30 May: हिन्दी पत्रकारिता की नींव रखी गई- “कीरति भनति भूलि भलि सोई, सुरसरि सम सबकर हित होई”

“३० मई पर के अवसर पर चन्‍द्रशेखर जोशी सम्‍पादक तथा पूर्व सदस्‍य विज्ञापन मान्‍यता कमेटी, सूचना एवं लोक सम्‍पर्क विभाग, उत्‍तराखण्‍ड तथा प्रदेश अध्‍यक्ष भारत के लघु एवं मध्‍यम समाचार पत्र संघ आई एफ एम एस नई  दिल्‍ली ने हिन्‍दी पत्रकारिता दिवस की शुभकामनाये देते हुए कहा कि  गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है- कीरति भनति भूलि भलि सोई, सुरसरि सम सबकर हित होई। उपरोक्त कथन पत्रकारिता की मूल भावना को स्पष्ट करता है । विद्वानों ने पत्रकारिता को शीघ्रता में लिखा गया इतिहास भी कहा है।  इन्द्र विद्या वचस्पति ने पत्रकारिता को ‘पांचवां वेद“ माना। उन्होंने कहा है कि पत्रकारिता पांचवां वेद है, जिसके द्वारा हम ज्ञान-विज्ञान संबंधी बातों को जानकर अपना बंद मस्तिष्क खोलते हैं। पत्रकारिता जन भावना की अभिव्यक्ति, सद्वावों की अनुभूति और नैतिकता की पीठिका है ।   यह हमारे आदर्श वाक्य है। पत्रकारिता जनता और सरकार के बीच, समस्या और  समाधान के बीच, व्यक्ति और समाज के बीच, गांव और शहर की बीच, देश और दुनिया के बीच, उपभोक्ता और बाजार के बीच सेतु का काम करती है। यदि यह अपनी भूमिका सही मायने में निभाए तो हमारे देश की तस्वीर वास्तव में बदल सकती है।

३० मई को हिन्दी का पहला समाचार पत्र “उदंत मार्तंड” &  भारतीय स्वाधीनता संग्राम में समाचार पत्रों की भाषा बारूद का कार्य करती थी & सूचना के अलावा पत्रकारिता ”लोक गुरू“ की भी भूमिका निभाती है

हिंदी पत्रकार राष्ट्रीय आंदोलनों की अग्र पंक्ति में थे और उन्होंने विदेशी सत्ता से डटकर मोर्चा लिया। विदेशी सरकार ने अनेक बार नए-नए कानून बनाकर समाचारपत्रों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया परंतु जेल, जुर्माना और अनेकानेक मानसिक और आर्थिक कठिनाइयाँ झेलते हुए भी हमारे पत्रकारों ने स्वतंत्र विचार की दीपशिखा जलाए रखी।

चन्‍द्रशेखर जोशी ने कहा किपत्रकारिता अभिव्यक्ति की एक मनोरम कला है। इसका काम जनता एवं सत्ता के बीच एक संवाद-सेतु बनाना है, पत्रकारिता हमारे समाज-जीवन में आज एक अनिवार्य अंग के रूप में स्वीकार्य है । उसकी प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता किसी अन्य व्यवसाय से ज्यादा है । शायद इसीलिए इस कार्य को कठिनतम कार्य माना गया । इस कार्य की चुनौती का अहसास प्रख्यात शायर अकबर इलाहाबादी को था, तभी वे लिखते है खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो

चन्‍द्रशेखर जोशी   ने कहा- कि  “३० मई १८२६,मंगलवार का दिन था. उस दिन कलकत्ता की आमडतल्ला गली की एक हवेली से हिन्दी का एक नया इतिहास लिखा जा रहा था। दोपहर में कलकत्ता के कुछ लोगों के हाथ में पुस्तक के आकार में छपा हुआ हिन्दी का एक समाचार पत्र आया. ये हिन्दी का पहला समाचार पत्र था जिसका नाम थाः उदंत मार्तण्ड। “ये बात सन १८२० के दशक की है. उस दौर में कलकत्ता में अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला के कुछ अखबार निकलने लगे थे लेकिन हिन्दी का कोई भी समाचार पत्र नहीं था.ऐसे में युगल किशोर शुक्ल ने अपने रचनात्मक साहस से हिन्दी पत्रकारिता की नींव रखी। ३० मई १८२६ के दिन उदंत मार्तण्ड का पहला अंक कलकत्ता के लोगों के हाथ में पहुंचा।इस पत्र में ब्रज और खडीबोली दोनों के मिश्रित रूप का प्रयोग हुआ। ४ पृष्ठों के इस पहले ही अंक में युगल जी ने लिखा था “यह‘उदंत मार्तंड“ अब पहले-पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेत ः जो आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अंग्रेजी ओ पारसी ओ बंगाल में जो समाचार का कागज छपता है उनका सुख उन बोलियों के जानने और पढनेवालों को ही होता है. इससे सत्य समाचार हिंदुस्तानी लोग देख आप पढ ओ समझ लेयँ ओ पराई अपेक्षा न करें ओ अपने भाषे की उपज न छोडे. इसलिए दयावान करुणा और गुणनि के निधान सब के कल्यान के विषय गवरनर जेनेरेल बहादुर की आयस से ऐसे साहस में चित्त लगाय के एक प्रकार से यह नया ठाट ठाटा…

