अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल इस्तीफा देने के लिए मजबूर हो सकते हैं

साभार’ नई दिल्ली: भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के खिलाफ लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों का निपटारा जिस तरह से सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ जजों के द्वारा किया गया, उसे लेकर केंद्र सरकार और अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल के बीच गंभीर मतभेद पैदा हो गए हैं. द वायर  को मिली जानकारी के अनुसार अटॉर्नी जनरल ने पिछले सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों को एक खत लिखा, जिसमें पूर्व जूनियर कोर्ट असिस्टेंट द्वारा लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोपों की जांच करने के लिए गठित की गयी विशेष आंतरिक समिति में बाहरी सदस्यों को शामिल करने की पुरजोर सिफारिश की गयी थी.

अटॉर्नी जनरल इस मामले से जुड़ी बेहद विवादास्पद विशेष सुनवाई, जहां सॉालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र की तरफ से भारत के मुख्य न्यायाधीश का बचाव किया था- में मौजूद थे.

इसके बाद उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के सभी जजों को एक खत लिखकर यह कहा कि महिला द्वारा लगाए गए आरोपों की जांच करने के लिए बनाई गई किसी भी समिति में बाहरी सदस्य, बेहतर हो कि वे कोई अवकाश प्राप्त महिला जज हों, को शामिल किया जाना पारदर्शिता और निष्पक्षता के सिद्धांतों को संतुष्ट करने के लिए जरूरी है.

यही बात जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ द्वारा अलग से लिखी गई एक चिट्ठी में भी दोहराई गई थी. अटॉर्नी जनरल द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के सभी जजों को लिखित तौर पर अपनी राय भेजे जाने के बाद केंद्र ने वेणुगोपाल से अपनी असहमति प्रकट की थी.

उन पर यह दबाव भी डाला कि वे इस चिट्ठी को अपनी निजी राय घोषित कर दें और स्पष्ट करें कि इसे केंद्र सरकार की राय न माना जाए. इसके बाद अटॉर्नी जनरल ने एक दूसरी चिट्ठी लिखी, जिसमें कहा गया कि यह उनकी निजी राय है और इसे सरकार का पक्ष न माना जाए.

सूत्र की मानें तो एक ऐसे महत्वपूर्ण विषय पर अटॉनी जनरल और सरकार के बीच इतने गंभीर मतभेद उत्पन्न हो जाने के बाद वेणुगोपाल जल्दी ही एक कानूनविद् और संवैधानिक विशेषज्ञ के बतौर अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए अपने पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर हो सकते हैं.

88 साल के अटॉर्नी जनरल का कानूनी अनुभव सुप्रीम कोर्ट के प्रत्येक जज से 20 साल से भी ज्यादा है. कानूनी पेशे में उन्हें जो सम्मान हासिल है, उसे देखते हुए वेणुगोपाल ने अपने प्रशंसकों को तब जरूर निराश किया था जब चुनावी बॉन्ड की गोपनीयता को लेकर सरकार की तरफ से यह कहा था कि मतदाताओं के लिए राजनीतिक दलों को मिलनेवाले चंदे के स्रोत को जानने की जरूरत नहीं है.

अटॉर्नी जनरल ने उस समय भी अपने पद के अनुकूल काम नहीं किया था, जब उन्होंने द हिंदू द्वारा प्रकाशित रफाल करार से संबंधित दस्तावेजों को ‘चोरी हुआ‘ बताया, लेकिन बाद में उन्होंने स्पष्टीकरण दिया कि ये दस्तावेज फोटोकॉपी कराए गए थे.

ऐसा लगता है कि शायद अटॉर्नी जनरल ने अब कथित यौन उत्पीड़न मामले में अपने लिए लक्ष्मण रेखा खींचने का फैसला कर लिया है. हालांकि इसी मामले में केंद्र सरकार खुद को भारत के मुख्य न्यायाधीश के ‘तारणहार’ के तौर पर पेश करने में लगी है- भले ही इसके लिए निष्पक्षता और उचित प्रक्रिया से ही समझौता क्यों न करना पड़े.

अगर अगले कुछ दिनों में अटॉर्नी जनरल इस्तीफा दे देते हैं, तो इससे इस मामले में केंद्र सरकार के रवैये पर भी सवाल उठेंगे, जिससे देश की सर्वोच्च अदालत की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा.

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