25 वर्ष -एक युवा, जिसने साधु बनकर दुनिया को असली भारत दिखाया-राष्ट्रीय युवा दिवस पर विशेष

#www.himalayauk.org (Uttrakhand Leading Newsportal & Daily Newspaper) Mail us; himalayauk@gmail.com Mob. 9412932030## Special Report by Chandra Shekhar Joshi- Editor

High Light # स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में एक कायस्थ परिवार में पैदा हुए थे और बचपन से ही सेवक थे।

High Light # 25 वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु से प्रेरित होने के बाद सांसारिक मोह को त्याग कर एक तपस्वी के जीवन को गले लगा लिया था। वही आज आम इन्‍सान भोग विलासपूर्ण लम्‍बा जीवन चाहता है, # विवाह क्यों नहीं करना चाहते?’ क्योंकि मैं ईश्वर को खोज रहा हूं, पत्नी को नहीं.’ नरेंद्र का उत्तर था.

High Light #एक रात वे महर्षि देवेंद्रनाथ के पास भी पहुंचे थे. महर्षि इतना ही कह सके,’युवक तुम्हारी आंखें बता रही हैं कि तुम एक महान योगी बनोगे.’

12 जनवरी 1863 में जन्मे स्वामी जी का नाम नरेंद्र नाथ दत्त था. उनके पिताजी प्रख्यात वकील थे. कॉन्वेंट में पढ़े स्वामी जी बचपन से ही काफ़ी जिज्ञासु थे और उनकी इसी जिज्ञासा ने उन्हें ईश्‍वर को समझने व सनातन धर्म को जानने की दिशा में आगे बढ़ाया. शिकागो में दिया उनका भाषण आज भी सबके बीच प्रसिद्ध है, जहां उन्होंने भारत व सनातन धर्म का इतनी संवेदनशीलता व गहराई से प्रतिनिधित्व किया था कि हम सब आज भी गौरवांवित महसूस करते हैं. स्वामीजी ने ही दुनिया को बताया था कि असली भारत, यहां की संस्कृति और सभ्यता दरअसल क्या है.

राष्ट्रीय युवा दिवस (National Youth Day) 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। 1984 में भारत सरकार ने इस दिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में घोषित किया और 1985 से यह हर साल भारत में 12 जनवरी को मनाया जाता है। भारत सरकार ने कहा कि ‘स्वामी जी का दर्शन और उनके आदर्श और भारतीय युवा के लिए प्रेरणा का एक बड़ा स्रोत हो सकता है। इसी को ध्यान में रखकर सरकार ने राष्ट्रीय युवा दिवस 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन के रूप में मनाये जाने का ऐलान किया।

स्वामी विवेकानंद, अथवा बालक नरेंद्रनाथ दत्त को, उनके माता-पिता ने काशी-स्थित वीरेश्वर महादेव की पूजा कर प्राप्त किया था. नरेंद्र के शैशव का एक दृश्य है कि तीन वर्ष की अवस्था में, वे खेल ही खेल में हाथ में चाकू ले कर, अपने घर के आंगन में उत्पात मचा रहे थे. ‘इसको मार दूं. उसको मार दूं.’ दो-दो नौकरानियां उनको पकड़ने का प्रयत्न कर रही थीं, और पकड़ नहीं पा रही थीं. अंतत: माता, भुवनेश्वरी देवी ने नौकरानियों को असमर्थ मान कर परे हटाया और पुत्र को बांह से पकड़ लिया. स्नानागार में ले जा कर उसके सिर पर लोटे से जल डाला और उच्चारण किया,’शिव.. शिव.’ बालक शांत हो गया. उत्पात का शमन हो गया. उस समय तक वे विचारक नहीं थे, साधक नहीं थे, संत नहीं थे, किंतु वे वीरेश्वर महादेव के भेजे हुए, आये थे. उस समय ही नहीं, आजीवन ही वे जब-तब आकाश की ओर देखते थे और उनके मुख से उच्चरित होता था,’शिव.. शिव.’ परिणामत: उनका मन शांत हो जाता था. पेरिस की सड़कों पर घूमते हुए, भीड़ और पाश्चात्य संस्कृति की भयावहता से परेशान हो जाते थे, तो जेब से शीशी निकाल कर गंगा जल की कुछ बूंदें पी लेते थे. उससे वे हिमालय की शांति और हहराती गंगा के प्रवाह का अनुभव करते थे. स्वामी विवेकानंद की मान्यता थी कि ज्ञान बाहर से नहीं आता. ज्ञान हमारे भीतर ही होता है. आजीवन उसी सुप्त ज्ञान का विकास होता है. इस प्रकार जन्म के समय नवजात शिशु के भीतर जो संस्कार होते हैं, वे ही उसके भावी व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं.