३० मई हिन्दी पत्रकारिता दिवसः “३० मई १८२६, मंगलवार का दिन था. उस दिन कलकत्ता की आमड तल्ला गली की एक हवेली से हिन्दी का एक नया इतिहास लिखा जा रहा था। दोपहर में कलकत्ता के कुछ लोगों के हाथ में पुस्तक के आकार में छपा हुआ हिन्दी का एक समाचार पत्र आया. ये हिन्दी का पहला समाचार पत्र था। ३० मई १८२६ में “ उदंत मार्तंड” नाम से हिंदी के प्रथम समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह साप्ताहिक पत्र १८२७ तक चला और पैसे की कमी के कारण बंद हो गया। “ये बात सन १८२० के दशक की है। उस दौर में कलकत्ता में अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला के कुछ अखबार निकलने लगे थे लेकिन हिन्दी का कोई भी समाचार पत्र नहीं था। ऐसे में श्री युगल किशोर शुक्ल ने अपने रचनात्मक साहस से हिन्दी पत्रकारिता की नींव रखी। ३० मई १८२६ के दिन उदंत मार्तण्ड का पहला अंक कलकत्ता के लोगों के हाथ में पहुंचा।

इस पत्र में ब्रज और खडीबोली दोनों के मिश्रित रूप का प्रयोग किया जाता था जिसे इस पत्र के संचालक और संपादक युगलकिशोरजी मध्यदेशीय भाषा कहते थे. वो अंग्रेजों का जमाना था. अंग्रेजी समाचार पत्रों को सरकार कई विशेष सुविधाएं देती थी. हिन्दी के समाचार पत्र को ये सुविधाएं मिलना असंभव ही था. युगलजी को सरकार से तो कोई आशा नहीं थी हाँ उन्हें कलकत्ता के धनी-मानी हिन्दी भाषियों से थोडे सहयोग की उम्मीद जरूर थी, मगर ये लोग उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाए. भरसक कोशिशों के बावजूद हिन्दी का ये पहला समाचार पत्र ज्यादा समय तक नहीं चल पाया.

युगल जी ने विदेशी सत्ता से लगभग डेढ साल तक संघर्ष किया. वे उस संघर्ष से तो कभी नहीं घबराए लेकिन सक्षम हिन्दी भाषी समाज की उपेक्षा ने उन्हें जरूर परेशान किया. लंबे संघर्ष और आर्थिक परेशानी के बाद दिसंबर १८२७ में उन्हें उदंत को बंद करना पडा.इसके अंतिम अंक में उन्होंने लिखा

आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अन्त ।

भले ही उदंत उस समय बंद हो गया मगर उसके माध्यम से युगल जी ने पत्रकारिता के प्रति समर्पण, संकल्प और निष्ठा की एक ऐसी इबारत लिखी जो पत्रकारिता के लिए मिसाल बनकर सामने आती है. भले ही उदंत उस समय बंद हो गया मगर उसके माध्यम से युगल जी ने पत्रकारिता के प्रति समर्पण, संकल्प और निष्ठा की एक ऐसी इबारत लिखी जो पत्रकारिता के लिए मिसाल बनकर सामने आती है। १८३० में राममोहन राय ने बडा हिंदी साप्ताहिक ”बंगदूत” का प्रकाशन शुरू किया। वैसे यह बहुभाषीय पत्र था, जो अंग्रेजी, बंगला, हिंदी और फारसी में निकलता था। यह कोलकाता से निकलता था जो अहिंदी क्षेत्र था। इस से पता चलता है कि राममोहन राय हिंदी को कितना महत्व देते थे।     १८३३ में भारत में २० समाचार-पत्र थे, १८५० में २८ हो गए, और १९५३ में ३५ हो गये। इस तरह अखबारों की संख्या तो बढी, पर नाममात्र को ही बढी। बहुत से पत्र जल्द ही बंद हो गये। उन की जगह नये निकले। प्रायः समाचार पत्र कई महीनों से ले कर दो-तीन साल तक जीवित रहे। १८२६ ई. से १८७३ ई. तक को हम हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं। 

