यदि साधक कामना व वासनारहित हो जाय तो – महायोग साधना पीठ

यदि साधक कामना व वासनारहित हो जाय तो

महायोग साधना पीठ

Maha Yog Sadhna Peeth is a page for spiritual activity such as Hatha yoga, Raj yoga, Gyan yoga, Tantra,Mantra, yantra And naturopathic analysis.

जब शरीर पूर्ण स्वस्थ रहता है तथा उसमें प्राण की गति समान (ध्यान व समाधि की अवस्था में) रहती है तो उसमें ग्रहण व प्रसारण की क्रिया तेज हो जाती है। इस दौरान अवचेतन मन अदृश्य लोगों की तथा अदृश्य प्राणियों के विचारों व इच्छाएं को ग्रहण कर सकता है साथ ही अपने भावनाओं व विचारों को प्रसारित कर सकता है। परमशान्ति प्राप्ति का मार्ग :
मृत्युलोक कामनाओं और वासनाओं का लोक होता है। इन कामनाओं व वासनाओं की पूर्ति के लिए दो प्रकार के प्रयास मानव यहाँ करता है। 
(क) : मृत्युलोक का मानव बाह्य शक्ति को अर्जन व उसकी निरन्तर बढ़ोत्तरी के लिए प्रयासरत रहता है। इसप्रकार एक अवस्था ऐसी आती है कि वह पूर्णतया भौतिकवाद को समर्पित हो जाता है। समस्त प्रकार के वैभव होने के बावजूद उसे अपने जीवन में सूनापन, खालीपन व अधूरापन महसूस होता है और वह झंझावतों मेंविक्षिप्तावस्था या मूढ़ावस्था में रहते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाती है ।
सम्पूर्ण जनसंख्या का एक भाग उस सूनापन, खालीपन व अधूरापन को भरने की खोज में तथाकथित पोप, मौलवियों, धर्माचार्यों, गुरुओं, बहुरुपियों व कलाकारों के फेर में फंस जाते हैं। इसप्रकार वे जाने अंजाने में एक वायरस की चपेट में आ जाते हैं तथा जीवनभर उसी को समर्पित होकर रह जाते हैं। इन बेचारों को जीवन पर्याप्त यह भी ज्ञात नहीं होता है कि उनका खेवनहार भी उन्हीं की समस्या से ग्रस्त है।

(ख) : कुछ ऐसे भी होते हैं जो उपरोक्त की पूर्ति के लिए अंतःकरण की साधना करके शक्ति अर्जन करना चाहते हैं अतः वे उस शक्ति के ध्यौतक महाकाल, महाकाली, हनुमान आदि की साधना करते हैं। ऐसे साधक मामूली सी उपलब्धि होने पर अहंकार ग्रस्त हो जाते हैं। ऐसे में वे अधोगति को ही प्राप्त होते हैं । 
यदि साधक कामना व वासनारहित हो जाय तो वह परमात्मा का अनुग्रह अर्थात परमशान्ति को अनायास ही पा लेता है। हमारे आँखों पर भौतिकवाद के मोटे पर्दे पड़े होेने के कारण हम सन्त, महात्मा, योगियों आदि को पहचान तक नहीं पाते हैं और जाने अन्जाने में उनका अपमान करते रहते हैं । इससे हम स्वयं को श्रापित करते रहते हैं।

जीवन में जो भी न्यूनता है वह हमारे प्रारब्ध कर्म व वर्तमान कार्यों के फलस्वरूप है। इस न्यूनता को दूर करने के लिए आदि युग में दो साधना पद्धतियों का विकास हुआ, यथा- सौम्य साधना पद्धति व तन्त्र साधना पद्धति।
सौम्य साधना पद्धति : इसमें हठयोग को छोड़कर शेष योग, आयुर्वेद, कर्मकाण्ड़, सूर्य विग्यान, नक्षत्र विग्यान व शून्य विग्यान आते हैं ।
तन्त्र साधना पद्धति : जीवन की पूर्णता के लिए उपरोक्त के साथ तन्त्र साधना (मन्त्र, यन्त्र व क्रिया) को अपनाना अनिवार्य है। इसके बिना पुनरागमन जारी रहता है।
आप समस्त पुराने (prebirth) साधकों का यहाँ स्वागत है।