बालक के शांत हो जाने पर मां भुवनेश्वरी देवी ने मंदिर में जाकर महादेव शिव के सम्मुख माथा टेक दिया, ‘हे प्रभु, तुम से एक पुत्र मांगा था. तुमने मुझे अपना यह कौन सा भूत भेज दिया है.’  नरेंद्र, धर्म और ईश्वर की ओर बढ़ते ही चले गये. सोने से पहले ध्यान करते थे और उन्हें ज्योति-दर्शन होता था. वह उनके लिए इतना स्वाभाविक था कि जिस समय रामकृष्ण परमहंस ने उनसे पूछा कि क्या उन्हें ज्योति-दर्शन होता है? तो नरेंद्र ने चकित होकर पूछा था,’क्या अन्य लोगों को नहीं होता?’ तब तक वे यही मानते आये थे कि सोने से पहले सबको ही ज्योति-दर्शन होता है. वह मनुष्य के जीवन की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है.

स्वामी विवेकानंद महान दार्शनिक (Great Philosopher) थे और उन्होंने भारत के उदय में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आपको बता दें कि उनका बचपन का नाम नरेंद्रनाथ दत्त था और बहुत कम उम्र में उन्होंने वेदों और दर्शन का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। कहा जाता है कि उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाई कोर्ट के वकील थे, जबकि माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। वर्ष 1884 में अपने पिता की मृत्यु के बाद, उन्होंने परिवार की जिम्मेदारी संभाली। यह भी कहा जाता है कि उन्होंने मेहमानों (अतिथि) की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। स्वामी विवेकानंद खुद भूखे रहकर मेहमानों को खाना खिलाते थे और बाहर ठंड में ही सो जाया करते थे। 25 वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु से प्रेरित होने के बाद सांसारिक मोह को त्याग कर एक तपस्वी के जीवन को गले लगा लिया था।

स्वामी विवेकानंद कौन थे और क्यों बने साधु 1. स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में एक कायस्थ परिवार में पैदा हुए थे और बचपन से ही सेवी (सेवक) थे। 2. स्वामी विवेकानंद साल 1871 में आठ साल की उम्र में स्कूल गये थे। उन्होंने साल 1879 में प्रेसीडेंसी कॉलेज की प्रवेश परीक्षा में पहला स्थान हासिल किया था। 3. स्वामी विवेकानंद ने 25 साल की उम्र मेंमें स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु से प्रेरित होने के बाद सांसारिक मोह को त्याग कर एक तपस्वी के जीवन को गले लगा लिया। सेवानिवृत्त होने के बाद, उन्हें विवेकानंद नाम दिया गया था। 4. रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद कलकत्ता में दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में 1881 में मिले थे और परमहंस उनके गुरु थे। 5. जब विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस से मिले, तो उन्होंने वही सवाल किया जो उन्होंने दूसरों से किया था, “क्या आपने भगवान को देखा है? इसके बाद रामकृष्ण परमहंस ने उत्तर दिया कि हां, मैंने देखा है, मैं भगवान को उतना ही स्पष्ट देख रहा हूं जितना मैं तुम्हें देख सकता हूं। फर्क सिर्फ इतना है कि मैं उन्हें आपसे अधिक गहराई से महसूस कर सकता हूं।