चन्‍द्रशेखर जोशी उत्‍तराखण्‍ड प्रदेश अध्‍यक्ष आई0एफ0एस0एम0एन0 ने  कहा- कि  भारतीय स्वाधीनता संग्राम में समाचार पत्रों की भाषा बारूद का कार्य करती थी- सन् १८५७ के विप्लव को भारतीय स्वाधीनता संग्राम का पहला युद्ध माना जाता है। उस समय तक समाचारपत्रों का बडा प्रचार नहीं हुआ था और आज जिस रूप में समाचारपत्र हमें प्राप्त होते हैं, वह बहुत संभव भी नहीं था। भारत में समाचारपत्र निकले थे लेकिन १८३६ में ‘समाचार चन्द्रिका‘ की २५० प्रतियां छपती थीं, ‘समाचार दर्पण‘ की २९८ ‘बंगदूत‘ की ७० से भी कम, ‘पूर्णचन्द्रोदय‘ की १०० और ‘ज्ञानेनेशुन की २००। सन् १८३९ में कलकत्ता में, जो उस समय भारत की राजधानी थी, यूरोपियनों के २६ पत्र निकलते थे, जिनमें ६ दैनिक थे और ९ भारतीय पत्र थे, जिनमें एक ‘संवाद प्रभाकर‘ १४ जून, १८३९ को दैनिक हुआ था। बंगला, हिन्दी, उर्दू और फारसी के जो पत्र कलकत्ता से निकले वे प्रायः सभी साप्ताहिक थे। उसका कारण था, दैनिक पत्रों के लिए सबसे बडा साधन और आवश्यकता तार की होती है। कलकत्ता से आगरा होकर बम्बई और बम्बई से मद्रास तथा आगरा से पेशावर तक की तार की लाइनें १८५५ में ही खोली गयीं। समाचारपत्रों को एक ही दर पर डाक से भेजने की प्रक्रिया १८५७ में शुरू हुई थी। उससे पहले २० वर्षों तक दूरी के हिसाब से डाक-टिकट देना पडता था। समाचारपत्रों को ले जाने लाइनें भी १८५७ में शुरू हुईं, जब २७४ मील की रेलवे लाइनें खोली गयीं। इस प्रकार इस काल से पहले बहुत प्रचार वाले या दैनिक समाचारपत्रों का आविर्भाव संभव नहीं था, फिर भी देश में ऐसे पत्र निकले जिन्होंने राष्ट्रीय चेतना में बडा योगदान दिया। जिनको हम आज देश के बडे-बडे नेता मानते हैं, उन्होंने जनता को नेतृत्व, समाचारपत्रों के माध्यम से ही देना शुरू किया।

१५ नवम्बर, १८५१ को श्री दादाभाई नौराजी ने गुजराती में ‘रास्तगुफ्तार‘ नामक पत्र निकाला था। राजा राममोहन राय का ‘बंगदूत‘ जो एक-साथ बंगला, हिन्दी, फारसी और अंग्रेजी में छपता था, समाज सुधार का पत्र था। और ज्ञानेनेशन भारतीय भाषाओं में शिक्षा की और बंगला भाषा को सरकारी भाषा की मांग करने के लिए प्रसिद्ध था। सन् १८५७ में प्रयामे आजादी के नाम से उर्दू तथा हिन्दी में एक पत्र प्रकाशित हुआ जो अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का प्रचारक था और जिसको जब्त कर लिया गया था। जिस किसी के पास उसकी प्रति पायी जाती थी, उसे राजद्रोह का दोषी माना जाता था और कठोर से कठोर सजा दी जाती थी। सन् १८५७ में ही हिन्दी के प्रथम दैनिक ‘समाचार सुधावर्षण‘ और उर्दू-फारसी के दो समाचारपत्रों ‘दूरबीन‘ और ‘सुलतान-उल-अखबार‘ के विरुद्ध यह मुकदमा चला कि उन्होंने बादशाह बहादुरशाह जफर का एक फरमान छापा जिसमें लोगों से मांग की गयी थी कि अंग्रेजों को भारत से बाहर निकाल दें। इस पत्र के सम्पादक श्री श्यामसुंदर सेन दिन भर की सुनवाई के बाद राजद्रोह के अपराध से मुक्त कर दिये गये और इसके बाद ही लार्ड केनिंग का प्रसिद्ध गैगिंग-एक्ट पारित हुआ, जिसमें समाचारपत्रों पर बहुत बंधन लगाये गये थे।