वीभत्स (घोर) तन्त्र साधना :
विभत्स साधना पद्धति का मूल प्रकृति के रहस्यों को समझना व उसके नियमों के विरूद्ध आचरण करना है। वे इस घोर साधना पद्धति से नियम विरूद्ध जाकर हजारों वर्ष युवा रहकर सतत साधना में रहते हैं।

ये साधक सामान्य समाज को स्वयं से दूर रखने के लिए अपनी वेशभूषा, वाणी व क्रियाएँ भी विभत्स कर लेते हैं । यह इसलिए होता है ताकि ये कम से कम लोगाें के सम्पर्क में आएँ जिससे कि इनकी साधना में विघ्न न पडे़। ये आश्चर्यजनक तरीके से विकट प्रयोग कर सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं।
यद्यपि ये अत्याधिक क्रूर व अत्याधिक दयालु भी होते हैं।

वीभत्स (घोर) तन्त्र साधना पद्धति : 
सौम्य तन्त्र पद्धति के बाह्य याग में भी बाह्य पञ्चमकार सर्वथा वर्जित हैं। बाह्या पञ्चमकार-मद्य व मांस, मछली को तो देखना भी वर्जित हैं ।

जीव स्वभाव से ही रोमांच को पसन्द करता है अतः सौम्य साधना से प्राप्त अनुभूति को साधक रोमांचकारी बनाकर अन्य साधकों को व जनसामान्य को प्रभावित करने का प्रयास करता है, यह ही वह अवस्था होती है जो तन्त्र की दिव्यता को भय और शंका में परिवर्तित कर देती है। मुझे लगता है कि इस अवस्था से बचना असम्भव है।
विभत्स साधना पद्धति का मूल प्रकृति के रहस्यों को समझना व उसके नियमों के विरूद्ध आचरण करना है। वे इस घोर साधना पद्धति से नियम विरूद्ध जाकर हजारों वर्ष युवा रहकर सतत साधना में रहते हैं। वे इसी पृथ्वी इसप्रकार के मठों का निर्माण करते हैं जहाँ योग्य के सिवाय कोई प्रवेश न पा सके। यहाँतक कि जनसामान्य उन मठों को देख तक न सकें।

कौलाचार्य डाॅ0 अनूप योगी, हरिद्वार।

#पराप्रासाद मन्त्र :
कौलाचार में सादी व हादी की युति वाले पराप्रासाद मन्त्र की साधना ऊर्ध्व वक्त्र (ऊर्ध्व मन्नान) की साधना होती है। इस साधना के लिए योग्य साधक को गुरू स्वयं चुनते हैं अर्थात वही साधक इसका सिद्ध बनता है जिसने अपने पूर्व जन्मों में कठोर तप कर इसके लिए योग्यता प्राप्त कर ली होती है। अति गोपनीय साधना में साधक ऐसे क्रियात्मक मन्त्र का सिद्ध बनता है जिससे पुनरागमन नहीं होता है।

सिद्ध साधक शिवत्व को प्राप्त होने लगता है। उसके कर्म बन्धन ऊभर कर आते हैं और फिर पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं अर्थात जन्म जन्मान्तरों के संस्कार एक बार प्रगट होकर नष्ट हो जाते हैं।

ऐसे साधक का जीवन कष्ट वाली मस्ती में व्यतीत होता है। नितान्त भौतिकवादियों के लिए ऐसा साधक सदैव एक रहस्य व कौतुक का विषय होता है अतः वे स्वयं साधक से दूरी बनाकर रहते हैं।