. ऐसा कहा जाता है कि 1893 में जब स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका में धर्म संसद में ‘ब्रदर्स एंड सिस्टर्स ऑफ अमेरिका’ के संबोधन में अपना भाषण शुरू किया था तब पूरे अमेरिका ने उन्हें ध्यान से सुना था और धर्म संसद तालियों से गूंज उठा था। 7. स्वामी विवेकानंद ने 1 मई 1897 को कलकत्ता में रामकृष्ण मिशन और 9 दिसंबर 1898 को बेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना गंगा नदी के तट पर की थी। 8. राष्ट्रीय युवा दिवस भारत में हर साल केवल स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन पर मनाया जाता है। 9. स्वामी विवेकानंद को अस्थमा और शुगर की बीमारी थी और उन्होंने यह भी कहा था कि ये बीमारियां मुझे 40 साल भी पार नहीं करने देंगी। आपको बता दें कि उनकी मृत्यु के बारे में उनकी भविष्यवाणी सही साबित हुई थी। 4 जुलाई 1902 को 39 साल की उम्र में निधन हो गया था। 10. बेलूर में गंगा के किनारे स्वामी विवेकानंद का अंतिम संस्कार किया गया था।

वे ब्रह्म-समाज में जाते थे. भजन-कीर्तन करते थे. ब्रह्म-समाज के नियमों के ही अनुसार, मूर्ति-पूजा में उनका विश्वास नहीं था. संसार के सारे ही माता-पिता चाहते हैं कि उनकी संतानें धार्मिक और ईश्वर-भीरू हों. वे सद्गुणी हों, मंदिर जाएं, पूजा-पाठ करें और सद्गृहस्थ बनें. किंतु नरेंद्र निरंतर धर्म और ईश्वर की ओर बढ़ते जा रहे थे. सद्गृहस्थ बनने के स्थान पर संन्यासी बनने की दिशा में बढ़ रहे थे. कायस्थ परिवार में जन्म ले कर भी उन्होंने ब्रह्म-समाज के प्रभाव में मांसाहार छोड़ रखा था. माता-पिता को लगा कि ऐसे तो पुत्र हाथ से ही निकल जायेगा. हाथ में रखने का एक ही उपाय था कि उसका विवाह कर दिया जाये. किंतु नरेंद्र विवाह के लिए तैयार नहीं थे. बहुत प्रयत्न के पश्चात भी जब माता-पिता सफल नहीं हुए, तो उन्होंने रामचंद्र दत्त नाम के, नरेंद्र के एक मामा से कहा,’तुम्हारी बात वह शायद मान जाये. उसे जरा समझा दो.’

रामचंद्र दत्त ने नरेंद्र को पकड़ लिया,’क्यों रे, विवाह क्यों नहीं करना चाहता? लड़की सांवली है, इसलिए?’ नरेंद्र ने कहा,’यह तो जानता हूं कि घर में मेरे विवाह की चर्चा है, किंतु यह नहीं जानता कि लड़की चुन ली गयी है और वह सांवली है.’ रामचंद्र दत्त ने बताया कि लड़की सांवली है और क्षतिपूर्ति के लिए लड़की के पिता दहेज में दस सहस्र रुपये देने को तैयार हैं. नरेंद्र ने कहा कि न तो उन्हें दहेज चाहिए और न ही उनके विवाह से भागने का कारण, लड़की का सांवलापन है. ‘तो फिर क्या कारण है?’  रामचंद्र दत्त ने पूछा, ‘लड़की अधिक सुंदर चाहिए? अधिक पढ़ी लिखी लड़की चाहिए? तुम अधिक पढ़ना चाहते हो? आइसीएस बनना चाहते हो? अधिक विद्वान बनना चाहते हो?’ नरेंद्र ने जब सब से इनकार किया तो रामचंद्र दत्त ने तंग आकर पूछा,’तो फिर विवाह क्यों नहीं करना चाहते?’

क्योंकि मैं ईश्वर को खोज रहा हूं, पत्नी को नहीं.’ नरेंद्र का उत्तर था.

नरेंद्र सचमुच ईश्वर को खोज रहे थे. यह खोज इतनी प्रबल थी कि उसके सम्मुख संसार कुछ भी नहीं था. हम सब ईश्वर को खोज रहे हैं, किंतु हम में से कोई भी उस सच्चाई से नहीं खोज रहा. ईश्वर को हम मानते तो हैं, किंतु स्वीकार नहीं करते. जहां ईश्वर की चर्चा होती, या नरेंद्र किसी साधु-संत से मिलते, तो उससे एक प्रश्न अवश्य पूछते,’आपने ईश्वर को देखा है?’ एक रात वे महर्षि देवेंद्रनाथ के पास भी पहुंचे थे. महर्षि आधी रात के समय गंगा की मध्य धारा में अपने बजरे में बैठे ध्यान कर रहे थे. नरेंद्र गंगा में तैर कर, गीले कपड़ों में महर्षि के सम्मुख जा खड़े हुए,’आपने ईश्वर को देखा है?’ महर्षि इतना ही कह सके,’युवक तुम्हारी आंखें बता रही हैं कि तुम एक महान योगी बनोगे.’