लार्ड केनिंग ने अपने इस भाषण में यह सूचना दी कि भारतीय जनता के हृदय में इन समाचारपत्रों ने, जो भारतीयों द्वारा छपते थे, सूचना देने के बहाने कितना राजद्रोह लोगों के दिलों में भर दिया। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उनकी यह टिप्पणी भारतीय द्वारा संचालित पत्रों के संबंध में थी, यूरोपियन पत्रों के सिलसिले में नहीं। इस रिपोर्ट के बाद कहने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में, जिसे मुख्यतया सिपाहियों का विद्रोह कहा जाता है या जिसके पीछे नाना साहब, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, अवध की बेगम या बहादुरशाह जफर जैसे राजा-महाराजाओं नवाबों और बादशाहों का असंतोष माना जाता है, भारतीय पत्रकारों से कम प्रभावित नहीं था। ये विचार केवल उत्तर भारत के समाचारपत्रों के बारे में ही नहीं थे, बम्बई के गवर्नर लार्ड एलफिंस्टन ने भी जो बडे उदार माने जाते थे, इनका समर्थन किया था। इसका परिणाम यह हुआ कि श्री द्वारिकानाथ ठाकुर द्वारा संचालित बंगाल हरकारु‘ पत्र का प्रकाशन १९ सितम्बर से लेकर २४ सितम्बर १८५७ तक स्थगित कर दिया गया और उसे प्रकाशित होने का नया लाइसेंस तभी मिला जब उसके सम्पादक ने त्यागपत्र दे दिया। पश्चमोत्तर प्रांत (यू.पी.) के प्रायः सभी उर्दू पत्र बंद हो गये। कुछ हिन्दी पत्र भी काल कवलित हुए।

स्वतंत्रता से पूर्व अंग्रेजी समाचार पत्रों को भारतीय समाचार पत्रों की अपेक्षा ढेर सारी सुविधाये उपलब्ध थीं, वही भारतीय समाचार पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा था।  १८६७ ई. के पंजीकरण अधिनियम का उद्देश्य था, छापाखानों को नियमित करना। अब हर मुद्रित पुस्तक एवं समाचार पत्र के लिए यह आवश्यक कर दिया कि वे उस पर मुद्रक, प्रकाशक एवं मुद्रण स्थान का नाम लिखें। पुस्तक के छपने के बाद एक प्रति निःशुल्क स्थानीय सरकार को देनी होती थी। जो आज तक चली आ रही है।

स्वतंत्रता काल में इलाहाबाद से निकलने वाले समाचार पत्र में संपादकीय लिखने वाले संपादक को १० वर्ष की काला पानी की सजा होती थी। आठ संपादक हुए जिनकों कुल मिलाकर १२५ साल की काला पानी सजा हुई। इसमें देहरादून के नन्दगोपाल चोपडा का नाम भी शामिल है जिनकों अपनी पत्रकारीय कार्य के लिए ३० वर्ष की काला पानी की सजा हुई थी। आजादी के उस पवित्र यज्ञ में देहरादून की आहुति भी शामिल है जो पूरे उत्तराखंड के गर्व का विषय है। 

उत्तराखण्ड में पत्रकारिता की जडें आजादी के आंदोलन के समय ही जम चुकी थीं।

स्वाधीनता आंदोलन में यहां के पत्रकारों और समाचार पत्रों की अहम भूमिका रही। देश की आजादी के बाद भी यहां से निकलने वाले तमाम साप्ताहिक एवं पाक्षिक अखबारों का जनजागरूकता में अहम योगदान रहा। ये साप्ताहिक व पाक्षिक अखबार गांव-गांव की समस्याओं को प्रमुखता से उठाते थे और सरकार की योजनाओं के बारे में जनता को अवगत कराते थे। ८० के दशक में दैनिक समाचार पत्रों ने भी देहरादून से क्षेत्रीय संस्करण निकालने की शुरुआत की। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन में लघु व मध्यम समाचार पत्रों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 

पत्रकारिता का अर्थ

सच कहें तो पत्रकारिता समाज को मार्ग दिखाने, सूचना देने एवं जागरूक बनाने का माध्यम है । ऐसे में उसकी जिम्मेदारी एवं जवाबदेही बढ जाती है । यह सही अर्थों में एक चुनौती भरा काम है।

प्रख्यात लेखक-पत्रका डॉ. अर्जुन तिवारी ने इनसाइक्लोपीडिया आफ ब्रिटेनिका के आधार पर इसकी व्याख्या इस प्रकार की है  पत्रकारिता के लिए ‘जर्नलिज्म“ शब्द व्यवहार में आता है । जो ‘जर्नल“ से निकला है । जिसका शाब्दिक अर्थ है  ”दैनिक“। दिन-प्रतिदिन के क्रियाकलापों, सरकारी बैठकों का विवरण जर्नल में रहता था । १७वीं एवं १८ वीं शताब्दी में पीरियाडिकल के स्थान पर लैटिन शब्द “डियूनरल” और “जर्नल” शब्दों का प्रयोग आरंभ हुआ । २०वीं सदी में गम्भीर समालोचना एवं विद्वतापूर्ण प्रकाशन को इसके अन्तर्गत रखा गया । इस प्रकार समाचारों का संकलन-प्रसारण, विज्ञापन की कला एवं पत्र का व्यावसायिक संगठन पत्रकारिता है । समसामयिक गतिविधियों के संचार से सम्बद्ध सभी साधन चाहे वह रेडियो हो या टेलीविजन, इसी के अन्तर्गत समाहित हैं।

एक अन्य संदर्भ के अनुसार “जर्नलिज्म” शब्द फ्रैंच भाषा के शब्द “जर्नी” से उपजा है । जिसका तात्पर्य है “प्रतिदिन के कार्यों अथवा घटनाओं का विवरण प्रस्तुत करना।” पत्रकारिता मोटे तौर पर प्रतिदिन की घटनाओं का यथातथ्य विवरण पस्तुत करती है। पत्रकारिता वस्तुतः समाचारों के संकलन, चयन, विश्लेषण तथा सम्पेषण की प्रक्रिया है । पत्रकारिता अभिव्यक्ति की एक मनोरम कला है । इसका काम जनता एवं सत्ता के बीच एक संवाद-सेतु बनाना भी है। इन अर्थों में पत्रकारिता के फलित एव प्रभाव बहुत व्यापक है ।

पत्रकारिता का मूल उद्देश्य है सूचना देना, शिक्षित करना तथा मनोरंजन करना । इन तीनों उद्देश्यों में पत्रकारिता का सार-तत्व समाहित है । अपनी बहुमुखी पवृत्तियों के कारण पत्रकारिता व्यक्ति और समाज के जीवन को गहराई से पभावित करती है । पत्रकारिता देश की जनता की भावनाओं एवं चित्तवृत्तियों से साक्षात्कार करती है । सत्य का शोध एवं अन्वेषण पत्रकारिता की पहली शर्त है । इसके सही अर्थ को समझने का पयास करें तो अन्याय के खिलाफ पतिरोध दर्ज करना इसकी महत्वपूर्ण मांग है ।

असहायों को सम्बल, पीडितों को सुख, अज्ञानियों को ज्ञान एवं मदोन्मत्त शासक को सद्बुद्धि देने वाली पत्रकारिता है, जो समाज-सेवा और विश्व बन्धुत्व की स्थापना में सक्षम है । इसीलिए जेम्स मैकडोनल्ड ने इसे एक वरेण्य जीवन-दर्शन के रूप में स्वीकारा है। पत्रकारिता को मैं रणभूमि से भी ज्यादा बडी चीज समझता हूँ । यह कोई पेशा नहीं वरन पेशे से ऊँची कोई चीज है । यह एक जीवन है, जिसे मैंने अपने को स्वेच्छापूर्वक समर्पित किया ।

पत्रकारिता की प्रकृति

सूचना, शिक्षा एवं मनोरंजन प्रदान करने के तीन उद्देश्यों में सम्पूर्ण पत्रकारिता का सार तत्व निहित है । पत्रकारिता व्यक्ति एवं समाज के बीच सतत संवाद का माध्यम है । अपनी बहुमुखी प्रवृत्तियों के चलते पत्रकारिता व्यक्ति एवं समाज को गहराई तक प्रभावित करती है । सत्य के शोध एवं अन्वेषण में पत्रकारिता एक सुखी, सम्पन्न एवं आत्मीय समाज बनाने की पेरणा से भरी-पूरी है । पत्रकारिता का मूल उद्देश्य ही अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध दर्ज करना है । सच्ची पत्रकारिता की प्रकृति व्यवस्था विरोधी होती है । वह साहित्य की भाँति लोक-मंगल एवं जनहित के लिए काम करती है। वह पाठकों में वैचारिक उत्तेजना जगाने का काम करती है। उन्हें रिक्त नहीं चोडती ।  पत्रकारिता की इस प्रकृति को उसके तीन उद्देश्यों में समझा जा सकता है ।

१. सूचना देना

पत्रकारिता दुनिया-जहान में घट रही घटनाओं, बदलावों एवं हलचलों से लोगों को अवगत कराती है । इसके माध्यम से जनता को नित हो रहे परिवर्तनों की जानकारी मिलती रहती है । समाज के प्रत्येक वर्ग की रुचि के के लोगों के समाचार अखबार विविध पृष्ठों पर बिखरे होते हैं, लोग उनसे अपनी मनोनुकूल सूचनाएं पाप्त करते हैं । इसके माध्यम से जनता को सरकारी नीतियों एवं कार्यक्रमों की जानकारी भी मिलती रहती है । एक प्रकार से इससे पत्रकारिता जनहितों की संरक्षिका के रूप में सामने आई है।

२. शिक्षित करना

सूचना के अलावा पत्रकारिता ”लोक गुरू“ की भी भूमिका निभाती है । वह लोगों में तमाम सवालों पर जागरुकता लाने एवं जनमत बनाने का काम भी करती है । पत्रकारिता आम लोगों को उनके परिवेश के प्रति जागरुक बनाती है और उनकी विचार करने की शक्ति का पोषण करती है । पत्रकारों द्वारा तमाम माध्यमों से पहुंचाई गई बात का जनता पर सीधा असर पडता है । इससे पाठक यादर्शक अपनी मनोभूमि तैयार करता है । सम्पादकीय, लेखों, पाठकों के पत्र, परिचर्चाओं, साक्षात्कारों इत्यादि के प्रकाशन के माध्यम से जनता को सामयिक एवं महत्पूर्ण विषयों पर अखबार तथा लोगों की राय से रुपरू कराया जाता है । वैचारिक चेतना में उद्वेलन का काम भी पत्रकारिता बेहतर तरीके से करती नजर आती है । इस प्रकार पत्रकारिता जन शिक्षण का एक साधन है।

३ मनोरंजन करना

समाचार पत्र, रेडियो एवं टीवी ज्ञान एवं सूचनाओं के अलावा मनोरंजन का भी विचार करते हैं । इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पर आ रही विषय वस्तु तो पायः मनोरंजन पधान एवं रोचक होती है। पत्र-पत्रिकाएं भी पाठकों की मांग का विचार कर तमाम मनोरंजक एवं रोचक सामग्री का प्रकाशन करती हैं । मनोरंजक सामग्री स्वाभाविक तौर पर पाठकों को आकृष्ट करती है । इससे उक्त समाचार पत्र-पत्रिका की पठनीयता प्रभावित होती है। मनोरंजन के माध्यम से कई पत्रकार शिक्षा का संदेश भी देते हैं । अलग-अलग पाठक वर्ग का विचार कर भिन्न-भिन्न प्रकार की सामग्री पृष्टों पर दी जाती है, ताकि सभी आयु वर्ग के पाठकों को अखबार अपना लग सके । फीचर लेखों, कार्टून, व्यंग्य चित्रों, सिनेमा, बाल, पर्यावरण, वन्य पशु, रोचक-रोमांचक जानकारियों एवं जनरुचि से जुडे विषयों पर पाठकों की रुचि का विचार कर सामग्री दी जाती है। वस्तुतः पत्रकारिता समाज का दर्पण है। उसमें समाज के प्रत्येक क्षेत्र में चलने वाली गतिविधि का सजीव चित्र उपस्थित होता है । वह घटना, घटना के कारणों एवं उसके भविष्य पर प्रकाश डालती है । वह बताती है कि समाज में परिवर्तन के कारण क्या हैं और उसके फलित क्या होंगे? इस प्रकार पत्रकारिता का फलक बहुत व्यापक होता है।

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