 तन्त्र साधना पद्धति : 
जीवन की पूर्णता के लिए तन्त्र साधना (मन्त्र, यन्त्र व क्रिया) को अपनाना अनिवार्य है। इसके बिना पुनरागमन जारी रहता है। इस साधना पद्धति में सौम्य अर्थात अघोर व वीभत्स अर्थात घोर दो भाग हैं ।
सौम्य तन्त्र साधना पद्धति : साधक को हठयोग की समाधि (जड़ समाधि) के बाद चेतन समाधि की ओर बढ़ना होता है। जो योग साधक चेतन समाधि को प्राप्त हो जाते हैं उन्हें ही तन्त्र की सही उपलब्धि होती है। शेष 99% साधक बाह्य याग को तन्त्र नाम से पुकार कर जीविकोर्पाजन के लिए एक कलाकार की तरह अनेक प्रकार से प्रयासरत रहते हैं ।
इनके विशेष क्रियाकलाप, वार्तालाप व वेशभूषा के कारण ही तन्त्र को लेकर अनेक अवधारणाएं समाज में व्याप्त हो गई हैं । रहस्यमय होने के कारण इसके प्रति समाज में कौतुक भी है। समझने की बात यह है कि कलाकारी व यथार्त में व्यापक अन्तर होता है!!!!
जब साधक चेतन समाधि की अवस्था में होता है तो एेसी अवस्था में चलने वाला उत्कीलित मन्त्र या सिद्ध गुरू द्वारा प्रदत मन्त्र कुण्डली रूपी यन्त्र से टकराता है इससे जो क्रिया संचालित होती है वह अनेकों परिणाम देती है। यही क्रिया साधक बाह्य याग में भी करता है। 
सौम्य तन्त्र पद्धति में किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं होता है लेकिन जो आपको रूचिकर न लगे उसका उपयोग सर्वथा वर्जित है। इसप्रकार बाह्य याग में भी बाह्य पञ्चमकार सर्वथा वर्जित हैं।

कौलाचार्य डॉ० अनूप योगी, हरिद्वार ।

अनुभूत सत्य 13 :
यह चराचर चार आयामों में विभाजित है। गुरू कृपा से चारों आयामों में साधक साधना की परिपक्वता के साथ प्रवेश पा सकता है। गुरू चाहे तो साधक उन आयामों का प्रत्यक्ष कर लेता है अन्यथा वह उन्हें महसूस करे बिना भी पूरा आध्यात्मिक जीवन व्यतीत कर सकता है। अतः यह गूढ़ रहस्य अधिकतम समाज के लिए रहस्य ही है।

प्रथम आयाम : यह स्थूल दृश्यमान चराचर प्रथम आयाम है। इसमें पञ्च भौतिक तत्वों की स्थूल देह को आधार बना कर समस्त क्रियाकलाप किए जाते हैं। जीवन भर सबकुछ स्थूल देह के चारों ओर चलता रहता है।

द्वितीय आयाम : हठयोग की गहराई में उतरने के बाद आपके सामने पराजगत खुलने लगता है और सबसे पहले प्रेतों के दर्शन होने लगते हैं। सूक्ष्म परमाणुओं से निर्मित इस आयाम लाखों रहस्य छिपे हैं। जिनसे साधकों को दो चार होना ही पड़ता है। यहाँ बिना गुरू के प्रवेश पाने का अभिप्राय है लम्बे समय के लिए वहीं फंस जाना अथवा विक्षिप्त अवस्था में चले जाना। ऐसे अनेक विक्षिप्तों को मैंने ठीक किया है।

तृतीय आयाम : जो साधक दूसरे आयाम को गुरू कृपा से भेद लेते हैं, उन्हें तृतीय आयाम में प्रवेश मिलता है। इसमें अनेक अत्याधिक गुप्त केन्द्र होते हैं । साधक विशेष पहले से प्राकृत रूप से अपने लिए निर्धारित केन्द्र में ही प्रवेश पा सकता है। यहाँ देव, देवों जैसे शक्ति सम्पन्न या उनसे भी अधिक तेज वाले साधक साधनारत रहते हैं।

चतुर्थ आयाम : सप्त अमरों का मूलस्थान, आराध्य देवों का स्थान, ब्रह्मर्षि का स्थान यही है। यहाँ के अक्स गुरू या अक्स देव अपने शिष्यों को दर्शन व शिक्षा देते हैं। कभी कभार सहायता भी कर देते हैं। तृतीय व चतुर्थ आयाम में आपके सूक्ष्म शरीर को प्रवेश गुरू के साथ ही संभव है।

कौलाचार्य डाॅ0 अनूप योगी।

12. विज्ञान की पहुंच सूक्ष्म शरीर तक हो गई है जिसे वह quantum theory के रूप में व्यक्त करता है। इस theory से हठयोग शास्त्र के प्राणायाम का प्रारम्भ होता है। षट्कर्म, मुद्रा व आसन हठयोग में तैयारी मात्र हैं।

हठयोग शास्त्र प्राण को शरीर में व्याप्त करने के लिए 72000 नस नाड़ियों चर्चा करता है जो कि अक्षरसः सत्य है। इन प्राणवाहक नाड़ियों को अभी विज्ञान किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं कर सका है अतः जो साधक साधना की गहनतम अवस्था में इस नाड़ी जाल को देखने में सक्षम होता है वही हठयोगी है शेष सभी aerobic activitist, isometric activitist, acrobitic activitist or gymnastic activitist होते हैं। इन्हें योगी कहना योग के साथ सरासर बलात्कार ही है। विश्व भर में योग का चीरहरण करने वाले ऐसे समस्त योगियों से मेरा आग्रह है कि वे सही मायने में हठयोग को अपनाएं। साथ ही मेरा योग साधकों विशेष आग्रह है कि योग की अन्य विधाओं की चर्चा करके समाज को गुमराह करना बन्द करें।

हठयोग की गहराई में उतरने के बाद आपके सामने पराजगत खुलने लगता है और सबसे पहले प्रेतों के दर्शन होने लगते हैं। यदि आप तैयार नहीं हैं तो वे आप पर नियन्त्रण कर सकते हैं अतः प्रेतों से निपटने के लिए गुरू गोरक्षनाथ ने नाथ सम्प्रदाय के अन्तर्गत साबर मन्त्रावली का प्रचलन प्रारम्भ किया। इस प्रकार विश्वभर में समस्त धर्मों (पन्थों) में साबर मन्त्रावली ने अपनी गहरी पैठ बना ली है।

कौलाचार्य डाॅ0 अनूप योगी।

11. योग साधना के नाम पर अनेक नामों की दुकानें विश्वभर में सजी हुई हैं। मजे की बात यह है कि मेरे अब तक के जीवन में एक भी योगी ऐसा नहीं मिला जो मेरे साथ योग की चर्चा ही कर पाया हो, मुझे सन्तुष्ट करना तो दूर की बात है।

गुरू गोरक्षनाथ ने हठयोग में जिस प्राणायाम का वर्णन किया है उस तक पहुंच बनाने की क्रिया को श्वासायाम कहना चाहिए श्वासायाम का अच्छा अभ्यास हो जाने पर उत्तम प्राणायाम ( प्राण का आकुञ्चन) स्वतः होने लगता है और साधक पूरा दिन प्राणायाम करने योग्य हो जाता है। एक बार प्राणायाम की योग्यता आ जाय तो इसके लिए कोई भी स्थित परिस्थिति अनुकूल रहती है।

प्राण तत्व को कच्ची सब्जियों से, अनाजों से, मेवे, फलों से, पानी, मिट्टी से, अग्नि व वायु से भी सोखा जा सकता है। अतः इनका सही उपयोग हमें अधिक प्राण की आपूर्ति करता है और हम जीवनपर्यन्त स्वस्थ रह सकते हैं।

तन्त्र विद्या के ज्ञाता को उच्चस्तरीय प्राण का आकुञ्चन सीखना अनिवार्य है तभी वह प्राण के साथ मन्त्र का प्रयोग करना सीख पाएगा। जो साधक ऐसा करने में सक्षम होगा वह किसी भी वस्तु या तत्व में प्राण ऊर्जा भर सकता है और उसे यन्त्र (देव प्रतिमा आदि) बना सकता है। वह प्राण प्रतिष्ठित वस्तु समाज का हित ही करती है। यही कारण है कि सनातन धर्म में मूर्ति पूजा को आज भी मान्यता है।

कौलाचार्य डाॅ0 अनूप योगी।

10. योग साधना के समस्त अंग एक साथ अभ्यास करने होते हैं। जो लोग स्वयं को योगी कहते हैं उन्हें यह पता ही नहीं चलता है कि किस प्रकार षट्कर्म के साथ आसन, मुद्रा व प्राणायाम करने है। उनको व्यक्ति विशेष कितनी आवृत्ति करे , अधिक करने से क्या क्या हानि हो सकती है।