नरेंद्र मानते थे कि यदि ईश्वर है, तो उसे देखा भी जा सकता है, यदि ईश्वर है, तो उससे बातें भी की जा सकती हैं, यदि ईश्वर है, तो उसके साथ वैसे ही व्यवहार भी किया जा सकता है, जैसे सामान्य लोगों के साथ किया जाता है. केवल यह मान लेना कि ईश्वर है और उसे प्राप्त करने का प्रयत्न न करना, सर्वथा अनुचित है. उनका संकल्प आरंभ से ही अत्यंत दृढ़ था. शैशव में एक बार एक कथावाचक से पूछ लिया था कि हनुमान जी कहां रहते हैं? कथावाचक ने बच्चे को बहलाने के लिए कह दिया कि वे निकट की अमराई में रहते हैं. हनुमान की प्रतीक्षा में नरेंद्र सारी रात अमराई में बैठे रहे. हनुमान नहीं आये. अगले दिन उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा,’बड़े लोग भी झूठ बोलते हैं.’

नरेंद्र उन लोगों में से थे, जिनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता. वे जो कुछ कहते थे, उसे मानते भी थे और उसे करते भी थे. मुङो लगता है कि अध्यात्म के क्षेत्र में गांधी जी और विवेकानंद में बहुत सारी बातें समान थीं. आज भी बहुत सारे लोग पूछ सकते हैं और मेरे मन में भी यह प्रश्न था कि स्वामी विवेकानंद ने इतना कुछ सोचा, कहा और किया, किंतु देश की स्वतंत्रता के विषय में उन्होंने क्या किया? कोई आंदोलन, कोई संवाद, कोई विवाद, कोई उत्पात .. देश की स्वतंत्रता के लिए कुछ किया क्या? कुछ भी तो नहीं किया. वरन राजनीति का विरोध किया. अपने शिष्यों के लिए राजनीति का मार्ग वर्जित कर दिया. जब पूछा गया तो उनका उत्तर था कि जिस दिन तुम अपने चरित्र को उस ऊंचाई पर ले जाओगे, जहां वह था, जब ‘स्वस्थ’ हो जाओगे, स्वयं में स्थित हो जाओगे, आध्यात्मिक रूप से उतने ही सात्विक हो जाओगे, जितने कभी तुम थे, तो फिर किसी का साहस नहीं होगा कि बाहर से आकर इस देश पर शासन कर सके.

स्वामी विवेकानंद के विचार; उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाये. #ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं. वो हम ही हैं जो अपनी आंखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अन्धकार है! # अगर धन दूसरों की भलाई करने में मदद करे, तो इसका कुछ मूल्य है, अन्यथा ये सिर्फ बुराई का एक ढेर है और इससे जितना जल्दी छुटकारा मिल जाये उतना बेहतर है. # उठो मेरे शेरो, इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल हो, तुम एक अमर आत्मा हो, स्वच्छंद जीव हो, धन्य हो, सनातन हो, तुम तत्व नहीं हो, ना ही शरीर हो, तत्व तुम्हारा सेवक है तुम तत्व के सेवक नहीं हो. #खुद को कमज़ोर समझना सबसे बड़ा पाप है. #कभी मत सोचिये कि आत्मा के लिए कुछ असंभव है. ऐसा सोचना सबसे बड़ा विधर्म है. अगर कोई पाप है, तो वो ये कहना कि तुम निर्बल हो या अन्य निर्बल हैं. #उस व्यक्ति ने अमरत्व प्राप्त कर लिया है, जो किसी सांसारिक वस्तु से व्याकुल नहीं होता. एक शब्द में, यह आदर्श है कि तुम परमात्मा हो.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *