निर्णय पद्धति है. शक संवत्‌ का आरम्भ यूं तो ईसा से लगभग अठहत्तर वर्ष पहले हुआ, पर इसका अस्पष्ट स्वरूप ईसा के पांच साल पहले से ही मिलने लगा था. वराहमिहिर ने इसे शक-काल और कहीं कहीं शक-भूपकाल कहा है. शुरुआती कालखंड में लगभग समस्त ज्योतिषिय गणना और ज्योतिषिय ग्रंथों में शक संवत ही प्रयुक्त होता था.
शक संवत्‌ के बारे में धारणा ये है कि यह उज्जयिनी सम्राट ‘चेष्टन’ के अथक प्रयास से प्रकट हुआ. इसके मूल में सम्राट कनिष्क की भी महती भूमिका मानी जाती है. शक संवत को ‘शालिवाहन’ भी कहा जाता है. पर शक संवत के शालिवाहन नाम का उल्लेख तेरहवीं से चौदहवीं सदी के शिलालेखों में मिलता है. कहीं कहीं इसे सातवाहन भी कहा गया है. संभावना है कि सातवाहन नाम पहले साल वाहन या शाल वाहन बना और कालांतर में ये ‘शालिवाहन’ के स्वरूप में प्रख्यात हुआ. शक संवत के साल का आगाज चन्द्र सौर गणना के लिए चैत्र माह से और सौर गणना के लिए मेष राशि से होता है.
इनके अलावा एक और संवत्सर प्रचलित है, जिसे लौकिक संवत कहा जाता है. इसे सप्तर्षि संवत भी कहते हैं, जो उत्तर में विशेष रूप से कश्मीर और उसके आसपास के क्षेत्रों में प्रसिद्ध है. इसे शक संवत से भी अधिक प्राचीन माना गया है. बौद्ध धर्म के विस्तार से पूर्व इस संवत्सर के विस्तारसूत्र चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया और उससे आगे तक नजर आते हैं.
बृहत्संहिता के अनुसार सप्तर्षि एक नक्षत्र में शतवर्षों तक यानि सौ साल तक रहते हैं. मान्यताओं के अनुसार युधिष्ठर के शासन काल में भिनसप्तर्षि संवत्सर अस्तित्व में था. सप्तर्षि संवत दरअसल मेष राशि से प्रारम्भ होकर, सौ वर्षों के वृत्तों में गणना की विधि थी, है. मध्य काल में अन्य बहुत से संवत् वजूद में थे. जैसे गुप्त, कोल्लम या परशुराम, हर्ष, वर्धमान, चेदि, बुद्ध-निर्वाण और लक्ष्मणसेन. वक्तच के थपेड़ों में गुम होने से पहले ये सारे संवत अपने काल में आज के अंग्रेजी कैलेंडर और विक्रम या शक संवत से कहीं बहुत ज्याआदा प्रख्यात, असरदार और प्रभावी माने जाते थे.

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