यह कटु सत्य है कि स्वामी रामदेव जैसे लाखों योगियों ने समाज को रोगी बनाने व समय से पहले शरीर त्याग करने में भरपूर योगदान किया है और यह स्तत जारी है। जिस विषय की गहराई विज्ञान तक नहीं समझ पाता है अर्थात आकाश तत्व, सूक्ष्मशरीर, कारणशरीर, मन आदि, उसे एक अल्पबुद्धि का व्यक्ति स्वयं को योगी घोषित कर समाज में इतराता फिरता है। पहले यह कार्य अनपढ़ व ढ़ौगी साधु सन्यासी वर्ग ही करता था परन्तु अब इसकी मान्यता देश विदेश की सरकारें भी प्रदान कर रही हैं।

अब जब कोई साधक या योगी हठयोग को ही गम्भीरता से नहीं सीख सके तो फिर राजयोग, ज्ञानयोग को समझना सीखना उसके लिए असम्भव सा है। आम समाज ने इन शब्दों (हठयोग, राजयोग, ज्ञानयोग) को हास्यास्पद बना कर रख दिया है।

तन्त्र जैसे गूढ़ विषय के साथ सदियों से साधु सन्त महात्माओं ने और अब आम आदमी ने बलात्कार ही किया है। यह वह सरलतम मार्ग है जिस पर चल कर ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।

अतः बन्धुओं योग तन्त्र ज्योतिष बहस के विषय न होकर योग्य गुरू से सीखने के विषय हैं। अगर आप में चाह है तो अवश्य योग्य गुरू भी मिलेंगे, बस आपको अपनी इच्छा को प्रबल रूप से इस ओर लगाना है।

कौलाचार्य डाॅ0 अनूप योगी।

9. साधना में सिद्धासन सर्वाधिक महत्वपूर्ण आसन है। परन्तु जब साधक समाधि की अवस्था में पहुंचता है तो तन्द्रा अवस्था आने पर या समाधि की स्थिति में उसे तेज झटके लगते हैं शरीर लुढ़कने का भय बना रहता है या वह लुड़क ही जाता है ऐसी स्थिति में पद्मासन सर्वाधिक उपयोगी होता है। यह आसन शरीर को स्थिरता व दृढ़ता प्रदान करता है।

गंगा व यमुना का संयमन करना हठयोग कहलाता है अर्थात श्वांस नियन्त्रित कर सुषुम्णावाही करना ही हठयोग है। कौलाचार में इस क्रिया को मत्स्य भक्षण कहते हैं। जब उपरोक्त क्रिया में साधक मन्त्र चलाने लगता है तो उस अवस्था में शरीर में होने वाले परिवर्तन ही तन्त्र कहलाता है। मन्त्र से अदृश्य नाड़ी तन्त्र सक्रिय हो जाता है और इसमें अनेक दैवीय याग होने लगते हैं।

कौलाचार्य डाॅ0 अनूप योगी।

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8. हमने शिव शक्ति से लेकर 
मन, बुद्धि और आत्मा तक पहुंचने का एकमात्र साधन इस स्थूल देह को समझा । हठयोग शास्त्र योग का स्थूलतम ज्ञान देता है जो तन्त्र के लिए भी नितान्त आवश्यक है। यहाँ तक कि भक्ति मार्ग व कर्मकाण्ड भी इसके बिना अधूरे हैं।

हठयोग में स्थूल पञ्च महाभूतों से शरीर की शुद्धि को षट्कर्म कहा गया है । ध्यानात्मक आसन सिद्धासन आसनों का शिरोमणि है अतः उसकी चर्चा यहाँ करना मैं नितान्त आवश्यक समझता हूँ।

चिकित्सा शास्त्र के अनुसार इस शरीर में करोड़ों नस नाड़ियाँ हैं जो शरीर में रक्त की आवा जाही सुनिश्चित करते हैं। लेकिन प्राण को लेकर चिकित्सा शास्त्र ( physics – quantum theory) तक ही पहुँच पाया है। हठयोग शास्त्र प्राण को शरीर में व्याप्त करने के लिए 72000 नस नाड़ियों चर्चा करता है। जो कि अक्षरसः सत्य है। इन नाड़ियों को अभी विज्ञान देख नहीं पाया है। इन्हीं में से एक नाड़ी सीवनी को सिद्धासन अति सक्रिय कर देता है। अतः सिद्धासन में 30 मिनट बैठने के अभ्यास से शरीर के मल बाहर निकलने लगते हैं और शरीर शुद्ध व निर्मल हो जाता है।

निर्मल शरीर तन्त्र व ध्यान के लिए उपयोगी होता है। इस प्रकार एक वर्ष तक कम से कम एक घण्टे बैठने से स्वतः ध्यान लगने लगता है और साधना गहराने लगती है। 
साधक में कुछ सिद्धियाँ भी दिखने लगती हैं। इसीलिए सिद्धासन सर्वाधिक महत्वपूर्ण आसन है।

कौलाचार्य डाॅ0 अनूप योगी।

7. मन, बुद्धि और आत्मा तक पहुंचने का एकमात्र साधन आपका यह स्थूल देह है। शरीर को लेकर विज्ञान अनेक बारीक जानकारी रखता है।

प्राकृतिक चिकित्सा के अन्तर्गत पञ्च महाभूतों से इस शरीर को निरोगी रखने के अनेक विधाएँ शास्त्रों में उपलब्ध हैं। लेकिन योग की सबसे स्थूल शाखा हठयोग में पञ्च महाभूतों से शरीर की शुद्धि को षट्कर्म कहा गया है ।

आसनों को लेकर मेरा अनुभव कहता है कि आसन तीन प्रकार के होते हैं। व्यायामात्मक, विश्रामात्मक व ध्यानात्मक। 
पातञ्जल योगसूत्र, तन्त्र, ज्ञानयोग, स्वर योग, भक्ति योग व अध्यात्म के अन्य सभी मार्ग ध्यानात्मक आसन को ही आसन कहते हैं जैसे पद्मासन, सिद्धासन, सुखासन, स्वस्तिकासन, समासन, वज्रासन इस श्रेणी में शामिल हैं।

उपरोक्त आसनों में भी सिद्धासन व पद्मासन सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं।

कौलाचार्य डाॅ0 अनूप योगी।

6. पञ्च तन्नमात्राओं से पञ्च महाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) की उत्पत्ति होती है। हठयोग व राजयोग (अष्टाँग योग) में धारणा की साधना मूल रूप से पञ्च महाभूतों की साधना ही है। आज भी कुछ कुछ सिद्ध साधक पञ्च महाभूतों की की सिद्धि का प्रदर्शन करते पाए जाते हैं। 
तन्त्र को विगत्त 5000 वर्षों में भौतिकवाद से जोड़ दिया गया है और प्रत्येक साधना का इच्छुक व्यक्ति तन्त्र से साधना कम और भौतिक सुख सुविधाएं अधिक खोजने लगा है। 
तन्त्र में योग, मन्त्र व यन्त्र का सम्मिलित स्वरूप होता है। जो इस सामुहिक क्रिया को जानता, समझता है तथा उसको साधने का प्रयास करता है वह तान्त्रिक कहलाता है। शेष सभी हठी बच्चे की भाँन्ति स्वयं को मुसीबत में डालते हैं और फिर जीवनभर अनेक समस्याओं से गुजरते हैं,
ऐसा मैंने अनेक योग के हठियों, खड़ेश्वरी, ऊर्ध्व बाहु, टोटके बाजों के साथ होते पाया है।

पञ्च महाभूतों से उत्पन्न पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ व पाँच कर्मेंद्रियाँ ही हमारी स्थूल पहचान है जिसे हम पञ्च महाभूतों की स्थूल पृथ्वी पर शरीर कह कर पुकारते हैं। हमारा, लिड्ग, नाम, जाति, गोत्र, रंग, देश, धर्म, भाषा आदि सबकुछ शरीर के भेद मात्र हैं। मन, बुद्धि और आत्मा तक पहुंचने का एकमात्र साधन आपका यह स्थूल देह है।

कौलाचार्य डाॅ0 अनूप योगी।

5. मन का स्थान :
पञ्च तन्नमात्राओं (रूप, रंग, रस शब्द, स्पर्श) से आच्छादित मन ब्रह्मरन्धर में स्थित ह्दय में वास करता है। 
जो साधक किसी भी एक तन्नमात्रा को साध लेता है वह मन की अनेक चमत्कारी शक्तियों का स्वामी हो जाता है। अतः मन्त्र शक्ति शब्द तन्मात्रा का प्रयोग कर ब्रह्माण्ड में अनेक चमत्कार पैदा करते हैं। 
मन्त्र शक्ति से प्रत्येक प्रकार की दृश्य व अदृश्य शक्तियों को नियन्त्रित किया जा सकता है। उन पर आंशिक रूप से या पूर्णतया वश कर अपने कार्यों में सहयोग लिया जा सकता है।

कौलाचार्य डाॅ0 अनूप योगी।

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4. साधना की गहन अवस्था में मन को देखा जा सकता है। उसकी तीन शक्तियों को प्रत्यक्ष महसूस किया जाता है।
कल्पना शक्ति 
इच्छा शक्ति 
संकल्प शक्ति 
इन्हीं तीन शक्तियों का सहारा लेकर हम अपने अन्दर चमत्कारी शक्तियाँ पैदा कर सकते हैं। 
साधना की गहनतम अवस्था में चित्त जोकि मन का ऊपरी भाग होता है में चलने वाले विचारों को आप साक्षात प्रत्यक्ष कर सकते हैं। 
पातञ्जल योगसूत्र में इन विचारों के बवण्डर को ही निरुद्ध करने को योग कहा है। 
योगश्चचित्तवृतिनिरोधः। 
पातञ्जल योगसूत्र।

कौलाचार्य डाॅ0 अनूप योगी।

3. मन क्या है?

जब इस ब्रह्मांड में कुछ न था न तारे, न सूर्य, न चाँद व न ग्रह ही थे तब जो शक्ति विद्यमान थी उसे प्रकृति या काली कहते हैं। काली 25 तत्वों में से दूसरा तत्व है । 
तो फिर प्रथम तत्व क्या?
प्रथम तत्व को शिव या महाकाल कहते हैं।

प्रकृति या महाकाली का विस्तार इसप्रकार है। आकाश गंगा (ब्रह्माण्ड आदि) व्यष्टि और समष्टि में विभाजित हैं। 
सबसे पहले व्यष्टि समष्टि में महतत्व अर्थात बुद्धि की अनुभूति होती है। बुद्धि के साथ अहंकार स्वतः ही दिखाई देता है। अहंकार ही वह पर्दा है जिसके कारण हम स्वयं को नहीं देख पाते हैं ।

महतत्व से स्थूल मन की अभिव्यक्ति होती है। इसप्रकार मन व्यष्टि समष्टि में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।

जब व्यष्टि मन समष्टि मन से जुड़ता है तो योग या तन्त्र की कोई भी क्रिया साधक सम्पन्न कर सकता है।

कौलाचार्य डाॅ0 अनूप योगी।

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2. योगश्चचित्तवृतिनिरोधः।

चित्त : मन के दो भाग होते हैं निम्नभाग को मन व उच्च भाग को चित्त कहते हैं। सभी प्रकार के विचारों का केन्द्र चित्त होता है।

विचारों में शून्यता लाने पर सबप्रकार की इच्छाओं पर अंकुश लग जाता है। इस अवस्था को योग कहते हैं। 
पातञ्जल योगसूत्र।
यहाँ प्रश्न उठता मन क्या है? 
तो जब इस ब्रह्मांड में कुछ न था न तारे, न सूर्य, न चाँद व न ग्रह ही थे तब जो शक्ति विद्यमान थी उसे प्रकृति या काली कहते हैं। काली 25 तत्वों में से दूसरा तत्व है । 
तो फिर प्रथम तत्व क्या?
प्रथम तत्व को शिव कहते हैं।

कौलाचार्य डाॅ0 अनूप योगी।

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